नोम चोम्स्की के अनुसार- ‘‘मौजूदा दौर का सबसे बड़ा दुश्मन पूँजीवाद है।’’ ‘मेरे खून में व्यापार है’ वाले हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अपने अंदाज में इसे स्वीकार कर चुके हैं। एक बार तीनों सेनाओं के संयुक्त सम्मलेन में सेना प्रमुखों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा- ‘‘अब ऐसे दुश्मन से निपटने की तैयारी कीजिए जो नजर नहीं आएगा।’’ पूँजीवाद ऐसा अदृश्य दुश्मन है जो नजर नहीं आता पर कई देशों को लील चुका है। धर्म और राष्ट्रवाद के मजबूत पंखों के सहारे पूँजी का गिद्ध, पूँजीवाद की प्रयोगशाला बने तीसरी दुनिया के देशों के ऊपर मँडरा रहा है।
भारत की मिसाइल्स के नाम ब्रह्मोस, पृथ्वी, अग्नि, बाण आदि हैं। पाकिस्तान की मिसाइल्स के नाम गौरी, शाहीन, हत्फ वगैरह हैं। हथियारों का कारोबार करने वालों की मिसाइल्स के नाम भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इराक, सऊदी अरब, फिलिस्तीन, सीरिया ईटीसी हैं। इन मिसाइल्स की मारक क्षमता बढ़ाने वाले फ्यूज कंडक्टर का नाम धर्म है।
पूँजीवाद की तरह ही भारत के एक और अदृश्य दुश्मन का नाम भूत है। पूँजीवाद की तरह ये भी नजर नहीं आता। पूँजीवाद और भूत के बीच बाप-बेटे का रिश्ता है। भूत के खून में पूँजीवाद है। पूँजीवाद ने अपने ‘मैनेजर’ ब्राह्मणवाद की आर्थिक तरक्की के लिए कई उत्पादों की रचना की है। भूत उन उत्पादों में से एक है। अपनी आर्थिक तरक्की के लिए ब्राह्मणवाद ने पूँजी का मैनेजर बन उन उत्पादों की बढ़-चढ़कर ‘मार्केटिंग’ की। अपनी हजारों वर्ष की तपस्या के दम पर पूँजीवाद ने आदमी के मस्तिष्क में घुसपैठ कर अपने हवा-हवाई उत्पादों को सच साबित कर दिया। हवा-हवाई उत्पादों ने आदमी के मस्तिष्क में अपना चक्रव्यूह बना लिया है।
बाप-बेटे की इस अदृश्य जोड़ी से मुक्ति का इलाज कबीर ने बताया। पूँजीवाद को चिंता हुई कि अपने मैनेजर्स के सहयोग से बनाये गए उसके ‘शून्य लागत, असीमित मुनाफे’ का चक्रव्यूह टूट जाएगा। अपना चक्रव्यूह बचाने के लिए पूँजीवाद ने अपने मैनेजर ब्राह्मणवाद के सहयोग से कबीर को पागल घोषित करवा दिया। कबीर को पागल घोषित करना ब्राह्मणवाद की मजबूरी थी। अगर कबीर को पागल घोषित नहीं किया जाता तो उनकी वाणी डर आधारित पाखंड की सत्ता से होने वाली आर्थिक तरक्की पर लगाम लगा देती। आधुनिक परिदृश्य में कबीर की वाणी को सीमित करने में ब्राह्मणवाद की तरह पर-पीड़ा से आनंद प्राप्त करने वाले जाति चिंतकों ने भी ब्राह्मणवाद का पूरा सहयोग किया है। कबीर को ‘अपना’ साबित करने के लिए वे प्रवृत्ति विरोधी को व्यक्ति विरोधी साबित करते हैं।
कबीर को अपना साबित करने की जंग पुरानी है। पोंगापंथ और पाखंड की मार्केटिंग करने वाले मैनेजर कबीर के जीवित रहते उन्हें रंडी की औलाद कहते रहे। मरने के बाद श्रेष्ठता और ज्ञान पर अपना एकाधिकार साबित करने के लिए कबीर को अपना कहते हैं- ‘‘कबीर विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से पैदा हुए थे। लोकलाज के डर से उसने कबीर को लावारिस छोड़ दिया था।’’ ये अपनापा आधुनिक युग में श्रेष्ठता की अश्लील स्वीकारोक्ति का एक दुर्लभ उदाहरण है।
ब्राह्मणवाद पागल को ब्रह्मास्त्र की तरह प्रयोग करता है। जिसने भी पाखंड की सत्ता का मान-मर्दन किया, ब्राह्मणवाद उसे पागल घोषित कर देता है। पागल कहकर किए जाने वाले सामाजिक बहिष्कार से भला-चंगा आदमी भी मानसिक विक्षिप्त हो जाता है। मंत्रों का पुष्पक उड़ाने वाले और ब्रह्म के रूप में स्थापित ब्राह्मणवाद का कहा मानना मजबूरी थी। जो नहीं मानते, वे भी पागल घोषित कर दिए जाते। हमारी समझ का आलम ये है कि मानसिक चिकित्सालय को भी हम पागलखाना कहते हैं। ऐसी समझ के बीच खुद को पागल कहे जाने का खतरा कौन मोल लेगा?
