नरेंद्र मोदी के पैदा किये सवालों के जवाब राहुल गांधी के पास हैं, लेकिन वही उनकी चुनौती भी हैं!


आर्थिक नीतियों के संदर्भ में भाजपा और कांग्रेस को देखें तो कोई खास अंतर नहीं लगता, लेकिन इसी संदर्भ में अगर नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी को देखें तो दोनों दो वैचारिक ध्रुवों पर नजर आते हैं। यह कैसा विरोधाभास है? जिनकी पार्टियों की आर्थिक सोच में अधिक अंतर नहीं उनके शीर्ष नेताओं के विचारों में इतना अंतर कैसे?

शायद यह भी एक बिंदु है जिस पर कांग्रेस के कॉरपोरेट समर्थक कुछ बड़े नेताओं और राहुल गांधी के बीच मतभेद हों जो अलग-अलग सतहों पर अलग-अलग रूपों में सामने आते हों।

राहुल गांधी के भाषण हों या पत्रकार वार्त्ताएं, देश की आर्थिकी के संबंध में वे खुल कर अपने विचार व्यक्त करते हैं और तब यह सोच कर ताज्जुब होता है कि मनमोहन सिंह के दस वर्षों के शासनकाल में उनकी ऐसी सोच कहां थी, जब वे संविधानेतर शक्ति के रूप में सत्ता पर बेहद प्रभावी थे।

संभव है, मोदी के विपक्ष की राजनीति करते राहुल गांधी ने भारत के संदर्भ में नवउदारवादी नीतियों की प्रासंगिकताओं और उनकी सीमाओं की पहचान की हो। यह गौर करने की बात है कि बीते कुछ वर्षों में, जब नरेंद्र मोदी के उग्र निजीकरण अभियान में गति आने लगी, आर्थिक नीतियों के प्रति राहुल गांधी की सोच अधिक स्पष्ट और मुखर हुई है।

नरेंद्र मोदी ने कहा, “मैं भारत को दुनिया की सर्वाधिक मुक्त अर्थव्यवस्था बना दूंगा…” जबकि    राहुल गांधी ने 2019 के चुनावों के दौरान रवीश कुमार को दिए एक इंटरव्यू में कहा था, “मानक तो सरकारी संस्थानों को ही बनना होगा, संरचना में नेतृत्व उन्हीं को देना होगा, निजी संस्थानों को उनका अनुसरण करना होगा।”

सरकारी संस्थानों को प्रतिमान बनाने की सोच वैचारिक धरातल पर उन्हें नरेंद्र मोदी के सीधे विपक्ष में खड़ा करती है। विपक्ष के शीर्ष नेताओं में राहुल एकमात्र ऐसे नेता हैं जो वर्त्तमान सत्ता और कुछ चुनिंदा कॉरपोरेट घरानों की जुगलबंदी को खुल कर ‘अपवित्र’ करार देते रहे हैं।

संसाधनों को अपनी मुट्ठियों में कैद करते कॉरपोरेट की शक्तियों के लिए राहुल गांधी के ये विचार बेहद खतरनाक हैं। जाहिर है, वे कभी नहीं चाहेंगे कि कोई ऐसा नेता सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे जो निजी क्षेत्र के समक्ष सरकारी क्षेत्र को प्रतिमान बनाने की बातें करता हो।

तो नैरेटिव सेट किये जाने के इस दौर में ‘पप्पू’ का मिथक गढ़ा जाना स्वाभाविक ही है। जो निहित हितों के सामने प्रतिरोधी विचारों के साथ खड़ा होगा, उसकी छवि को ध्वस्त करने का हर संभव उपाय करना ही होगा।

राहुल गांधी जितनी चुनौती मोदी के लिए खड़ी कर सकते हैं उससे अधिक कॉरपोरेट की उन शक्तियों के लिए अवरोध बन सकते हैं जो तमाम संसाधनों पर कब्जा करने की होड़ में हैं। मोदी आज परिदृश्य पर छाए हैं लेकिन वे 70 पार कर चुके हैं। पोस्ट-मोदी पॉलिटिक्स में 50 के राहुल महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। उनका महत्वपूर्ण बनना, उनकी स्वीकार्यता का बढ़ना कॉरपोरेट के कुछ चुनिंदा खिलाड़ियों के माथे पर की लकीरों को गहरी कर सकता है।

वे कांग्रेस के उस मिजाज में भी फिट नहीं हो पा रहे जो चिदम्बरम और सिब्बल टाइप नेताओं की वैचारिकता में पोषण पाता है। इसलिए, कांग्रेस के भीतर भी कहीं न कहीं उन्हें कमजोर करने की कोशिशें होती रही हैं।

जिस राजनीतिक गर्त्त में कांग्रेस जा पहुंची है, उठ खड़े होने के लिए उसे अपना वैचारिक आधार स्पष्ट करना होगा। उस सिक्के का एक पहलू बने रहने पर वह अंततः नष्ट हो जाएगी जिसका दूसरा पहलू भाजपा है।

जिस दिन राहुल गांधी ने अपने को जनेऊधारी बताने की कोशिश की, उस दिन वे भाजपा की पिच पर खेल रहे थे। उन्हें हारना ही था। उसी तरह जिस तरह माथे पर चंदन का लेप चढ़ाए भीड़ से मुखातिब प्रियंका गांधी कांग्रेस की मनोवैज्ञानिक पराजय का आख्यान रच रही थीं।

आप या तो कांग्रेसी हो सकते हैं या भाजपाई हो सकते हैं। दोनों नहीं हो सकते। आप नेहरू की वैचारिक विरासत पर राजनीति भी करेंगे और भटकते हुए भाजपाई पिच पर भी पहुंच जाएंगे, तो अपनी और पार्टी की दुर्दशा के लिए भी तैयार रहना होगा।

जो भी कांग्रेस को ‘नेहरू-गांधी खानदान से मुक्त’ देखना चाहते हैं वे बेहद भोले हैं। भले ही यह दुर्भाग्यपूर्ण हो, लेकिन तथ्य यही है कि इस खानदान के बिना कांग्रेस हजार टुकड़ों में बंट जाएगी। या तो राहुल में या प्रियंका में कांग्रेस का भविष्य तलाशिए या कांग्रेस की शवयात्रा में शामिल हो उसे श्रद्धांजलि दे डालिए। उसके बाद, जितने नेता उतनी कांग्रेस।

लोकतांत्रिक भारत की यह अजीब सी विडंबना है कि आज की तारीख में किसी भी पार्टी में लोकतंत्र नहीं। भारतीय राजनीति इस संदर्भ में एक प्रहसन बन कर रह गयी है। रास्ते इन्हीं अंधेरों से निकलेंगे, भविष्य के नायक इन्हीं प्रहसनों से गुजर कर निकलेंगे।

नए भारत के निर्माण की बातें करते नरेंद्र मोदी अपनी सीमाएं दर्शा चुके हैं। अब वे क्या करेंगे आगे? कुछ और रेलवे स्टेशनों को बेच डालेंगे, कुछ दर्जन निजी रेलगाड़ियां चलवा देंगे, सार्वजनिक क्षेत्र की कुछ और इकाइयों की बोली लगवा देंगे, संस्थानों को कुछ और कमजोर करेंगे, प्रतिमानों को कुछ और विकृत करेंगे। बस, इससे आगे क्या? वे, उनके सलाहकार और उनकी मंडली आर्थिक सन्दर्भों में अपनी कल्पनाशून्यता साबित कर चुके हैं।

मोदी जिस वैचारिक चौराहे पर भारत को छोड़ जाएंगे, वहीं से नये रास्तों का अन्वेषण होगा कि क्या बचे हुए छोटे रेलवे स्टेशनों की भी बोली लगवा दी जाय; कि पूर्वजों द्वारा खड़ी की गयी आर्थिक इमारतों की अंतिम ईंट को भी खोद कर बेच दिया जाए; कि प्रतिमान के रूप में खड़े सरकारी विश्वविद्यालयों और अस्पतालों की दीवारों को भी ढहने दिया जाए और उन खंडहरों पर मुनाफा की शक्तियों के झंडे फहरा दिए जाएं; कि मनुष्यता से जुड़े मूल्यों को मुनाफे के तर्कों से घेर लिया जाए?

मोदी के बाद की राजनीति में यही सवाल देश के सामने होंगे। राहुल गांधी के पास इन सवालों के जैसे जवाब हैं वे उनकी राजनीति को सार्थक और मानवीय तो बनाते हैं लेकिन यही उनकी चुनौती भी बन कर खड़े हो सकते हैं।

आज के दौर में, जब मनुष्य की चेतना से लेकर मिट्टी के धेले तक पर कब्जा करने के लिए सन्नद्ध मुनाफे की शक्तियां निरन्तर मजबूत होती जा रही हैं, सरकारी संस्थानों को प्रतिमान बनाने की बातें करने वाले राजनेता की राहों को दुष्कर बनाये जाने की कोई भी कोशिश बाकी नहीं रखी जाएगी।

अगर वे इन दुरभिसंधियों का सामना कर सके और अपनी प्रासंगिकता बनाये रख सके तो इतिहास के कुछ पन्नों को अपने नाम कर सकते हैं वरना हाशिये का बियाबान उनकी प्रतीक्षा करता मिलेगा।


हेमंत कुमार झा के फ़ेसबुक से साभार प्रकाशित


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