आज सवेरे कानपुर के विकास दुबे की पुलिस ने उस वक्त गोली मारकर हत्या कर दी जब गाड़ी पलटने के बाद घायलावस्था में किसी पुलिसकर्मी का हथियार छीनकर भागने की वह कोशिश कर रहा था. यह वही विकास दुबे है जिसने 2-3 जुलाई की रात में आठ पुलिसकर्मियों को मार गिराया था. यह वही विकास दुबे है जिसने कल उज्जैन के महाकाल मंदिर में सरेंडर किया था. यह वही विकास दुबे है जिसके ऊपर 65 से अधिक आपराधिक मुकदमे चल रहे थे. यह वही विकास दुबे है जिसे इतने मुकदमों के बावजूद स्थानीय कोर्ट ने ज़मानत दे दी थी.
इसके बावजूद विकास दुबे की हत्या को लेकर गोबरपट्टी में मोटे तौर पर खुशी की लहर जैसी स्थिति है. उत्तर प्रदेश की बीजेपी सरकार ने तो उसकी हत्या की ही है, यहां के सामान्य लोगों में हत्या को लेकर कोई सवाल नहीं है बल्कि पुलिस-प्रशासन के लिए प्रशंसा के भाव हैं. उस उत्तर प्रदेश पुलिस के लिए, जिसके बारे में एक बार इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा था कि उत्तर प्रदेश पुलिस ‘डकैत’ है!
सवाल यह है कि किसी भी समाज में कोई अपराधी एक दिन में नहीं बनता है और जब बात विकास दुबे जैसे अपराधियों की हो रही हो तो उसे बनने में तो कई बरस लग जाते हैं. क्या इस देश की जनता को यह जानने का अधिकार नहीं है कि विकास को विकास दुबे बनाने में किन-किन नेताओं, पुलिस अधिकारियों, समाज के किस तबके ने मदद की? आखिर वह इतना ताकतवर कैसे हो गया कि राजनाथ सिंह की सरकार के दौरान एक राज्यमंत्री की पुलिस थाने में जाकर हत्या कर देता है और उस मामले में 19 पुलिसवालों के गवाह होने के बावजूद उसे बरी कर दिया जाता है? आखिर किसका दबाव था या क्या कारण थे कि उस थाने के 19 के 19 पुलिसकर्मी गवाही देने से मुकर जाते हैं? इसकी पड़ताल क्यों नहीं हो सकी कि सब के सब गवाही देने से मुकर क्यों गये?
पिछले कुछ वर्षों से पूरे देश में इस तरह का माहौल बनाया गया है जिससे कि लोगों का विश्वास पूरी तरह से कानून-व्यवस्था से उठ जाए. वर्षों से सुनते आ रहे हैं कि हमारे देश में सत्तर फीसदी से अधिक पुलिस इनकाउंटर फर्जी होते हैं. लेकिन जो माहौल बना दिया गया है उसमें लगने लगा है कि अगर जनता किसी की हत्या की मांग पर उतर आए कि किसी खास नेता के मारे जाने पर जनता का काफी मनोरंजन होगा, तो सरकार क्या उस नेता की हत्या करवा देगी?
आखिर कोई व्यक्ति यह सवाल क्यों नहीं पूछ रहा है कि जिस व्यक्ति ने कल आत्मसमर्पण किया था, ऐसा कैसे हो सकता है कि कुछ ही घंटों में वह पुलिस की गिरफ्त से भागने की कोशिश करने लगा? सीधा सा सवाल यह है कि उसके पास इतने राज़ थे कि अगर वह अपना मुंह खोलता तो अपराध, राजनीति, सत्ता संरक्षण, नौकरशाही व जातिवादी नौकरशाही की कई परत लोगों के सामने खुलकर आ जाती और हत्यारी भीड़ बनी जनता उसी आपराधिक गठबंधन के पीछे पड़ गई होती.
