टूटी हुई नैया से अबकी किसको चुनावी नदी पार करवाएंगे यूपी के निषाद?


बीती 4 फरवरी 2021 को इलाहाबाद में घूरपुर के पास यमुना नदी के किनारे बँसवार गाँव में निषादों की 16 नावें  पुलिस-प्रशासन ने जेसीबी से तोड़ डालीं, लाठीचार्ज किया, औरतों, बच्चों को भी पीटा गया। अगले ही दिन इलाहाबाद सहित पूर्वी उत्तर प्रदेश के निषाद लामबन्द हुए। उन्होंने भाजपा के जिला संगठनों से त्यागपत्र देने की धमकी दी। उन्होंने यह भी कहा कि वे सड़क जाम करेंगे। उनका एक प्रतिनिधिमंडल उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मिलने गया जिनसे मुख्यमंत्री ने मुलाक़ात की और उचित कार्यवाही का वादा किया।

इसके बाद प्रशासन को बैकफुट पर जाना पड़ा। यहां तक कि पुलिस कप्तान बँसवार गाँव गए और उन्होंने प्रभावित ग्रामीणों को समझाया बुझाया। उन्होंने कहा कि जिला प्रशासन ने निर्णय लिया है कि वह टूटी हुई नावों की मरम्मत कराएगा। यह 10 फरवरी की बात है। उस दिन मैं भी अपने फ़ील्डवर्क के सिलसिले में बँसवार गया हुआ था।

टूटी हुई नाव, बंसवार, 10 फरवरी 2021; फोटो- रमाशंकर सिंह

21 फरवरी को कांग्रेस की प्रियंका गाँधी बँसवार गाँव पहुँचीं। उन्होंने वहाँ के लोगों के साथ एक जनसभा की, नदी के किनारे घटनास्थल पर गयीं। इसके बाद उन्होंने अपने ट्विटर हैंडल और फ़ेसबुक पेज पर इसे साझा किया।

कांग्रेस ने यह भी कहा कि प्रभावित लोगों को दस लाख रुपये की सहायता देगी और उसके कार्यकर्त्ता नदी अधिकार यात्रा निकालेंगे। नदी के संसाधनों पर प्राथमिक हक निषादों है, इस विचार के साथ कांग्रेस ने बालू खनन के लिए निषादराज कोऑपरेटिव सोसायटी के गठन की माँग की और उत्तर प्रदेश सरकार से बालू माफिया की समस्या पर श्वेत पत्र जारी करने की माँग रखी।

इसी बीच उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपनी प्रयागराज यात्रा के दौरान कहा कि यदि उनकी सरकार बनती है तो निषादों को सरकार की ओर से नाव दी जाएगी। जाहिर है कि उनका यह संदेश न केवल बँसवार गाँव के निषादों के लिए था बल्कि पूरे उत्तर प्रदेश के निषादों के लिए था। निषादों के लिए नाव बहुत महत्व रखती है। समाजवादी पार्टी की इस घोषणा को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए।

प्रियंका गांधी के वादे के मुताबिक आज कांग्रेस के प्रदेश अध्‍यक्ष अजय कुमार ‘लल्‍लू’ बँसवार पहुंचे। साथ में पूर्व विधायक अनुग्रह नारायण सिंह, प्रदेश पदाधिकारी, जिला अध्यक्ष समेत कई वरिष्ठ भी पहुंचे और पुलिसिया उत्‍पीड़न के शिकार निषाद समाज के लोगों को दस-दस लाख रुपये की मदद दी।

इस घटनाक्रम को विस्तार से समझने की जरूरत है। ऐसी क्या खास बात है कि तीन महत्त्वपूर्ण राजनीतिक दल निषादों की भलाई के लिए एक खास समय और दायरे में बात कर रहे हैं।

घटना की पृष्ठभूमि

बँसवार गाँव के निषादों की महतारी यमुना नदी; फोटो- रमाशंकर सिंह

भक्त शिरोमणि कवि सूरदास ने यमुना नदी को ‘जम जेठी जग की महतारी’ (यम की बेटी, जगत की माँ) कहा था। यह उनके आराध्य भगवान कृष्ण की लीला नदी थी। यमुना जग की महतारी हैं या नहीं इसमें कोई चाहे तो संदेह व्यक्त कर सकता है लेकिन वे प्रयागराज के घूरपुर के पास बँसवार गाँव के निषादों की महतारी जरूर हैं। यह बात इस गाँव के निषाद कहते भी हैं कि ‘जमुना जी हमारी माँ हैं’। वास्तव में उत्तर भारत में सभी नदियों के किनारे बसे निषाद यही बात दोहराते हैं कि अमुक नदी उनकी माँ है और ऐसा कहकर वे नदी के साथ अपना अविभाज्य संबंध प्रकट करते हैं। 

नदी में मछली मारते हैं, नदी तट पर सब्जियों की खेती करते हैं, नाव चलाते हैं और बालू निकालते हैं। पिछले पचास वर्षों से नदियों में मछलियों की प्रजाति और मात्रा कम होती गयी है, प्रदूषण बढ़ा है और नाव चलाने की गतिविधियाँ सीमित हुई हैं। सब्जियाँ पूर्ववत उगायी जा रही हैं। सब्जियों का काम मौसमी रहता है– मार्च से जून तक। ऐसे में बालू का खनन एक नया पेशा बनकर उभरा है। भारत में सीमेंट उत्पादन के साथ बालू की खपत बढ़ी है। 1990 के बाद भवन निर्माण और राजमार्ग निर्माण में अप्रत्याशित रूप से तेजी आयी है और उसी हिसाब से बालू की माँग बढ़ी है।

अब बालू का खनन मुनाफ़े का सौदा हो गया है। एक अनुमान के मुताबिक शराब के बाद सबसे ज्यादा पैसा बालू खनन के व्यवसाय में है। इस कारण उसमें बाहुबली और धन्नासेठ कूद पड़े हैं। पहले यह खनन परंपरागत तरीके से हुआ करता था जिसमें नदियों के किनारे बसे निषादों द्वारा नाव को बीच धारा में रोककर बांस के लग्गों की सहायता से बालू निकाला जाता था। इस बालू को नदी के किनारे लाकर बेचा जाता था। इसके लिए जिला खनन अधिकारी से उन्हें एक परमिट मिलती है जिसे रवन्ना कहते हैं। इस तरह से बालू निकालने पर ज्यादा लोगों को रोजगार मिलता था।

उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड इलाक़े में यह गैंगस्टर कैपिटलिज़्म अपने सबसे नंगे रूप में देखा जा सकता है

बाहुबलियों और माफिया ने इसमें मशीन का प्रवेश करा दिया। नदियों के किनारे जेसीबी और पोकलैंड मशीनें दिखने लगीं। इनकी सहायता से कम समय में ज्यादा बालू निकाली जाती है। हालात यहाँ तक संगीन हो गए कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ को चन्द्रिका प्रसाद निषाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य तथा अन्य के मामले में  12 जुलाई 2006 को अपने एक निर्णय में माफिया के बालू खनन पर कब्जे को लेकर चिंता जाहिर करनी पड़ी। इस मामले में बालू के खनन से जुड़े पट्टे पर बेनामी रूप से कुछ दबंगों ने अपने नाम के ठेके आवंटित करा रखे थे।

उत्तर प्रदेश से सम्बन्धित बालू माफिया पर इस तरह के किसी अध्ययन का अभाव है जो यह बता सके कि अनौपचारिक अर्थव्यवस्था और राजनीति को बालू खनन कहाँ तक प्रभावित करता है। पत्रकार और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला की फ़ेलो रह चुकीं सायंतोनी दत्ता का काम दिखाता है कि झारखंड में दामोदर नदी के किनारे कोयले के खनन से संबद्ध अपराध और राजनीति ने वहाँ के सुभेद्य और आदिम समुदायों का जीवन संकट में डाल दिया है। इसने एक विशिष्ट पूंजीवाद को जन्म दिया है जो किसी उद्योग या फैक्ट्री से नहीं उपजा है बल्कि प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे, नियमों की मनमानी व्याख्या या उसे धनवानों के पक्ष में झुका दिए जाने से पैदा हुआ है। अल्पा शाह इसे ‘गैंगस्टर कैपिटलिज़्म’ कहती हैं।

इस गैंगस्टर कैपिटलिज़्म से नदियों की सेहत गिरती गयी है। कदाचित भारत की कोई नदी बची होगी जो प्रदूषण और अतिदोहन की शिकार न हो और वहाँ माफ़िया न हों। उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड इलाक़े में यह गैंगस्टर कैपिटलिज़्म अपने सबसे नंगे रूप में देखा जा सकता है जहाँ केन, बेतवा और यमुना को खनन माफिया लगातार खोदे जा रहे हैं।

समुदाय के हक़ और दावे की लड़ाई

बंसवार, 10 फरवरी, 2021; फोटो- रमाशंकर सिंह

निषाद समुदाय दो माँगें रख रहा है। पहली तो नदी पर उसका अनन्य अधिकार हो। दूसरा, मशीनों से खनन रोका जाय। जहाँ तक अनन्य अधिकार की बात है, वह लगभग असंभव वाली स्थिति में है। औपनिवेशिक काल से ही विभिन्न कानूनों द्वारा नदियों, नदियों के किनारे और नाव चलाने को लेकर विभिन्न कानून बने हैं जो नदी में निषादों की गतिविधि सीमित करते हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लागू हुआ ‘नॉर्दर्न इंडिया फेरीज एक्ट’ यही करता रहा है। इसके अलावा 1972 के बाद विभिन्न पर्यावरणीय कानून और विनियम उनकी गतिविधियों को सीमित करते हैं।

अब आती है बालू निकालने की बात। एक तरफ नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल 2013 से ही अपने विभिन्न निर्णयों के द्वारा नदी में मशीन से बालू निकालने को प्रतिबंधित करता आ रहा है। जून 2019 से उत्तर प्रदेश सरकार ने बालू खनन पर रोक लगा रखी है। उधर निषाद समुदाय बालू खनन को चालू करने पर दबाव बना रहा है। निषादों का कहना है कि वे लंबे समय से उत्तर प्रदेश की नदियों के किनारे बालू निकालते रहे हैं। कानूनी रूप से उनकी बात में सार है।

उत्तर प्रदेश सरकार ने यू. पी. माइन एण्ड मिनरल (कंसेशंस रूल) 1963 के नियम 9(2) के द्वारा बालू निकालने के लिए वरीयता अधिकार (प्रिफरेंशियल राइट) उन जातियों को दिया था जो बालू निकालने के काम में सदियों से संलग्न रही हैं, जैसे मल्लाह, केवट, बिंद, निषाद, मांझी, बाथम, धीवर, तीमर, चाईं, सिरहिया, तुरहा, रैकवार, कैवर्त, खुल्वत, तियर, गौडिया, गोड़िया और काश्यप। यह सभी जातियाँ अपने आपको जेनरिक रूप से ‘निषाद’ कहती हैं। इस प्रकार उनकी संख्या भी बड़ी हो जाती है, सामुदायिक रूप से उन्हें संगठित होने में मदद मिलती है और राज्य से मोलभाव करने की उनकी क्षमता भी बढ़ जाती है।

