खड़ी बोली काव्य के स्तम्भ पंडित लोचन प्रसाद पाण्डेय


खड़ी बोली के विकास में जिन साहित्य मनीषियों ने अपना सर्वस्व अर्पित किया था, उनके बीच साहित्य वाचस्पति पं. लोचनप्रसाद पांडेय का नाम अत्यंत श्रद्धापूर्वक लिया जाता है। आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने म.प्र. की काव्य प्रवृत्तियां शीर्षक लेख में उनकी महत्ता इन शब्दों में व्यक्त की है- श्री लोचन प्रसाद पाण्डेय और उनके अनुज श्री मुकुटधर पाण्डेय हिन्दी काव्य में उसी प्रकार समादृत हैं, जिस प्रकार उत्तर प्रदेश में मैथिलीशरण गुप्त और उनके छोटे भाई सियारामशरण गुप्त’। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में आधुनिक काल की नई धारा के प्रथम उत्थान में भारतेन्दु, प्रतापनारायण मिश्र, प्रेमधन, ठा. जगमोहन सिंह और अम्बिका प्रसाद व्यास को प्रमुख कवियों के रूप में स्वीकार किया है। नई धारा के द्वितीय उत्थान के कवियों में उन्होंने श्रीधर पाठक, हरिऔध, पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी, मैथिलीशरण गुप्त, पं. रामचरित उपाध्याय, गिरधर शर्मा नवरत्न और लोचनप्रसाद पाण्डेय की गणना की है। द्विवेदी मण्डल के बाहर के कवि थे पूर्ण शंकर सनेही, दीन, रूपनारायण पाण्डेय, रामनरेश त्रिपाठी और कविरत्न। उपर्युक्त कवियों को आधुनिक युग का कर्णधार माना जाना चाहिए। पाण्डेयजी का काव्य मूल्यांकन खड़ी बोली काव्य आंदोलन के संदर्भ में ही करना चाहिए। खड़ी बोली का यह आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का महत्वपूर्ण हिस्सा है।

बीसवीं सदी के प्रथम दशक में खड़ी बोली और ब्रज का संघर्ष जोरों पर था। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने नये विषयों, नई शैली और भाषा योजना द्वारा नवयुग का शंखनाद किया। वे गद्य में तो खड़ी बोली के पक्षपाती थे, परन्तु पद्य रचना में ब्रज माधुरी का मोह छोड़ नहीं सके। एक जगह उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है, चाहने पर भी उनसे खड़ी बोली में सरस कविता नहीं बनती लेकिन भारतेन्दु युग में श्रीधर पाठक ने अंग्रेजी की अनूदित रचनाओं द्वारा काव्य रचना के लिए खड़ी बोली का द्वार खोल दिया। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय, पं. रामचरित उपाध्याय तथा लोचनप्रसाद पाण्डेय ने उन्हीं का अनुगमन किया।

आचार्य द्विवेदी और उनकी शिष्य मण्डली जिस प्रकार खड़ी बोली का प्रबल समर्थक थी, उसी प्रकार पूर्ण, कविरत्न, शंकर, सनेही और दीन ब्रजभाषा के कट्टर समर्थक और खड़ी बोली पद्य रचना के घोर विरोधी थे। पं. लोचनप्रसाद पाण्डेय ने काव्य रचना की शुरूआत ब्रजभाषा से की, लेकिन नवयुग का स्वर पहिचान कर शीघ्र ही उन्होंने खड़ी बोली की अनगढ़ राह ली। इतना ही नहीं उसे अपने श्रम और प्रतिभा से सरस और प्रवाहमयी बनाया, उसे राष्ट्रीय भावनाओं से ओजस्वी किया। विषय वस्तु में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र उनके आदर्श थे और भाषा में श्रीधर पाठक, लेकिन आचार्य विनयमोहन शर्मा के शब्दों में जब कभी लहर आती, वे ब्रजभाषा में उद्गार प्रकट किया करते थे। पाण्डेयजी की सरलता और कोमलता को कविता के लिए अनिवार्य गुण मानते थे। इन्हीं कारणों से उनकी बोली में कहीं – कहीं ब्रज और छत्तीसगढ़ी का माधुर्य मिलता है। पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय ने जिस समय काव्य रचना शुरू की, उस समय छत्तीसगढ़ में साहित्य सृजन के लिए सुंदर वातावरण तैयार हो चुका था। ठाकुर जगमोहन सिंह, आचार्य भानु और माधवराव सप्रे अपने लेखन से छत्तीसगढ़ का मुख पूरे देश में आलोकित कर चुके थे।अनंतराम पाण्डेय और मालिकराम भोगहा भी पर्याप्त यश अर्जित कर चुके थे।

