बजट शिक्षा क्षेत्र में घोर असमानता, निजीकरण और बाजारीकरण बढ़ाने वाला है: RTEF


वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा सोमवार को पेश केंद्रीय बजट 2021-22 पर त्वरित प्रतिक्रिया देते हुए राइट टू एजुकेशन फोरम के राष्ट्रीय संयोजक अंबरीष राय ने कहा कि इस बजट ने एक बार फिर बेहद निराश किया है। देश की सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था पहले से ही ढेर सारी चुनौतियों से जूझ रही थी। इस बीच कोविड-19 जैसी वैश्विक महामारी ने भी शिक्षा क्षेत्र पर काफी प्रतिकूल प्रभाव डाला है। ऐसे में जरूरी था कि सरकार शिक्षा के मद में सामान्य से अधिक और अतिरिक्त कोविड पैकेज की घोषणा करती ताकि करोड़ों बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और जीवन के मूलभूत अधिकारों की रक्षा की जरूरतों को बल मिलता।

हम हमेशा से मांग करते रहे हैं कि कुल बजट का दस फीसदी और सकल घरेलू उत्पाद का 6 फीसदी शिक्षा पर खर्च किया जाये। लेकिन, इसके उलट इस बजट में विगत वर्ष के कुल शिक्षा बजट 99312 करोड़ रुपये के मुक़ाबले सिर्फ 93224 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं। यह पिछले आवंटन की तुलना में 6088 करोड़ रुपये कम है। ये अजीब बात है कि मौजूदा वित्तीय वर्ष 2021-22 में समग्र शिक्षा अभियान के लिए आवंटित बजट 31050 करोड़ है, जो 2019 -20 के वास्तविक व्यय 32376.52 करोड़ से भी कम है। अगर हम पिछले वर्ष 2020-21 में राष्ट्रीय शिक्षा मिशन (समग्र शिक्षा अभियान और शिक्षक प्रशिक्षण एवं वयस्क शिक्षा) के तहत आवंटन को देखें तो 38860 करोड़ के मुक़ाबले इस बार महज 31300 करोड़ ही आवंटित किए गए हैं।

sbe24

नई शिक्षा नीति में बालिका शिक्षा को प्रोत्साहन के लिए लैंगिक समावेशी कोष (जेंडर इंक्लूसिव फंड) की बात की गई थी, जिसकी कोई चर्चा बजट में नहीं है। बल्कि माध्यमिक स्कूलों में पढ़नेवाली लड़कियों के लिए प्रोत्साहन के लिए राष्ट्रीय योजना (नेशनल स्कीम फॉर इनसेंटिव टू गर्ल्स फॉर सेकंडरी एजुकेशन) के तहत दी जानेवाली राशि पिछले साल के 110 करोड़ रुपये से घटाकर 1 करोड़ रुपये कर दी गई है।

अंबरीष राय ने निराशा व्यक्त करते हुए कहा कि-

एक समावेशी सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को मजबूत करने के लिए आवंटन बढ़ाने के बजाय सरकार शिक्षा में निजीकरण और पीपीपी मॉडल का मार्ग प्रशस्त कर रही है। यह उपेक्षा बच्चों, विशेष रूप से गरीब, हाशिए पर रहने वाले समुदायों और लड़कियों के साथ-साथ भारत में आउट ऑफ स्कूल बच्चों की बढ़ती संख्या पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगी। सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) 2030 के मुताबिक तय लक्ष्यों और हाल में ही आई राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 की सिफ़ारिशों के मद्देनजर पूर्व-प्राथमिक से उच्चतर माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा को सभी बच्चों तक पहुंचाने यानी सार्वभौमिक बनाने की प्रतिबद्धता तो इस आधे-अधूरे बजट की बुनियाद पर सिर्फ हवाई सपना ही बना रहेगा।

क्या थी अपेक्षा जो इस बजट में नहीं मिला

यदि सरकार वाकई सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को मजबूत और पुनर्जीवित करने का इरादा रखती है, तो उसे पूर्व-प्राथमिक से कक्षा 12 (3-18 वर्ष) तक सभी बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा सुनिश्चित करने हेतु शिक्षा के अधिकार कानून, 2009 के विस्तार के मद्देनजर पर्याप्त बजट आवंटन पर ज़ोर देना चाहिए था। देश के स्कूलों में 17.1 फीसदी शिक्षकों के पद खाली हैं (कुल स्वीकृत 61.8 लाख पदों में से 10.6 लाख पद वर्ष 2020-21 के शैक्षणिक साल में रिक्त रहे) जिन्हें तत्काल भरे जाने की जरूरत है। यू डाइस 2016-17 के एक आंकड़े के मुताबिक 18% अध्यापक योग्यता के मामले में शिक्षा अधिकार क़ानून, 2009 के मानकों पर खरे नहीं उतरते हैं जिनके प्रशिक्षण और नियमितीकरण का काम अभी अधूरा है।

ऑनलाइन शिक्षा के कारण भी असमानता की एक बड़ी खाई पैदा हो गई है, क्योंकि 80 प्रतिशत गांवों में रहने वाले तथा शहरों के गरीब बच्चे, जिनमें लड़कियों की संख्या बहुतायत है, कम्प्यूटर, लैपटॉप, स्मार्ट फोन तथा उचित संसाधनों के अभाव के कारण शिक्षा के दायरे से बाहर होते जा रहे हैं। कोरोना काल के बाद स्कूलों के खुलने की बात हो रही है और आशंका है कि 25 से 30 फीसदी बच्चे स्कूलों से ड्रॉप आउट हो जाएँगे। दूसरी तरफ, बच्चों को शिक्षा का बुनियादी हक दिलानेवाला शिक्षा अधिकार कानून 2009 11 साल गुजर जाने के बाद भी महज 12.7% स्कूलों में ही लागू किया जा सका है।

अभी भी हमारे 52 से 54 फीसदी स्कूल बुनियादी सुविधाओं के अभाव से जूझ रहे हैं जहां स्वच्छ पीने का पानी, हाथ धोने की सुविधा व प्रयोग में लाने लायक शौचालय नहीं है। इन तमाम दुश्वारियों से निपटने के लिए आर्थिक संसाधनों की पहले से भी ज्यादा जरूरत थी।

इसमें कोई संदेह नहीं कि आर्थिक संसाधनों के बगैर न तो शिक्षा अधिकार कानून पूरी तरह लागू हो सकता है और न ही हाल में कैबिनेट द्वारा स्वीकार की गई नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का क्रियान्वयन हो सकता है। लेकिन सरकार अपने बजट अभिभाषण में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के के अनुरूप बनाए जाने वाले 15000 मॉडल विद्यालयों, 750 एकलव्य विद्यालयों और पीपीपी मॉडल में 100 सैनिक स्कूलों के खोले जाने का महज उल्लेख करके देश के करोड़ों–करोड़ बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लेना चाहती है।

“राइट टू एजुकेशन फोरम का स्पष्ट मानना है कि यह बजट करोड़ों बच्चों के भविष्य को अंधकार में धकेलने, उच्च शिक्षा व्यवस्था की तर्ज पर स्कूली शिक्षा को भी निजी व कॉर्पोरेट घरानों के हाथों में सौंपने और देश के आम नागरिकों के बच्चों को दोयम दर्जे की शिक्षा तक सीमित रखने का बजट है। यह बजट सार्वजनिक शिक्षा और बाल अधिकारों के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता पर गंभीर सवाल खड़े करती है।”


मित्ररंजन
मीडिया समन्वयक
आरटीई फोरम
संपर्क: -9717965840


About जनपथ

जनपथ हिंदी जगत के शुरुआती ब्लॉगों में है जिसे 2006 में शुरू किया गया था। शुरुआत में निजी ब्लॉग के रूप में इसकी शक्ल थी, जिसे बाद में चुनिंदा लेखों, ख़बरों, संस्मरणों और साक्षात्कारों तक विस्तृत किया गया। अपने दस साल इस ब्लॉग ने 2016 में पूरे किए, लेकिन संयोग से कुछ तकनीकी दिक्कत के चलते इसके डोमेन का नवीनीकरण नहीं हो सका। जनपथ को मौजूदा पता दोबारा 2019 में मिला, जिसके बाद कुछ समानधर्मा लेखकों और पत्रकारों के सुझाव से इसे एक वेबसाइट में तब्दील करने की दिशा में प्रयास किया गया। इसके पीछे सोच वही रही जो बरसों पहले ब्लॉग शुरू करते वक्त थी, कि स्वतंत्र रूप से लिखने वालों के लिए अखबारों में स्पेस कम हो रही है। ऐसी सूरत में जनपथ की कोशिश है कि वैचारिक टिप्पणियों, संस्मरणों, विश्लेषणों, अनूदित लेखों और साक्षात्कारों के माध्यम से एक दबावमुक्त सामुदायिक मंच का निर्माण किया जाए जहां किसी के छपने पर, कुछ भी छपने पर, पाबंदी न हो। शर्त बस एक हैः जो भी छपे, वह जन-हित में हो। व्यापक जन-सरोकारों से प्रेरित हो। व्यावसायिक लालसा से मुक्त हो क्योंकि जनपथ विशुद्ध अव्यावसायिक मंच है और कहीं किसी भी रूप में किसी संस्थान के तौर पर पंजीकृत नहीं है।

View all posts by जनपथ →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *