डिजिटल मीडिया के गले में कानूनी फंदा डालकर ये सरकार डराना चाह रही है या खुद डरी हुई है?


सरकार के नए इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (इंटरमीडियरी गाइडलाइंस) नियम 2021 को लेकर बहुत कुछ अस्पष्ट है, संभवतः यह अस्पष्टता सायास और सप्रयोजन है और यह सरकार को अपनी सुविधानुसार इन नियमों की मनमानी व्याख्या करने की सुविधा प्रदान करेगी। बहरहाल नए इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (इंटरमीडियरी गाइडलाइंस) नियम 2021 के विषय में जो कुछ स्पष्ट है वह भी कम चिंताजनक नहीं है- मसलन सरकार की नीयत और इस नए नियम की घोषणा की टाइमिंग। 

कॉरपोरेट घरानों द्वारा नियंत्रित मीडिया के माध्यम से अघोषित सेंसरशिप की स्थिति बना देने की सरकारी रणनीति अब तक कामयाब रही थी। अनावश्यक एवं आभासी मुद्दों पर विमर्श को केंद्रित करने का करतब बड़े मीडिया हाउस बड़ी खूबी से अंजाम दे रहे थे। विपक्ष पर हमलावर और अपनी इच्छानुसार नायक तथा खलनायक गढ़ने वाला मुख्यधारा का मीडिया सरकार के सबसे सशक्त और वफादार सहयोगी की भूमिका निभा रहा था, किंतु किसान आंदोलन ने पूरा परिदृश्य ही बदल दिया। किसान आंदोलन के विषय में मुख्यधारा के मीडिया के एक बड़े हिस्से द्वारा की गई षड्यंत्रपूर्ण कवरेज अपने नापाक इरादों में नाकामयाब रही। इस आंदोलन को राष्ट्र विरोधी, खालिस्तानी, पाकिस्तान प्रायोजित तथा हरियाणा-पंजाब के संपन्न किसानों का आंदोलन सिद्ध करने की शरारती कोशिशें असफल रहीं।

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दरअसल इस बार किसान आंदोलन की जमीनी कवरेज करते जांबाज और साहसी पत्रकारों की व्यक्तिगत कोशिशों एवं  जनपक्षधर पत्रकारिता पर विश्वास करने वाले न्यूज़ पोर्टल्स के ईमानदार प्रयासों से किसान आंदोलन का शांतिप्रिय और अहिंसक स्वरूप आम लोगों के सम्मुख बड़ी मजबूती और पारदर्शिता के साथ रखा गया। ट्रॉली टाइम्स जैसे अखबारों ने जन्म लिया और किसान आंदोलन को वह स्पेस प्रदान किया जिससे उसे मुख्यधारा के मीडिया द्वारा वंचित किया गया था। अनेक यू ट्यूब चैनल अस्तित्व में आए जिन पर किसानों और किसानी से संबंधित खबरें दिखाई जाने लगीं। इन स्वतंत्र पत्रकारों और न्यूज़ पोर्टल्स द्वारा आंदोलन की जो कवरेज की गई वह किसी भी तरह एकपक्षीय नहीं थीं। किसान आंदोलन में राजनीतिक दलों के प्रवेश का मसला या ट्रैक्टर रैली के दौरान हुई हिंसा का मामला या बॉर्डर पर स्थानीय लोगों के आक्रोश का सवाल और ऐसे ही हर ज्वलंत मुद्दे बड़ी बेबाकी से इन पत्रकारों एवं पोर्टल्स द्वारा उठाया गए। किसान नेताओं से चुभते हुए सवाल भी पूछे गए और जनता की आशंकाओं एवं आकांक्षाओं को उन तक पहुंचाया भी गया। इसका परिणाम यह हुआ कि लोग न केवल किसान आंदोलन बल्कि बुनियादी मुद्दों से जुड़ी अन्य खबरों के लिए भी इस वैकल्पिक मीडिया की ओर उन्मुख होने लगे। जब जनता में इन न्यूज़ पोर्टल्स और यू ट्यूब चैनलों की लोकप्रियता बढ़ने लगी तो अनेक युवा पत्रकार इस ओर उन्मुख होने लगे और वैकल्पिक मीडिया बहुत तेजी से अपनी जड़ें जमाने लगा। यह सरकार के लिए किसी झटके से कम नहीं था।

सरकार जिस दूसरी बात से घबराई वह किसान आंदोलन के संचालन एवं इसके प्रचार प्रसार में सोशल मीडिया का सधा हुआ उपयोग था। सोशल मीडिया का प्रयोग किसी भी अभियान के संगठित एवं सुचारु संचालन हेतु किया जाना आजकल एक सामान्य प्रक्रिया है और इसमें कुछ भी असाधारण नहीं है। असाधारण तो सरकार की प्रतिक्रिया है जिसने दिशा रवि जैसी पर्यावरण कार्यकर्ता को केवल इस कारण प्रताड़ित करने का प्रयास किया कि उसने किसान आंदोलन के लिए पूरी दुनिया में सामाजिक सरोकारों और किसानों के हक के लिए काम करने वाले लोगों और संगठनों का समर्थन हासिल करने की कोशिश की थी।

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प्रायः सभी राजनीतिक दल, बड़ी बड़ी कंपनियां एवं अलग अलग लक्ष्यों के लिए कार्य करने वाले समूह जब भी किसी अभियान को संचालित करते हैं तब उनके सोशल मीडिया सेल टूलकिट का प्रयोग अनिवार्यतः करते हैं। टूलकिट दरअसल उस अभियान से जुड़े लोगों के मध्य कार्ययोजना के महत्वपूर्ण बिंदुओं और अभियान के भावी स्वरूप को साझा करने हेतु प्रयुक्त होती है। इसमें न केवल अभियान को सोशल मीडिया में लोकप्रिय बनाने संबंधी सुझाव और निर्देश होते हैं बल्कि अभियान के जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन की रणनीति का भी जिक्र होता है। सोशल मीडिया एवं मार्केटिंग स्ट्रेटेजी के जानकारों के अनुसार, टूलकिट का प्रमुख उद्देश्य किसी मुहिम से जुड़े लोगों एवं उस मुहिम के समर्थकों के मध्य समन्वय स्थापित करना होता है। सामान्यतया टूलकिट में इस बात से संबंधित निर्देश होते हैं कि अभियान से जुड़े लोगों द्वारा सोशल मीडिया पर क्या लिखा जाए, किस हैशटैग का प्रयोग किया जाए, ट्वीट और सोशल मीडिया पोस्ट करने का सर्वाधिक उपयुक्त और लाभकारी समय कौन सा है और किन्हें ट्वीट्स अथवा फ़ेसबुक पोस्ट्स में टैग करने से लाभ होगा। जब किसी अभियान से जुड़े लोग और उनके समर्थक सोशल मीडिया पर एक साथ सक्रिय होते हैं तो वह अभियान या मुहिम सोशल मीडिया पर ट्रेंड करने लगती है और समूचे विश्व का ध्यान इसकी ओर जाता है। कई बार जमीनी स्तर पर होने वाले धरना-प्रदर्शन-भूख हड़ताल आदि की जानकारी भी टूलकिट में होती है। स्वाभाविक रूप से आज के आंदोलनकारी  सोशल मीडिया का खुलकर प्रयोग करते हैं और टूलकिट इस आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होती है।

हाल के वर्षों में ऐसे कितने ही आंदोलन हैं जिनमें सोशल मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, बल्कि अनेक आंदोलन ऐसे भी हैं जो सोशल मीडिया की ही पैदाइश थे। अरब स्प्रिंग, कनाडा का मेपल स्प्रिंग, चिली और वेनेजुएला के छात्र आंदोलन, बांग्लादेश का शाहबाग आंदोलन, यादवपुर विश्विद्यालय के छात्रों का होक कलरव आंदोलन- ये सारे सोशल मीडिया पर किसी न किसी रूप से आधारित थे। यदि हम केवल वर्ष 2020 की बात करें तो क्लाइमेट स्ट्राइक कैंपेन, एन्टी लॉकडाउन प्रोटेस्ट, द ब्लैक लाइव्स मैटर मूवमेंट, द ब्लैक फ्राइडे अमेज़न प्रोटेस्ट्स, अमेरिकी राजधानी की घेरेबंदी, हांगकांग और शाहीनबाग के विरोध प्रदर्शन जैसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जहां जन आंदोलनों में सोशल मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यदि सोशल मीडिया के उभार के बाद के आंदोलनों के इतिहास पर नजर डालें तो हम अनेक सत्ता विरोधी और सत्ता समर्थक जन आंदोलनों को सोशल मीडिया द्वारा प्रेरित, नियंत्रित और संचालित होता देखते हैं। इनमें से अनेक आंदोलन हिंसक भी हुए हैं और इनमें जनहानि भी हुई है, किंतु इनमें हुई हिंसा के लिए अकेले सोशल मीडिया को उत्तरदायी ठहराना उचित नहीं है। आंदोलन के नेतृत्व की प्राथमिकताएं और गलतियां तथा अनेक बार सरकार द्वारा की गई दमनात्मक और उकसाने वाली कार्रवाई भी हिंसा भड़कने के लिए जिम्मेदार रही हैं। अतः किसी ऐसे सामान्यीकरण का सहारा लेना ठीक नहीं है कि सारे आंदोलन हिंसक और राष्ट्रविरोधी होते हैं या सोशल मीडिया हमेशा ही हिंसा फैलाने वाला और शत्रु देशों के षड्यंत्र का एक भाग होता है। ये मिथ्या पूर्वधारणाएं हैं।

हमें प्रत्येक आंदोलन और उससे जुड़े सोशल मीडिया एक्टिविस्ट्स की पृथक केस स्टडी करनी होगी। साथ ही संबंधित सरकारों के असहमत स्वरों के साथ किए जा रहे व्यवहार के पैटर्न को भी समझना होगा। दिशा रवि को जमानत देते हुए दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट कॉम्प्लेक्स के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा की टिप्पणी वर्तमान सरकार के अहंकार, अलोकतांत्रिक सोच एवं दमनकारी रवैये को समझने में सहायक है। माननीय न्यायाधीश ने लिखा-

मेरे विचार से नागरिक एक लोकतांत्रिक देश में सरकार पर नजर रखते हैं। केवल इस कारण कि वे राज्य की नीतियों से असहमत हैं, उन्हें कारागार में नहीं रखा जा सकता। राजद्रोह का आरोप इसलिए नहीं लगाया जा सकता कि सरकार को उनकी असहमति या विरोध से चोट पहुंची है। मतभेद, असहमति, अलग विचार, असंतोष, यहां तक कि अस्वीकृति भी राज्य की नीतियों में निष्पक्षता लाने के लिए आवश्यक उपकरण हैं। एक सजग एवं मुखर नागरिकता एक उदासीन या विनम्र नागरिकता की तुलना में निर्विवाद रूप से एक स्वस्थ और जीवंत लोकतंत्र का संकेत है। संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत असंतोष का अधिकार बहुत सशक्त रूप से दर्ज है। महज पुलिस के संदेह के आधार पर किसी नागरिक की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। मेरे विचार से बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में ग्लोबल ऑडियंस तलाशने का अधिकार सम्मिलित है। संचार पर किसी प्रकार की कोई भौगोलिक बाधाएं नहीं हैं। प्रत्येक नागरिक के पास विधि के अनुरूप संचार प्राप्त करने के सर्वोत्तम साधनों का उपयोग करने का मौलिक अधिकार है। यह समझ से परे है कि प्रार्थी पर अलगाववादी तत्वों को वैश्विक मंच देने का लांछन किस प्रकार लगाया गया है? एक लोकतांत्रिक देश में नागरिक सरकार पर नजर रखते हैं, केवल इस कारण से कि वे सरकारी नीति से असहमत हैं, उन्हें कारागार में नहीं रखा जा सकता। देशद्रोह के कानून का ऐसा उपयोग नहीं हो सकता। सरकार के घायल अहंकार पर मरहम लगाने के लिए देशद्रोह के मुकदमे नहीं थोपे जा सकते। हमारी पांच हजार साल पुरानी सभ्यता अलग-अलग विचारों की कभी भी विरोधी नहीं रही। ऋग्वेद में भी पृथक विचारों का सम्मान करने विषयक हमारे सांस्कृतिक मूल्यों का उल्लेख है। ऋग्वेद के एक श्लोक के अनुसार- हमारे पास चारों ओर से ऐसे कल्याणकारी विचार आते रहें जो किसी से न दबें, उन्हें कहीं से भी रोका न जा सके तथा जो अज्ञात विषयों को प्रकट करने वाले हों।

