यहां चालीस मौतों पर हंसी-मज़ाक क्यों चल रहा है?


कुछ दिनों पहले बिहार की यात्रा पर गया था। वहां अकादमिकों, पत्रकारों, नौकरशाहों और नेताओं सहित समाज के हरेक तबके के लोगों से बात हुई। बहुत गौर से इस बार अपने राज्य को स्टडी किया। नतीजे लोमहर्षक थे। लौटकर बिहार पर एक सीरीज लिखने का खयालआया और बात भी हुई, लेकिन बात बस बात ही रह गई। मशरक शराबकांड ने उस धूल को हटा दिया। इस लेख को उस सीरीज का पहला अंक या प्रस्तावना समझा जाए।

लेखक

बिहार के सारण में जहरीली शराब पीकर दो दिनों में लगभग 40 लोग प्राण गंवा चुके हैं। ‘लगभग’ इसलिए क्‍योंकि 39 का आंकड़ा गैर-सरकारी है, सरकार अभी किसी तरह का आंकड़ा दे नहीं रही है और ज़मीन पर जो लोग मौजूद हैं उनके मुताबिक 70 से 80 जानें जा चुकी हैं। दर्जनों बीमार हैं, जिनको पीएमसीएच पटना में रेफर किया गया है और अभी गिनती बढ़ सकती है। कई की आंख जा सकती है, कई अपाहिज हो सकते हैं। इन सब के इतर राजनीति (खासकर बिहारी राजनीति) को जो करना होता है, वह कर गुजरी है। आरोप-प्रत्यारोप और गर्जन-तर्जन का दौर जारी है, असल मुद्दा एक बार फिर से दरी के नीचे छुप गया है।

हमाम में सभी नंगे हैं। हरेक राजनीतिक पार्टी के लोग। जो भाजपा वाले अभी विधानसभा से लेकर सारण के मशरक और राज्यसभा से लेकर टीवी के स्क्रीन तक भूचाल मचाये हुए हैं, वह भूल जाते हैं कि उनका भी कांधा सुशासन की पालकी ढोने में एक दशक से कुछ अधिक समय तक लगा रहा है। भाजपा भूल जाती है कि शराबबंदी को छह साल बीत चुके हैं और वह तब भी इसके साथ थी और काफी दिनों तक साथ ही रही थी। अधिक समय नहीं बीता, जनवरी 2022 में नालन्दा जिले में जहरीली शराब पीने से मौत होने के बाद राजद शराबबंदी पर सवाल खड़ा कर रही थी और बीजेपी बचाव कर रही थी। केवल 10 महीने पीछे!

अब, दिसंबर 2022 में छपरा में जहरीली शराब पीने से मौत पर बीजेपी शराबबंदी पर सवाल खड़ा कर रही है और राजद बचाव कर रही है। हालांकि, नीतीश उस समय भी जिद्दी थे, आज भी जिद्दी हैं और तब भी गुस्सा हुए थे, इस बार तो खैर उन्होंने भाषाई मर्यादा और संवेदनशीलता भी फेंक दी है। चूंकि शराबबंदी और इन मौतों पर आप बहुत कुछ पढ़ चुके हैं, सूचनाओं का विशाल गट्ठर आपके पास पहुंच चुका है, इसलिए यह लेखक उन पर बात नहीं कर, बिहार नाम के उस एनिग्मा पर बात करना चाह रहा है जो कहने को तो बिल्कुल सुलझा है, याुली किताब है, लेकिन वास्तव में जिसकी त्रासदी, जिसके हालात न कोई जानता है, न ही कोई जानने की इच्छा रखता है।

हरिशंकर परसाई ने लिखा है, ‘मैं व्यंग्य लिखता हूं क्योंकि मैं उसी विधा में खुद को बेहतरीन तौर पर व्यक्त कर पाता हूं। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि हरेक विषय पर व्यंग्य ही किया जाए। मैं और भी तरीके से लिखता हूं। अगर आप किसी गुस्सा दिलाने या अपमानजनक बात पर भी व्यंग्य सोचते, लिखते या व्यक्त करते हैं तो आप बुनियादी तौर पर गड़बड़ हैं। गुस्सा दिलाने वाली बात कभी व्यंग्य में नहीं टाली जा सकती।’

परसाई की यह बात बाकी किसी ने सुनी या नहीं, बिहारियों ने तो बिल्कुल भी नहीं सुनी। बिहार के बारे में बात करने वाले उसके बाहर के शुभचिंतकों ने भी नहीं सुनी। यही वजह है कि आज बिहार ही एक बड़ा व्यंग्य बन कर रह गया है। जिन समस्याओं, मुद्दों, कारणों पर बेहद गंभीरता से बात होनी चाहिए थी, उनको आज की भाषा में कहें तो मीम, ट्वीट या फूहड़ टिकटॉक वीडियो बनाकर उड़ा दिया गया। यही वजह है कि 40 मौतों के बाद राज्य के संवेदनहीन मुख्यमंत्री कहते हैं, ‘शराब पिएगा तो मरेगा ही’ और जो भाजपाई विधायक विधानसभा के द्वार पर तख्ती लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं, वीडियो में कई के चेहरे पर आप हल्की मुस्कान बड़ी आसानी से ढूंढ लेंगे।

बिहार में किसी भी समस्या पर आप चर्चा करेंगे तो जवाब में बाहुबली विधायक अनंत सिंह का वह बहुचर्चित वीडियो-संवाद सुनने को मिल जाएगा, जिसमें वह पुरुषों के अंग विशेष से शासन की तुलना कर रहे होते हैं। कुल मिलाकर हाल बतर्जे जॉन एलिया हैः हाल ये है कि अपनी हालत पर / गौर करने से बच रहा हूं मैं