किसी को पागल कह कर देखिए, वो अपना मानसिक संतुलन खोने लगता है। मैं पागल नहीं हूँ, ये साबित करने के लिए वो आपको पीट भी सकता है। हां, प्रेमिका ने पागल कहा तो प्रेमिका पर प्यार-ही-प्यार उमड़ने लगता है। प्रेमिका को क्यों नहीं पीटते? उसने भी तो पागल कहा!
एक-दूसरे से बेहद प्यार करने वाला एक युगल मेरा सहपाठी था। वे दोनों एक-दूसरे को पागल कहते। मैं सार्वजनिक स्थलों पर भी उन्हें पागल कहता। मैं सोचता, इन्हें डर नहीं लगता पागल घोषित किए जाने से?
एक दिन मैंने उनसे पूछा-
जब तुम दोनों की नजर पहली बार मिली थी, तब शरीर में झुरझुरी दौड़ी थी?
हाँ।
प्रेम अब भी करते हो, तो क्या अब भी नजर मिलने पर झुरझुरी दौड़ती है?
ना।
तुम भी वही, वो भी वही, आँख भी वही, फिर क्यों नहीं दौड़ती झुरझुरी?
पता नहीं।
अच्छा ये बताओ, जब पहली बार अंजाने में एक-दूसरे की अँगुलियों का ही सम्पर्क हुआ था, तब वो झुरझुरी दौड़ी थी?
हाँ।
अब?
ना।
तुम भी वही, वो भी वही, अँगुलियाँ भी वहीं, फिर क्यों नहीं दौड़ती झुरझुरी?
पता नहीं।
क्या तुम जानते हो कि वो झुरझुरी क्या थी?
नहीं।
मत जानो। बताओ ना।
क्या करोगे जानकर?
बताओ ना।
वो झुरझुरी नहीं, प्रेम का ‘चक्कर’ चल रहा था। ढाई आखर का ‘चक्र’ चल रहा था।
आँय! बधाई हो, तुम पागलपन से मुक्त हो चुके हो। आज के बाद मैं तुम्हें पागल नहीं कहूँगा।
भक्क।
अच्छा, ये बताओ, अति का भला न बरसना अति की भली न धूप का अर्थ जानते हो?
हाँ, सर अक्सर बताते हैं।
वही सर जो कबीर पर अपना कॉपीराइट बताते हैं?
हाँ।
क्या बताते हैं?
अति अच्छी नहीं होती। न अधिक धूप अच्छी, न अधिक बरसात अच्छी। आदि, आदि।
वे सर इसकी व्यंजना और लक्षणा नहीं बताते?
वे जो बताते हैं, उसी को हम व्यंजना मान लेते हैं।
अच्छी बात है। तुम उन्हें प्रतिदिन गुरुदक्षिणा देते हो।
यार, लेकिन जब प्रेम का चक्कर चलता था, तब कुछ करने का मन नहीं करता था। अकेले में भी मुस्कुराने लगते थे। कितने खुश रहते थे।
जब ढाई आखर का चक्र चल रहा था, तब तुम पर घड़ी और पूँजी की तानशाही कैसे चलती? गालिब ने बताया- इश्क ने गालिब निकम्मा कर दिया वर्ना आदमी थे हम भी काम के। एक अज्ञात के अनुसार आलस्य काम की सत्ता के खिलाफ विद्रोह है। प्रेम का चक्कर क्या-क्या करवा सकता है, समझे?