पाण्डेयजी का पारिवारिक वातावरण भी साहित्य के लिए कम उपजाऊ नहीं था। पितामह श्री शालिग्राम पाण्डेय और पिता श्री चिन्तामणि पाण्डेय साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान थे। उनकी घरु पुस्तकालय में संस्कृत, अंग्रेजी, बंगला, उड़िया और हिन्दी की महत्वपूर्ण पुस्तकें उपलब्ध थीं। उनके अग्रज पं. पुरुषोत्तम प्रसाद पाण्डेय पं. अनन्तराम पाण्डेय के सहयोगी थे। बाद में उनके अनुज विद्याधर, बंशीधर, मुरलीधर और मुकुटधर पाण्डेय स्वयं साहित्य सृजन करने लगे, जिससे उनका सम्पूर्ण परिवार साहित्यमय बन गया। पाण्डेयजी के आस – पास का प्राकृतिक वातावरण भी कम आकर्षक नहीं था। एक कविता में उन्होंने अपने आसपास का सरस रेखांकन इन पंक्तियों में किया है-

बहत सरित इक ओर चरण तुअ पलकि पखारत   
इक दिसि सुन्दर ताल धोई  मुख  छबि पर सारत
रम्य पहाड़ी  सुखद, मुकुट सम इक दिसी सोहत  
निज छवि  छटा पसारि, दर्शकन  को मन मोहत

पाण्डेयजी का जन्मस्थान बालपुर महानदी के ऊंचे तटवर्ती प्रदेश में बसा हुआ है। उनकी आर्थिक स्थिति भी मजबूत थी। उनके पिता पांच गांव के मालगुजार थे। उनके पिता पाण्डेयजी को स्वयं कई महत्वपूर्ण साहित्य संस्थानों, उत्सवों से जोड़ने को प्रयत्नशील रहते थे। बचपन में बनारस, कलकत्ता जैसे शहरों में साहित्यिकों के बीच उनके किशोर मन में काव्य के सुंदर संस्कार पड़े।

सन् 1907 की कमला नामक पत्रिका में उनका लेख’ मैं कवि कैसे हुआ’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था, जिसके अनुसार’ एक शाम मैं काम से आराम से अपने धाम में बैठकर मनरूपी घोड़े की लगाम को थाम उसे दौड़ाता, फिराता मोज की हौज में गोता लगाता था, कि मेरी कल्पना दृष्टि में एकाएक कवि की छबि चमक उठी।’

पाण्डेयजी ने अपने युवावस्था में सैकड़ों कवितायें लिखी थी, जो सरस्वती, इन्दु, कमला, आनंद कादम्बिनी, हिन्दी प्रदीप, भारत मित्र, प्रभासुधा श्री शारदा, हितकारिणी, विशाल भारत, माधुरी जैसे प्रायः सभी श्रेष्ठ पत्र पत्रिकाओं में छपती थी। उनके प्रमुख काव्य कृतियों में काफी प्रसिद्ध हुई प्रवासी, नीति कविता, बाल विनोद (1909 के पूर्व प्रकाशित) कविता कुसुम माला (सम्पादित 1910), माधव मंजरी, मेवाड़ गाथा (1914) पद्मपुष्पांजलि (1915), ब विनोद, शोकोच्छवास, सम्राट स्वागत, कृषक बाल सखा आदि। भृर्तहरि शतक, रघुवंश सार संस्कृत से अनुदित, कविता कुसुम, रोगी रोदन और महानदी उड़िया रचनाएं हैं। महानदी खण्ड काव्य पर वामण्डा नरेश राजा सच्चिदानंद त्रिभुवनदेव ने उन्हें सन 1912 में काव्य विनोद की उपाधि से अलंकृत किया था। महानदी अत्यंत सरस व प्रवाहमयी काव्य है और साहित्य में उसका यथेष्ट सम्मान है। उड़िया के अतिरिक्त पाण्डेय जी ने संस्कृत और छत्तीसगढ़ी में भी कवितायें लिखी है। पुष्पांजलि उनकी संस्कृत काव्य है। इसके अतिरिक्त पाण्डेय जी ने अंग्रेजी बंगला और उड़िया के प्रसिद्ध कविताओं का सरल अनुवाद कर खड़ी बोली को मधुर एवं मर्मस्पर्शी बनाया। पाण्डेय जी की पहली पद्य रचना बालकृष्ण भट्ट के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका हिन्दी प्रदीप में सन् 1904 के लगभग प्रकाशित हुई थी, जिसका सम्पादन राय देवीप्रसाद पूर्ण ने किया ” था। पांण्डेय जी शुरू से ही प्रयोगधर्मी साहित्यकार थे। वे अंग्रेजी, बंगला और उड़िया से प्रभावित थे।