दिशा रवि की सोशल मीडिया गतिविधियों पर भी माननीय न्यायाधीश की टिप्पणी अत्यंत महत्वपूर्ण है-

मुझे नहीं लगता कि एक वॉट्सऐप ग्रुप का निर्माण करना अथवा किसी हानिरहित टूलकिट का एडिटर होना कोई अपराध है। तथाकथित टूलकिट से यह ज्ञात होता है कि इससे किसी भी प्रकार की हिंसा भड़काने की चेष्टा नहीं की गई थी।

किंतु सरकार के नए इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (इंटरमीडियरी गाइडलाइंस) नियम 2021 के प्रावधान इस प्रकार से बनाए गए हैं कि असहमति और विरोध के स्वरों को सहजता से कुचला जा सके। ऐसा प्रतीत होता है कि इन नियमों के क्रियान्वयन के बाद डिजिटल मीडिया से जुड़े मसलों पर निर्णय लेने की न्यायालयीन शक्तियां कार्यपालिका के पास पहुँच जाएंगी और सरकार के चहेते नौकरशाह डिजिटल मीडिया कंटेंट के बारे में फैसला देने लगेंगे।  समसामयिक विषयों पर आधारित कोई भी प्रकाशन न केवल संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत प्राप्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित होता है बल्कि यह नागरिक के सूचना प्राप्त करने के अधिकार और भिन्न-भिन्न विचारों और दृष्टिकोणों से अवगत होने के अधिकार का भी प्रतिनिधित्व करता है। कार्यपालिका को न्यूज़ पोर्टल्स पर प्रकाशित सामग्री के विषय में निर्णय लेने का पूर्ण और एकमात्र अधिकार मिल जाना संविधानसम्मत नहीं है। यह लोकतंत्र की मूल भावना के विपरीत है।

इसी प्रकार मानहानि के संबंध में न्यायिक सिद्धांतों के अनुरूप अदालतों में सुनवाई और विधिक प्रक्रिया के बाद ही कोई निर्णय होता है, किंतु इन नियमों के क्रियान्वयन के बाद मानहानि से संबंधित मामलों में केंद्र सरकार द्वारा चयनित और नियंत्रित नौकरशाहों का एक समूह यह निर्णय कर सकेगा कि समसामयिक मामलों से संबंधित कोई समाचार या आलेख क्या अनुपयुक्त है और इसे ब्लॉक भी कर सकेगा। इसी प्रकार कोई सामग्री पोर्नोग्राफी की श्रेणी में आती है या नहीं, इसका निर्णय भी न्यायालय के स्थान केंद्र सरकार द्वारा निर्मित ब्यूरोक्रेट्स का एक समूह करेगा। सरकार अनुच्छेद (19)(2) का हवाला दे रही है जिसके अनुसार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से किसी भी तरह देश की सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता को नुकसान नहीं होना चाहिए। इन तीन चीजों के संरक्षण के लिए यदि कोई कानून है या बन रहा है, तो उसमें भी बाधा नहीं आनी चाहिए, किंतु यदि ऐसे गंभीर विषयों पर निर्णय सरकार के हित के लिए कार्य करने वाले कुछ नौकरशाह करने लगें और न्यायपालिका की भूमिका लगभग खत्म कर दी जाए तो डिजिटल मीडिया के लिए कार्य करना असंभव हो जाएगा।

