दिल्‍ली को झुग्‍गीमुक्‍त करने का केजरीवाल और मोदी का वादा क्‍या ऐसे पूरा होगा?


एक ओर जहां कोरोना महामारी के चलते “घर पर रहिए सुरक्षित रहिए” का प्रचार किया जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ बीते 31 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने 3 महीने के भीतर दिल्‍ली में 140 किलोमीटर रेलवे ट्रैक के किनारे से 48000 झुग्गी बस्तियों को हटाने का आदेश दे डाला है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि इस आदेश पर किसी भी राजनीतिक हस्तक्षेप और किसी भी कोर्ट के द्वारा स्टे नहीं लगाया जा सकता है। आदेश का स्‍थानीय लोग तो विरोध कर ही रहे हैं, इस पर अदालत में राजनीति भी शुरू हो चुकी है।

झुग्गी बस्तियों को तोड़ने का यह सिलसिला कई दशकों से बना हुआ है। 1960 के दशक से ही दिल्ली में झुग्गी बस्तियों को तोड़ने की घटनाएं आम रही हैं परंतु बस्तियों को तोड़ने की ऐसी घटनाएं अक्सर अनदेखी रही हैं। दिल्ली के राजनीतिक दांवपेंच और कानूनी  भय व असुरक्षा की स्थितियों के बीच बसे इन इलाकों पर एक नजर डालें, तो हम पाते हैं कि 1987 में संगम विहार (देवली से लेकर तुगलकाबाद तक फैले) झुग्गी बस्ती- जिसमें उस दौरान एक लाख से ज्यादा लोग रह रहे थे, उन्हें बेघर करने का प्रयास किया गया था। 2000 और 2002 के बीच कोर्ट ने कूड़ा, मलबा और उसके निस्‍तारण के लिए दोषी झुग्गी बस्तियों को हटाने का आदेश जारी किया और यमुना पुश्‍ता की झुग्गियों को ध्वस्त कर दिया, जिसमें से 3 से 4 लाख लोगों को बेघर किया गया। इन्हें उजाड़ने के पीछे यमुना नदी को साफ रखने का तर्क दिया गया था।

2010 के कॉमनवेल्थ खेलों के समय 217 झुग्गी-झोपड़ी को तोड़ा जाना था लेकिन इससे भी ज़्यादा झुग्गियां तोड़ी गयीं। 2013 में पीडब्ल्यूडी द्वारा दावा किये गये ‘राइट ऑफ़ वे’ का हवाला देते हुए दक्षिणी दिल्ली के सोनिया गांधी कैम्प में 40 झुग्गियां तोड़ी गयीं और झुग्गीवालों को पुनर्वासित करने की ज़िम्मेदारी से पल्‍ला झाड़ लिया गया। 2014 में दक्षिणी दिल्ली की रंगपुरी पहाड़ी में बस्तियों को उजाड़ दिया गया जिसमें 2000 लोग बेघर हो गये। 2015 में हाफिज़ नगर की झुग्गियों के हटने से 600 लोग बेघर हो गये। 12 दिसंबर 2015 को शकूरबस्ती रेलवे स्टेशन से सटी कुछ बस्तियों को यह कहते हुए हटा दिया गया कि वहां नया पैसेंजर टर्मिनल बनाने में दिक्कत आ रही है।

बरसों पहले तोड़ दिया गया यमुना पुश्‍ता, केवल एक मंदिर और एक मस्जिद को बख्‍श दिया गया था

दरअसल, झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोगों के साथ हमेशा से ही खराब व्यवहार किया जाता रहा है। केवल चुनाव से पहले झुग्गीवासियों को नागरिकों की तरह देखा जाता है। नेता-मन्त्री लोग झुग्गियों की जगह पक्के मकान देने का वादा करके झुग्गीवासियों को चुनाव प्रचार के दौरान रिझाते हैं। सरकार बन जाने के बाद उनके किये वादे किसी कोने में धूल फांकते रह जाते हैं।

शहरीजन  को  चांद में  धब्बे की तरह दिखायी देने वाली मलिन झुग्गी बस्तियां, जहां पीने का साफ पानी नहीं होता, सड़कों, प्रकाश व स्‍वच्‍छ वातावरण का अभाव होता है और शौच की सुविधा नहीं होती, बावजूद इसके ये झुग्गी बस्तियां लाखों लोगों के लिए किसी तरह से जीवन बसर करने का एक ज़रिया हैं। झुग्गियां वास्‍तव में महानगरीय अर्थव्यवस्था का एक स्तंभ हैं क्योंकि इन झुग्गियों से सस्ता श्रम और सस्ता माल तैयार होकर निकलता है। ये झुग्गियां शहर को कई तरह की सेवाएं देने वाले लोगों की बस्ती है, मगर कभी स्वच्छता अभियान के नाम पर तो कभी सरकारी ज़मीन पर अतिक्रमण के नाम पर या फिर ‘राइट ऑफ़ वे’  के नाम पर झुग्गियों को मिट्टी के ढेर में तब्दील कर दिया जाता है।

दिल्ली मानव विकास रिपोर्ट, 2006 के अनुसार कुल आबादी का 45 फीसद हिस्सा झुग्गी बस्ती में रह रहा था। शहरी आवास और सुधार बोर्ड की 2010 की रिपोर्ट के अनुसार कुल 30 लाख लोग दिल्‍ली की झुग्गी बस्तियों में रह रहे थे। लगभग 90 फीसद झुग्गियां दिल्ली में अनियमित कॉलोनी के रूप में सरकारी ज़मीन पर हैं जबकि भारत सरकार के 2011 के एक सर्वे के अनुसार दिल्ली में शहरी आबादी का 15 फीसद (लगभग 10 लाख लोग) झुग्गी बस्तियों में ही रहते हैं।

झुग्गियों के उजाड़ जाने के बाद झुग्गीवासियों के पुनर्वासन की ज़िम्मेदारी किसकी बनती है? झुग्गियों से जुड़ी पुनर्वासन की यह समस्या बेहद पेचीदा है। दिल्ली की झुग्गियां जिस 63 फीसद ज़मीन पर हैं, वे  डीडीए और रेलवे की है जो केन्द्र सरकार के अन्तर्गत आते हैं। शेष ज़मीन डीयूएसआइबी, एमसीडी, पीडब्ल्यूडी के अन्तर्गत आती है। ऐसे में केन्द्र और राज्य सरकार क़ानून के सामने अपने को बेबस दिखाते हुए झुग्गीवासियों को बेघर करने के बाद उनके प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों से पीछे हट जाती हैं। सरकार इस जिम्मेदारी से बच निकलने में इसलिए सफल हो जाती हैं क्योंकि झुग्गियों के पुनर्वासन के लिए बनाये गये क़ानूनों में पारदर्शिता की कमी है। अप्रत्यक्ष कर के रूप में सरकार हर साल करोड़ों रुपया मजदूर जनता से वसूलती है, इसलिए स्पष्ट रूप से झुग्गीवासियों के पुनर्वास की ज़िम्मेदारी राज्य की होती है परंतु इस पैसे से रोज़गार के नये अवसर और झुग्गीवालों को मकान देने के बजाय सरकार बड़े उद्योगपतियों को सब्सिडी देने में ख़र्च कर देती है।

दिल्‍ली के मुख्‍यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने 2015 में दिल्ली को झुग्गीमुक्त करने और 2022 तक सभी को पक्का घर देने का वादा किया था। प्रधानमंत्री मोदी ने भी झुग्गीवासियों को मकान देने वादा किया था। इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर राजनैतिक पार्टियां इसका दोष एक दूसरे पर थोप रही हैं। क्या देश को झुग्गीमुक्त बनाने का प्रयास झुग्गियों को तोड़ कर और लाखों लोगों को बेघर कर के किया जाएगा? क्या झुग्गी के मलबे के ढेर के साथ इन लाखों झुग्गीवासियों के वर्तमान और भविष्य को भी अंधकार की गोद में धकेल दिया जाएगा? क्या इनकी आँखों में उज्‍ज्‍वल भविष्य के सपने पनपने से पहले ही उन्‍हें छीन लिया जाएगा?


लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय की शोधार्थी हैं


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