हिन्दी पट्टी के किसान आंदोलनों को कैसे निगल गयी मंडल की राजनीति और उदारीकरण


पंजाब और हरियाणा के किसान और उनकी संतानें दिल्ली बॉर्डर और दिल्ली में डटी हुई हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के किसान और उनकी संतानें फेसबुक पर डटी हुई हैं। यह सोचने की बात है कि जब पंजाब और हरियाणा के किसान ‘किसान बिल’ के विरोध में सड़कों पर हैं तब  पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में किसानों के बीच ‘किसान बिल’ के खिलाफ कोई कशमकश क्‍यों नहीं है। वैसे पिछले कुछ वर्षों में कोई खास किसान आंदोलन इन प्रदेशों मे रहा भी नहीं है कि आज हम अचानक उम्मीद करने लगें कि यूपी और बिहार के किसान सड़कों पर आ जाएंगे, हालांकि जो भी हलचल हो रही है वह केवल पश्चिमी यूपी तक सीमित है जो चौधरी चरण सिंह की बची-खुची विरासत है।

औपनिवेशिक काल और आजादी के बाद के पांच दशकों तक इन दोनों प्रदेशों में किसान आंदोलन जिंदा रहे, लेकिन पिछले कुछ वर्षों खासकर 1990 के बाद इन प्रदेशों में किसान आंदोलन के कोमा मे चले जाना एक पूरी प्रक्रिया का परिणाम है।

1990 के बाद देश में दो बड़े परिवर्तन  हुए। पहला था देश में उदारीकरण की नीति का लागू किया जाना, दूसरा मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू किया जाना। इन दोनों नीतियों ने देश की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को बदलकर रख दिया। उदारीकरण की नीतियों के तहत भारतीय बाजार के द्वार विदेशी कृषि उत्पादों के लिए खोल दिए जाने पर देश की कृषि व्यवस्था पर संकट के बादल छा गये। वैसे ही इन प्रदेशों मे सीमांत जोतों वाले किसान हैं जिसके कारण ज्यादातर किसान बस जीविकोपार्जन के लिए खेती करते हैं या इसलिए करते हैं कि कोई और रोजगार उपलब्ध नहीं है। इन प्रदेशों के किसान ज्यादातर पारम्परिक फसलों की खेती करते हैं (पश्चिमी यूपी को छोड़कर)। ज्यादातर किसान गेहूं, चावल और थोड़ा बहुत दाल और सब्जी की खेती करते हैं। नकदी फसलों का ज्यादातर अभाव है। वह जो भी उत्पादित करते हैं  उसको बाजार में न बेचकर अपनी जरूरत के हिसाब से रख लेते हैं।

इन प्रदेशों की आज भी ज्यादातर बड़ी जोतें या भूमि उच्च जातियों और कुछ ताकतवर पिछड़ी जातियों के पास हैं, जिसके कारण जनसंख्या का अधिकांश भाग कृषि से वंचित रहा है। उदारीकरण के बाद उत्पादन तो बढ़ा लेकिन फसलों के दाम नहीं बढ़े जिसके कारण जो थोड़ी बहुत खेती, किसानी बची थी उससे लोगों का मोह भंग होने लगा है। उदारीकरण के बाद फिल्मों, विज्ञापनों और सोशल मीडिया के कारण आधुनिकता की जो समझ इन प्रदेशों में बनी है वह बुर्जुआ प्रकार की आधुनिकता है जो यह बताती है कि पढ़-लिख कर आप हाथ से श्रम नहीं कर सकते हैं। इसने काफी हद तक युवाओं को कृषि से दूर कर दिया। इसके कारण हुआ है कि इन प्रदेशों के ज्यादातर युवा आपको बस सोशल मीडिया पर विरोध करते मिलेंगे लेकिन सड़कों पर उतर कर किसानों के मुद्दे पर विरोध करते हुए आप इन्हें नहीं देख पाएंगे।

युवा अपने लिए रोजगार की मांग करते हुए कभी-कभी सड़कों पर आ जाता है

हां, यह जरूर है कि ये युवा अपने लिए रोजगार की मांग करते हुए कभी-कभी सड़कों पर आ जाता है लेकिन‌ वह बस‌ इतनी मांग करता है कि उसे सरकारी नौकरी चाहिए और सरकार वैकेंसी निकाले। अपनी मांगों को किसानों और मजदूरों की मांगों के साथ मिलाते आपने इन्हें कभी देखा है?

नब्‍बे के दशक के बाद दूसरा जो बड़ा परिवर्तन हुआ था वह था मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू किया जाना। मंडल कमीशन लागू होने के बाद देश में, खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में एक नयी राजनीतिक धारा ‘सामाजिक न्याय की राजनीति’ शुरू हुई जिसने इन दोनों प्रदेश के राजनीतिक आंदोलनों की दिशा बदल दी। सामाजिक रूप से मंडल कमीशन ने पिछड़ों को राजनीतिक भागीदारी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद सम्पूर्ण देश का राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य बदल गया। ऐसे में कृषि और कृषक आंदोलन कैसे अछूते रहते?

मंडल राजनीति ने जो मुद्दे पहले हुआ करते थे उनकी दिशा बदल दी। अब पिछड़ों की भागीदारी का सवाल प्रमुख मुद्दा बन गया और कृषकों के मुद्दे और कृषक आंदोलन यहां से गौण होने शुरू हो गये। ज्यादातर पिछड़ी जातियां खेतीहर, पशुपालक और विभिन्न कौशल पर आधारित जातियां है और इन जातियों का संबध सीधे भूमि से जुड़ा था। इनका एक भावात्मक लगाव भी भूमि और उसके उत्पादन से हुआ करता था, लेकिन मंडल कमीशन लागू होने बाद यह क्रमश:कम होता गया। उदारीकरण के बाद आयी बुर्जुआ आधुनिकता ने इसे और बढ़ावा दिया। चुनावी मुद्दे दो ऐसी अवधारणाओं की तरफ मुड़े जो भागीदारी, सम्मान और गरिमा के सवाल से जुड़े हुए थे। अगर एक शब्द में कहें तो ‘सामाजिक न्याय’ सुनिश्चित कराना प्रमुख मुद्दा बन गया। अब पिछड़ों को आरक्षण दिलाने और उसको सुनिश्चित करने की होड़ राजनीतिक दलों में शुरू हुई। जैसे-जैसे जागरूकता का स्तर बढ़ा तो पिछड़ी जातियों ने अनुभव किया कि नौकरियों में हम क्यों नहीं है।

दूसरी तरफ उच्च वेतनमान ने भी तेजी से युवाओं को अपनी तरफ आकर्षित किया तो वहीं दूसरी तरफ कृषि से लोगों का मोह भंग होने लगा। पिछड़ी जातियों के लोग अपनी संतानों को पहली बार स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय में भेजने को तैयार हो गये इस आशा के साथ कि वह‌ सरकारी नौकरी पा जाएगा तो कृषि पर निर्भरता से मुक्ति मिलेगी। युवाओं के भीतर बुर्जुआ आधुनिकता ने यह भावना भर दी कि अगर उसने उच्च‌ शिक्षा प्राप्त कर ली है तो वह हाथ से श्रम नहीं कर सकता है।  इस प्रकार इन प्रदेशों में सरकारी नौकरी और नौकरी करने की जो दौड़ शुरू हुई उसने कृषि को मीलों पीछे छोड़ दिया।

इसका एक सटीक उदाहरण बिहार चुनाव में देखने को मिला जब महागठबंधन की तरफ से घोषणा की गयी कि अगर उसकी सरकार बनती है तो सरकार 10 लाख ‘सरकारी नौकरी’ देगी। इस घोषणा को महागठबंधन की रैलियों में बार-बार दोहराया गया। वहीं दूसरी तरफ भूमि सुधार और कृषि से जुड़े मुद्दे बस घोषणापत्र तक सीमित रहे।

सामाजिक न्याय के दूसरी तरफ जो राजनीतिक धारा चल रही थी वह अम्बेडकर के विचारों से प्रेरित थी जिसकी राजनीति इस मुद्दे पर केन्द्रित थी कि वह दलितों और पिछड़ों को ब्राह्मणवाद के  चंगुल से मुक्त कराकर उन्हें सम्मान, गरिमा और भागीदारी देगी। यह पार्टी भी दलितों और पिछडो के आरक्षण की समर्थक रही है लेकिन खेती, किसान और उससे संबंधित मुद्दे इस पार्टी के एजेंडे मे कभी नहीं रहे।

दलित राजनिति यह भी मानती रही है कि दलितों पर जो अत्याचार होता है वह भूमि से उनके मजदूरी के संबधों के कारण है। चूंकि दलितों के पास अपनी जमीनें नहीं होती थीं जिसके कारण वह दूसरी उच्च और मध्यम जातियों के खेतों में मजदूरी करते थे। इस प्रकार दलितों का जैसा संबंध नौकरियों से बना वैसा कृषि से कभी नहीं बना। एक बड़ा विरोधाभास देखा भी जा सकता है कि दलित ‘एका आंदोलन’ के सूत्रधार मदारी पासी को याद तो करते हैं लेकिन एक किसान नेता के रूप में याद न करके वह उन्हें दलित नेता के रूप में याद करते हैं।  

इन दोनों प्रदेशों के पूर्वी और पश्चिमी क्षेत्रों में प्रवासन एक बड़ी घटना रही है। अगर इतिहास में पीछे मुड़कर देखा जाय तो यह प्रक्रिया मध्यकालीन समय से शुरू हुई और आगे चलकर यहां तक पहुंची है। यह इलाका खेती के लिए उर्वर है लेकिन यहां लोग खेती की बजाय आजीविका के लिए दूसरे शहरों और देशों में जाना पसंद करते हैं। इस क्षेत्र में आप पाएंगे कि ज्यादातर गांवों के पुरूष शहरों में चले गये और खेती करने वाले कम लोग ही बचे हैं। पलायन इस क्षेत्र की नियति है। इसके खिलाफ आप इन क्षेत्रों में कोई बड़ा आंदोलन नहीं पाएंगे जो यह मुद्दा उठाया हो कि हमारी सरकार मदद करे जिससे हमारा पलायन रूके और सरकारें भी अपनी तरफ से उदासीन रही हैं। 

इन कारणों के अलावा भी कई छोटे-छोटे कारण हैं जिन्होंने उत्तर प्रदेश और बिहार में कृषि आंदोलन के ह्रास में अहम भूमिका निभायी है। वर्तमान में जिस तरह के मुद्दे इन दोनों प्रदेश की राजनीति में हावी हैं, उसको देखते हुए कहा जा सकता है कि आने वाले समय में भी देश के इस हिस्‍से में किसान आंदोलन का भविष्य अंधकारमय ही होगा।


About गोविंद निषाद

View all posts by गोविंद निषाद →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *