करीब 34 साल बाद देश को नयी शिक्षा नीति मिली है जो कि आगामी कम से कम दो दशकों तक शिक्षा के रोडमैप की तरह होगी. यह नीति इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसे देश की पहली पूर्ण बहुमत वाली हिन्दुत्ववादी सरकार द्वारा लाया गया है जिसने इसे बनाने में एक लंबा समय लिया है. भाजपा एक विचारधारा आधारित पार्टी है और जब भी उसे मौका मिला है, उसने शिक्षा को अपनी विचारधारा के अनुसार ढालने का प्रयास किया है. शिक्षा, समाज और इतिहास के देखने का उसका अपना ख़ास नजरिया है. जाहिर है, नयी शिक्षा नीति इस नजरिये को ध्यान में रखते हुए शिक्षा क्षेत्र में व्यापक बदलावों के इरादे के साथ लायी गयी है. भाजपा का अल्पसंख्यकों को देखने का भी अपना अलग नजरिया है जिसकी छाप नयी शिक्षा नीति पर भी नजर आती है.
भारत एक बहुलतावादी देश है, इसी को ध्यान में रखते हुए हमारे संविधान में धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों के अधिकारों को सुरक्षित किया गया है. जहां अनुच्छेद 29(1) में समुदायों को अपनी भाषा, लिपि, संस्कृति को संरक्षित करने का अधिकार दिया गया है वहीं अनुच्छेद 30(1) के तहत सभी अल्पसंख्यक समुदायों को अपने धर्म, भाषा के आधार पर अपनी शैक्षिक संस्थान स्थापित करने का अधिकार दिया गया है.
आजादी के बाद से अभी तक देश में दो शिक्षा नीति लागू की गयी हैं जिनमें अल्पसंख्यक समुदाय के शैक्षणिक पिछड़ेपन को चिह्नित करते हुए इन पर विशेष ध्यान देने की बात की गयी है. 1968 में लागू हुई देश की पहली शिक्षा नीति में कहा गया था कि “शिक्षा सुविधाओं का लाभ उठाने के लिए पिछड़े वर्गों, अल्पसंख्यकों के बच्चों, लड़कियों और शारीरिक रूप से अक्षम बच्चों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए”. इसके बाद 1986 में दूसरी शिक्षा नीति को लागू की गयी जिसमें लिखा गया था कि “अल्पसंख्यकों के कुछ वर्ग तालीमी दौड़ में काफी पिछड़े और वंचित हैं. समाजी इंसाफ और समता का तकाज़ा है कि ऐसे वर्गों की तालीम पर पूरा ध्यान दिया जाये”.
sachar_comm1992 में संशोधित शिक्षा नीति को लागू किया गया जिसकी रौशनी में शैक्षिक रूप से पिछड़े अल्पसंख्यकों के लिए गहन क्षेत्रीय कार्यक्रम और मदरसा शिक्षा आधुनिकीकरण वित्तीय सहायता योजना की शुरुआत की गयी.
नयी शिक्षा नीति 2020 एक ऐसी पार्टी के सरकार द्वारा लायी गयी है जिसकी विचारधारा इस बात को बार-बार दोहराती रही है कि इस देश में मुसलमानों का तुष्टीकरण होता है. गिरिराज सिंह जैसे पार्टी के नेता, जो कि मोदी सरकार में मंत्री भी हैं मुसलमानों का अल्पसंख्यक दर्जा समाप्त कर देने की वकालत करते रहे हैं. यहां तक कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट का भी विरोध किया गया. मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने तो बाकायदा विधानसभा में इस रिपोर्ट को “साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली” करार देते हुए इसकी सिफारिशों को लागू करने से इनकार कर दिया था.
जाहिर है मुसलमानों के प्रति केंद्र में सत्तारूढ़ दल का नजरिया पहले की सरकारों से अलग है. इसलिए 2014 के बाद से एक प्रकार से अल्पसंख्यक समुदायों विशेषकर मुसलमानों को सुनियोजित तरीके से बहिष्कृत करने के प्रयासों से जूझना पड़ रहा है. पिछले कुछ वर्षों से हम देख रहे हैं कि किस प्रकार से जेएनयू के साथ जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों को भी निशाना बनाया गया है.
तुष्टीकरण के तमाम आरोपों के बावजूद अल्पसंख्यकवादी राजनीति से मुसलमानों का कोई भला नहीं हुआ है बल्कि उनका एक वोटबैंक के तौर पर इस्तेमाल किया गया. शैक्षणिक और आर्थिक रूप से वे हाशिये पर ही बने रहे जिसकी तस्दीक समिति की रिपोर्ट करती है जिसमें बताया गया था कि किस तरह से मुसलमान आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं, जिसके बाद से मुस्लिम समाज के पिछड़ेपन को लेकर विमर्श की शुरुआत हुई थी जो एक बार फिर से जान-माल के हिफाज़त के सवाल पर सिमट गयी है.
बहरहाल, मुस्लिम समुदाय की शैक्षणिक स्थिति देखें तो 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक भारत के धार्मिक समुदायों में निरक्षरता की दर सबसे ज्यादा मुस्लिमों में (43 प्रतिशत) है. 2018-19 में उच्च शिक्षा के अखिल भारतीय सर्वेक्षण के अनुसार, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नामांकित छात्रों में मुसलमानों की हिस्सेदारी केवल 5.23 फीसदी है जो उनकी जनसँख्या के अनुपात में काफी कम है. साल 2020 में जारी राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की रिपोर्ट “भारत में शिक्षा पर पारिवारिक सामाजिक उपभोग” बताती है कि शिक्षा में नामांकन के मामले में मुस्लिम समुदाय की स्थिति दलित और आदिवासी समुदाय के मुकाबले कमजोर है. इस रिपोर्ट के अनुसार मुस्लिम समुदाय में 3 से 35 आयु समूह के करीब 17 फीसदी मुस्लिम पुरुष कभी नामांकन ही नहीं करवाते हैं जबकि इस आयु वर्ग की अनुसूचित जातियों में यह दर 13.4 फीसदी और अनुसूचित जनजातियों में 14.7 फीसदी है जो कि तुलनात्मक रूप से बेहतर है.
उपरोक्त स्थिति को देखते हुये यह अपेक्षा स्वाभाविक थी कि नयी शिक्षा नीति में मुस्लिम समुदाय की कमजोर शैक्षणिक स्थिति और इसके कारणों का विश्लेषण करते हुए इसका हल पेश करने की कोशिश की जाती, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ है. उलटे इन्हें पूरी तरह से नजरअंदाज करने की कोशिश की गयी है. पूरी नीति में अल्पसंख्यक या मुस्लिम समुदाय का अलग से जिक्र नहीं किया गया है बल्कि उन्हें सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से वंचित समूहों (एसईडीजी) में शामिल करते हुए टाल दिया गया है. अगर एक वाक्य में कहा जाये तो यह मुसलमानों को “कारीगर” और “बाल मजदूर” बनाने की नीति नजर आती है.
दरअसल, इस नीति में कक्षा छठी कक्षा के बाद वोकेशनल ट्रेनिंग की बात की गयी है. अगर इसे हम 2016 में बाल श्रम कानून में हुए संशोधनों के साथ जोड़ कर देखें तो इसका सबसे ज्यादा असर मुस्लिम समुदाय पर पड़ने की सम्भावना है. प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद मुस्लिम समुदाय के बच्चों में स्कूल छोड़ने की दर अधिक है. चूंकि बाल श्रम कानून में संशोधन के बाद “पारिवारिक कारोबार” या उद्यमों, एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री और स्पोर्ट्स एक्टिविटी में संलग्न 14 साल से कम उम्र के बच्चों को बाल श्रम के दायरे से बाहर रखा गया है, ऐसे में प्राथमिक या माध्यमिक स्तर पर शिक्षा पूर्ति करने के बाद मुस्लिम समुदाय के बच्चों का वोकेशनल ट्रेनिंग या हुनर सीखने के नाम पर पढ़ाई छोड़ कर बाल मजदूरी की तरह मुड़ने की चलन में और तेजी आ सकती है.
कुल मिलाकर यह नीति मुस्लिम समुदाय के लिए शिक्षा तक पहुंच को और मुश्किल ही बनाती है.
जावेद अनीस भोपाल स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं