ये दुनिया तालिबान के खूनी शासन की तरह कहीं अफगानी महिलाओं के संघर्ष को भी भुला न दे: RAWA


अफगानिस्तान की महिलाओं का एक संगठन है रावा (रिवोल्यूशनरी एसोसिएशन ऑफ दि वीमेन ऑफ अफगानिस्तान)। इसका उद्देश्य देश की महिलाओं को उन राजनीतिक और सामाजिक गतिविधियों में संलग्न रखना है जिनसे महिलाओं के लिए मानव अधिकार हासिल किया जा सके और कट्टरपंथी सिद्धांतों के खिलाफ जनतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों को आधार बनाते हुए सरकार के विरुद्ध संघर्ष चलाया जा सके। इस संगठन की स्थापना अफगानिस्तान की एक छात्र मीना किश्वर कमाल द्वारा 1977 में की गयी थी। 1979 में मीना किश्वर ने सोवियत समर्थित अफगानिस्तान सरकार का विरोध किया और सोवियत प्रभुत्व के खिलाफ महिलाओं को गोलबंद किया। 1981 में उन्होंने ‘पयाम-ए-ज़ान’ (महिलाओं का संदेश) नामक एक पत्रिका की शुरूआत की। मीना किश्वर की फरवरी 1987 में राजनीतिक गतिविधियों की वजह से हत्या कर दी गयी। शुरुआती दिनों में इसका कार्यालय राजधानी काबुल में था लेकिन 1980 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में इसे अपना कार्यालय काबुल से हटाकर पाकिस्तान ले जाना पड़ा। 1977 से ही इस संगठन ने अफगानिस्तान की लगभग सभी सरकारों का विरोध कियाः डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ अफगानिस्तान, दि इस्लामिक स्टेट ऑफ अफगानिस्तान, दि इस्लामिक एमिरेट ऑफ अफगानिस्तान (1996-2001), दि इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ अफगानिस्तान (2001-2021) और दि इस्लामिक एमिरेट ऑफ अफगानिस्तान (2021- )।

अभी अफगानिस्तान की मौजूदा स्थिति पर अफगान वीमेंस मिशन की सहनिदेशक सोनाली कोल्हटकर ने ‘रावा’के प्रतिनिधि से 20 अगस्त 2021 को बातचीत की जिसका संक्षिप्त रूप यहां प्रस्तुत है। यह साक्षात्कार रावा की वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ था और इसका अनुवाद वरिष्ठ पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा ने किया है।


रावा का लोगो

पिछले कई वर्षों से ‘रावा’ ने अमेरिकी कब्जे का विरोध किया। वह कब्जा तो समाप्त हो गया लेकिन इसके साथ ही तालिबान की वापसी हो गयी। क्या अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन कोई ऐसा तरीका नहीं निकाल सकते थे जिससे आज की परिस्थिति के मुकाबले अफगानिस्तान के लोग ज्यादा सुरक्षित महसूस कर सकते? क्या वह इस बात को सुनिश्चत नहीं कर सकते थे कि तालिबान इतनी जल्दी सत्ता पर काबिज न हो सकें?

पिछले 20 वर्षों में हमारी मांगों में से एक मांग यह थी कि अमेरिका/नाटो का कब्जा यहां से खत्म हो और बेहतर यह होता कि वे अपने इस्लामिक कट्टरपंथियों और टेक्नोक्रेट्स को भी अपने साथ वापस ले जाते और हमारी जनता को अपनी किस्मत का फैसला करने के लिए छोड़ देते। उनके कब्जे से यहां रक्तपात, विध्वंस और अराजकता के अलावा हमें कुछ हासिल नहीं हुआ। इन लोगों ने हमारे देश को अत्यंत भ्रष्ट, असुरक्षित और नशीली दवाओं का केंद्र बना दिया और खासतौर पर महिलाओं के लिए अत्यंत खतरनाक स्थितियां पैदा कीं।

