लोग अपना पेट काटकर मिटा रहे हैं बच्‍चों की भूख, कहां गया 68% बच्‍चों के मिड-डे मील का पैसा?


कोविड संकट और लॉकडाउन ने हमारे समाज की उन बुनियादी आवाश्यकताओं की कमर तोड़ दी है, जिनके बारे में समाज का रईस तबका बात तक नहीं करता। उसे इसकी ज़रूरत भी नहीं है क्योंकि उनके पास रोजगार है, घर में रसोई गैस है, किचन के डिब्बे राशन से भरे हैं, बच्चों की थाली पोषण से लबालब है। कोविड ने हमें अहसास कराया है कि सामाजिक सुरक्षा योजना जैसे मनरेगा, उज्‍ज्‍वला योजना, नि:शुल्क राशन वितरण और राशन कार्ड के साथ मिड डे मील योजना, जन धन, किसान सम्मान निधि और नकद प्राप्ति के तमाम योजनाएं कितनी ज़रूरी  हैं देश की आधी से ज्यादा आबादी के लिए।

कोविड के चलते लगाये गये लॉकडाउन के दौरान देश की बहुसंख्‍य आबादी के साथ असल में हुआ क्या है, यह जानने के लिए मोबाइलवाणी लगातार अलग अलग योजनाओं पर सर्वे कर रहा है। ताज़ा सर्वेक्षण में पता चला है कि देश के 68 फीसद बच्चों की थाली पूरी तरह खाली है।

अपना पेट भरें या बच्चों का?

बिहाल मांझी, जमुई, बिहार

बिहार के गिद्धौर की कुन्नुर पंचायत के गनाडी गांव वार्ड 8 की एक महिला (जिसका नाम शायद उसकी समस्या से ज्यादा अहम नहीं है) कहती हैं, ‘’घर में चार बच्चे हैं। तीन स्कूल जाते थे। अब कोरोना में वो भी बंद है। स्कूल जाते थे तो चिंता नहीं थी, सोचते थे कि एक टाइम तो अच्छा खाना खा ही रहे हैं पर अब तो वो भी मिलना बंद हो गया।‘’

इस महिला को सरकार की तरफ से बांटे गये मिड डे मील के राशन के बारे में कोई खास जानकारी नहीं है। गिद्धौर की ही रतनपुर पंचायत के लोग बताते हैं कि उनके बच्चों के लिए पर्याप्त राशन ही नहीं मिला। कहा गया था कि 150 ग्राम प्रतिदिन के हिसाब से चावल देंगे पर उसमें भी स्कूल के प्राचार्यों ने घपला कर दिया।

ऐसे तमाम उदाहरण हैं जो मोबाइलवाणी पर खुद लोगों ने रिकॉर्ड कर के भेजे हैं। सर्वें के दौरान पता चला कि 68 फीसद जरूरतमंद बच्चे, जो अब तक मिड डे मील योजना का लाभ ले रहे थे उन्हें न तो सूखा राशन मिला और न ही राशन के बदले आर्थिक सहायता। जिन कुछ लोगों को राशन मिला है उनमें से 80 फीसद ऐसे हैं जिन्हें या तो गेहूं दिया गया या चावल। केवल 9 फीसद ही ऐसे परिवार मिले जिनके बच्चों को मिड डे मील के तहत पूरा सूखा राशन और खाना पकाने के लिए राशि मिली।

जिन परिवारों को सहायता नहीं मिली है, उनमें से 76 फीसद लोगों ने यह माना है कि उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि बच्चों को पर्याप्त भोजन दे पाएं, पोषण आहार की बात तो बहुत दूर है।

बात केवल मिड डे मील की नहीं, आंगनवाड़ी केन्द्रों में भी यही हाल है। राज्यों के आंगनवाड़ी केन्द्रों पर किये गये सर्वे से पता चला है कि यहां नामांकित 77 फीसदी बच्चों के पास पोषण आहार पहुंचा ही नहीं। आलम ये है कि बच्चों का पेट भरने के लिए परिवार के बाकी सदस्य भूखे रहते हैं।

आंगनवाड़ी और मिड डे मील- ये दो वो सहारे थे जो गरीब परिवारों के बच्चों के पोषण का ख्याल किये हुए थे, पर अब यहां से भी उम्मीद खत्म होती नजर आ रही है। अकेले मिड डे मील योजना के तहत देश के 10 करोड़ से ज्यादा बच्चों का पेट भर रहा था पर जब से स्कूल बंद हुए, तब से स्थिति खराब है।

जब यह मालूम करने की प्रयास किया गया कि कितने सदस्यों के पास कृषि योग्य भूमि है या घर के आगे सब्जी उगाने भर की जमीन है, तो पता चला कि 79 फीसद लोगों के पास किसी प्रकार की जमीन नहीं थी जहां वे अपने परिवार के भरण पोषण के लिए कृषि, यहां तक कि सब्जी भी उगा पाते। इनमें से 47 फीसद लोगों ने माना कि वे दिन के तीन वक्त के खाने में या तो खुद के खाने में कटौती करते हैं या बच्चों के खाने में कमी आती है। कई बार वे खुद खाना न खाकर अपने बच्चों को खाना खिलाते हैं।

