नादीन गार्डिमर से एक मुलाकात


आनंद स्वरूप वर्मा

(साहित्‍य के नोबेल पुरस्‍कार से 1991 में नवाज़ी गईं दक्षिण अफ्रीका की मशहूर लेखिका नादीन गार्डिमर का बीती 13 जुलाई को देहांत हो गया। वरिष्‍ठ पत्रकार और समकालीन तीसरी दुनिया के संपादक आनंद स्‍वरूप वर्मा ने आज से बीस साल पहले 1994 में दक्षिण अफ्रीका के पहले लोकतांत्रिक चुनाव के दौरान उनसे वहीं मुलाकात की थी और एक साक्षात्‍कार लिया था जिसके कुछ अंश तब दैनिक ‘जनसत्‍ता‘ में छपे थे। मूल साक्षात्‍कार अब भी टेप में कैद बाहर आने के इंतज़ार में है, अलबत्‍ता उस साक्षात्‍कार की सांयोगिक पृष्‍ठभूमि और परिस्थितियों पर आनंद स्‍वरूप वर्मा ने एक संक्षिप्‍त टिप्‍पणी लिखी है जिसमें नीचे प्रकाशित किया जा रहा है। इससे कहीं मूल्‍यवान गार्डिमर के साथ उनकी वे तस्‍वीरें हैं  जिन्‍हें ब्राज़ील के छायाकार ऑस्‍कर ने अपने कैमरे में कैद किया था। गार्डिमर की ये तस्‍वीरें दुर्लभ हैं और इसे पहली बार प्रकाशित करने का अवसर पाकर जनपथ सम्‍मानित महसूस कर रहा है। जनपथ की ओर से दिवंगत को श्रद्धांजलि। – मॉडरेटर