शुरू से हमें लगता था कि ऐसा ही नतीजा सामने आयेगा। अफगानिस्तान पर अमेरिका का कब्जा होने के बाद के शुरुआती दिनों में ही 11 अक्टूबर 2001 को ‘रावा’ ने ऐलान किया थाः “अमेरिकी हमलों के जारी रहने और मासूम नागरिकों के बड़ी संख्या में मारे जाने से न केवल तालिबान को एक बहाना मिल रहा है बल्कि कट्टरपंथी ताकतों को भी इस इलाके में और सारी दुनिया में भी ताकत मिल रही है।” हम अमेरिकी कब्जे के खिलाफ इसलिए थे कि इससे ‘आतंक के खिलाफ युद्ध’ के चमकदार नारे के तहत आतंकवाद को मदद पहुंचाई जा रही थी। 2002 में जब नार्दर्न एलायंस के लुटेरे और हत्यारे वापस सत्ता में आये तब से लेकर पिछली तथाकथित शांति वार्ताओं तक तथा दोहा में हुए समझौतों और सौदेबाजी से लेकर 2020/21 में जेल में बंद 5000 आतंकवादियों के छोड़े जाने तक यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया था कि अमेरिकी सैनिकों की वापसी का भी कोई अच्छा नतीजा नहीं निकलने जा रहा है।

पेंटागन ने साबित कर दिया है कि आक्रमण अथवा हस्तक्षेप कभी भी सुरक्षित ढंग से समाप्त नहीं होता। सभी साम्राज्यवादी ताक़तें अपने सामरिक, राजनैतिक और वित्तीय स्वार्थों के लिए दूसरे देशों पर हमला करती हैं लेकिन अपने झूठ और कॉरपोरेट मीडिया की ताकत के बल पर अपने असली इरादों तथा एजेंडा पर पर्दा डालती रहती हैं।

यह कहना एक भद्दा मजाक है कि ‘महिलाओं के अधिकार’, ‘जनतंत्र’, ‘राष्ट्र निर्माण’ आदि अफगानिस्तान में अमेरिका/नाटो का एक उद्देश्य था। दरअसल अफगानिस्तान में अमेरिका इस क्षेत्र को अस्थिरता और आतंकवाद देने, खासतौर पर चीन और रूस जैसे अपने प्रतिद्वंद्वियों को घेरने और क्षेत्रीय युद्धों के जरिये उनकी अर्थव्यवस्थाओं को कमजोर करने के मकसद से आया था। बावजूद इसके अमेरिकी सरकार कभी यह नहीं चाहती थी कि उसकी इतनी विनाशकारी, अपमानजनक और शर्मनाक वापसी हो जिससे ऐसे हालात पैदा हों कि काबुल हवाई अड्डे पर नियंत्रण स्थापित करने और अपने दूतावास के राजनयिकों और कर्मचारियों को वापस बुलाने के लिए 48 घंटे अंदर ही उन्हें फिर सेना भेजनी पड़े।

हमारा मानना है कि अमेरिका ने अफगानिस्तान को अपने पैदा किये तालिबान की हार से नहीं बल्कि अपनी खुद की कमजोरी से छोड़ा। उसकी वापसी के दो महत्वपूर्ण कारण हैं।

मुख्य कारण खुद अमेरिका के अंदर तरह तरह के घरेलू संकट का होना था। कोविड 19 महामारी के समय ही अमेरिकी सिस्टम की गिरावट के संकेत मिल गये थे। इसके अलावा कैपिटल हिल पर हुआ हमला और पिछले कुछ वर्षों के दौरान अमेरिकी जनता द्वारा किये गये बड़े बड़े प्रदर्शनों को भी इस कारण में शामिल किया जा सकता है। देश के अंदर सुलगते मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए अमेरिकी नीति निर्माता अपने सैनिकों को वापस बुलाने के लिए मजबूर हुए।

दूसरा कारण इस युद्ध पर होने वाला खर्च था जो अरबों-खरबों में पहुंच गया था और जिसका खर्च टैक्स देने वालों के पैसे से पूरा होता था। इससे अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर इतना बोझ पड़ रहा था कि उसे अफगानिस्तान छोड़ना पड़ा।