गंभीर हालात से जूझ रहा है बिहार

राज्य की सरकार चुनाव की तैयारियों में व्यस्त है, बच्चे शायद मतदाता सूची का हिस्सा नहीं इसलिए उन पर खास ध्यान नहीं दिया जा रहा है जबकि कुपोषण के मामले में राज्य की जो स्थिति है वो किसी से नहीं छुपी है। 13 मार्च को बिहार सरकार ने महामारी की स्थिति के कारण सभी स्कूलों और आंगनवाड़ी केंद्रों को बंद कर दिया था। 18 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने देश भर के आंगनवाड़ी केंद्रों में 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए मिड डे मील और भोजन के निलंबन का स्वत: संज्ञान लेते हुए सभी राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को नोटिस जारी किया। पूछा गया कि बच्चों तक आहार पहुंचाने की क्या तैयारी है? इस मामले में केवल केरल ही एकमात्र राज्य था जिसके पास इस बात का खाका तैयार था कि बच्चों तक मिड डे मील का पोषण कैसे पहुंचेगा।

खैर, सब कुछ होते-होते मई आ गयी और बच्चे पोषण आहार का इंतजार करते रहे। 4 मई को जाकर बिहार सरकार ने मिड-डे मील योजना के तहत 378.7 करोड़ रुपये राज्य के 1.29 करोड़ सरकारी स्कूली छात्रों के बैंक खातों में हस्तांतरित किये, लेकिन 6 जुलाई को पटना उच्च न्यायालय ने इंडियन एक्सप्रेस की एक खबर का संज्ञान लिया जिसमें भागलपुर में बच्चों को मिड डे मील न मिलने के बारे में बताया गया था। अदालत ने राज्य सरकार, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग, शिक्षा विभाग को नोटिस कर के कहा कि स्कूलों में मिड डे मील पहुंचाएं या फिर बच्चों के खाते में राशि। जाहिर सी बात है कि कहीं ना कहीं भ्रष्टाचार हुआ, तभी बच्चों के भूखे रहने की नौबत आयी।

जब पहला लॉकडाउन लागू हुआ, तो उसके दो हफ्ते बाद मोबाइलवाणी ने सार्वजनिक सेवाओं, स्वास्थ्य सेवाओं, राहत उपायों तक पहुंच और लॉकडाउन के दौरान लोगों की क्षमता का पता लगाने के लिए एक सर्वे शुरू किया जिसमें 840 लोगों में से 66 फीसद ने कहा कि उन तक सरकार का नि:शुल्क राशन नहीं पहुंचा है। करीब 14 फीसदी ऐसे लोग भी थे जिन्हें पता ही नहीं था कि नि:शुल्क राशन या आंगनवाड़ी केंद्र के जरिये खाद्य सामानों का वितरण किया जाना है।

जून में अनलॉक के बाद मोबाइलवाणी ने राशन कार्ड के संबंध में सर्वे किया, जिसमें 637 लोगों ने अपनी बात मोबाइलवाणी पर रिकॉर्ड की और उनमें से 77 फीसदी राशन कार्ड धारकों ने बताया कि उन्हें राशन नहीं मिला और बच्चों को आंगनवाड़ी केंद्रों से पोषण आहार।

पीएम गरीब कल्याण पैकेज के बारे में 702 लोगों का सर्वे हुआ, जिनमें से 20 फीसद को राशन मिला चूंकि उन्हें कोरोना काल के पहले से राशन दिया जा रहा था जबकि 18 फीसद को कुछ नहीं मिला।

भ्रष्टाचार से लबालब मिड डे मील की थाली

खाली डब्बा, खाली खाता

कोरोना काल में जब हम सबको एक दूसरे के साथ मजबूती से खड़े रहने की जरूरत थी, तब भी कुछ लोगों ने अपने फायदे के बारे में पहले सोचा। मधुबनी जिले से मोबाइलवाणी रिपोर्ट ने जानकारी दी कि मोतीपुर में जिस गोदाम से स्कूलों तक चावल पहुंचाया जाता है वहां घपलेबाजी चल रही है, जिसमें सरकारी अधिकारियों से लेकर गोदाम मालिक और स्कूल के प्राचार्य भी शामिल हैं। जब ग्रामीणों को इसके बारे में पता चला तो हंगामा हुआ पर उसके बाद सबकुछ फिर वैसे ही चल रहा है।

चकाई ब्लॉक के पटेरपहाडी पंचायत से मन्नू शर्मा दो ​महीने से अपना राशन कार्ड लिए घूम रहे हैं पर उन्हें राशन नहीं दिया जा रहा। विक्रेता कहते हैं कि उनका नाम पात्रता सूची में नहीं है! उरमा गांव के विजय राय भी इसी समस्या से जूझ रहे हैं। इनके जैसे सैकड़ों और लोग हैं जो मोबाइलवाणी पर अपनी बात रिकॉर्ड कर बता चुके हैं कि उन तक सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं पहुंच रहा है।

कोरोना योद्धाओं की कौन सुने?

हड़ताल पर बिहार के एएनएम और फार्मासिस्ट, फोटो: रोहिन कुमार/Gaon Connection

जिन्हें सरकार कोरोना काल में योद्धा मानती रही, उनके आजीविका पर कभी उसका ख्याल नहीं गया। केवल बिहार में ही चार लाख नियोजित शिक्षक हैं, वहीँ 90,000 आशा कार्यकर्ता, 2.48 लाख मध्याह्न भोजन रसोइया हैं। इस आपातकाल में जहां आशा और आंगनवाडी को घर-घर जाकर कांटेक्ट ट्रेसिंग और अन्य सर्वेक्षण के काम में लगाया गया, कई ऐसी शिकायतें आयीं कि इन्हें बुनियादी सुरक्षा जैसे दस्ताना, मास्क, हाथ धोने का साबुन तक नहीं उपलब्‍ध था।

सभी नियोजित और न्यूनतम वेतन यां यूँ कहें केवल मानदेय पर कार्यरत कामगारों ने हड़ताल करने का ठान लिया। नतीजा, सरकार के वादे केवल अखबारों और समाचार चैनलों की सुर्खियाँ ही बन कर रह गये। बिहार, झारखंड, मप्र और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में पोषण आहार जरूरतमंदों तक न पहुंचने की बड़ी वजह इन कर्मियों का हड़ताल पर जाना भी माना जा रहा है।

विभिन्न मांगों को लेकर बिहार राज्य आशा संघ राज्यव्यापी अनिश्चितकालीन हड़ताल पर है। उनके साथ कई स्वास्थ्यकर्मी भी शामिल हैं। इसी तरह राज्य के एंबुलेंसकर्मियों ने भी अनिश्चितकालीन हड़ताल शुरू कर दी है। सफाई कर्मचारी, शिक्षक और बेरोजगार… हर तरफ अनिश्चितकालीन हड़तालों का दौर जारी है।

हाल ही में परिवहन विभाग के लिए ट्रकों की हड़ताल सिरदर्द बन गयी। इन सब वजहों से क्षेत्र में खाद्य सप्लाई प्रभावित हो रही है। आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, एएनएम कार्यकर्ता, बैंककर्मी से लेकर स्वास्थ्यकर्मी तक हर कोई किसी ना किसी वजह से सरकार की नीतियों से खफा है। वे हड़ताल के नाम पर अपना काम रोकते हैं और भुगतना पड़ता है मासूम बच्चों को।

बिहार राज्‍य बाल स्‍वास्‍थ्‍य कार्यक्रम ऑक्सिलरी नर्स मिडवाइफ संघ और ऑल इंडिया फार्मासिस्‍ट असोसिएशन (एबीपीए) बिहार चैप्‍टर के सदस्‍य हड़ताल पर, फोटो: रोहिन कुमार/Gaon Connection

ग्राम पंचायत सचिव और रोजगार सहायक हड़ताल कर रहे हैं। झारखंड में तो मनरेगा कर्मियों की हड़ताल लंबे समय से जारी है। उत्तर प्रदेश में भी कुछ यही हाल है. यानि जो राज्य पहले से ही स्वास्थ्य और पोषण के मामलों में कमजोर हैं वहां हड़तालों के चक्कर में हालात और भी खराब हो रहे हैं।

राज्यों के शिक्षा मंत्रियों के साथ वर्चुअल बैठक में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने कहा था कि मिड-डे मील या खाद्य सुरक्षा भत्ता गर्मियों की छुट्टियों के दौरान भी उपलब्ध कराया जाएगा ताकि कोरोना संकट के बीच रोग प्रतिरोधक क्षमता बनाये रखने के लिए बच्चों को पर्याप्त और पोषणयुक्त आहार मिलता रह सके। केंद्र सिर्फ निर्देश या सलाह देकर छुट्टी नहीं पा सकता, राज्यों की कुछ मुश्किलें भी हैं जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।  राज्यों के अपने आर्थिक संकट जो हैं सो हैं। केंद्र से फंड और खाद्यान्न की मांग की जा रही है, हालांकि खाद्यान्न को लेकर किसी तरह की पाबंदी या किल्लत नहीं बतायी जाती है।

1600 करोड़ रुपये का अतिरिक्त खर्च ग्रीष्मावकाश में भोजन मुहैया कराने के लिए जारी किया गया है। कोविड संकट के दौरान, मिड-डे मील की कुकिंग कॉस्ट के लिए सालाना केंद्रीय आवंटन 7300 करोड़ से बढ़ाकर 8100 करोड़ रुपये किये जाने का ऐलान भी किया गया है।

पर सवाल अब भी यही है कि अगर इतना कुछ हो रहा है तो बच्चे भूखे क्यों हैं?


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