चंद्रशेखर के साथ गठबंधन न करने की चूक क्या समाजवादी पार्टी को भारी पड़ी?


चुनावी प्रक्रिया में निर्णय के कुछ ऐसे क्षण आते हैं जब संतुलित दृष्टि से लिया गया एक निर्णय परिणाम की धारा को बदलकर रख देता है, जबकि इसका विपरीत जीती जाने वाली बाजी को गंवा देता है। मेरा आकलन है कि अखिलेश यादव द्वारा भीम आर्मी के चीफ चंद्रशेखर आजाद ‘रावण’ को दरकिनार कर देना उत्तर प्रदेश के इस चुनाव में एक भारी रणनीतिक भूल थी, जिसका खामियाजा समाजवादी पार्टी को भुगतना पड़ा।

अगर 15 और 16 जनवरी के घटनाक्रम को एक बार याद करें तो सपा सुप्रीमो ने अत्यंत आक्रामक अंदाज में कहा था कि अब वह किसी के भी साथ कोई सीट शेयरिंग नहीं करने जा रहे हैं और सपा के दरवाजे बंद हो चुके हैं। राजनीति में इस तरह के ‘एरोगेंस’ के लिए कोई जगह नहीं होती है खासकर तब जब आप एक सशक्त सत्तारूढ़ पार्टी से मुकाबला करने जा रहे हों, जो छोटी-सी चूक का भी लाभ उठाने का मौका नहीं गंवाती है! इसके बाद उस दिन तथाकथित मुख्यधारा के सभी मीडिया चैनलों ने चंद्रशेखर आजाद की प्रेस कांफ्रेंस का लाइव कवरेज दिखाया, जिसमें वह भावुक अंदाज में रोते हुए कहते हैं कि अखिलेश यादव उनके बड़े भाई हैं और अगर वे एक बार बोल दें तो वे उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हो जाएंगे। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि लगता है कि अखिलेश जी को दलितों की जरूरत नहीं है, वे अपने इस गठबंधन में दलित लीडरशिप को नहीं चाहते। अखिलेश यादव की ओर से इसके प्रतिवाद में कोई ठोस बयान नहीं आया, जो बयान आया उसमें उठाए गए मसलों पर उन्होंने अपनी दृष्टि स्पष्ट नहीं की।   

चुनावों में धारणा और उसके संकेतों का बहुत महत्व होता है। चंद्रशेखर रावण के इस भावुक अंदाज ने दलित मतदाताओं को एक संदेश देने का काम किया कि समाजवादी पार्टी को उनके नेता की परवाह नहीं है। इतना ही नहीं, अपने को अपमानित करने का आरोप लगाते हुए चंद्रशेखर रावण ने दलित समुदाय के मुद्दे पर अखिलेश यादव के रवैये को लेकर भी जो प्रश्न उठाए, उन सबने दलित वर्ग के एक तबके को समाजवादी पार्टी से अलग करने का काम किया।

विगत वर्षों में चंद्रशेखर आजाद और उनकी भीम आर्मी ने विशेष तौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के युवा दलित समाज में अपनी पहचान कायम की है, इससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता। अपने आक्रामक अंदाज से उन्होंने युवा दलित वर्ग में अपनी पैठ बनाई है। ऐसी बात नहीं है कि दलित वर्ग ने समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों को वोट नहीं दिया, पिछले वर्षों की तुलना में अधिक दिया लेकिन चंद्रशेखर को साथ रखकर वे इसमें और इजाफ़ा कर सकते थे और जो संभवतः कम अंतर से हारी हुई सीटों पर निर्णायक साबित होता। इससे दलितों में उनका रुझान भी बढ़ता तथा पूरे उत्तर प्रदेश पर इसका प्रभाव पड़ता।       

उत्तर प्रदेश में 26 ऐसी सीटें रहीं, जहाँ पांच हजार से कम अंतर से समाजवादी पार्टी और उनके सहयोगी दल चुनाव हार गए। इनमें से कुछ सीटों पर अंतर हजार से भी कम है और ये पश्चिमी उत्तर प्रदेश की हैं, जहां के दलित वोट पर भीम आर्मी का प्रभाव है। धामपुर विधानसभा में भाजपा 203 वोट से जीती, जबकि यहां से चंद्रशेखर रावण की पार्टी के उम्मीदवार को 571 वोट मिले। नकुर विधानसभा में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार धर्मसिंह सैनी भाजपा प्रत्याशी से मात्र 315 वोट से हार गए और रावण के उम्मीदवार को 616 वोट मिले। नहटौर विधानसभा में सपा के सहयोगी रालोद उम्मीदवार 258 वोटों के अंतर से भाजपा उम्मीदवार से पराजित हुए और यहां से आजाद समाज पार्टी को 1338 वोट मिले। इसी तरह बड़ौत, बिलासपुर, कटरा, कुर्सी, मुरादाबाद नगर आदि सीटों पर भी हार-जीत का अंतर एक हजार से कम का रहा है। अगर भीम आर्मी को भी समाजवादी पार्टी गठबंधन में साथ ले लेती तो हो सकता है कि ये सीटें आज उनके कब्जे में होतीं।

ऐसा करके अखिलेश यादव दलित वोटर के मन की आशंकाओं- जिसको उभारने में भाजपा सफल रही- को दूर कर सकते थे तथा एक सकारात्मक संदेश देने में भी कामयाब होते कि वे सभी वर्गों को साथ लेकर चल रहे हैं। इतना ही नहीं, ऐसा करके वे दलित वोटर को बसपा में जाने से रोकने में भी कुछ हद तक कामयाब होते, लेकिन अखिलेश ने एक निर्णायक मोड़ पर इस मौके को अपने हाथ से गंवा दिया।

चुनाव मैदान में उतरने के क्रम में अखिलेश यादव को पत्रकारों के एक वर्ग से जो फीडबैक मिला, उससे संभवतः वे अतिआत्मविश्वास का शिकार हो गए थे और उन्हें उस समय लगा होगा कि वे अपने सहयोगियों के साथ चुनाव जीत जाएंगे। उन्होंने जिन दलों के साथ समझौता किया था, उनमें ज्यादातर पिछड़ा वर्ग से संबंध रखने वाली पार्टियां थीं। उसमें चंद्रशेखर आजाद ‘रावण’ की तरह कोई चर्चित दलित चेहरा नहीं था जो दलित वोटर को खींच सके। स्वीकार्य दलित चेहरे के अभाव के कारण बसपा की ओर जाने वाले वोटर को अपनी ओर खींचने का एक मौका उन्होंने गंवा दिया। खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में। यह गठबंधन अखिलेश यादव को इसलिए भी कर लेना चाहिए था क्योंकि ओवैसी मुस्लिम आबादी वाले इलाकों में अपने उम्मीदवार उतारकर कहीं न कहीं समाजवादी पार्टी को नुकसान पहुँचाने वाले थे और जो परिणामों का आकलन करने से सही भी साबित होता है।

चंद्रशेखर को साथ लेकर वे दलित समुदाय को एक संकेत देने में सफल हो सकते थे और चुनाव में सफलता की दृष्टि से ये संकेत अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं। इसका लाभ वे पूरे उत्तर प्रदेश में उठा सकते थे। इससे अखिलेश जी को यह भी समझना चाहिए कि राजनीति में झोंक में आकर निर्णय लेने से बचना हितकर होता है, शायद अगली बार वे इस तरह की चूक न करें।


डॉ. समरेन्द्र कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय के श्यामलाल कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं


About डॉ. समरेन्द्र कुमार

View all posts by डॉ. समरेन्द्र कुमार →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *