मध्य प्रदेश में ‘सरकारात्मक पत्रकारिता’ का कोरोना-कालीन मुजरा


कल रात मध्य प्रदेश सरकार के जनसंपर्क विभाग के एक अधिकारी मित्र से बात हो रही थी। बातचीत के दौरान उन्होंने इस बात पर सख्त आपत्ति जताई कि मैं मीडिया के एक बडे हिस्से को कोरोनावंशी क्यों लिखता हूँ। मैंने कहा कि आपके असहमत होने के अधिकार का पूरा सम्मान है, लेकिन इस असहमति की वजह भी बताइए।

उन्होंने कहा कि कोरोना का वैक्सीन तैयार करने की दिशा में तो दुनिया भर में कई स्तरों पर काम चल रहा है और देरसबेर वह तैयार भी हो जाएगा। लेकिन मीडिया जिस वायरस से संक्रमित हो गया है, उसका वैक्सीन तैयार होना मुश्किल है, इसलिए उसे कोरोनावंशी न कहते हुए कुछ और कहा जाना चाहिए। उनकी बात काफी हद तक सही लगी, लिहाजा मैंने इस बात आगे नहीं बढाई और विषय बदलते हुए कोरोना संकट के संदर्भ में मध्य प्रदेश के बारे में बात शुरू की।

बातचीत के दौरान मैंने पूछा कि इन दिनों तो आपको और आपके विभागीय साथियों को काफी राहत महसूस हो रही होगी, क्योंकि प्रदेश के अखबारों में आम तौर पर वहीं सब कुछ छप रहा है, जो सरकार चाहती है और जिसे छपवाने के लिए आपका विभाग तरह-तरह की मशक्कत करता रहता है। उन्होंने मेरी बात से सहमति जताते हुए कहा कि बात तो काफी हद तक सही है लेकिन इसमें खतरा भी है। कैसा खतरा? उन्होंने कहा कि लंबे समय तक अगर यही सिलसिला चलता रहा तो हम लोगों की नौकरी खतरे में पड सकती है, क्योंकि सरकार हमारे विभाग को ही बंद करने या सीमित करने का फैसला ले सकती है।

दरअसल मध्य प्रदेश में मीडिया की हालत ऐसी ही है। कुछेक अपवाद को छोडकर इन दिनों लगभग सभी अखबार कोरोना महामारी को लेकर सारी खबरें वैसी ही छाप रहे हैं जैसी सरकार चाहती है। स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली, कोरोना से मरने वालों और संक्रमित हुए लोगों के वास्तविक आंकडों तथा कोरोना मरीजों के इलाज में हो रही लापरवाही की खबरों को दबाने-छुपाने में ये अखबार सरकार की पूरी मदद कर रहे हैं। यही नहीं, लॉकडाउन के नाम पर प्रशासन और पुलिस द्वारा की जा रही नाजायज मनमानी का भी बढ-चढकर समर्थन किया जा रहा है। मिसाल के तौर पर शहर में अनाज, सब्जी और फलों के विक्रय का पूरा काम प्रशासन ने अपने हाथों में ले रखा है। कोरोना संक्रमण के मामले में इंदौर के मुकाबले दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बनारस, आगरा, सूरत आदि शहरों की स्थिति ज्यादा गंभीर है लेकिन वहां भी स्थानीय प्रशासन ने एक निश्चित समयावधि के लिए परचून की दुकानें खोलने तथा ठेले पर फल और सब्जी बेचने की छूट दे रखी है, लेकिन इंदौर में ऐसा नहीं है। वहां इन वस्तुओं को मनमाने दामों पर बेचने का काम प्रशासन खुद कर रहा है। प्रशासनिक अफसरों को अपने मूल कामों से इतर यह काम खूब रास आ रहा है। क्यों रास आ रहा है, यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है। इसीलिए प्रशासन के अलावा जो कोई व्यक्ति इन चीजों को बेचते हुए पाया जा रहा है, वह पुलिस की प्रताडना का शिकार हो रहा है, उसके फल-सब्जी आदि जब्त किए जा रहे हैं और ”अवैध सब्जी और फल बरामद हुए’’ जैसे मूर्खतापूर्ण शीर्षकों के साथ अखबारों में खबरें छप रही हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि कोरोना महामारी के नाम पर लूट मची हुई है और समझा जा सकता है कि इस लूट की नाल में किस-किसको हिस्सा मिल रहा होगा। यही वजह है कि प्रशासन का प्रशस्ति गान करने की अखबारों के बीच होड लगी हुई। ज्यादातर अखबारों के मालिकों तथा उनके संपादक और रिपोर्टरनुमा दलाल खुद को सरकार का वफादार साबित करने में जुटे हैं। बेशर्मी या थेथरई की हद यह है कि अपने इस दलाली कर्म को वे सकारात्मक पत्रकारिता बता रहे हैं।

जब अखबार अपनी भूमिका नहीं निभा रहे हैं तो ऐसे में कुछ पत्रकार जब सोशल मीडिया के जरिए हकीकत सामने लाते हैं तो अखबारों के दफ्तर में बैठी सत्ता के हरम की ये बांदियां और रक्कासाएं वहां भी वहां भी पहुंच जाती हैं ‘सरकारात्मकता’ का मुजरा करने।

हैरानी की बात यह है कि कोरोना संक्रमण और लॉकडाउन के चलते सभी अखबारों की प्रसार संख्या पैंदे में जा लगी है। लॉकडाउन के पहले जो प्रसार संख्या थी, उसमें पिछले दो महीने के दौरान 80 से 90 फीसद की गिरावट आई है। प्रदेश के सबसे बडे शहर इंदौर का ही उदाहरण लें तो वहां लॉकडाउन लागू होने के पहले तक सुबह और शाम के मिलाकर सभी अखबारों की लगभग साढे पांच लाख प्रतियां शहर में वितरित होती थीं, जो अब घट कर महज करीब 50 हजार रह गई हैं। जिन इलाकों में लोग अखबार लेना चाहते हैं, वहां हॉकर अखबार बांटने के लिए तैयार नहीं हैं और जहां हॉकर बांटने को तैयार हैं, वहां लोग अखबार लेना नहीं चाहते। चूंकि सूचनाओं के लिए अखबारों पर निर्भर रहने की कई लोगों की आदत पिछले दो महीने के दौरान छूट चुकी है और काम-धंधे चौपट हो जाने की वजह से वैसे भी लोगों को अपने खर्चों में कटौती करनी होगी, इसलिए लॉकडाउन हटने के बाद भी अखबारों की प्रसार संख्या में कोई बहुत ज्यादा बढोतरी होने वाली नहीं है। अखबारों की आमदनी का सबसे बडा जरिया होता है- निजी क्षेत्र के विज्ञापन। लेकिन अब इसमें भी भारी कमी आ चुकी है तथा आने वाले दिनों में और कमी आना तय है। जब अखबारों की प्रसार संख्या ही प्रभावी नहीं होगी तो फिर सरकारें भी अखबारों की परवाह करना बंद कर देगी। ऐसे में अखबारों को खैरात के तौर पर मिलने सरकारी विज्ञापनों में भी भारी कटौती होगी। ऐसा होने पर कई छोटे और मझौल अखबारों के बंद होने की नौबत भी आ सकती हैं। बचेंगे सिर्फ वे ही अखबार, जिनके मालिकों के दूसरे धंधे भी हैं और जिन्हें चलाने में अखबार भी सहायक होता है। कुल मिलाकर अखबारों के बहुत बुरे दिन आने वाले हैं। इसके बावजूद न तो अखबार मालिक सुधरने को तैयार दिखते हैं और न ही उनके दलाल कारिंदे। हालांकि कुछ पत्रकार ऐसे भी हैं जो इस दलाली के दुष्चक्र में सेंध लगाते हुए वाकई अच्छा काम कर रहे हैं। गुरिल्ला छापामारों की तरह वे जब भी और जैसी भी मौका मिलता है, अपनी खबरों से हालात की हकीकत बयां कर देते हैं। लेकिन उनकी संख्या नगण्य हैं। ऐसे पत्रकारों के नामों का उल्लेख करना उचित नहीं होगा, क्योंकि नामों का उल्लेख करने पर उनकी नौकरी पर बात आ सकती है। वैसे भी आने वाले दिनों में अखबारों में बडे पैमाने पर छंटनी होने वाली है। वेतन में कटौती तो शुरू भी हो चुकी है।


अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं


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