बिहार विधानसभा अध्यक्ष का वह जवाब भी जानने लायक है जो उन्होंने जहरीली शराब पर कार्य-स्थगन प्रस्ताव और चर्चा में दिया- मसरख शराब कांड से भी जरूरी विषय चर्चा के लिए पहले से प्रस्तावित हैं। तीन दर्जन लोगों की मौत से महत्वपूर्ण कौन से मामले सदन में पहले से प्रस्तावित थे, यह तो वाकई शोध का विषय है, हालांकि प्रस्तावित विषयों की सूची आप देखेंगे तो उसमें दरभंगा में एम्स-निर्माण की तिथि-निर्धारण पर चर्चा भी है। यह विषय जरूरी है क्योंकि छह वर्षों से घोषणा के बावजूद अब तक एम्स की एक ईंट भी नहीं लगी है। लेकिन तीन दर्जन लोगों की मौत से अधिक जरूरी यह बात कैसे है?

जोनाथन स्विफ्ट ने कभी जो कहा था, मोहुआ मोइत्रा ने उसे अपने संसदीय भाषण में उद्धृत कर के वायरल कर दिया हैः

‘…as the vilest Writer has his Readers, so the greatest Liar has his Believers; and it often happens, that if a Lie be believ’d only for an Hour, it has done its Work, and there is no farther occasion for it. Falsehood flies, and the Truth comes limping after it‘.

नीतीश कुमार का स्वयंभू घोषित सुशासन और विकास का मॉडल दरअसल झूठ और फरेब का वह चमचमाता मॉल है जिसके हरेक माले पर शराबबंदी की घोर असफलता, करोड़ों पौधों के रोपण का झूठ, मुजफ्फरपुर सहित कई जिलों के बालिका-गृह की दरिंदगी, भयंकर गरीबी और दरिद्रता, करोड़ों बिहारियों का पलायन और बदलाव के प्रति घनघोर हीनभाव के तमगे टंगे हुए हैं।

सवाल यह उठता है कि नीतीश बने क्यों हुए हैं? जवाब यह है कि बिहार इनर्शिया में है। जिस जंगलराज से ऊबकर और थककर जनता ने उन्हें शासन की लगाम सौंपी थी, वहां उन्होंने विकास की कोई नयी लकीर नहीं खींची, न ही शिक्षा-स्वास्थ्य को संवारा या रोजगार के अवसर पैदा किए। पलायन को थामना तो दूर, उन्होंने गौरवान्वित भाव से बिहार के प्रवासियों को हमेशा अपनी सफलता बताया, कहा कि बिहारी का योगदान पूरे देश में है। जब गुजरात या महाराष्ट्र में बिहारी पिटते थे, तो नीतीश अपने डिप्टी सुशील मोदी के साथ मिलकर आंकड़ों की कलाबाजी खाते थे।

बिहार में एक कहावत है- नइ मामा सं कनहे मामा यानी मामा – न होने से अच्छा है कि काना ही सही, पर मामा हो। शून्य के भी नीचे जा चुकी बिहार की कानून-व्यवस्था और हालात में अगर नीतीश ने एकाध पॉइंट ही अर्जित किए, तो भी जनता के लिए यह बहुत था। जहां बिजली दूर की बात थी, सड़कें गायब थीं, कानून-व्यवस्था का आलम ये था कि शाम होने के बाद पटना स्टेशन से अपने घर जाने की जगह लोग स्टेशन पर ही रुकते थे, वहां नीतीश थोड़े से पेंच कसकर ही तुर्रम खां बन गए।

विज़न नहीं था उनमें, महत्वाकांक्षा थी। इसीलिए, जो कुछ भी थोड़ा-बहुत रंग-रोगन उन्होंने 2005 से 2010 के बीच किया, उसी की कमाई आज तक खा रहे हैं। उसके बाद तो कभी उनमें पीएम बनने की ललक जागी, तो कभी शराबबंदी की सनक। कभी मानव श्रृंखला बनने लगी, तो कभी बालिका-गृह मामले की आंच को धीमा करने की कवायद। नीतीश अपना ही एक घटिया कैरिकेचर बन कर रह गए, जिन्हें उन्हीं तेजस्वी से जाकर हाथ मिलाना पड़ा जिन्होंने औपचारिक-अनौपचारिक हरेक तरह के प्लेटफॉर्म पर ‘पलटू चाचा’ (ये तेजस्वी के शब्द हैं) को पानी पी-पीकर कोसा था।

इन 40 लोगों की मौत भी कुछ दिनों में धुंधली पड़ जाएगी, इस पर हुआ शोर-शराबा भी ठंडा पड़ जाएगा क्योंकि बिहार का यही भवितव्य है। नीतीश कुमार इस बात को जानते हैं। इसीलिए, कुढ़नी में हारकर भी वह निश्चिंत हैं और शराबबंदी की घोर असफलता जिसकी कीमत लोगों की जान है, के बावजूद पत्रकारों से हंसते हुए बात करते हैं। उन्होंने तेजस्वी को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया है, लेकिन क्या इसकी गारंटी है कि 2024 के रिजल्ट देखकर वह फिर से न पलट जाएंगे, फिर से भाजपा की गोद में न जा बैठेंगे। आखिरकार, उनका एकमात्र लक्ष्य मृत्युपर्यंत सीएम बने रहना जो है, दूसरे लक्ष्य यानी पीएम पद के तो कई दावेदार हैं।



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