किसानों के मुद्दे पर संविधान सभा की चुप्पी का नतीजा है कि आज दिल्ली के रास्ते इनके लिए बंद हैं!


आज 26 नवम्बर है। इसे संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह भारत के लोगों के लिए सबसे बड़ा दिन होना चाहिए लेकिन हमारे सार्वजनिक जीवन में संविधान की भूमिका पर सीमित चर्चा चिंताजनक है। भारत का संविधान जातियों, धर्मों, नृजातीयताओं और क्षेत्रवाद से ग्रस्त भारतीय समाज को जोड़ने वाला एक साझा दस्तावेज़ है। इसलिए इसका महत्त्व बढ़ जाता है। इसको बनाने वाली संविधान सभा के बारे में हमें जरूर जानना चाहिए और उन आदर्शों के प्रति अपने आपको समर्पित करना चाहिए जो भारत की आजादी की लड़ाई के दौरान पल्लवित-पुष्पित हुए और जिन्हें भारत की संविधान सभा में एक दृढ़ वैचारिक आधार मिला।

भारत के लोगों ने न केवल ब्रिटिश उपनिवेश से आजादी की लड़ाई लड़ी बल्कि भारत की सामाजिक संरचना में निहित गैर-बराबरी से निजात पाने की लड़ाई भी लड़ी। दलितों ने उच्च जातियों से, भेदभाव और बहिष्करण, हिंसा और अपमान के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी। महिलाओं ने अपने लिए एक स्वतंत्र एवं मुक्त दायरा बनाने की लड़ाई पुरुषों से, आदिवासियों ने भारतीय दिकुओं और उपनिवेश से आजादी की अपनी लड़ाई लड़ी। श्रमिकों ने काम की बेहतर दशाओं और सरकारी कर्मचारियों ने प्रोन्नति और सम्मान की लड़ाई लड़ी। मुस्लिमों और सिखों ने अपने ऐतिहासिक सम्मान के लिए ब्रिटिश उपनिवेश से लोहा लिया। लोग जेल गए, आजीवन कारावास हुआ, फाँसी पर झूल गए। समाज के सभी वर्गों ने शहादत दी। भारत का संविधान इन्ही साझा बलिदानों और संघर्षों की दास्तान है।

आज के दिन हमें उसका जश्न मनाना चाहिए। यदि आप भारत के संविधान सभा की बहसों को पढ़ें तो पाएंगे कि यह लगभग 4250 मुद्रित पृष्ठों में फैली हुई एक बातचीत है जहां आप भारत के नेताओं को आपस में वाद-विवाद करते, असहमतियों से सहमति की ओर, विरोध से पारस्परिकता, गुलामी से आजादी की ओर बढ़ते देख सकते हैं। इन सभी नेताओं में देश के निर्माण की एक छटपटाहट आप देख सकते हैं।

भारत की पहचान उसकी बहुवचनीयता में है

अजंता की गुफाओं की चित्रकारी देखकर ए. एल. बाशम ने लिखा था कि भारतीयों के जीवन का कोई ऐसा दृश्य न होगा, जो यहां उपस्थित न हो। यही बात भारत की संविधान सभा के बारे में कही जा सकती है। भारत के अलग-अलग समूहों, विचारों, आशाओं-आकाँक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले नेता आपको यहां दिखाई देंगे। आदिवासी जनों के अधिकार की लड़ाई लड़ने वाले, घुमंतुओं और पिछड़े समूहों की वकालत करने वाले, दलितों और महिलाओं की गरिमा के लिए संघर्ष करने वाले लोगों की एक दीर्घा आपको भारत की संविधान सभा में दिखाई पड़ेगी।

आपको यहां भारत की भाषाई विविधता का सम्मान करने वाले राजमर्मज्ञ मिलेंगे तो ऐसे भी कट्टर लोग मिलेंगे जो कह रहे थे कि यदि कोई एक विशिष्ट भाषा नहीं जानता तो उसे भारत में रहने का हक़ नहीं! संयुक्त प्रांत के सामान्य सदस्य आर. वी. धुलेकर ने एक दिन तो यहां तक कह दिया था : ‘जो हिंदुस्तानी नहीं जानते, उन्हें हिंदुस्तान में रहने का अधिकार नहीं। जो लोग भारत का विधान निर्माण करने आए हैं और हिंदुस्तानी नहीं जानते हैं, वे इस सभा के सदस्य होने के भी योग्य नहीं है।’ संविधान सभा में आपको वेदों की बात करने वाले लोग मिल जाएंगे तो बिलकुल पंथनिरपेक्ष नेता दिखाई देंगे। वहां आपको शराबबंदी के पक्ष और विपक्ष में भारत के लोग मिलेंगे तो आप पाएंगे कि कोई भारत का नाम गंगा नदी के नाम पर ‘गंगावर्त’ करने के पक्ष में है तो कोई ‘हिंदुस्तान’, कोई इसे ‘भारत’ ही बने रहने देने के पक्ष में खड़ा है।

प्रायः यह कहा जाता है कि संविधान सभा में कांग्रेस हावी थी। मोहम्मद अली जिन्ना ने इसका डर भी खड़ा किया था। उनके द्वारा ‘सीधी कार्यवाही’ पर जोर दिए जाने का एक कारण यह भी था कि उन्हें लगता था कि भारत की संविधान सभा में उनकी बात नहीं सुनी जाएगी। भारत की संविधान सभा ने जिन्ना की आशंका को निर्मूल साबित करने का प्रयास किया। इसे 8 नवम्बर 1948 को अलगू राय शास्त्री की बहस से समझा जा सकता है। पाकिस्तान का निर्माण हो चुका था। इधर भारत की संविधान सभा में अल्पसंख्यक सवालों पर बहस हो रही थी। मद्रास के मोहम्मद इस्माइल साहब के बोलने के बाद अलगू राय शास्त्री ने कहा कि हमें आपत्तियों का उत्तर तर्कसंगत देना चाहिए जिससे संसार पर यह प्रभाव पड़े कि जो निर्णय यहाँ हो रहे हैं, वह तर्क के आधार पर हैं, संख्या बल के आधार पर नहीं हैं।

वास्तव में लोकतंत्र केवल संख्या नहीं, बल्कि तर्कों की वैधानिकता से कहीं ज्यादा परिचालित होता है अन्यथा उसे ‘बहुसंख्यकवाद’ में बदलने में देर नहीं लगती है। यह बात भारत के संविधान के निर्माताओं को सीधे-सीधे समझ में आ रही थी। इसे किंचित राजनीतिक दार्शनिक सन्दर्भों में डॉ. अंबेडकर ने ‘संवैधानिक नैतिकता’ कहा था। 4 नवम्बर 1948 को भारत शासन अधिनियम 1935 पर बात करते हुए उन्होंने कहा था कि यह निश्चित ही ब्रिटिश शासन से लिया गया है लेकिन संविधान यहीं तक तो सीमित नहीं है। उन्होंने शासन और संविधान में अंतर बताते हुए कहा कि कोई देश ‘संवैधानिक नैतिकता’ से चलता है और यह लोगों के बीच भाषण और कार्य-स्वातंत्र्य को बढ़ावा देती है। इसी समय उन्होंने ग्रीक इतिहासकार ग्रोट को उद्धृत करते हुए शासन और संविधान के बीच संबंधों की व्याख्या के लिए ‘संवैधानिक नैतिकता’ पर बल दिया और कहा: ‘किसी भी समाज को इसे स्वत: विकसित करना होता है। अभी भी हमारे लोगों यानि भारतीय जनों को इसे सीखना है’। उन्होंने कहा कि भारत में लोकतंत्र ऊपरी छिड़काव भर है, भारत मूल रूप से अलोकतांत्रिक है।

25 नवम्बर 1949 का अंबेडकर का संविधान सभा में दिया गया भाषण बहुत महत्वपूर्ण है। वास्तव में अपने सार्वजनिक जीवन के आरंभ से डॉ. अंबेडकर का मानना था कि राजनीतिक ताकत ही अस्पृश्य जनों को बेहतर भविष्य का वादा कर सकती है। इसमें वे सफल होते दीख भी पड़े लेकिन इसी बीच उन्होंने देश के सभी निवासियों के लिए और खासतौर पर अस्पृश्य जनों के लिए यह महसूस भी किया कि केवल राजनीति ही सब कुछ नहीं बदल सकती है। उन्होंने उस दिन संविधान सभा में कहा कि केवल राजनैतिक लोकतंत्र से ही हमें संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। अपने राजनैतिक लोकतंत्र को हमें सामाजिक लोकतंत्र का रूप भी देना चाहिए। सामाजिक लोकतंत्र से उनका आशय जीवन के उस मार्ग से था जो स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांत के रूप में मानता हो। संविधान सभा की बहसों में शुरू से लेकर अंत तक कई सदस्यों ने आर्थिक असमानता की बात की थी। वे आर्थिक लोकतंत्र की भी बात कर रहे थे लेकिन डॉ. अंबेडकर ने इसे वेधक और स्पष्ट स्वर में कहा :

आर्थिक स्तर पर हमारा समाज ऐसा समाज है जिसमे कुछ लोगों के पास अतुल संपत्ति है और कुछ ऐसे हैं जो निरी निर्धनता में जीवन बिता रहे हैं। 26 जनवरी 1950 को हम विरोधाभासों से भरे जीवन में प्रवेश कर रहें हैं। राजनैतिक जीवन में हम समता का व्यवहार करेंगे और सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में असमानता का। राजनीति में हम एक व्यक्ति के लिए एक मत और एक मत का एक ही मूल्य के सिद्धांत को मानेंगे। अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में, अपनी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था के कारण एक व्यक्ति का एक ही मूल्य के सिद्धांत का हम खंडन करते रहेंगे।… हमें इस विरोधाभास को जितनी जल्दी हो सके, मिटा देना चाहिए अन्यथा जो असमानता से पीड़ित हैं वे लोग इस राजनैतिक लोकतंत्र की उस रचना का विध्वंस कर देंगे जिसका निर्माण इस सभा ने इतने परिश्रम के साथ किया है।

भारतीय समाज ने इस चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया।

संविधान सभा में महिलाओं की उपस्थिति

उनके बारे में हमेशा कम लिखा गया है। लोकप्रिय रूप से जो कुछ लिखा गया है, उसमें उन्हें देश को राष्ट्रीय झंडा अर्पित करते हुए दिखाया गया है। निश्चित ही यह एक महत्वपूर्ण अवसर है जहाँ पर राष्ट्र की आत्मा और स्त्री के व्यक्तित्व को एकाकार कर दिया गया है। ‘भारतमाता’ के लिए यह एक स्वाभाविक भंगिमा थी लेकिन स्त्रियों की भूमिका इससे आगे भी थी। उन्होंने ठोस तथ्यों के साथ संविधान सभा में अपनी बातें रखने का प्रयास किया। बेगम एजाज रसूल ने भाषा, आरक्षण को लेकर संपत्ति के अधिकार, अल्पसंख्यकों के अधिकारों के बारे में  बहस में भाग लिया। अम्मू स्वामीनाथन, जो मद्रास से सामान्य सीट का प्रतिनिधित्व करती थीं, ने स्त्री स्वातन्त्र्य  पर सदन में बातें रखीं। 9 नवम्बर 1948 को रेणुका राय ने सदन का ध्यान इस ओर भी आकर्षित किया था कि शिक्षा का अधिकार महत्वपूर्ण है लेकिन उसके लिए एक निश्चित धनराशि का आवंटन किया जाना चाहिए। इसके लिए उन्होंने चीन का उदाहरण दिया जहाँ शिक्षा के लिए एक निश्चित धनराशि का प्रावधान किया गया था। जी. दुर्गाबाई (मद्रास, सामान्य) और रेणुका राय (पश्चिमी बंगाल, सामान्य)  ने 10 सितम्बर 1949 को संपत्ति के राष्ट्रीयकरण और जमींदारी विधेयकों पर अपनी राय रखी। रेणुका रे ने नेहरू से अपील भी की थी कि आर्थिक और सामाजिक न्याय तब तक लागू नहीं हो पाएंगे जब तक संपत्ति के लिए मूलाधिकार में प्रावधान न हों। उस दिन बेगम एजाज रसूल भी बोलीं।

Source: Feminism In India

इसी प्रकार 3 दिसम्बर 1948 को जी. दुर्गाबाई ने मद्रास प्रांत में देवदासी प्रथा के बारे में बात रखी और इसे मनुष्यों के खरीदने-बेचने के व्यापक और अमानवीय सवाल से जोड़ा, हालाँकि वे इसे संवैधानिक की जगह सामाजिक प्रयासों से हल करने पर बल दे रही थीं जबकि उनके बाद महिलाओं की खरीद फरोख्त पर रेणुका राय ने इसके लिए स्पष्ट संवैधानिक प्रावधानों की जरूरत पर जोर दिया। संयुक्त प्रांत से सामान्य सदस्य पूर्णिमा बनर्जी ने प्रांतीय विधान परिषदों में अध्यापकों और श्रमिकों के प्रतिनिधियों को शामिल करने पर जोर दिया। श्रमिकों के प्रतिनिधियों को विधान परिषद में जगह न मिल सकी।

वादे जो पूरे न हुए

17 दिसम्बर 1946 को लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव का समर्थन करते हुए एम. आर. मसानी ने कहा कि देश की आय तीन भागों में बँटी है जिसमें एक तिहाई आय 5 प्रतिशत, एक तिहाई 33 प्रतिशत को और एक तिहाई आय शेष 62 प्रतिशत आबादी के पास है। उन्होंने कहा कि यह कोई सामाजिक आर्थिक न्याय नहीं है। इसके पहले 13 दिसम्बर 1946 को नेहरू ने कहा था कि इस प्रस्ताव में हमने लोकतंत्र का सार सन्निहित कर दिया है बल्कि मैं तो कहूंगा लोकतंत्र का सार ही नहीं वरन इसमें हमने आर्थिक लोकतंत्र का सार भी सन्निहित कर दिया है। संविधान सभा की सदारत करने वाले डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने 15 अगस्त 1947 को कहा था :

जो स्वराज हमने हासिल किया है वो खोखला रह जाएगा यदि हमने देश में रहने वाले सभी वर्ग, जाति और धर्म के लोगों में यह विश्वास पैदा नहीं किया कि वे यहाँ सुरक्षित हैं, उनकी उन्नति और तरक्की के रास्ते में कोई बाधा नहीं डाल सकता है उनको धर्म और धर्माचार की पूरी आजादी है, उनकी भाषा और संस्कृति, ज़बान और कल्चर पर कोई आघात नहीं पहुँचा सकता है। आदिम जातियों और दूसरे पिछड़े हुए लोगों की उन्नति के लिए उस समय तक विशेष आयोजन और प्रयत्न होता रहेगा, जब तक वह सबों की बराबरी में न आ जाएं।…इस देश में खाने के लिए पूरा अन्न होने लगेगा और फिर दूध की नदियाँ बहने लगेंगी। जब हमारे जवान लोग खेतों और कारखानों में हँसते-हँसते काम किया करेंगे…।

इस बीच भारत का संविधान बन गया और उसके मसविदे पर एस. एल. भाटकर, जो सेंट्रल प्रोविंस और बरार से सामान्य सदस्य थे, ने 24 नवम्बर 1949 को कहा :

ये जो विधान बन रहा है, उसमें काश्तकारों और मजदूरों के लिए कोई स्थान नहीं है। जो सरकारी कर्मचारी हैं उनको ज्यादा तनख्वाहें देने की ही तत्परता इसमें दिखाई गयी है। जो काश्तकार और मजदूर हैं, जो राष्ट्र की उन्नति के लिए रात दिन कष्ट सहते उनके लिए इस विधान में कहीं पर भी कुछ दिखाई नहीं पड़ता है… हजारों बीघा जमीन जमींदारों ने काश्तकारों से तरह-तरह लूटी है, उस जमीन को काश्तकारों को देने का इसमें  कहीं पर कोई प्रयत्न नहीं है।

उनकी इस चिंता को कमलापति त्रिपाठी ने भी साझा किया। उन्होंने थोड़े तीखे स्वर में सवाल पूछा कि इस संविधान में यह गारंटी कहां दी गयी है कि देश में भुखमरी नहीं रह जाएगी और सड़कों पर एक भी भिखमंगा नहीं रह जाएगा? यह गारंटी कहां दी गयी है कि देश में एक व्यक्ति भी बेरोजगार नहीं रहेगा और काम देना सरकार का काम होगा? यह गारंटी हमने कहां दी है?

वास्तव में संविधान सभा में मजदूरों और किसानों के मुद्दों पर बहुत ही कम बात हुई, विशेषकर उन्हें विधान में समाहित करने के मुद्दे पर। 19 अगस्त 1949 को मद्रास का प्रतिनिधित्व कर रहे सामान्य सदस्य एस. नागप्पा ने प्रांतीय विधान परिषदों में श्रमिक वर्गों के प्रतिनिधियों को शामिल करने की अपील की। इसे मसौदा समिति की तरफ से डॉ. अंबेडकर ने ठुकरा दिया। संशोधनों पर अपने जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि जब व्यस्क मताधिकार की व्यवस्था है तो उसमें उन्हें प्रतिनिधित्व मिल ही जाएगा। इस पर नागप्पा ने अंबेडकर को घेरते हुए कहा कि यदि यही बात है अन्य वर्गों को भी प्रतिनिधित्व मिल जाएगा लेकिन उन्हें विधान परिषद में जगह मिल रही है। अंबेडकर ने अपना और मसौदा समिति का बचाव करते हुए कहा कि मसौदा समिति परामर्शदात्री समिति की रिपोर्ट की सलाह पर काम करती है और जिसने इस विषय पर पहले ही विचार कर लिया था। यह प्रकरण बताता है कि एक श्रेणी के रूप में मजदूर संविधान सभा में शामिल नहीं हो पाए। कुछ सदस्यों ने कोशिशें कीं लेकिन उनकी कोशिश कोई रंग न ला पायी।

डॉ. पी. एस. देशमुख सेंट्रल प्रोविंस और बरार से सामान्य सदस्य थे। 5 नवम्बर 1948 को उन्होंने कहा कि जो भी हो, भारत कृषकों का देश है। किसान और मजदूरों को शासन व्यवस्था में और अधिक हिस्सा मिलना चाहिए ताकि उनकी आवाज़ सुनी जा सके। इस विधान द्वारा उन्हें यह लगना चाहिए कि पृथ्वी के इस विशालतम देश के वही असली मालिक हैं। किसान और मजदूरों के मन में यह भावना पैदा हो कि उनका राज अब आने वाला है। यही आशीर्वाद महात्मा गाँधी ने उन्हें दिया था। जाहिर है कि आजाद भारत में न तो पी.एस. देशमुख की इच्छा पूरी हो पायी और न महात्मा गाँधी की।

इसी प्रकार एन. जी. रंगा जैसे कृषक नेताओं की उपस्थिति के बावजूद किसानों के मुद्दे पर संविधान सभा की चुप्पी अविश्वसनीय लगती है। कमजोर वर्गों के लिए भूमि के वितरण पर भी कन्नी काट ली गयी। महिलाओं और बच्चों के मुद्दों पर केवल वहीं तक बात हुई जहां तक उन्हें अविकसित माना गया और सरकार ने उन्हें विकसित करने की अपनी जिम्मेदारी माना। राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांत इस बात की गवाही देते हैं कि आजादी के आंदोलनों से निकली ‘अंत्योदय के कल्याण’ की गाँधीवादी परियोजनाओं को राज्य की सदाशयता के अंदर मान्यता तो मिली लेकिन उन पर वह बहस नहीं हो पायी जो नीति-निदेशक सिद्धांतों को न्यायालयों में प्रवर्तनीय बना सके। मूल अधिकारों के मामले में अंबेडकर ने जो स्पष्टता अपने पहले ही भाषण में दिखाई थी, वह इस मामले में नहीं दिखती। इसी के साथ अन्य सदस्यों ने इसे कालचक्र के निर्णय पर छोड़ दिया।

(इस लेख को थोड़ा विस्तृत रूप में आलोचना-63 में भी छापा गया है, इच्छुक जन वहां पढ़ सकते हैं। रमा शंकर सिंह इतिहास के अध्येता हैं। सभी तस्वीरें विकिपिडिया से साभार प्रकाशित हैं।)


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