युद्धोन्माद वाली नीतियों ने साबित किया है कि उनका मकसद कभी भी अफगानिस्तान को सुरक्षित बनाना नहीं था। इसके अलावा उन्हें यह भी पता था कि उनकी वापसी से एक अराजकता पैदा होगी फिर भी उन्होंने ऐसा किया। आज सत्ता में तालिबान के आने से अफगानिस्तान एक बार फिर सुर्खियों में है लेकिन यह स्थिति तो पिछले 20 वर्षों से थी। हर रोज हमारे सैकड़ों लोग मारे जा रहे थे और देश में विध्वंस हो रहा था लेकिन मीडिया में शायद ही कभी ये खबरें आती रही हों।

Meena, (February 27, 1956 – February 4, 1987) Afghan feminist and activist on behalf of women’s rights. She founded the Revolutionary Association of the Women of Afghanistan (RAWA) in 1977, a group organized to promote equality and education for women. She was assassinated in QuettaPakistan on February 4, 1987.

तालिबान नेतृत्व कह रहा है कि वे महिलाओं के अधिकारों का सम्मान करेंगे शर्ते वे इस्लामिक कानून का पालन करें। पश्चिम के कुछ अखबार इसे सकारात्मक ढंग से पेश कर रहे हैं। क्या तालिबान ने बीस साल पहले यही बात नहीं कही थी? क्या आपको लगता है कि मानव अधिकारों और महिलाओं के अधिकारों को लेकर उनके अंदर कोई तब्दीली आयी है?

कॉरपोरेट मीडिया हमारी बर्बाद हुई जनता के घावों पर नमक छिड़क रहा है। बर्बर तालिबानियों की हरकतों पर मुलम्मा चढ़ाने की वे जो कोशिश कर रहे हैं उन पर उन्हें शर्म आनी चाहिए। तालिबान प्रवक्ता ने खुद ऐलान किया है कि 1996 की उनकी विचारधारा और आज की विचारधारा में कोई फर्क नहीं है। इसके अलावा महिलाओं के अधिकारों के बारे में उन्होंने हूबहू वही कहा है जो पिछले अंधकारमय शासनकाल में कहा थाः हम शरिया कानून लागू करेंगे।

तालिबान ने अभी ऐलान किया था कि अफगानिस्तान के हर हिस्से में वे लोगों को माफी देंगे और उन्होंने एक नारा दिया कि ‘माफी देने से जो खुशी मिलती है वह बदला लेने से नहीं मिल सकती।’ लेकिन हकीकत यह है कि वे हर रोज लोगों को मार रहे हैं। अभी कल ही एक लड़के को नंगरहार में इसलिए मार दिया गया क्योंकि वह सफेद तालिबानी झंडे की बजाय तिरंगा अफगानी राष्ट्रीय झंडा लेकर जा रहा था। कांधार में उन्होंने सेना के चार पूर्व अधिकारियों की हत्या की, फेसबुक पर तालिबान विरोधी पोस्ट लिखने की वजह से हेरात प्रांत में युवा अफगानी कवि मेहरान पोपल को गिरफ्तार कर लिया और उसे कहां ले गये इसकी जानकारी उसके परिवार को भी नहीं है। उनके प्रवक्ताओं के सुंदर और लुभावने वक्तव्यों के बावजूद उनकी हिंसक कार्रवाइयों की ये चंद मिसालें हैं।

हो सकता है कि उनके द्वारा किये जाने वाले ये दावे एक नाटक हों ताकि उन्हें कुछ समय मिल जाय और वे खुद को और भी अच्छी तरह संगठित कर लें। घटनाएं इतनी तेजी से घटित हुईं कि उन्हें अपनी सरकार का ढांचा तैयार करने, खुफिया व्यवस्था दुरुस्त करने और ‘नेक चाल-चलन के प्रचार तथा बदचलनी पर रोक’ नामक मंत्रालय के गठन का समय नहीं मिला। यह मंत्रालय ही लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी की छोटी छोटी बातों को संचालित करता है मसलन दाढ़ी की लंबाई कितनी होनी चाहिए, कपड़े कैसे पहनने चाहिए और किसी औरत के साथ महरम (कोई पुरुष- पिता, भाई या पति) क्यों होना चाहिए। तालिबान दावा करता है कि हम महिलाओं के अधिकारों के खिलाफ नहीं हैं लेकिन साथ ही यह भी कहता है कि यह सारा कुछ इस्लामिक/शरिया कानूनों के ढांचे के तहत होना चाहिए।