चुनाव की नदी 

नदियों के किनारे रहने वाले निषाद दावा करते हैं कि जब से नदी है, तबसे वे भी इसके किनारे रहते आए हैं। इस पर उनका अनन्य अधिकार है। अपने पक्ष में वे लिखित और मौखिक साक्ष्य देते हैं। वे बताते हैं कि उनका एक राज्य हुआ करता था जिसका वर्णन महाकाव्यों में है। निषादराज गुह इतने शक्तिशाली थे कि उन्होंने राजा राम की सहायता की थी। गौरव के इस आख्यान के साथ वे पीड़ा के आख्यान भी सुनाते हैं कि उनके नौजवान एकलव्य का अंगूठा काटा गया और फूलन देवी को उच्चजातीय लोगों के अत्याचार का सामना करना पड़ा। उनके इन वृत्तान्तों में इतिहास और मिथक आपस में घुलमिल जाता है और इससे एक बहुत ही सक्रिय ‘राजनीतिक समाज’ का निर्माण होता है। 

इसी राजनीतिक समाज के बीच वह चुनावी राजनीति रूप लेती है जिसके कारण योगी आदित्यनाथ की सरकार को नरम रुख अपनाना पड़ा है। और ऐसा हो भी क्यों न? इस समय पूर्वी उत्तर प्रदेश में निषाद एक ऐसा समुदाय है जिसके नाम पर वर्ष 2016 से एक पार्टी- निषाद पार्टी- अस्तित्व में है और जिसके प्रतिनिधि संसद में हैं। यह पार्टी केंद्र में भाजपा की सहयोगी पार्टी है और 2019 के लोकसभा चुनाव में इसने भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका भी निभाई है। इसके पहले निषाद पार्टी ने 2018 के लोकसभा उपचुनाव में समाजवादी पार्टी से गठजोड़ किया था और सफलता प्राप्त की थी।

इसके पहले सपा के चुनावी समाजशास्त्र में निषादों की प्रभावकारी भूमिका रही है। इलाहाबाद, वाराणसी, गोरखपुर और कानपुर मंडल में  वे समाजवादी पार्टी के ठोस मतदाता माने जाते रहे हैं। 2014 के संसदीय चुनावों के दौरान भाजपा ने इसमें धक्का मार दिया और निषादों का एक बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ हो गया। यह कोई अनायास नहीं था कि वर्ष 2014 के अप्रैल में इलाहाबाद में अपनी चुनावी रैली के समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘निषादराज’ का कई बार उल्लेख किया था। 

वास्तव में भाजपा ने कुशवाहा, मौर्या, प्रजापति, बढ़ई जैसी उपेक्षित ओबीसी जातियों पर ध्यान केंद्रित किया है तो पटेल, राजभर और कुर्मी जैसी संख्या में बड़ी एवं प्रभावशाली जातियों को अपने राजनीतिक संगठनों और सरकार में जगह देने की कोशिश की है। निषादों के साथ आ जाने से उनका ओबीसी आधार व्यापक हो जाता है। इसके लिए उसने 2019 के संसदीय चुनाव में निषाद पार्टी से चुनावी गठजोड़ भी किया। इस चुनावी समीकरण के बाद सपा और कांग्रेस के पास यादव और मुस्लिम ओबीसी बचते हैं यदि वे निषादों पर ध्यान केंद्रित नहीं करते हैं। ऐसे में निषाद उत्तर प्रदेश की राजनीति के नए खेवैया बनकर उभरे हैं।

उत्तर प्रदेश में उनकी जनंसख्या लगभग आठ प्रतिशत बतायी जाती है, हालाँकि जब तक जातीय जनगणना न हो इसे अनुमान ही कहा जा सकता है। फिर भी चुनाव जीतने और हारने के लिए यह संख्या काफी है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की नज़र भी इस वोट बैंक पर है। बँसवार की घटना में कांग्रेस की दिलचस्पी को इस आधार पर देखा जा सकता है।


प्रयागराज के जी. बी. पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान से पीएचडी और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में फ़ेलो रहे रमाशंकर सिंह निषादों और नदी से संबंधित अपनी किताब को अंतिम रूप देने में लगे हैं


About रमा शंकर सिंह

View all posts by रमा शंकर सिंह →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *