घर लौटने वाले प्रवासी श्रमिकों के लिए लैंड बैंक और भूमि का डिजिटलीकरण दो बाधाएं हैं


हमारे प्रवासी कामगारों को जीवनयापन करने के लिए अधिक से अधिक भूमि  की आवश्यकता है, लेकिन यहां तो मौजूदा भूमि को भी भयावह तरीके से लूटा जा रहा है। ऐसे में प्रवासियों को उनका हक कैसे मिले?

1. “लैंड बैंक” दरअसल पिछली सरकार द्वारा निर्मित, पिछले दरवाजे से आम भूमि पर कब्जा जमाने का हथकंडा है।

झारखण्ड के मुख्यतः आदिवासी प्रखण्ड तोरपा के खूंटी में किए गए अध्ययन से पता चला है की लैंड बैंक में शामिल 12,408 एकड़ में से 7,885.26 एकड़ सरना धार्मिक स्थल, मसान, नदियां, नाले, तालाब, पहाड़, जलप्रपात, पहाड़ी सड़क और फुटपाथ, बच्चों के खेल के मैदान और चरागाह हैं । वास्तव में ये साझा संपत्ति है जो पूरे समुदाय द्वारा अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए उपयोग की जाती रही है। एक गुप्त चाल चल कर सरकार ने घरानों की गैर-कृषि और जमीन पर कब्जा कर लिया और उसे लैंड बैंक के अधीन ले आए। और तो और, उद्योगपतियों और व्यापारियों को आमंत्रित करते हुए बड़े शानदार ढंग से घोषणा की गई कि पूरे झारखंड में 20.56 लाख एकड़ का लैंड बैंक उनके निवेश के लिए उपलब्ध है। अब यह वर्तमान सरकार की तात्कालिक जिम्मेदारी है कि वह औपचारिक रूप से यह घोषणा करे कि झारखंड में ऐसा कोई लैंड बैंक मौजूद नहीं है। सरकार को चाहिए कि वह प्रत्येक गांव में विद्यमान साझा परिसंपत्तियों को मजबूत करे। अगर मनरेगा योजना का प्रभावी ढंग से उपयोग किया जाए तो गांवों को लौट रहे प्रवासी मजदूरों को अपने गांव की कृषि अवसंरचना को बेहतर बनाने में मदद मिल सकती है।

2. भूमि का डिजिटलीकरण केंद्र सरकार के “डिजिटल इंडिया लैंड रिकॉर्ड आधुनिकीकरण कार्यक्रम” के तहत भारतीय सरकार का एक कार्यक्रम है जिसके अंतर्गत देश भर के सभी भूमि रिकॉर्ड को डिजिटल बनाना है और अंततः सभी भूमि रिकॉर्ड का एक डेटाबेस का निर्माण करना है ताकि उन्हें केंद्र से नियंत्रित किया जा सके।

DILRMP डैशबोर्ड के अनुसार झारखंड में भूमि रिकॉर्ड के डिजिटलीकरण की रफ्तार 2019 तक देश भर में छठी थी। 2008 के बाद से राज्य के 99% से अधिक भूमि रिकॉर्ड को डिजिटल किया जा चुका है और 0.83% को डिजिटल किया जा रहा है।

इसी कार्यक्रम के दूसरे चरण में पहले से ही डिजिटाइज़ किए जा चुके प्लॉट पर जाकर उसका “फिजिकल वेरिफिकेशन” किया जाना है। इसमें झारखंड सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले राज्यों में से एक है। यहाँ केवल 2.33% भूमि का भौतिक सर्वेक्षण किया गया है या भौतिक निरीक्षणों के आधार पर नए नक्शे तैयार किए गए हैं

पहले चरण में भी कई अनियमितताएं हैं, जैसे कि –

  1. मालिकों के नामों में परिवर्तन
  2. भूमि की मात्रा में कमी
  3. मालिकों के रूप में अन्य नामों को शामिल किया जाना

डिजिटलीकरण के पहले चरण में की गंभीर विसंगतियां संभवतः उन निजी डेटा-एंट्री एजेंसियों द्वारा की गई हैं जिन्हें 2008 और 2016 के बीच प्रत्येक जिले के लिए भौतिक भूमि रिकॉर्ड से डेटा को डिजिटल सॉफ़्टवेयर में मैन्युअल रूप से दर्ज करने के लिए नियुक्त किया गया था।

परियोजना के कार्मिकों द्वारा दूसरा चरण, अर्थात भौतिक सत्यापन, कब पूरा होगा इसके बारे में कोई भी बात नहीं करता। लेकिन इस बीच, जब किसान अपनी भूमि कर का भुगतान करने जाते हैं, तो उन्हें बताया जाता है कि यह भूमि उनकी नहीं है! इससे ग्रामीण कृषक समुदायों के बीच चिंताजनक स्थिति पैदा हो गई है। जब वे अपने भूमि-स्वामित्व के कागजात के साथ इस समस्या को लेकर ब्लॉक-स्तरीय अधिकारियों से शिकायत करने जाते हैं तो अधिकारी भी मामले में कुछ भी करने में असमर्थता व्यक्त करते हैं। ऐसे में  लोग कहां जाएं?

सरकार को चाहिए की वे लॉकडाउन की वजह से घर लौट रहे प्रवासियों का न केवल स्वागत करे अपितु उनकी भूमि पर उनके हक को भी बिना किसी बाधा के सुनिश्चित करे।राज्य सरकार को –

  1. औपचारिक रूप से ’लैंड बैंक’ को रद्द करने की घोषणा करनी चाहिए, और
  2.  यह स्पष्ट करना चाहिय कि झारखंड में भूमि का डिजिटलीकरण केवल संबंधित ग्रामसभों के साथ परामर्श और भागीदारी में ही हो सकता है। यह संविधान के शेड्यूल 5 और पीईएसए अधिनियम के सातवें भाग के अनुरूप होगा, जिसमें कहा गया है कि ग्राम सभा कि अनुमति के बिना  बिना ग्राम समुदाय को प्रभावित करने वाला कोई भी कार्य नहीं हो सकता। यह अत्यंत महत्व और तात्कालिकता का विषय है।

Ref:

  1. [Data taken from Special Correspondent in ‘Activists debunk land bank claims’ – Telegraph India, Nov 18, 2017]
  2. [Data  taken from Kunal Purohit,‘In Jharkhand, the digitisation of land records stripped many villagers of their farms overnight’ in Scroll.in, Dec 17, 2019]

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