तालिबान : भू-राजनीतिक परदे के पीछे


यहां लिबास की कीमत है आदमी की नहीं, मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे

बशीर बद्र

अफगानिस्तान में अगस्त 15 की तालिबानी क्रांति के बाद इस विषय पर लेखों की बाढ़ आ गई है. चूंकि मूल भारतीय लेखन, खासकर हिंदी और अंग्रेजी में, भारतीय सिनेमा की भांति भावनात्मक लेक्चर अधिक होता है जिसमें किसी घटनाक्रम को उसके मूल संदर्भ में प्रस्तुत करने की बजाए अपने-अपने यूटोपिया से उसकी तुलना की जाती है, इसलिए तालिबान के सत्तारोहण को भी एक आभासी फ्रेमवर्क में रख कर अफगानिस्तान में उसके आने को नए-नए मायने दिए जा रहे हैं लेकिन इन सब के सार में एक ही बात है कि तालिबान के आने से अफगानिस्तान पीछे चला गया है.

“रिसर्च मेथडोलॉजी” के सवाल पर भी पश्चिमी सिफारिशों से काम लिया जा रहा जिसमें एकाध अपवाद को छोड़ दिया जाए तो मूल चिंता इसी पर केंद्रित होती है कि तालिबान की मजबूती के पीछे उसे मिला चीन, रूस और पाकिस्तान सहित मुस्लिम देशों का समर्थन है. कई लोग तो यह भी दावा कर रहे हैं कि अमरीका ही तालिबान की वापसी के पीछे है. कभी-कभार पूर्व अफगानी सरकार में व्याप्त घोर भ्रष्टाचार पर भी बात होती है लेकिन सिर्फ याद दिलाने के अंदाज में.

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इस तरह के विश्लेषण में मूल बात को पूरी तरह से गायब कर दिया जाता है कि आखिर क्यों अफगानिस्तान में सैकड़ों सामंत और युद्ध सरदारों होने के बावजूद जनता ने तालिबान को अमरीका उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व सौंपा? क्यों वहां की जनता उसे लड़ाके और धन उपलब्ध कराती रही? इसे समझने के लिए मूल रूप से अफगानिस्तान की सामाजिक पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है क्योंकि यही वह धरातल है जिसने तालिबान के लिए जरूरी लड़ाकों और संसाधन की कमी को कम होने नहीं दिया.

तालिबान से पहले अफगानिस्तान में किनके पास सत्ता थी?

अफगानिस्तान में 1990 से पहले एक संक्षिप्त समय के छोड़ दिया जाए तो मूल रूप से वह सामंतियों का संघ या फेडेरेशन ही रहा. आंतरिक रूप से यह भूभाग कई हिस्सों में बटा था जिनका शासन कबिलाई मुखिया करते थे. 19वीं शताब्दी में अंग्रेज उपनिवेशवाद ने ऊपर से क्रांति का पहला प्रयोग करते हुए केंद्रीकृत शासन देने का प्रयास किया. यह प्रयोग विफल साबित हुआ और ब्रिटिश उपनिवेशवादियों को पाछे हटना पड़ा. बाद के दौर में ऐसे ही प्रयास बार बार-बार हुए लेकिन केंद्रीय शासन व्यवस्था का सपना पूरा नहीं हो सका और अफगानिस्तन की मूल सत्ता संरचना वैसी ही बनी रही जैसी पहले थी. इस सत्ता संरचना का बोझ सबसे अधिक सामंतों के अधीन रह रहे भूमिहीन किसान और अन्य निचले तबके या लोवर स्ट्राटा पर पड़ रहा था. उनके पास क्रूर सामंती उत्पीड़न को स्वीकार करने के सिवा और कोई चारा नहीं था.

1970 के दशक में इन सामंतियों ने अपने इलाकों में अफीम की खेती करनी शुरू की जिससे धीरे-धीरे कृषि उत्पादन पूरी तरह धराशाई हो गया और पुरानी कृषि में पारंगत कृषकों की एक बड़ी आबादी को अपने इलाकों से विस्थापित होने पड़ा. साथ ही, उन देशों के लिए, जो अफगानिस्तान में अपना प्रभाव विस्तार करना चाहते थे, इस देश का सामंती ढांचा अवरोध खड़ा कर रहा था. कारोबार या किसी नीति को लागू कराने की मंजूरी केंद्रीय शासन से लेना ही पर्याप्त नहीं था बल्कि सामंती मालिकों की मंजूरी भी उतनी ही जरूरी थी.

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1973 में राजा मोहम्मद जाहिर शाह को अपदस्थ कर दिया गया. 1933 से 1973 तक चले उनके शासन को आज पश्चिमी विद्वान आधुनिकीकरण के प्रयासों के लिए याद करते हैं लेकिन मूलतः शाह का शासन सामंती ढांचे को ही बचाए रख कर स्वयं को बचाए रख सका था. अपने-अपने इलाकों में सामंतियों की निरंकुशता बेलगाम जारी रही. शाह के संवैधानिक सुधारों का युद्ध सरदारों की निरंकुशता पर कोई असर नहीं पड़ा बल्कि भू-मालिकों, मुल्लाओं और कबिलाई मुखियाओं के बहुमत वाली संसद पुराने संबंधों में किसी भी तरह के सुधारों में बाधा ही बन गई.

1970 में, पुराने उपनिवेशवाद के सत्ता सुधार में विफल हो जाने के बाद, सोवियत रूस ने अफगानिस्तान में इतिहास की टूटी श्रृंख्ला को जोड़ने की कोशिश की. उसने भी ऊपर से क्रांति का रास्ता चुना यह भूल कर कि पहले के ऐसे सभी प्रयासों का क्या हश्र हुआ है. 1973 में जाहिर शाह को अपदस्थ कर अफगान सेना के रूस समर्थक हिस्से और कम्युनिस्ट पार्टी पिपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ अफगानिस्तान या पीडीपीए की मदद से मोहम्मद दाऊद खान देश के मुखिया बन गए और अफगानिस्तान को गणतंत्र घोषित कर दिया गया. 1978 में एक सैन्य कू के बाद सत्ता पर पीडीपीए का पूर्ण रूप से कब्जा हो गया. पीडीपीए ने भी सामाजिक सुधारों को ऊपर से लागू किया.

असंतुष्ट सामंती सरदारों के लिए स्वाभाविमानी अफगानी जनता के सामने पीडीपीए को रूस की कठपुतली सरकार के रूप में चित्रित करना कठीन नहीं था और राष्ट्रीय भावना और इस्लामिक कट्टरपंथ के कॉकटेल ने जल्द ही केंद्रीय सरकार के खिलाफ हिंसक विद्रोह का रूप धारण कर लिया जिसकी परिणति 1994 में पीडीपीए के शासन के अंत में हुई. लेकिन चूंकि विद्रोही मुजाहिद्दीनों का मुख्य लक्ष्य अपने पुरानी सामंती विशेषाधिकारों को पुनः प्राप्त करना था इसलिए पीडीपीए सरकार के विघटन के तुरंत बाद ही वे आपसी युद्ध में उलझ गए और देश एक बार फिर अस्थिरता के दौर में चला गया. इसी अस्थिरता का जवाब तालिबान ने तलाशा. और ऐसा कहना कतई अतिश्योक्ति नहीं है कि अफगानिस्तान में पूंजीवादी आधुनिकता तालिबान के कंधों पर सवार हो कर आएगी. फिलहाल वहां की आधुनिकता का पैरहन पश्चिमी कोट-पैंट को देखने की हमारी आंखों की आदत को चुभता है लेकिन लिबास दोयम है, माल असली है यानी खाटी पूंजीवादी.

तालिबान और केंद्रीय शासन का सपना

तालिबान अपने मूल स्वाभाव में अफगानिस्तान में केंद्रीय शासन की एक सदी पुरानी आकांक्षा की अभिव्यक्ति है. तालिबान अपने लिबास के भीतर उस समस्या का समाधान है जिसने अफगानिस्तान को आधुनिकता और पूंजीवादी विकास की ओर अग्रसर होने से रोके रखा है. अपने धार्मिक लिबास में तालिबान अफगानिस्तानी जनता को एथनिक लॉयलटी की आदिम बेड़ियों से मुक्त कर उसके मनोविज्ञान में पूंजीवादी राष्ट्रवाद (इस्लामिक छौंक वाला) की भावना की स्थापना कर रहा है. मूलतः तालिबान सामंतवाद विरोधी जनता का प्रतिनिधि संगठन है. इसके सदस्य भूमिहीन-गरीब पृष्ठभूमि से आते हैं. स्वयं इसके संस्थापक मुल्ला उमर का जन्म भूमिहीन गरीब परिवार में हुआ था जिसका अफगान की राजनीति से दूर-दूर तक वास्ता नहीं था.

किंग्स कॉलेज लंदन के प्रोफेसर एंटोनिओ ग्युस्तोज्जी (Antonio Giustozzi) ने 2019 में प्रकाशित अपनी किताब दि तालिबान एट वॉर (युद्ध में तालिबान) में तालिबानी समर्थकों और लड़ाकों की सामाजिक पृष्ठभूमि का अध्ययन करने के लिए सैंकड़ों समर्थकों और लड़ाकों का इंटरव्यू किया. हालांकि पुस्तक में पश्चिमी पूर्वाग्रहों का अंबार है लेकिन इसके बावजूद वह यह स्वीकार करते हैं कि लगभग सभी समर्थकों और लड़ाकों ने, जिनसे उन्होंने बात की, इस बात से इनकार किया कि तालिबानी नौजवानों को जबरन या धमका कर भर्ती करते हैं.

पश्चिमी घुड़की (snub) के साथ ग्युस्तोज्जी कहते हैं कि तालिबान स्थानीय राजनीति को खूब अच्छी तरह से समझते हैं और सामाजिक और जातीय तकरार को भूनाना जानते हैं. एक जगह वह लिखते हैं, “किसी गांव के कमजोर कबिले का तालिबान का समर्थन बन जाना राजनीति गठबंधन के उसी पैटर्न की पुनरावृत्ति है जो 1980 में थी या शायद उससे भी बहुत पहले.”

1996 में जब तालिबान ने सत्ता पर कब्जा किया तो उसने सिनेमा हॉल, रात भर नशे में सराबोर रहने वाले पब हाउस, अमीरों के लिए मसाज सेंटर या स्पा नहीं खोले, बल्कि उसने एक ऐसे शासन वयवस्था का मॉडल अफगानी जनता को दिया जो उनके लिए आरंभिक स्तर पर ही सही, सामंती अत्याचारों से मुक्ती का रास्ता खोलता था. और पहली बार ऐसा नीचे से ऊपर की ओर हो रहा था. एथनिक आदिम लॉयलटी से बंधे ग्रामीण नौजवान जो पहले सामंतों की मिलिशिया में खटा करते थे, तालिबान के वफादार हो गए थे. सामंतवाद की जड़ कटने लगी थी.

2001 में अमरीका ने अफगानिस्तान पर हमला किया और तालिबान को काबुल से हटना पड़ा. अमरीका ने हामिद करजई के नेतृत्व में संक्रमणकालीन सरकार का गठन किया. सत्ता में आते ही इस सरकार ने देश के पुराने एलीटों को यानी सामंतों और युद्ध सरदारों को पुनः वे विशेषाधिकार दिला दिए जो तालिबान ने छीन लिए थे. पुराने दौर का सामंती उत्पीड़न दुबारा आरंभ हो गया. अफीम और नशे का कारोबार जिसे तालिबानी सरकार ने कुचल दिया था, इन युद्ध सरदारों ने फिर शुरू कर दिया और अफगानिस्तान एक बार फिर अफीम का सबसे बड़ा स्रोत देश बन गया. और एक बार फिर तालिबान के वापस आने की जमीन तैयार हो गई. यहां बैठे हम लोगों ने नहीं बल्कि अफगान की जनता ने तालिबानियों का शासन देखा था. हमारे तथाकथित सौंदर्य बोध या एस्थेटिक सेंस में भले तालिबान हिंसक नजर आते हैं लेकिन अफगान की जनता के लिए वे शांति और इंसाफ की गारंटी हैं.


विष्णु शर्मा पत्रकार हैं


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