समझिस
वोक्के
गुरुदक्षिणा नहीं लोगे?
चल फुट
पागलों पर ब्राह्मणवाद का ब्रह्मास्त्र भी बे-असर हो जाता है। पागलपन धारण करने की हिम्मत सबमें होती है, पर पूँजी के षड्यंत्रों के जाल में उलझ सभी उसे बचा नहीं पाते।
पूँजीवाद का बेटा होने के कारण भूत के खून में भी पूँजीवाद के गुण हैं। भूत पैसे वालों को ही अधिक पकड़ता है। रात-बिरात सड़क, फुटपाथ, सुनसान इलाके, जंगल में रहने वाले निर्धनों को डर का भूत नहीं पकड़ता। गलती से पकड़ भी लेता है तो ओझा के दरबार में पहली हाजिरी के बाद ही भूत की हिम्मत छूटने लगती है। भूत को समझ में आ जाता है कि इसकी जेब दूसरी-तीसरी हाजिरी में खाली हो जाएगी। फिर ओझा को क्या मिलेगा? ये सोचकर भूत उसे छोड़ देता है। दिन-रात चकाचौंध, यार-मित्रों और पैसे से घिरे आदमी को भूत पकड़ता है तो जल्दी नहीं छोड़ता। कुछ तो ऐसे हैं, जिनको कई पीढ़ियों से भूत ने पकड़ा हुआ है।
हमारे यहाँ दंतकथा है कि माता-पिता अपनी सबसे प्रिय औलाद के लिए हंडा (हीरे जवाहरात रुपए आदि से भरा पात्र) जमीन में छुपा कर रखते हैं या अपनी अगली पीढ़ी को अनमोल निधि देकर जाते हैं। यह दंतकथा पूरी तरह सत्य है। जब माता-पिता इस दुनिया से विदा लेने वाले होते हैं तो हंडे से अपनी अनमोल निधि निकालते हैं- बेटा, हम तो गया के कौवों को तृप्त नहीं कर सके। ये अनमोल निधि अब तुम्हारे हवाले। तुम गया के कौवों को तृप्त जरूर करना। तो हमारे पूर्वज हमें जमीन में गड़े खजाने (हंडा) और अनमोल निधि के नाम पर भूतों की पोटली देकर जाते हैं। और हम आज्ञाकारी बच्चों की तरह पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने पूर्वजों की आज्ञा ढोते आ रहे हैं।
श्राद्ध के एक और पक्ष पर 5 अप्रैल 2015 को जागरण डॉट कॉम पर प्रवीण गोविंद ने अपनी बाईलाइन से प्रकाश डाला था। हेडिंग थी- धार्मिक कर्मकांडों का मकड़जाल कोसी इलाके की आर्थिक समृद्धि को निगल रहा है। इस खबर के कुछ हिस्सों की अविकल प्रस्तुति दे रहा हूँ-
कोसी अंचल में श्राद्ध के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है, वह कहीं से भी उचित नहीं है। हाल के दिनों में बनगाँव, कर्णपुर, बलहा, सुखपुर, गढ़ बरुआरी, जगतपुर, बीना बभनगामा, परसरमा, बरैल, मरुआहा, नवहट्टा, महिषी, सतरवार, परड़ी, चैनपुर, भगवानपुर, बारा, बघवा, सिहौल आदि गाँवों में श्राद्ध की झूठी शान के नाम पर पुरखों की जमीन धड़ल्ले से बेची जा रही है।
होता क्या है-
इलाके में अगर किसी की मृत्यु हो गई तो दाह संस्कार के तीन दिन बाद उसके क्रियाकर्म के लिए ग्रामीणों की बैठक होती है। इस बैठक में शामिल लोग अलग-अलग तरीके से अपनी बात रखते हैं- अरे, वे तो बहुत प्रतिष्ठित थे। उनका श्राद्ध भी वृषोत्सर्ग होना चाहिए और कम से कम पाली का भोज तो होना ही चाहिए। वहीं, एक अन्य आदमी की सुनिए – वे तो नियम धरम के प्रति समर्पित आदमी थे। भोज में शुद्ध घी का ही प्रयोग किया जाए। जितने लोग उतनी सलाह। अंत में यही फैसला हुआ कि पाली का भोज होगा और शुद्ध घी नहीं रिफाइनंड के व्यंजन बनेंगे। कुल मिला कर जब इस्टीमेट बना तो खर्च पाँच लाख को पार कर गया। अब गृहपति के सामने यह प्रश्न था कि इन पैसों का जुगाड़ हो तो कहाँ से हो? गोतिया के लोगों ने ही सलाह दी कि क्या करोगे। उ छींट वाला जमीन बेच लो। आखिर इज्जत तो बचाना है।
ऐसे एक नहीं अनेक मामले हैं जिसमें झूठी शान-शौकत की चक्कर में लोग पुरखों की जमीन बेचने में गुरेज नहीं करते। सलाह देने वालों की धारणा यह रहती है कि दाल और दियाद जितना गले उतना अच्छा।
इन सबसे मुक्ति मनोविज्ञान ही दिलाता। वही मनोविज्ञान जो भूत और भगवान दोनों की रचना करता है। भूत के डर से मुक्ति के लिए जेब ढीली करनी पड़ती है। लड़की डर से बीमार है, तब रकम अधिक लगती है। इज्जत जो बचानी है। बिना रकम खर्च किए इज्जत बचाने के लिए लड़की को मजबूरन किसी ‘ऐबी’ के साथ फेरा लेना पड़ेगा। डर की आर्थिकी ने ‘बाँटों और राज करो’ में अपना अमूल्य योगदान दिया है। पड़ोसियों को एक-दूसरे का दुश्मन बनाया है। घरों में दरार पैदा की है- छोटे भाई की मेहरारू टोनही है। बँटवारे की नींव भी तैयार की है- उसने मेरी लड़की पर भूत कर दिया है। लड़कियों की शादी को महँगा बनाया है- कौन करेगा भुतही लड़की से शादी। हमारी तो इज्जत चली गई।
जब से कम्प्यूटर ने कुंडली बनानी शुरू कर दी है, मोबाइल पर ‘बुलउव्वा’ शुरू हुआ है, मंत्रों का पुष्पक उड़ाने वाले ब्राह्मणों का ब्राह्मणवाद पर एकाधिकार और कम हो गया है। भविष्य देखने और चोरों की दिशा बताने की उनकी योग्यता की पूछ भी कम हुई है। मोबाइल आ जाने के बाद पुष्पक का पायलट सेवा से बाहर हो गया है। उसकी आर्थिकी सिर्फ बुलउव्वा के सहारे नहीं चल सकती। जीवन में पूँजी का दखल और घड़ी की तानाशाही बढ़ने से उसके पास हाल-चाल लेने का समय नहीं है।
अब हर ‘शुभ’ कार्य का बुलउव्वा लेकर नाउन नहीं आती। उसकी जगह फोन आ जाता है। पहले नाउन कथा, पूजा आदि का संदेश लेकर आती थी। घर की दालान या आँगन में बैठ संदेश देने के साथ हाल-चाल भी लेती। सिस्टमवा की माई हाल-चाल सुनाती- बहिन! मुगलसराय वाली बहिन के लड़के का पेट दर्द ठीक ही नहीं हो रहा। कई जगह दिखाया। नाउन कहती- बहिन! मैं तो कह रही हूँ पंडित जी को भी दिखा लो। कहीं ‘ऊपरी चक्कर’ तो नहीं! सबको संदेश देकर, सबका हाल-चाल लेकर पुष्पक की पायलट पंडित जी के पास जाती। पंडित जी उससे सबका हाल-चाल पूछते। हाल-चाल के दौरान वे ऊपरी कमाई बढ़ाने वाले चक्कर का हाल-चाल भी जान लेते।
अगले दिन पायलट के कहे अनुसार और सब जगह दिखाकर हार मानने के बाद ‘उनको भी दिखा दो’ की आस लेकर सिस्टमवा की माई ऊपरी चक्कर का पता लगाने के लिए पंडित जी के यहाँ पहुँचती। पंडित जी भी उसका हाल-चाल पूछते। का बताएँ बाबा जी! आपको तो सब मालूम ही रहता है!
सिस्टमवा की माई इतना ही कहती और पंडित जी अपनी आँखें बंद कर लेते। थोड़ी देर बाद आँख खोलते और बताते- पूरब दिशा में बाधा नजर आ रही है। पूरब दिशा (मुगलसराय) का नाम सुन सिस्टमवा की माई अभिभूत होकर साड़ी के कोने में बँधी गाँठ खोलती। गाँठ में जो भी रहता, वो पंडित जी चरणों में चढ़ा देती। पंडित जी लड़के को चटाने के लिए भभूत दे देते।
पंडित जी दिशा के साथ मुगलसराय भी जानते थे, पर वे सिर्फ दिशा ही बताते थे। अगर मुगलसराय भी बता देते तो चोर का नाम भी बताना पड़ता। सिस्टमवा के घर से एक बार साइकिल की चोरी हुई थी। सिस्टमवा की माई चोर का पता लगाने के लिए भी पंडित जी के पास गई थी। पंडित जी ने आँख बंद की और सोचा कि किस दिशा में इससे ईर्ष्या करने वाले अधिक हैं? पंडित जी ने उस बार भी दिशा ही बताई थी- चोर उत्तर दिशा का रहने वाला है।
साइकिल चोरी की घटना के बाद सिस्टमवा के बाऊ से जो भी मिलता, वो चोरी की ही बात करता। चोर के बारे में पूछता। सिस्टमवा के बाऊ भी ‘उत्तर दिशा का है’ बताते। पूछने वाला भी उत्तर दिशा में उनसे ईर्ष्या करने वालों का नाम गिना देता। उनमें कुछ ऐसे भी नाम रहते, जिनके बारे में सिस्टमवा के बाऊ भी नहीं जानते थे।
अफवाह पुष्पक से तेज उड़ती है। गाँव में जितने मुँह उतनी बातें होने लगीं। उसने चोरी की। नहीं, उसने चोरी की। नहीं, नहीं, उसने चोरी की। वो साइकिल के पास मँडरा भी रहा था। चोर का पता लगाने के लिए सभी मंत्रों का पुष्पक उड़ाने वाले पंडित जी बन गए थे। सिस्टमवा के बाऊ ने उत्तर दिशा का नाम लेकर नए दुश्मन पैदा कर लिए।
ब्राह्मणवाद की कलाओं पर एकाधिकार समाप्त होने के बाद पंडित जी के मंत्रों का पुष्पक शादी के मंडप में सात जन्मों की गाँठ जोड़ने वाले मंत्रो के सहारे किसी तरह उड़ रहा है। सात जन्मों की गाँठ जोड़ने वाले मंत्र को पढ़ने की कीमत ही पुष्पक का ईंधन बनी हुई है। एक मंत्र के अनुसार शुभ विवाह के दौरान वधु पक्ष जितना देगा, वर पक्ष को उसका दोगुना देना होता है। पंडित जी से एक बार मैंने पूछा कि ये किस पुराण में लिखा है? पंडित जी ने बताया कि जिस पुराण में लिखा है, उसकी भाषा तुम्हें समझ में नहीं आएगी।
‘आनलाइन बुलउव्वा’ के कारण पहले से ही दुखी पंडित जी देवी-देवताओं के ऑनलाइन आ जाने से और दुखी हो गए हैं! कह रहे थे कि अगर शादी-ब्याह ऑनलाइन देवी-देवताओं को साक्षी मानकर होने लगे, तब तो सात जन्मों की गाँठ जोड़ने वाले मंत्र की कीमत भी उनके खाते में नहीं आएगी।
पंडित जी दूसरों को गीता का रहस्य समझाते हैं- यहां कोई तुम्हारा सगा नहीं है। मोह का त्याग करो। खुद ये रहस्य नहीं समझ सके कि पूँजीवाद किस मार्ग का अनुसरण करता है। पूँजीवाद ‘यूज’ करने के बाद स्वाहा कर देता है। पंडित जी ‘अपडेट’ नहीं हुए। इस कारण ब्राह्मणवाद पर उनका एकाधिकार समाप्त हो गया। पर उन्हें दुखी नहीं होना चाहिए। जो नींव उन्होंने तैयार की है, उसी पर आज के अपडेटेड, लेटेस्ट, मॉडर्न, कंप्यूटर और मोबाइलधारी पोंगापंथियों के साम्राज्य की बुलंद इमारतें खड़ी हैं। उनके पास अनगिनत पायलट्स हैं।
भूत का बाजार अब पुराना और घिसा-पिटा हो गया है। लेटेस्ट और आधुनिक बाजार है पिछड़ों और दलितों का। इस बाजार में सिर्फ ‘ब्राह्मणवाद मुर्दाबाद, मनुवाद मुर्दाबाद’ का नारा लगाकर दोनों हाथ से ऊपरी कमाई की फसल काटी जा सकती है। सिर्फ नारों के सहारे ब्राह्मणवाद और मनुवाद से आजादी दिलाने का दावा करने वाले क्रांतिकारी, पोंगापंथियों की तरह होते हैं। पोंगापंथियों की तरह इनके थैले में भी चमत्कारी पोथी होती है।
ब्राह्मणवाद और मनुवाद से आजादी दिलाने का नारा लगाने वाले एक क्रांतिकारी अपनी बगल में चमत्कारी पोथी दबाए चले जा रहे थे। रास्ते में सड़क पर पड़े हुए एक आदमी ने उन्हें रोक कर पूछा- महराज! मैं बदहाल क्यों हूँ? क्रांतिकारी महराज ने अपने थैले से चमत्कारी पोथी निकाली और बताया- तुम्हारी बदहाली का कारण ये है कि तुम समानता के अधिकार से वंचित हो। आदमी ने अपनी बदहाली दूर करने का समाधान पूछा। क्रांतिकारी महराज ने बताया- प्रतिदिन 1008 बार ‘ब्राह्मणवाद मुर्दाबाद, मनुवाद मुर्दाबाद’ का जाप करो। बदहाली दूर हो जाएगी।
भूत से मुक्ति पाई जा सकती है, पर उसके लिए कई अन्य भूतों को मारना होगा। किसी न किसी रूप में सभी भूत के शिकंजे में हैं। किसी को चालाकी के भूत ने पकड़ा है। किसी को डर, किसी को ईर्ष्या, किसी को लालच, किसी को पद-पुरस्कार, किसी को पैसे आदि के भूत ने जकड़ा हुआ है।
नास्तिकों को भी भूत पकड़ते हैं। जिसे स्वयं का बोध हो जाए वो नास्तिक होता है। ऐसे भी नास्तिक हैं, जिन्हें अपने स्वार्थ के अलावा कोई और बोध ही नहीं होता। एक तो ‘ग्लोबल प्लेसमेंट’ के लिए नास्तिक बन गया। प्लेसमेंट के बाद उसकी पहुँच बहुत ऊँची हो गई। इतनी ऊँची कि अब वो अपने भगवान से नीचे किसी से बात ही नहीं करता।
जजमान क्रांतिकारियों ने कई क्रांतियों को स्वाहा कर दिया। वे क्रांति की अस्थियों का लोटा लेकर हिंद महासागर से अटलांटिक महासागर तक का दौरा करते हैं।
कागज पर योजना के क्रियान्वयन की तरह कागज पर नास्तिक भी होते हैं। ऐसे ही एक नास्तिक ने भागते भूत की लँगोट पकड़ी। उसकी ‘लोकल प्लेसमेंट’ हुई। उसके हिस्से में क्रांति की राख आई। वो राख का लोटा लेकर गंगा के तराई क्षेत्रों का दौरा करता है।
क्रांति के लोटे की कृपा से जजमान क्रांतिकारियों का जीवन चउचक चल रहा है। अपने भगवान के प्रति पूर्ण समर्पित उनके जीवन का एक ही उद्देश्य है- लोटे को चोरी होने से बचाना।