ऐसा एक दिन में नहीं हुआ है. इसके लिए सत्ता पर काबिज सभी दलों के नेताओं और संस्थाओं पर काबिज हर व्यक्ति ने बखूबी आपराधिक भूमिका निभाई है. इसी का परिणाम था कि सुप्रीम कोर्ट ने ‘जनता की सामूहिक संतुष्टि के लिए’ एक व्यक्ति को फांसी पर लटकाने का आदेश दिया था.
विकास दूबे की हत्या इसका प्रमाण है कि इस देश में अब कानून का नहीं बल्कि बर्बरता का राज कायम हो गया है. योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्रित्व काल में यूपी की पुलिस ने जो किया है, वह इस बात को साबित करता है कि अब हमारे देश में किसी की भी हत्या की जा सकती है.
पहले राजसत्ता में बैठे लोग दलितों, पिछड़ों, मुसलमानों को गिन-गिन कर अपराधी साबित करवाते थे और बाद में अपराधी होने के नाम पर फर्जी मुठभेड़ में उनकी हत्या करवा दी जाती थी. उस समय भी समाज का एक छोटा तबका काफी जोर-शोर से ताली बजाता था, लेकिन पढ़ा-लिखा तबका इसका विरोध करता था. जब सामूहिक विवेक पर कब्जा किया जाने लगा तब तक बुद्धिजीवियों की हैसियत इतनी कम कर दी गई थी कि उनकी आवाज अपराधमुक्त समाज निर्माण में पूरी तरह दबा दी गई. आज स्थिति वैसी हो गई है कि एक आत्मसमर्पण किए हुए अपराधी को गोली मार दी जाती है और किसी भी तरफ से उस हत्या के खिलाफ आवाज नहीं उठती है!
और हां, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वह कोई सामान्य अपराधी नहीं है, बल्कि वह भारतीय सामाजिक व्यवस्था में सबसे उच्च ब्राह्मण जाति का अपराधी है जिसकी पहुंच सत्ता के शीर्ष तक रही है. सवाल यही है कि जब अपराधियों को इसी तरह फर्जी मुठभेड़ के नाम पर मार दिया जा रहा है तो न्याय प्रणाली की जरूरत क्यों है? इसके लिए भी कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि कानून प्रणाली इतना लचर हो गयी है कि न्याय मिलने में बहुत वक्त लग जाता है. यह सही है कि न्याय मिलने में वक्त लग जाता है लेकिन इसे बेहतर व जल्दी न्याय मिले, इस पर बात करने से किसने रोका है? आखिर त्वरित न्याय पर ही इतना जोर क्यों दिया जा रहा है? हम यह क्यों भूल जाते हैं कि हमारे देश की न्याय व्यवस्था में फांसी की सजा भी है.
आज रात विकास दुबे मारा गया, मान लीजिए कल रात अखिलेश यादव को भी मारा जा सकता है, परसों रात मायावती भी मारी जा सकती हैं, अगली किसी रात राहुल गांधी-प्रियंका गांधी मारे जा सकते हैं. सीताराम येचुरी, तेजस्वी यादव, डी राजा या कोई भी मारे जा सकते हैं, तब भी कुछ लोगों के मन में कोई सवाल नहीं होगा क्योंकि न्याय की अवधारणा को हर दिन खत्म किया जा रहा है और तत्काल न्याय को अमली जामा पहनाया जा रहा है!
हां, कोई यह सवाल पूछ सकता है कि विकास दुबे की तुलना अखिलेश, मायावती, राहुल आदि से क्यों की जा रही है जबकि विकास अपराधी था? तो मेरा जवाब सिर्फ यह है कि कानून का राज खत्म होने पर हर कोई मारा जा सकता है, सब मारा जाता है. जरूरी नहीं कि अगला नंबर अपराधी का ही हो, हम में से किसी का भी हो सकता है.
जितेंद्र कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और जनपथ के स्तंभकार भी हैं