मजदूर संकट के इस ऐतिहासिक दौर में केंद्रीय श्रम मंत्री की गुमनामी का सबब क्या है?

हैरानी इस बात की है कि वे ख़बरों से ग़ायब क्यों हैं. वह भी उस वक़्त में जब देशभर में करोड़ो श्रमिक कोरोना से ज़्यादा भूख से तड़प रहे हैं

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द्रोण मानसिकता या अग्रणी शिक्षा संस्थानों में ऑपरेशन एकलव्य?

आखिर और कितने मासूमों की बली चढ़ेगी ताकि यह जाना जा सके कि मुल्क के अग्रणी शिक्षा संस्थानों में जातिगत एवं समुदाय आधारित भेदभाव बदस्तूर जारी है

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एक महामारी और तीन तहों में बंटी ज़िंदगी की अपनी-अपनी बीमारी

जितने भी सुविधा के साधन हमने ईजाद किए हैं इस दौरान वे सभी फेल हो गए हैं। पैसे से लेकर मशीनरी तक।

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माहवारी में पैदल चलती महिलाओं का दर्द क्या आपकी कल्पना के किसी कोने में है?

जरूरत है कि हम ‘पैडमैन’ जैसी फिल्मों को राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने पर ताली बजाने को ही अपनी आखिरी जिम्मेदारी न समझ बैठें

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किसानों-उद्यमियों का माल बिके और तुरंत मूल्य मिले, पैकेज में इसका इंतज़ाम नहीं है

कोरोना संकट में किसानों और उद्यमों के हाथ में नकद पैसा चाहिए। उनका माल बिके और मूल्य तुरंत मिले, इसकी व्यवस्था इस पैकेज में कहीं नहीं नज़र आती।

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“कोरोना मने भूख से मरने की बीमारी”- दक्षिणी राजस्थान की आदिवासी औरतें ऐसा क्यों सोचती हैं?

हम यह देखने में चूक रहे हैं कि काम बंद नहीं हुआ है. बस अवैतनिक, अदृश्य और घर के भीतर महिलाओं द्वारा पहले की तुलना में कहीं ज़्यादा काम किया जा रहा है

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एक काला पहाड़ के पापों का बोझ भी सबको बांटना ही पड़ेगा…

जब हरेक राज्य का मुख्यमंत्री दावा कर रहा है कि उसने हालात को बिल्कुल संभाल लिया है, तो स्थिति इतनी बेकाबू क्यों है

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