संंतोष शर्मा और विक्रम पोद्दार की शहादत से निकल रही है सामाजिक न्याय की राजनीति की नयी धारा


अतिपिछड़ों-महादलितों के वोट बैंक पर राज करने वाले नीतीश कुमार के राज में पिछले दिनों बिहार के सवर्ण-सामंती दबदबे वाले बेगूसराय जिला में सवर्ण सामंती ताकतों के दबाव पर अत्यंत पिछड़ी जाति से आने वाले और फुले-अम्बेडकर विचारधारा को मानते हुए बड़े फलक में बहुजन राजनीति करने वाले नौजवान सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता संतोष शर्मा तथा अंतर्जातीय (ब्राह्मण लड़की) प्रेम करने के कारण से अत्यंत पिछड़ी जाति के ही विक्रम पोद्दार की हत्या पुलिस द्वारा की जाती है।

विक्रम पोद्दार गांव की ही एक ब्राह्मण लड़की से प्रेम करता है और दोनों भाग कर दिल्ली चले जाते हैं। लड़की की पारिवारिक पृष्ठभूमि सवर्ण सामंती होने के वजह से पुलिस प्रशासन दबाव में आकर लड़का और लड़की को लगभग 59 दिन बाद दिल्ली से पकड़ कर बेगूसराय लाता है और जिला के वीरपुर थाना को सौंपता है। वीरपुर थाने में तीन दिन बाद सन्देहास्पद स्थिति में विक्रम पोद्दार का गमछे के फंदे से लटकता हुआ शव मिलता है जिसे स्थानीय पुलिस आत्महत्या बताकर 24 मार्च को विक्रम पोद्दार के घर में दिव्यांग भाभी को सूचित करती है। विक्रम पोद्दार के पिताजी और एक बड़ा भाई दिल्ली में दिहाड़ी मजदूरी का काम करते हैं तथा लॉकडाउन में फंसे होने के वजह से घर आकर बेटे का लाश लेने में असमर्थ हैं। परिजन के नहीं पहुँच पाने के कारण लाश कई दिन अस्पताल में ही पड़ा रही।

विक्रम पोद्दार की सन्देहास्पद मौत की उचित जांच और लाश का प्रशासन के द्वारा अंतिम संस्कार करवाने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता व यूथ ब्रिगेड के अध्यक्ष सन्तोष शर्मा एक शिष्टमंडल के साथ 26 मार्च को बेगूसराय सदर SDO से मिलकर स्थानीय प्रशासन पर दबाव बनाने का प्रयास करते हैं। संतोष स्पष्ट रूप से प्रशासन के ऊपर सवाल खड़ा करता है कि विक्रम को थाने के कस्टडी रूम के बजाय स्टॉफ या स्टोर रूम पर क्यों रखा जाता है। इसी केस को लेकर थाने में स्वर्ण सामंती ताकतों और थाना प्रभारी के बीच थाना कैम्पस में हुई पंचायत के CCTV फुटेज की मांग करता है और वीरपुर थाना के थाना प्रभारी के लड़की पक्ष के सजातीय होने की वजह से पुलिस की भूमिका को संदिग्ध बताता है। विक्रम पोद्दार की मौत को संतोष स्पष्ट तौर एक प्रशासनिक हत्या बताता है।

संतोष शर्मा विगत कुछ वर्षों से बेगूसराय जैसे सवर्ण सामंती दबदबे के जिले में दलित-पिछड़ों-अतिपिछड़ों व अल्पसंख्यक के सवालों पर आंदोलनरत रहे हैं तथा सामाजिक न्याय आंदोलन का अतिपिछड़ा समुदाय से उभरता हुआ राजनीतिक चेहरा थे। इस कारण से वहां लगातार वे सवर्ण सामंती ताकतों की नजरों में चढ़े हुए थे। विक्रम पोद्दार की प्रशासनिक हत्या के खिलाफ लगातार आवाज़ उठाने के कारण सामंती जातिवादी वर्चस्व तथा उच्च जाति के पुलिस अधिकारी की आंखों में आना बहुत ही स्वभाविक था।

बीते 6 अप्रैल को एटीएम से पैसा निकालकर घर आने के क्रम में नावकोठी थाना की पुलिस संतोष शर्मा को उठाकर ले जाती है। थाने के पीछे जंगल में ले जाकर 2-3 घण्टे तक लगातार बर्बरतम तरीके से पिटाई करती है जिसके कारण संतोष को गहरी अंदरूनी चोट आती है। तीन घंटे बाद स्थानीय स्तर कई सारे अम्बेडरवादी और सामाजिक न्याय आंदोलन के कार्यकर्ताओं के दबाव बनाने के बाद पुलिस संतोष को छोड़ती है। इसके बाद संतोष शर्मा का इलाज सदर अस्पताल, फिर निजी नर्सिंग होम में चलता है। गम्भीर चोट होने की वजह से संतोष को पटना रेफर किया जाता है और पटना ले जाने के क्रम में संतोष की मौत हो जाती है। संतोष शर्मा के पिता बढ़ईगिरी का काम करते थे और इनकी मौत भी तीन महीना पहले ही बीमारी की वजह से हुई थी। संतोष शर्मा अपने पीछे दो बच्चों (3 साल का और 2 साल का) के साथ पत्नी को छोड़ गये हैं।

बेगूसराय बिहार में एक ऐसी लोकसभा सीट है जहां कम्युनिस्ट पार्टी का मजबूत प्रभाव होने के बावजूद सवर्ण जाति खासकर भूमिहार-ब्राह्मण का वर्चस्व अभी तक बना हुआ है। अभी तक सारे सांसद (मोनाजिर हसन, 2009 को छोड़कर) सवर्ण जाति के जीतते आये हैं। अब तक सीपीआइ के भी उम्मीदवार हमेशा सवर्ण जाति के ही रहे हैं। और तो और पहले सीपीआइ  के उम्मीदवार भोला सिंह भी बाद में भाजपा में शामिल होकर 2014 में संसद तक पहुंचते हैं। वर्तमान में पूरे बिहार और देश में साम्प्रदायिकता जहर घोलने वाले और सवर्ण वर्चस्ववादी ताकतों के सरगना गिरिराज सिंह भाजपा के टिकट पर यहां से जीत कर संसद भवन पहुँचे हैं।

पूरे बिहार में पिछले तीस सालो से सामाजिक न्याय की सरकारें रही हैं। पहले लालू प्रसाद यादव के राजद और फिर बाद में भाजपा के साथ गठजोड़ में नीतीश कुमार की। इसके बावजूद बिहार में दलित-अतिपिछड़ों-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों के ऊपर सामंती ताकतों का हमला कम नहीं हुआ है। हांख ये बात जरूर है कि सामाजिक न्याय की ताकतों की सरकार बनने और जमीन की हकदारी और सामाजिक मान-सम्मान की भूमिहीनों-गरीब किसानों के रैडिकल वामपंथी भूमिगत आंदोलनों ने पिछड़ों-अतिपिछड़ों-दलितों और अल्पसंख्यक समुदाय के अंदर राजनीतिक चेतना और सामाजिक न्याय की आकांक्षा को आगे जरूर बढ़ाया है। लोकतांत्रिक जागरण व दावेदारी से राजनीति और आरक्षण लागू होने से नौकरियों में इन समुदायों का प्रतिनिधित्व बढ़ा है, लेकिन मूलतः ब्रह्मणवादी सवर्ण सामंती वर्चस्व को बिहार के अंदर से पूरी तरह से खत्म करने में अभी तक कामयाबी नहीं मिली है। कर्पूरी फार्मूला की वजह से अतिपिछड़ों का नौकरियों में प्रतिनिधित्व तो थोड़ा बहुत आया है और थोड़ा आर्थिक स्थिति में सुधार भी आया था लेकिन वैश्वीकरण के बढ़ते प्रभाव के कारण वर्तमान में ज्यादातर अतिपिछड़े समुदाय को बहुत ही बुरी आर्थिक सामाजिक स्थिति से गुजरना पड़ रहा है। अधिकतर अतिपिछड़ी जाति बिहार में भूमिहीन की श्रेणी में आते हैं और इनके परम्परागत पेशे भी, जिससे इनकी जीविका चलती थी, बर्बादी के कगार पर पहुंच गये हैं.

अतिपिछड़े समाज में सैकड़ों जातियां शामिल हैं और अलग-अलग जाति के हिसाब से देखा जाए तो जनसंख्या के लिहाज से इनकी संख्या बहुत कम है, लेकिन अतिपिछड़ों को एक समूह के तौर पर देखा जाए तो यह सबसे बड़ी आबादी वाला समूह है। इनके अंदर से मजबूत राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं होने तथा दयनीय आर्थिक-सामाजिक स्थिति होने के कारण से अतिपिछड़ों के ऊपर सामंती हमला होना बहुत ही आसान हो जाता है। आप अगर बिहार के अंदर ब्रह्मणवादी-सामंती हिंसा का आंकड़ा खोजें तो अतिपिछड़ों के साथ हिंसा का आंकड़ा पता करना बहुत मुश्किल होगा। अतिपिछड़ों के ऊपर हुए हमले को अखबार भी प्रमुखता से संज्ञान नहीं लेता है और प्रशासन, राजनीति में प्रभाव नहीं रहने के कारण सरकारी फाइलों में भी दर्ज नहीं हो पाता है और राजनीतिक सवाल भी नहीं बन पाता है।

हाल के वर्षों में देश में फुले-अम्बेडकर विचारधारा के प्रभाव के बढ़ने और सामाजिक न्याय आंदोलन के नए तेवर के साथ सामने आने के कारण से स्थानीय स्तर पर अतिपिछड़े समाज में भी राजनीतिक हिस्सेदारी-महात्वाकांक्षा और ब्राह्मणवाद के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर इन जातियों में स्पष्ट तौर पर देखने को मिलता है, जिसका उदाहरण आप संतोष शर्मा जैसे राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में देख सकते हैं। संतोष शर्मा अतिपिछड़े समुदाय की सामाजिक-राजनीतिक दावेदारी व हिस्सेदारी को हासिल करने का रास्ता एक बड़े फलक में सामाजिक न्याय के आंदोलन को फुले-अम्बेडकर विचारों की रौशनी में आगे बढ़ाते हुए तलाशता है। बिहार में नीतीश कुमार अपने वोट बैंक के तौर पर अतिपिछड़ों का विश्वास जीतने में जरूर कामयाब रहे हैं लेकिन संतोष शर्मा जैसे लोग इस बात को बखूबी समझते थे कि आखिरकार सामाजिक न्याय का नीतीश मॉडल ब्राह्मणवादी सवर्ण वर्चस्व के आगे ही सरेंडर करता है।

हाल में राज्यसभा में राजद के टिकट पर सवर्ण को भेजने को लेकर भी वह अपनी असहमति दर्ज करता है। संतोष शर्मा अपने जातीय कार्यक्रमों के मंच से भी लगातार अम्बेडकर के बताये रास्ते पर चलते हुए अपने समाज के हक-अधिकार, राजनीतिक हिस्सेदारी और प्रतिनिधित्व को बढ़ाने की बात करते रहे हैं। संतोष शर्मा के संगठन यूथ ब्रिगेड का राजनीतिक एजेंडा भी सामाजिक न्याय की स्थापित राजनीतिक धाराओं से आगे बढ़ते हुए जनसंख्या के आधार पर आरक्षण को बढ़ाने तथा देश में जातिवार जनगणना कराने की बात करता है। पिछले दिनों CAA-NRC-NPR के खिलाफ बिहार और झारखंड में हुए कई सारे धरने में मजबूती के साथ बहुजन राजनीति को केंद्र में रखा गया है। बहुजन राजनीति अल्पसंख्यक समुदाय को नेतृत्व के कोर में लाये बिना सम्भव नहीं है, इस स्पष्ट समझदारी के साथ यूथ ब्रिगेड का निर्माण और उसका सांगठनिक ढांचा तैयार किया गया था।

जरूर ही विक्रम पोद्दार की हत्या अंतर्जातीय प्रेम के कारण हुई है। सवर्ण सामंती वर्चस्व को बनाये रखने के लिए हुई है, लेकिन संतोष शर्मा की हत्या ब्रह्मणवादी सवर्ण सामंती वर्चस्व को नीतीश कुमार के फोल्ड से बाहर रह कर अतिपिछड़ों समुदाय की तरफ से फुले-अम्बेडकर के रास्ते चलते हुए बहुजन एकजुटता व पहचान के साथ संघर्ष के रास्ते चुनौती देने के कारण हुई है।

यह हत्या प्रशासन और सवर्ण सामंती ताकतों के लिए इसलिए भी आसान रही कि बिहार में अतिपिछड़ों की ताकत पर ही नीतीश कुमार भाजपा के संग सत्ता में हैं और विपक्षी बहुजन राजनीतिक धाराएं संघर्ष के मैदान से बाहर हैं। अतिपिछड़ा राजनीतिक तौर पर नेतृत्वहीनता की स्थिति में है।

अतिपिछड़े समुदाय में अलग अलग जातियों की कम आबादी, भूमिहीनता,बदयनीय आर्थिक-सामाजिक स्थिति और प्रशासनिक और राजनीतिक प्रभाव नगण्य होना भी सवर्ण सामंती ताकतों के लिए हमला करना आसान बना देती है।

बेशक, अतिपिछड़ों की सामाजिक-राजनीतिक दावेदारी को ब्राह्मणवाद को निशाने पर लेते हुए आगे बढ़ाना होगा। नए डायमेंशन के साथ अतिपिछड़ों के विशिष्ट सवालों को सामाजिक न्याय के व्यापक एजेंडे में शामिल करने और नेतृत्वकारी भागदारी सुनिश्चित करते हुए बहुजन एकजुटता व पहचान को बुलंद करते हुए सामाजिक न्याय आंदोलन को मजबूती से आगे बढाने की चुनौती है। यही चुनौती संतोष शर्मा की शहादत ने पेश की है। इसी चुनौती को कबूल करने के कारण संतोष शर्मा की हत्या हुई है।

संतोष शर्मा ने अपने हिस्से की लड़ाई लड़ते हुए नये दौर में सामाजिक न्याय आंदोलन का रास्ता दिखाया है। अब अतिपिछड़ों को सामाजिक न्याय आंदोलन व बहुजन एकजुटता में अतिपिछड़ों के नेतृत्व व पहचान के साथ बड़े डायमेंशन के साथ बड़े फलक पर ले जाना होगा। तत्काल में संतोष और विक्रम के परिवार के सुरक्षा की राजनैतिक सामाजिक जिम्मेदारी के साथ संतोष शर्मा और विक्रम पोद्दार के लिए न्याय की लड़ाई को निर्णायक मंजिल तक ले जाने के लिए आगे बढ़ना होगा।


लेखक जवाहरलाल नेहरू युनिवर्सिटी में शोधार्थी हैं


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