इन्हीं कारणों से आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने उन्हें’ पंडित कवि’ कहा है। हिन्दी में’ प्रगीति’ शब्द का प्रथम प्रयोगकर्ता के रूप में पांडेयजी जाने जाते हैं। सन 1909 में उन्होंने कविता कुसुम. माला की विस्तृत भूमिका लिखी थी, जिसमें अंग्रेजी के लिरिक के पर्याय के रूप में प्रगीति का प्रयोग किया था। इसी प्रकार पांडेय जी ने खड़ी बोली में पहली बार’ सॉनेट’ का प्रयोग किया था। शोधार्थियों के लिए वह रचना यहां दी जा रही है –

                                 घर

                                 —-

            जननी जनक  भ्रात भगनी  रहती  जहा

            पुण्य भूमि क्षउसके समान  जग में कहा

            सुखदायिनी वह भूमि शान्ति  की मूल है

            रोग  विनाशिनी  उसकी  पावन  धूल  है

            अमृत तुल्य निज घर का दल फल नीर है   

            महलों से बढ़कर निज  शान्ति  कुटीर  है

            चाहे  नर   सुरपुर   में   करता   वास   है

            तो भी गृह-सुख की उसको अभिलाष है   

            क्या  ऐसा  भी  घृणित  प्रवासी  है कही

            घर की सुधि से पुलिकत होता जो नहीं?

            देवदूत  आ  निज   कुटुम्ब  के  रूप   मे

            शिक्षा  देते  हमको  इस   भव – कूप  मे

            शान्ति, प्रेम, सुख का घर वास स्थान है 

            मर्त्यलोक  में  घर   वैकुण्ठ   समान    है’

इस पद्य के नीचे सम्पादक की यह टिप्पणी छपी हुई है: ‘यह एक चतुर्दशपदी पद्य है, हिन्दी में इस प्रकार के पद्य अब तक नहीं बने हैं। ओड़िया भाषा में ऐसे पद्यों का प्रचार अब बहुत चुका है। बंगाली भाषा में तो ऐसे प्रचार हैं। पर उनमें कुछ भिन्नता होती है। अंग्रेजी में ऐसे पद्य को Sonnet कहते हैं, किन्तु सानेट के तुक Rhyme में विशेषता होती है। हिन्दी में यह प्रयोग उद्योग है। क्रमश : अंग्रेजी के सदृश्य हिन्दी में भी सानेट बनने लगेंगे।’ (आनंद कादम्बिनी, पौष, माघ और फागुन (1964 सन् 1907)

पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय की कविता का विषय क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। उनकी रचनाओं को प्रार्थना परक गीतों, शिक्षा एवं उपदेश – परक पद्य रचनाओं, देश भक्ति से ओत – प्रोत वीर गाथाओं, प्रकृति सौंदर्य के मुक्तकों और मानवीय व्यापारों के अन्तर्गत विवेचित्त किया जा सकता है।

बालिका विनोद और बाल विनोद शिक्षा प्रधान रचनाओं के संग्रह है। नीति कविता उपदेशात्मक कविताओं का संकलन है। इसमें कहीं -कहीं मध्यकालीन भक्तों जैसा समर्पण और आत्मग्लानि की स्वीकारोक्ति का भाव पाया जाता है। एक उदाहरण दर्शनीय है-

कैसे कैसे छिपाके अगनित न किए पाप मैंने महान 
होते ही याद हा हा, निज कृति पर है दुःख होता अपार
आंखों से छूटती है,अविरल फिर तो शोकप्त अश्रुधार