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लिखित समाचार माध्यमों के विषय में व्यापक और पर्याप्त न्यायिक सिद्धांत उपस्थित हैं जो एक स्वर से यह कहते हैं कि इन्हें कार्यपालिका या प्रशासन तंत्र के किसी भी प्रकार के नियंत्रण से पूर्णतः मुक्त होना चाहिए। समसामयिक समाचारों को स्थान देने वाला न्यूज़ पोर्टल भी एक प्रकार का समाचार पत्र ही है, अंतर केवल इतना है कि यह डिजिटल फॉर्मेट में होता है। प्रेस काउंसिल का गठन भी समाचार पत्रों को कार्यपालिका अथवा प्रशासनिक नियंत्रण से मुक्त रखने और आत्म-अनुशासन  को सशक्त बनाने के ध्येय से किया गया था। यही स्थिति टेलीविजन की है जहाँ न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी जैसी संस्थाएं अस्तित्व में हैं। फिर डिजिटल मीडिया पर सरकारी नियंत्रण की हड़बड़ी का कोई कारण नहीं दिखता।

आईटी एक्ट 2000 अपने संरचनात्मक स्वरूप में किसी भी प्रकार डिजिटल मीडिया को समाहित नहीं करता। समाचार पत्र, प्रकाशक एवं समाचार तथा समसामयिक विषयों पर केंद्रित सामग्री जैसी अभिव्यक्तियाँ और परिभाषाएं इस एक्ट का हिस्सा नहीं हैं। ऐसी दशा में यह कहाँ तक उचित है आईटी एक्ट के दायरे में डिजिटल मीडिया को लाया जाए जबकि इस हेतु यह निर्मित ही नहीं हुआ है। यह प्रयास इसलिए और भी असंगत लगता है जब हमारे पास डिजिटल मीडिया को नियंत्रित करने के लिए नियमों और प्रक्रियाओं का एक सक्षम ढांचा मौजूद है।

यही कारण है कि डिजिपब न्यूज इंडिया फाउंडेशन की अगुवाई में ऑनलाइन प्रकाशनों ने इन नए नियमों को अनुचित, इनके नियमन की प्रक्रिया को अलोकतांत्रिक तथा इनके क्रियान्वयन की विधि को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन बताते हुए सूचना और प्रसारण मंत्री को पत्र लिखा है जिसमें इन सारी आशंकाओं का उल्लेख है। इन ऑनलाइन प्रकाशकों ने यह भी कहा है कि इन नियमों को तैयार करते वक्त उनसे कोई भी सलाह मशविरा नहीं किया गया था।

सोशल मीडिया के महत्व और उसकी शक्ति को प्रधानमंत्री जी और उनकी भाजपा से बेहतर कौन जानता है। गुजरात के विवादास्पद मुख्यमंत्री को देश और दुनिया के सबसे चर्चित और ताकतवर नेता की छवि प्रदान करने वाला सोशल मीडिया ही रहा है। आज भी प्रधानमंत्री जी को अलौकिक एवं अविश्वसनीय गुणों से विभूषित करने वाली ढेरों पोस्ट्स रोज परोसी जा रही हैं। प्रधानमंत्री जी के विवादास्पद निर्णयों और उनकी विफलताओं को उनकी चमकीली उपलब्धियों के रूप में प्रस्तुत करने का हुनर भी सोशल मीडिया के पास ही है। 

देश की गंगा-जमुनी तहजीब को खंडित करने लिए ऐतिहासिक तथ्यों और सत्यों के साथ खिलवाड़ कर तैयार की गई सोशल मीडिया पोस्ट्स एक नफ़रतपसंद समाज बनाने की ओर अग्रसर हैं। महात्मा गांधी और  जवाहरलाल नेहरू की चरित्र हत्या करने वाली और इन्हें देश की दुर्दशा के लिए उत्तरदायी ठहराने वाली पोस्ट्स की संख्या हजारों में है। गांधी और सुभाष, गांधी और आंबेडकर एवं गांधी और पटेल को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा करने वाली पोस्ट्स की संख्या इससे कम नहीं है। प्रमुख विरोधी दलों के नेताओं के चरित्र को कलंकित करने वाली नई पोस्ट्स रोज तैर रही हैं जिनमें ये भ्रष्ट, चरित्रहीन, आलसी, प्रमादी और विदूषकों के रूप में प्रस्तुत किए जा रहे हैं।  भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास के नए हिंसक पाठ को तेजी से जनस्वीकृति दिलाने का कार्य भी सोशल मीडिया ने ही किया है। साम्प्रदायिक और जातीय वैमनस्य को बढ़ावा देकर घृणा तथा हिंसा फैलाने वाली पोस्ट्स की दुनिया बहुत डरावनी है। मुसलमानों को हिंदुओं की दुर्दशा के लिए उत्तरदायी ठहराया जा रहा है। दलितों को सवर्णों की बदहाली के जिम्मेदार बताया जा रहा है। अल्पसंख्यक राष्ट्रद्रोही के रूप में प्रस्तुत किए जा रहे हैं। लोगों को धीरे-धीरे उस बिंदु तक पहुंचाया जा रहा है जब हिंसक प्रतिशोध उन्हें सहज लगने लगे।

यदि कानून मंत्री आदरणीय रविशंकर प्रसाद के शब्दों का प्रयोग करें तो यह जानना आवश्यक है कि यह सारी खुराफात कहाँ से प्रारंभ हुई है। भाजपा की आईटी सेल तो जाहिर है कि इन जहरीली पोस्ट्स से साफ किनारा कर लेगी। फिर हम सच तक कैसे पहुंचेंगे? क्या उन जन-चर्चाओं का सत्य कभी भी सामने नहीं आएगा जिनके अनुसार भाजपा की आईटी सेल को जितना हम जानते हैं वह विशाल हिमखण्ड का केवल ऊपर से दिखाई देने वाला हिस्सा है? अब तो प्रत्येक राजनीतिक पार्टी की एक आईटी सेल है। दुर्भाग्य से अधिकांश राजनीतिक पार्टियां भाजपा को आदर्श मान रही हैं और इनके आईटी सेल नफरत का जवाब नफरत और झूठ का उत्तर झूठ से देने की गलती कर रहे हैं। सारी पार्टियां फेक एकाउंट्स की अधिकतम संख्या के लिए प्रतिस्पर्धा कर रही हैं, नकली फॉलोवर्स की संख्या के लिए होड़ लगी है। ऐसी दशा में क्या फेसबुक और ट्विटर से सच्चाई सामने आ पाएगी?

आर्टिकल 19: क्या आप जानते हैं कि भारत ने ‘लोकतंत्र’ के रूप में अपनी स्थिति लगभग खो दी है?

जब सरकार यह कहती है कि इन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के व्यापार का एक बड़ा भाग भारत से होता है और इन्हें भारत के कानून के मुताबिक चलना होगा तो क्या इसमें यह संकेत भी छिपा होता है कि इन प्लेटफॉर्म्स को सरकार के हितों का ध्यान रखना होगा और सत्ता विरोधी कंटेंट से दूरी बनानी होगी? 

सूचना और प्रसारण मंत्री एवं कानून मंत्री अपनी पत्रकार वार्ता में आक्रामक दिखे और उन्होंने इन नियमों को कठोर निर्णय लेने वाली मजबूत सरकार के अगले कदम के रूप में प्रस्तुत करने की चेष्टा की, किंतु वास्तविकता यह है कि सरकार भयभीत है। सरकार का विरोध करने वाले पत्रकारों और बुद्धिजीवियों पर ईडी, इनकम टैक्स और सीबीआइ के छापे डाले जा रहे हैं। यह अलग बात है कि इससे इन संस्थाओं की विश्वसनीयता ही कम हुई है और ऐसी कार्रवाइयों के प्रति लोगों का भय भी घटा है। असहमत स्वरों पर राजद्रोह के मुकदमे कायम किए जा रहे हैं, किंतु अधिकतर मामलों में दोष सिद्ध नहीं हो पा रहा है। डिजिटल मीडिया ऐसा सच दिखा रहा है जो सरकार की नाकामियों को उजागर करता है। इसीलिए सरकार बौखलाई हुई है।

नियंत्रण, दमन और दंड द्वारा न तो विरोध को समाप्त किया जा सकता है न ही सच की आवाज़ दबाई जा सकती है। जनता विरोध के नए तरीके तलाश लेगी। बढ़ता जनाक्रोश गलत दिशा भी ले सकता है। यह हमारे लोकतंत्र के लिए घातक होगा। सरकार को चाहिए कि वह असहमति का आदर करे और समावेशी एवं सहिष्णु लोकतंत्र की स्थापना की ओर प्रयत्नशील हो।


डॉक्टर राजू पांडेय छत्तीसगढ़ के रायगढ़ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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