 
अप्रैल 1994 में दक्षिण अफ्रीका के प्रथम जनतांत्रिक चुनाव की रिपोर्टिंग के लिए रवाना होने से पूर्व जिन साहित्यकारों से मिलने की मैंने सूची तैयार की थी उनमें नादीन गार्डिमर का भी नाम शामिल था।
अफ्रीकी साहित्य में दिलचस्पी की वजह से अन्य देशों के साथ-साथ दक्षिण अफ्रीका के साहित्य को मैंने विशेष तौर पर पढ़ा था। इनमें गोरे और काले दोनों लेखक शामिल थे लेकिन अश्वेत लेखकों के लेखन से बहुत ज्यादा प्रभावित था। श्वेत लेखकों में एलेन पेटन, एथोल फ्यूगॉर्ड, जे.एम. कोएत्जी और नादीन गार्डिमर के उपन्यासों ने एक खास तरह की दिलचस्पी पैदा की। 1970 में वहां के अश्वेत उपन्यासकार अलेक्स ला गुमा का मैंने ‘दिनमान’ के लिए साक्षात्कार किया था और उनसे जब मैंने एलेन पेटन के उपन्यास ‘क्राई दि बिलवेड कंट्री’ के बारे में चर्चा की तो उन्होंने जो बातें कहीं उनसे अश्वेत लेखकों और श्वेत लेखकों के परसेप्शन को समझने का एक सूत्र मिला था। अलेक्स ला गुमा ने इस उपन्यास के बारे में कहा कि गोेरे उदारवादी लेखक बेशक बहुसंख्यक अश्वेत जनता के दर्द को समझते हैं लेकिन उनके पास वह समाधान हो ही नहीं सकता जो अश्वेत लेखक प्रस्तुत कर सकते हैं। इसकी वजह उन्होंने बतायी कि गोरे लेखकों की जो भी समझ है वह अनुभवजन्य नहीं है और अनुभूति की इस प्रामाणिकता का न होना उन्हें सही निष्कर्ष तक पहुंचने में बाधा पहुंचाता है। उनकी इस राय से एक हद तक मैं सहमत था लेकिन गोरे लेखकों के योगदान को मैंने कभी कम करके नहीं आंका।
चुनाव के समाचार टेलीविज़न पर ध्‍यान से देखतीं नादीन गार्डिमर 
दक्षिण अफ्रीका जाने से पूर्व नादीन की कुछ कहानियां और उनके दो उपन्यास ‘दि लेट बुर्जुआ वर्ल्ड’ और ‘बर्जर्स डॉटर’ मैं पढ़ चुका था। ये दोनों उपन्यास क्रमशः 1966 और 1979 में प्रकाशित हुए थे। ‘बर्जर्स डॉटर’ से मैं काफी प्रभावित था। यह विशु़द्ध तौर पर एक राजनीतिक उपन्यास था जिसकी प्रेरणा नादीन को ब्राम फिशर के जीवन से मिली थी। ब्राम फिशर डच मूल के गोरे व्यक्ति थे और 1956 में जब नेल्सन मंडेला पर देशद्रोह का मुकदमा चला तब उन्होंने मंडेला के वकील के रूप में अदालत में जिरह की थी। 1965 में कुख्यात रिवोनिया ट्रॉयल के समय भी वह नेल्सन मंडेला के वकील थे। ब्राम फिशर दक्षिण अफ्रीकी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे जो प्रतिबंधित थी और रंगभेद विरोधी आंदोलन में काफी सक्रिय थे। उन्हें ‘साम्यवाद के उद्देश्य को प्रचारित करने और सरकार का तख्ता पलटने’ के आरोप में आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी। 11 वर्ष जेल में बिताने के बाद अत्यंत खराब हो चुके स्वास्थ्य के कारण 1975 में उन्हें रिहा किया गया लेकिन रिहाई के दो सप्ताह बाद ही उनकी मृत्यु हो गयी। उन्हें दक्षिण अफ्रीका में आज भी नेल्सन मंडेला और उनके साथियों जैसा ही सम्मान प्राप्त है।
‘बर्जर्स डॉटर’ उपन्यास की नायिका के पिता भी रंगभेद विरोधी आंदोलन में काफी सक्रिय थे और जेल में ही उनकी मृत्यु दिखायी गयी है। इसके अलावा समूचे उपन्यास में मंडेला, यूसुफ दादू, रॉबर्ट सोबुक्वे, मोजेज कोटाने, जे बी मार्क्स जैसे अनेक कम्युनिस्टों के नाम जहां-तहां दिखायी देते हैं और एक स्थल पर तो कम्युनिस्ट पार्टी और अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के संबंधों पर भी बहस मिलती है। इस उपन्यास में बहुत सारी घटनाएं मसलन 1946 में खदानकर्मियों की हड़ताल, 1976 का सोवेटो विद्रोह आदि की भी झलक देखने को मिलती है। 1979 में इस उपन्यास के प्रकाशित होने के तीन सप्ताह के अंदर ही अल्पमत गोरी सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया। नादीन गार्डिमर उस समय तक अपने छह उपन्यासों और कई सारी कहानियों के कारण देश-विदेश में एक चर्चित लेखिका के रूप में स्थापित हो चुकी थीं। शायद यही वजह थी कि यह प्रतिबंध कुछ महीनों तक ही लागू रहा और फिर उपन्यास खुले रूप में पाठकों के लिए उपलब्ध हो गया। दरअसल इस उपन्यास में लेखिका ने कई ऐसे दस्तावेजों का जिक्र किया था जो दक्षिण अफ्रीका में प्रतिबंधित थे। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण सोवेटो में हुए छात्र आंदोलन से संबंधित एक दस्तावेज था जो प्रतिबंधित होने के बावजूद इस उपन्यास में हू-ब-हू पढ़ा जा सकता था- व्याकरण और वर्तनी की अशुद्धियों के साथ।
दक्षिण अफ्रीका में अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के एक मित्र से मैंने नादीन गार्डिमर का फोन नंबर प्राप्त किया और मैंने किसी की मदद लिए बगैर सीधे उनको फोन कर मिलने की इच्छा जाहिर की। नादीन ने पहले तो अपनी व्यस्तता की बात कहकर मुझे टालना चाहा लेकिन मेरे बार-बार अनुरोध पर वह मुझे 15 मिनट देने को राजी हुईं। उन्होंने सख्त लहजे में कहा-‘पंद्रह मिनट का मतलब पंद्रह मिनट’। ब्राजील के एक फोटोग्राफर ऑस्कर से जोहॉनसबर्ग में ही मेरी मित्रता हो गयी थी और मैंने ऑस्कर से आग्रह किया कि इंटरव्यू के समय वह भी मौजूद रहे।
नादीन गार्डिमर और आनंद स्‍वरूप वर्मा 
नियत समय पर शाम को चार बजे जब मैं नादीन के निवास पर पहुंचा तो पाया कि वह काफी शांत इलाका था और जोहॉनसबर्ग के अन्य इलाकों के विपरीत वहां कुछ खास चुनावी सरगर्मी नहीं दिखायी दे रही थी। दरअसल वह संभ्रांत गोरों का इलाका था। नादीन के साथ बातचीत की शुरुआत नादीन द्वारा पूछे गए सवालों से ही हुई- कब आए, क्यों मुझसे मिलना चाहते थे, भारत की स्थिति क्या है, अफ्रीकी साहित्य में आपकी कैसी दिलचस्पी है, आदि-आदि। मैंने जब दक्षिण अफ्रीका के ढेर सारे लेखकों के नाम और उनकी कृतियों के बारे में बताया जिन्हें मैं पढ़ चुका था तो वह थोड़ी सहज हुईं। उन्होंने हैरानी भी व्यक्त की कि उनके देश के साहित्य के बारे में किसी भारतीय के अंदर इतनी दिलचस्पी हो सकती है। मैंने उनके उपन्यास ‘दि लेट बुर्जुआ वर्ल्ड’ और ‘बर्जर्स डॉटर’ का जिक्र किया जिन्हें मैं पढ़ चुका था और इस उपन्यास के खास पहलुओं पर उन्होंने मुझसे कुछ बातचीत की।
बातचीत ‘बर्जर्स डॉटर’ पर आकर टिक गयी जो मेरा प्रिय उपन्यास था। इसी के बहाने ब्राम फिशर, नेल्सन मंडेला, वॉल्टर सिसुलू आदि नेताओं पर बातचीत चलने लगी और इस बातचीत तथा चाय पीने के क्रम में ही 15 मिनट बीत गए जो उन्होंने मेरे लिए बड़ी सख्ती के साथ निर्धारित किए थे। मैंने घड़ी देखी और उनसे कहा कि अब मैं चलता हूं क्योंकि मेरा समय पूरा हो गया लेकिन आपको इंटरव्यू करने की इच्छा पूरी हुए बगैर वापस जा रहा हूं। उनके चेहरे पर मुस्कान आयी। उन्होंने रोक लिया और इंटरव्यू देने के लिए तैयार हो गयीं। इसके बाद ऑस्कर लगातार तस्वीरें उतारता रहा और तकरीबन 40 मिनट तक मैंने उनसे बातचीत की। उस बातचीत के कुछ अंश अप्रैल 1994 में ‘जनसत्ता’ में जोहॉनसबर्ग से भेजी गयी अपनी अंतिम रिपोर्ट में मैंने दिया था।
नादीन गार्डिमर का उनके घर पर साक्षात्‍कार करते आनंद स्‍वरूप वर्मा 
नादीन से यह मुलाकात इस अर्थ में अविस्मरणीय रही कि उस नस्लवादी समाज में एक ऐसे गोरे लेखक की मानसिकता को समझने का अवसर मिला जो न केवल मानवीयता के आधार पर बल्कि राजनीतिक तौर पर भी मुक्ति आंदोलनों का समर्थक था। बातचीत में ही उन्होंने प्रतिबंधित अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के साथ अपने संबंधों का खुलासा किया था और उन घटनाओं का जिक्र किया था जिनकी वजह से वह रंगभेद विरोधी आंदोलन में सक्रिय हुईं। अपनी ख्याति और चमड़ी के रंग की वजह से उन्हें बेशक कभी जेल नहीं जाना पड़ा लेकिन सरकार की निगाह बराबर उन पर लगी रहती थी और उन्हें पता था कि सरकारी जासूस निरंतर उन पर निगरानी रखते है।
इसके दो दिन बाद जोहॉनसबर्ग के कॉर्लटन होटल में जिस समय दक्षिण अफ्रीका के चुनाव नतीजे आ रहे थे और जश्न का माहौल था मेरी मुलाकात एक बार फिर नादीन से होटल में हुई। यहां सभी लोग बड़ी बेतकल्लुफी के साथ एक दूसरे से मिल रहे थे। इस अनौपचारिक माहौल में मैंने कुछ घंटे नादीन के साथ बिताए। 1995 में नादीन गार्डिमर भारत की यात्रा पर आईं और ‘हमारी सदी’ विषय पर उन्होंने तीन मूर्ति भवन में जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल लेक्चर दिया। मेरे पास उस समारोह का कोई निमंत्रण नहीं था लेकिन मैं वहां पहुंच गया। अतिविशिष्टजनों की जबर्दस्त सुरक्षा में लगे सुरक्षाकर्मियों से घिरीं नादीन गार्डिमर से मेरा मिलना असंभव था लिहाजा खचाखच भरे हॉल के एक कोने में खड़े होकर उनका भाषण सुनने के बाद मैं वापस लौट आया।
दाएं से आनंद स्‍वरूप वर्मा और नादीन गार्डिमर 

3 Comments on “नादीन गार्डिमर से एक मुलाकात”

  1. पढ़कर अच्छा लगा, ऐसे लोगों को जानने में हमेशा दिलचस्पी रही है, कुछ रचनाओं के टुकड़े भी पढ़ने को मिलते तो मजा आ जाता

  2. नादीन गार्डिमर के बारे में इतनी जानकारी देने के लिए आनन्‍द स्‍वरूप वर्मा का आभार…उम्‍मीद है कि टेप में कैद साक्षात्‍कार के बाकी अंश भी जल्‍द ही पढ़ने को मिलेगा. फिलहाल, जितना भी है पढ़ने में मजा आया.

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