(भारत स्तुति)

प्रवासी पद्य पुष्पांजिल और मेवाड़ गाथा देश भक्ति से अनुस्यूत ओजस्वी रचनाओं के संग्रह है, प्रवासी में ग्राम्य जीवन और गृहस्थ जीवन का मर्मस्पर्शी चित्रण है। प्रवासी में संग्रहीत. एक सानेट हम पूर्व में उद्धृत कर चुके हैं। पद्य पुष्पांजलि की भूमिका राय देवीप्रसाद पूर्ण ने लिखी थी इसमें स्तुतिपरक रचनाएं अधिक हैं। एक स्थल देखिए-

       सजला सफला शुचि शस्य श्यामला तू है

      अबला,  सबला,  सद्धर्म  निश्चला  तू   है

      तू  अन्नपूर्णा,  अन्न  शाक  का   घर      है

      तू  स्वर्ण  रत्न  मुक्तामणि  का   आकर  है

(भारत स्तुति)

पाण्डेय जी कट्टर राष्ट्रवादी थे। यद्यपि उन्होंने प्रारंभ में सम्राट स्वागत जैसी राजभक्ति से युक्त कृति का सृजन किया, किन्तु शीघ्र ही उन्होने इस प्रवृत्ति का त्याग कर दिया। यहां तक एक बार उन्होंने अपने अनुज पं. मुकुटधर पाण्डेय को नटकाव्य करते हुए देख लिया, इस पर उन्होंने कड़ी फटकार दी, और उन्हें आगे भावात्मक कविता लिखने की प्रेरणा दी। जिससे उत्प्रेरित होकर पं. मुकुटधर पाण्डेय ने नई कविता धारा’ छायावाद’ का युगान्तरकारी परिवर्तन किया। एडवर्ड की मृत्यु पर लिखी कविता उनकी विशुद्ध मानवीय करुणा की अभिव्यक्ति है, उसे राजभक्ति की कविता मानना गलत होगा।

पाण्डेय जी के हृदय में स्वजाति, स्वभाषा और स्वदेश प्रेम का सागर लहराता था। मेवाड़ गाथा उनका अनूठा काव्य है। इसमें सिसोदियों की देश भक्ति, प्रेम, त्याग, शौर्य बलिदान और स्वातंत्र्य प्रेम की गौरव गाथा अंकित है। मेवाड़ गाथा मंगलदेव शास्त्री के अनुसार हजारों युवकों धर्म की पोथी बन गयी थी। महाकवि हरिऔध ने इस कृति की मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी। उनके शब्दों में’ मेवाड़ गाथा की रचना बड़ी ही ओजस्विनी और हृदयोल्लासिनी है, इसके भाव बड़े ही अनूठे और विमोहक हैं। आपने इसकी रचना करके भाषा को गौरवमयी बनाया है, यह बात मैं मुक्त कंठ से कह सकता हूं।’ (13-10-1914) इस कृति में चित्तौड़ के भीमसिंह के अपूर्व त्याग की गाथा, रास पंचाध्यायी की शैली पर तथा महाराणा प्रताप की वेदना सग्धरा छंद में वर्णित है। वेदना और आत्मग्लानि का एक करुण चित्र देखिये –

ऐसा है जो नहीं तो, पल पल दुख क्यों, भोगता है प्रताप क्या मैंने जो बेची निज कुल गरिमा तो किया घोर पाप

लेकिन प्रताप का उज्ज्वल चरित्र पुनः स्वाभिमान से दृढ़ संकल्पित होकर उठ खड़ा होता है –

हो जावे क्यों न मेरी तन मन धन की और सर्वस्व हानि रखूंगा मैं प्रतिज्ञा स्वपितरगण की छोड़ के आत्मग्लानि

पाण्डेयजी क्रांतिकारी विचारधारा के युवक थे, वे छद्म नामों से ब्रिटिश हुकुमत के खिलाफ भी लिखते थे, क्रांतिकारियों की प्रतिबन्धित पुस्तकें उनकी पेटियों में सुरक्षित रहती थी। उन्होंने सत्यदेव परिव्राजक को सन 1907 में निम्न कविता अमेरिका भेजी थी-

मचा दो गुल हिन्द में यह घर घर
स्वराज्य लेंगे स्वराज्य लेंगे

पाण्डेय जी देश की तत्कालीन अवस्था से अत्यंत क्षुब्ध और दुखी रहते थे। वे परतंत्रता का एकमात्र कारण हमारी अज्ञानता को मानते थे। एक उद्गार देखिए –

देखो तो हो गया है, पतन यह महा, आज कैसा हमारा विद्या बुद्धि प्रतिष्ठा,धन बल न रहे, खो गया सर्व सारा आर्यों की आर्यता का सुभग अब नहीं,चिन्ह कोई

(लखाता)

पाण्डेय जी इतना होते हुए भी निराश नहीं थे। वे एक दृष्टाकवि थे। उन्हें पूर्ण विश्वास था, देश आजाद होगा और खुशियाली आवेगी और यह सौभाग्य उनके जीते जी आया। तब राष्ट्रकवि माखन- लाल चतुर्वेदी ने सन् 1913 की प्रभा में प्रकाशित उन्हीं की कविता बधाई देते हुए उन्हें अर्पित की –

देवों के हस्त द्वारा हम पर भी पुष्प की वृष्टि होगी
हे भाई, है न देरी, भरत वसुमति सौख्य की सृष्टि होगी

पाण्डेय जी पूर्ण स्वातंत्र्यचेता – पुरुष थे। उन्होंने अपने अनुज को पत्र शीर्षक कविता में स्पष्ट चेतावनी के स्वर में लिखा था –

        अनुजवर !  तुम्हारे  बाहु  में  शक्ति  आवै

        श्रम – फल शुभ पाओ, ईश निष्ठा निभावै

        गुण – गण मत जाना  भूल स्वाधानिता के

        अनुचर       मत       होना     हाय   अधी  

(सुधा – अंक : 9)

पाण्डेय जी ने इन्दु जैसी श्रेष्ठ पत्रिका में ओज और माधुर्य से समन्वित देश प्रेम की श्रेष्ठ रचनायें प्रकाशित कराई थी, जिनमें स्वदेश, भारत वर्ष नम्र निवेदन, जय हिन्दुस्तान आदि उल्लेखनीय नीति रचनाएं हैं। इन्दु में प्रकाशित एक अंश देखिए –

     जय स्वदेश जय स्वदेश जय स्वदेश प्यारा

     जीवन  धन  तू  अमूल्य,  प्राण  तू  हमारा

     तू  है  स्वातंत्र्य  रूप  सुख   का  तू   कारा

     विद्या  बल  शिल्प  कला  वैभव  तू   सारा

(स्वदेश इन्दु, दिसम्बर 1914)

कविता – कुसुम माला

पाण्डेय जी वैसे तो दर्जनों श्रेष्ठ पत्रिकाओं में छाये रहते थे, लेकिन उनकी कविकीर्ति का आधार सरस्वती में प्रकाशित और कविता कुसुम माला में संग्रहीत उनकी रचनाएं हैं। इनमें नदी कुल में सायंकाल (1906) गीष्म, वर्षा, रे मन (1907), ईश विनय (1908), हेमन्त (1909), गरमी (1911), केदार गोरी, बाल्यकाल (1912),जीर्ण पल्लव का आशीर्वाद, नर जन्म की सार्थकता (1914), मंदाकिनी गंगा, ताजमहल (1917), धुंआधार (1918) आदि उल्लेखनीय है।

कविता कुसुम माला का प्रकाशन इण्डियन प्रेस इलाहाबाद से सन् 1910 में हुआ था। इसमें ब्रज और खड़ी बोली के नये पुराने कवियों के बीच पाण्डेय जी की 30-35 रचनाएं संग्रहित हैं। पांच – छह तो अंग्रेजी और उड़िया की भाव प्रधान कविताओं के अनुवाद हैं, शेष उनकी मौलिक रचनाएं हैं। इन रचनाओं में पाण्डेय जी का मूल स्वर तो राष्ट्रीय ही है, लेकिन प्रकृति और ग्राम्य जीवन का भी उन्होंने सुंदर चित्रण किया है। इसके पीछे भी कारण है। पाण्डेय जी का जीवन किसानों के बीच एक किसान की तरह बीता। वे उनके सुख – दुख में, संघर्षों में साथ रहे। किसानों का महत्व बतलाते हुए उन्होंने किसानों को सुजान, विलक्षण शक्ति और आत्म – त्याग वाला कहा है। हल ही उनका खंग है और खेत ही रणभूमि है। परन्तु पाण्डेय जी के शब्दों में –

        कहता     तुझे    असभ्य    संसार    है

        पर  तू  उसका  भ्राता  जीवनाधार    है

        तज दे यदि तू कभी प्रकृत निज धीरता

        रहे न भोग  विलास, सभ्यता का  पता

पाण्डेय जी ने प्रायः सभी ऋतुओं का सजीव चित्रण किया है, परन्तु उनमें मात्र प्रकृति का सौंदर्य नहीं, बल्कि उन्होंने उनमें जीवन का सौंदर्य भी देखा है। उनका प्रकृति चित्रण अत्यंत मनोहारी और प्रभाव- शाली है।

पाण्डेय जी ने कविता – कुसुम माला में एक महत्वपूर्ण बात कही है। उनके अनुसार साहित्य संगीत कला में जो कुछ’ सरस’ है वह अवश्य उदात्त है, सुन्दर है और स्थायी है। वह मानव जाति एवं सामाजिक जीवन के लिये हितकारक है, बोध प्रसारक है और आनंददायक है। पाण्डेय जी अपनी रचनाओं में चरित्र बल और स्वावलम्बन पर अधिक जोर देते थे। सौंदर्य उनके अनुसार काव्य को कलात्मक रूप प्रदान करता है। सौंदर्य ही काव्य को शाश्वत बनाता है। सच पूछिये तो पाण्डेय जी ने प्रकृति में ही नहीं मानव जीवन में भी सौंदर्य के दर्शन किए है।

पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय उदात्त भावों के कवि थे, उनका जीवन मानवीय मूल्यों की चिन्ता करते बीता है। उनकी कथनी और करनी में कहीं भी खोट है। मानव जीवन की सार्थकता, जीवन चिन्ता, सर्वग्रासी काल जीवन संगीत जैसा कविताओं में जीवन की नश्वरता और उदात्त भावनाओं का चित्रण किया गया है। पाण्डेय जी सन् 1915 के बाद भाव प्रधान कविताओं की ओर उन्मुख होने लगे थे, इनमें सर्वत्र उदात्त भावनाएं ही अभिव्यक्त हुई हैं।

एक उदाहरण देखिये –

व्यर्थ नित्य में इस पादप का रस ही अपचय करता हूं कोमल  नूतन  पत्तों  का मैं खाद्य  अपव्यय  करता हूं
किस आशा से इस शाखा पर लगा रहूंगा मैं अब और  दूं  मैं  क्यों  न  नये  पत्ते को वृद्धि प्राप्त करने का ठौर

(जीर्ण पल्लव का आशीर्वाद, इन्दु जनवरी 1914)

पाण्डेय जी के समस्त काव्य में केदार गौरी और मृगी दुःखमोचन का महत्वपूर्ण स्थान है। केदार गौरी उड़िया कथा पर आधारित प्रेम प्रधान कविता है। इसमें दो विदग्ध प्रेमियों के प्रणय और वियोग का हृदयग्राही चित्रण है। एक स्थल देखिए –

संध्या समय दोनों विवश वे बैठकर अति प्रीति से
निज  इष्ट  रन्ध्र  समीप  थे  रोते अलक्षित रीति से
परस्पर   सन्तप्त   शोक   श्वास  के   कारण    महा
होता उभय युवती युवक का बदन कोमल कृश महा
प्रेम  से  अति  विवश  वे प्राचीर  से  थे  बोलते
ज्यों विघ्न विष तुम हमारे मिलन रस में घोलते
हम दुखियों पर क्या तुम्हें आती न करुणा स्नेह से
अपकीर्ति लेते हो विलग कर  देह को- क्यों देह से

(मृगी दुःखमोचन)

यह पाण्डेय जी की कालजयी रचना है। सवैया छंद में लिखी यह आख्यानक कविता हितकारिणी (1915) में प्रकाशित हुई थी। यह रचना हिन्दी के अनेकानेक शोध प्रबन्धों में उद्धृत की जाती रही है। इनमें शान्त तपोवन में विचरण करते पशु पक्षियों के स्वच्छन्द जीवन का सुंदर चित्रण हुआ है –

चढ़ जाते पहाड़ों में जाके कभी
कभी झाड़ो के नीचे फिरें विचरैं
कभी कोमल पत्तियां खाया करें
कभी  मिष्ट  हरी  हरी  घास  चरें
सरिता जल में प्रतिबिम्ब लखें
निज शुद्ध कही जलपान करैं
कहीं मुग्ध हो निर्झर झर्झर से
तरु कुंज में जो तप ताप हरे

घास चरते बच्चों के साथ मृगी दूर निकल जाती है। बहेलिया उसे देख लेता है, तीन तरफ आग लगाकर, एक तरफ कुत्ते के साथ, सरसंधान साधे खुद खड़ा हो जाता है। किंकर्त्तव्यविमुढ़ मृगी कातर हो उठती है। इस समय का दृश्य पाण्डेय जी की लेखनी से अत्यंत मर्मस्पर्शी हो उठा है –

रहती मैं अकेली तो क्या भय था
मुझे  सोच  न था तनु  का अपने
पर साथ में लाड़ले जीवन मूर
ये  छौने  दुलारे हैं दोनों  ने
फिर गर्भ में बालक है सुकुमार
इसी  से  मुझे  दुख  होते   घने                
हम चारों का अन्त यो होगा हरे
यह  जाना क्षन था मन में हमने

जीवन का अन्त देख मृगी श्रीहरि का ध्यान करती है, इतने में ही प्रभु का क्रोध और करुणा आग और पानी बन कर बरस उठता है –

करुणा वरुणालय श्री हरि को
इतने  में  हुई  कुछ  ऐसी दया
घनघोष के साथ गिरी बिजली
जिससे कि शिकारी अचेत भया
सब स्वान भगे वन के गजों से
वह जाल समूह भी तोड़ा गया
बरसा क्षजल मूसलाधार, बुझी
वन दावा  मिला उन्हें जन्म नया

पाण्डेय जी को भगवद्भक्ति और उनकी करुणा में अगाध विश्वास था, वे आस्तिक कवि थे। पाण्डेय जी की इस सहृदयता पर मुग्ध होकर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने उनका मूल्यांकन इन शब्दों में किया है’ मृगी दुःखमोचन में एक मृगी की अत्यंत दारुण परिस्थिति का सरस भाषा में चित्रण किया गया है, जिससे पशुओं तक पहुंचने वाली इनकी व्यापक और सर्वभूत – दयापूर्ण काव्य दृष्टि का पता चलता है। इनका हृदय कहीं – कहीं पेड़ – पौधों तक की दशा का मार्मिक अनुभव करता पाया जाता है। यह भावुकता इनकी अपनी है। भाषा की गद्यवत सरल सीधी गति उस रचना प्रवृत्ति का पता देती है जो द्विवेदी जी के प्रभाव से उत्पन्न हुई थी। फिर भी आचार्य नंद बाजपेयी जी के शब्दों में उनमें द्विवेदीजी और गुप्तजी जैसी रुक्षता न थी।

पिछले सौ वर्षों में एक से बढ़ कर एक उच्च कोटि के काव्य रचे जा चुके हैं। शिल्प और शैली की दृष्टि से इस समय विश्व स्तर की काव्य रचनायें हिन्दी साहित्य में मिल सकती हैं और इन रचनाओं के बीच हो सकता है, आज की पीढ़ी को पाण्डेय जी रचनाओं में कुछ ज्यादा आनंद न मिल सके परन्तु जो चिरन्तन सत्य है, और सौंदर्य है, वह पाण्डेय जी के काव्य में प्रचुर मात्रा में है, उसमें उदात्त भावों, कल्पनाओं और सरस भाषा की कमी कहीं भी नहीं दिखती। आचार्य विनयमोहन शर्मा ने ठीक ही कहा है’ पाण्डेय जी के साहित्य का मूल्यांकन खड़ी बोली हिन्दी साहित्य के प्रारंभिक इतिहास की पृष्ठभूमि में ही किया जा सकता है। अस्तु, पाण्डेय जी को आसानी से नहीं भुलाया जा सकता।


(साहित्य वाचस्पति पं. लोचन प्रसाद पांडेय समीक्षा ग्रंथ लेखक डॉ. बलदेव से साभार)

प्रस्तुति: बसन्त राघव


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