इस्लामिक/शरिया कानून बहुत अस्पष्ट है और इस्लामिक सत्ताओं द्वारा इसे अलग अलग तरीके से ऐसे बनाया गया है जिससे उनके खुद के राजनीतिक एजेंडे को पूरा किया जा सके। इसके अलावा तालिबान यह भी चाहेगा कि पश्चिमी देशों की उसे स्वीकृति मिले और वे उसे गंभीरता से लें। और इस मकसद को पूरा करने के लिए ये सभी दावे अपनी छवि को निखारने के लिए किये जा रहे हैं। हो सकता है कुछ महीनों बाद वे कहें कि चूंकि हम न्याय और जनतंत्र में यकीन करते हैं इसलिए चुनाव करायेंगे। इन तिकड़मों से उनका असली स्वरूप कभी नहीं बदलेगा और वे इस्लामिक कट्टरपंथी ही बने रहेंगेः औरत विरोधी, अमानवीय, बर्बर, प्रतिक्रियावादी, जनतंत्र विरोधी और प्रगति विरोधी। एक शब्द में कहें तो तालिबान मानसिकता में कोई तब्दीली नहीं है और इसमें कोई तब्दीली होगी भी नहीं।

क्या वजह है कि अफगान नेशनल आर्मी और अमेरिका समर्थित अफगान सरकार इतनी तेजी से बिखर गयी?

इसके अनेक कारण हैं। जिनमें से कुछ इस प्रकार हैंः

1. सब कुछ तालिबान को अफगानिस्तान सौंपने के एक समझौते के अनुसार हुआ। अमेरिका ने पाकिस्तान तथा इस क्षेत्र के अन्य किरदारों के साथ समझौता किया कि तालिबान को लेकर सरकार का गठन हो। इस वजह से तालिबान का विरोध कर सरकारी सैनिक अपनी जान नहीं देना चाहते थे क्योंकि उन्हें पता था कि बंद दरवाजों के अंदर तालिबान को सत्ता सौंपने का फैसला हो चुका है और इसमें अफगानी जनता को किसी तरह का फायदा नहीं होने वाला है। तालिबान को वापस सत्ता में लाने में जलमे खलीलजाद ने जो विश्वासघाती भूमिका निभायी उसकी वजह से अफगानी जनता उससे बेहद नफरत करती है।

2. अफगान के अधिकांश लोगों को अच्छी तरह पता है कि अफगान में जो युद्ध जारी था वह देश के हित के लिए नहीं था- यह विदेशी ताकतों द्वारा अपने खुद के सामरिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए था और इस आग को जलाये रखने के लिए अफगानियों का ईंधन की तरह इस्तेमाल किया जा रहा था। नौजवानों का एक बहुत बड़ा तबका भीषण गरीबी और बेरोजगारी की वजह से सेना में भर्ती हो रहा था इसलिए उनके अंदर न तो किसी तरह की प्रतिबद्धता थी और न लड़ने का मनोबल था। यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि अमेरिका और पश्चिमी देशों ने पिछले 20 वर्षों के दौरान अफगानिस्तान को एक उपभोक्ता देश बनाये रखने की कोशिश की और उद्योगों के विकास को रोका। इन हालात की वजह से बेरोजगारी और गरीबी में इजाफा हुआ जिसके नतीजे के तौर पर कठपुतली सरकार में सैनिकों की भर्ती हुई, तालिबान को फलने फूलने का मौका मिला और अफीम के उत्पादन में वृद्धि हुई।

3. अफगानी सेना इतनी कमजोर नहीं थी कि एक हफ्ते में कोई उसे हरा दे लेकिन राष्ट्रपति भवन से उसे आदेश मिल रहे थे कि वह तालिबान का मुकाबला न करे और हथियार डाल दे। अधिकांश सूबों में सैनिकों ने शांतिपूर्ण ढंग से सब कुछ तालिबान को सौंप दिया।

4. हामिद करजई और अशरफ गनी की कठपुतली सरकारें वर्षों से तालिबान को ‘असंतुष्ट भाइयों’ के रूप में संबोधित कर रही थीं और इन सरकारों ने तालिबान के अनेक नृशंस कमांडरों और नेताओं को जेल से छोड़ा। अफगानी सैनिकों से उन लोगों से लड़ने को कहना जिन्हें ‘दुश्मन’ नहीं बल्कि ‘भाई’ कहा जा रहा हो- इसने तालिबानियों का हौसला बढ़ाया और अफगानी सेना के हौसले को पस्त किया।

5. अफगानी सेना में अभूतपूर्व ढंग से भ्रष्टाचार की बीमारी लगी हुई है। इनके जनरलों में से एक बहुत बड़ी तादाद उन लोगों की है जो कभी नार्दर्न एलायंस के बर्बर युद्ध सरदार हुआ करते थे। उन्होंने काबुल में बैठकर लाखों करोड़ों डॉलर जमा किये और मोर्चे पर लड़ रहे सैनिकों के खाने पीने और तनख्वाह के रूप में मिलने वाले पैसों तक में कटौती की। उच्च पदों पर बैठे अधिकारी अपनी जेबें भरने में लगे रहे। सेना में भर्ती दिखाये गये फर्जी सैनिकों के नाम पर बहुत बड़े पैमाने पर तनख्वाह और राशन का पैसा इनके बैंक खातों में जमा होता रहा।

6. जब भी लड़ाई के दौरान सरकारी सैनिक तालिबान के सैनिकों द्वारा घेर लिये जाते थे तो काबुल में उनकी गुहार सुनने वाला कोई नहीं था। ऐसे अनेक मामले देखने में आये हैं जिसमें सैकड़ों की संख्या में सैनिकों का इसलिए सफाया हुआ क्योंकि हफ्तों तक उनके पास न हथियार था और न खाने के लिए राशन। यही वजह है कि सेना में मरने वालों की संख्या बहुत ज्यादा थी। 2019 में दावोस में आयोजित वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में अशरफ गनी ने खुद यह कुबूल किया कि 2014 से लेकर उस समय तक 45000 से अधिक अफगानी सुरक्षाकर्मी मारे गये जबकि उसी अवधि में अमेरिकी / नाटो के सैनिकों के मारे जाने की संख्या महज 70 थी।

7. कुल मिलाकर देखें तो उस सामाजिक-राजनीतिक माहौल ने, जहां भ्रष्टाचार, अन्याय, बेरोजगारी, असुरक्षा, अनिश्चितता, धोखाधड़ी, व्यापक गरीबी, ड्रग और तस्करी आदि का बोलबाला हो, तालिबान को मजबूत होने की शानदार जमीन मुहय्या की।

Demonstration of the Revolutionary Association of the Women of Afghanistan (RAWA) in Peshawar, Pakistan to condemn the 6th black anniversary of swarming of fundamentalists into Kabul, April 28,1998

अफगानी जनता और महिलाओं के अधिकार प्राप्त करने में मदद पहुंचाने के लिए अमेरिकी जनता को क्या करना चाहिए?

हम खुशकिस्मत हैं कि इन सारे वर्षों के दौरान अमेरिका की आजादी-पसंद जनता अफगानी जनता के साथ रही। हमें इस बात की जरूरत है कि अमेरिकी जनता अपनी सरकार की युद्धोन्मादी नीतियों के खिलाफ आवाज बुलंद करे और अफगानिस्तान में बर्बर तत्वों के खिलाफ जनता के संघर्ष को समर्थन दे।

प्रतिरोध करना मनुष्य के स्वभाव में है और इतिहास ऐसी मिसालों से भरा हुआ हैं। हमारे पास अमेरिकी जनता के संघर्ष की भी शानदार मिसालें हैं मसलन ‘आकुपाई वाल स्ट्रीट’ और ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ जैसे आंदोलन। हमने देखा है कि उत्पीड़न, अत्याचार और हिंसा से किसी भी प्रतिरोध को रोका नहीं जा सकता। औरतों को अब जंजीरों में जकड़ा नहीं जा सकता। जिस दिन तालिबानी सैनिक राजधानी काबुल में घुसे उसके दूसरे ही दिन हमारी नौजवान बहादुर औरतों ने काबुल की दीवारों को ‘तालिबान मुर्दाबाद’ के नारों से पाट दिया। हमारे यहां की औरतें अब राजनीतिक तौर पर सचेत हो चुकी हैं और अब वे किसी भी हालत में बुर्का के अंदर नहीं रहना चाहतीं- जबकि 20 साल पहले उनसे आसानी से ऐसा करा लिया जाता था। हम अपने को सुरक्षित रखने का रास्ता निकालते हुए यह संघर्ष जारी रखेंगी।

हम मानती हैं कि अमानवीय अमेरिकी सैनिक साम्राज्य न केवल अफगान की जनता का बल्कि विश्वशांति और स्थिरता के लिए सबसे बड़ा खतरा है। अब चूंकि यह व्यवस्था चरमरा रही है, आज सभी शांतिप्रेमी, प्रगतिशील, वामपंथी, और न्यायप्रिय व्यक्तियों और समूहों का कर्तव्य है कि वे व्हाइट हाउस, पेंटागन और कैपिटल हिल में बैठे इन बर्बर युद्धोन्मादियों के खिलाफ संघर्ष करें। एक सड़ी गली व्यवस्था को हटाकर एक न्याय और मानवीयता पर आधारित व्यवस्था लाने से न केवल करोड़ों गरीबों को और उत्पीड़ित अमेरिकियों को मुक्ति मिलेगी बल्कि इसका असर दुनिया के हर हिस्से पर पड़ेगा।

आज हमारा डर यह है कि 1990 के उत्तरार्द्ध में तालिबान के खूनी शासन की ही तरह कहीं दुनिया के लोग अफगानिस्तान और अफगानी महिलाओं के संघर्ष को भुला न दें। इसलिए मैं अमेरिका के प्रगतिशील लोगों और संस्थाओं से अपील करूंगी कि उन्हें अफगानी महिलाओं के संघर्ष को याद रखना चाहिए। जहां तक हमारी बात है हम अपनी आवाज लगातार ऊंची करते रहेंगे और एक धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र की स्थापना के लिए और महिलाओं के अधिकारों के लिए अपना प्रतिरोध और संघर्ष जारी रखेंगे।



About जनपथ

जनपथ हिंदी जगत के शुरुआती ब्लॉगों में है जिसे 2006 में शुरू किया गया था। शुरुआत में निजी ब्लॉग के रूप में इसकी शक्ल थी, जिसे बाद में चुनिंदा लेखों, ख़बरों, संस्मरणों और साक्षात्कारों तक विस्तृत किया गया। अपने दस साल इस ब्लॉग ने 2016 में पूरे किए, लेकिन संयोग से कुछ तकनीकी दिक्कत के चलते इसके डोमेन का नवीनीकरण नहीं हो सका। जनपथ को मौजूदा पता दोबारा 2019 में मिला, जिसके बाद कुछ समानधर्मा लेखकों और पत्रकारों के सुझाव से इसे एक वेबसाइट में तब्दील करने की दिशा में प्रयास किया गया। इसके पीछे सोच वही रही जो बरसों पहले ब्लॉग शुरू करते वक्त थी, कि स्वतंत्र रूप से लिखने वालों के लिए अखबारों में स्पेस कम हो रही है। ऐसी सूरत में जनपथ की कोशिश है कि वैचारिक टिप्पणियों, संस्मरणों, विश्लेषणों, अनूदित लेखों और साक्षात्कारों के माध्यम से एक दबावमुक्त सामुदायिक मंच का निर्माण किया जाए जहां किसी के छपने पर, कुछ भी छपने पर, पाबंदी न हो। शर्त बस एक हैः जो भी छपे, वह जन-हित में हो। व्यापक जन-सरोकारों से प्रेरित हो। व्यावसायिक लालसा से मुक्त हो क्योंकि जनपथ विशुद्ध अव्यावसायिक मंच है और कहीं किसी भी रूप में किसी संस्थान के तौर पर पंजीकृत नहीं है।

View all posts by जनपथ →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *