तिर्यक आसन: आधुनिक गुरु-शिष्य पुराण


आए दिन धार्मिक गुरुओं की चर्चा सुनता रहा। गुरु गलत कारणों से चर्चा में थे। अपने कारनामों से गुरुओं ने गुरु-शिष्य परम्परा की पवित्रता को भंग किया। हालाँकि परम्परा के ही अनुसार, पवित्रता भंग कर गुरुओं ने नया कारनामा नहीं किया। यहाँ गुरु-शिष्य के बीच की पवित्रता भंग करने की परम्परा रही है।

गुरु के यहाँ शिष्य विद्या प्राप्त करने जाते। अपने शिष्यों को गुरु एक विद्या कम बताते! अपनी श्रेष्ठता बचाए रखने के लालची गुरु जानते थे- अगर शिष्यों को मैंने सभी विद्याओं की जानकारी दे दी, तो मेरी धाक कम हो जाएगी। चेला चीनी हो जाएगा, गुरु गुड़ ही रह जाएगा। चीनी खाने वाले गुड़ के बारे में क्यों सोचेंगे?

ऐसे गुरुओं के शिष्य जब गुरु बनते, तब वे भी वही करते जो उनके गुरु ने किया। गुरु बना शिष्य अपने शिष्यों को भी एक विद्या की जानकारी कम देता। अपनी धाक बचाए रखने की परम्परा ने ज्ञान और चेतना की जड़ खोद दी। सब कुछ नाश करने के बाद अब अंधविश्वास की विद्याओं के जानकार ढोंगी और पाखंडी गुरुओं का जमाना आ गया है। अंधविश्वास और पाखंड के बाजार को जमाने के लिए गुरु घंटालों ने हजारों वर्ष की तपस्या की है।

गाँव-देहात में खेतों की मेड़, पगडंडियों और पोखरों में झाड़-झंखाड़ के रूप में उगे अधिकतर पेड़-पौधे आज भी घरेलू उपचार के रूप में प्रयोग किए जाते हैं। आज हम जो खा रहे हैं, वो भी कभी औषधि के रूप में प्रयोग किए जाते रहे होंगे। आज अति-उत्तम खाने के साथ बाजार द्वारा हिमालय की दुर्लभ जड़ी-बूटियों से निर्मित साबुन, शैम्पू, तेल भी लगा रहे हैं। फिर भी हफ्ते-महीने में डॉक्टर के पास जा रहे हैं! गुरुओं ने अपनी श्रेष्ठता बचाए रखने के लालच में गुड़ को गोबर बना दिया।

एक गुरु सोमरस की व्याख्याओं से बहुत आहत हुए। उन्होंने सोमरस के सच की खोज की। उन्होंने बताया- सोम नामक एक पौधा था, जिसकी जड़ पीसकर पी लेने से ऋषि-मुनियों को हफ्तों भूख नहीं लगती थी। गुरु ने अपनी खोज में भी जड़ ही खोदी। सोमरस की खोज में सोम की जड़ खोदने वाले गुरु अगर अपने चारों तरफ नजर घुमाते, तो उन्हें महुए का पेड़ नजर आता। हफ्तों बिना खाए रहने के लिए महुए की जड़ खोदने की भी आवश्यकता नहीं। महुआ अपने आप टपकता है।

आधुनिक गुरुओं द्वारा गुरु-शिष्य के रिश्ते की पवित्रता पर लगाये गए कलंकों से मुझे पीड़ा हुई। पीड़ा से प्रेरणा पैदा हुई। प्रेरणा से एक संकल्प का जन्म हुआ। संकल्प लिया- गुरु बनकर गुरु-शिष्य परम्परा का खोया गौरव वापस लाऊँगा। संकल्प लेने के बाद जो भी मिलता, उसे प्रवचन देने लगता- सदा सत्य बोलो। ईर्ष्या-द्वेष का त्याग करो। मेरा प्रवचन सुनकर कोई शिष्य तो नहीं बना, उल्टा मेरे संगी-साथियों की संख्या कम होने लगी। मुझे देखते तो रास्ता बदल देते। बैठे रहते तो उठने का बहाना खोजने लगते- बहुत ज्ञान देता है यार। मैं सोचता- ये सपरिवार बाबाओं का प्रवचन सुनने जाते हैं। सुबह टीवी पर प्रवचन सुनने के बाद इनके दिन की शुरुआत होती है। पर मेरे प्रवचन को उपहास स्वरूप ज्ञान कहते हैं। ऐसा क्यों? बाबाओं के सभी गुण मेरे पास हैं। सबके कल्याण की कामना करता हूँ। घूम-घूम माँग-माँग खाता-पीता हूँ। पर माँगने पर बाबाओं दान मिलता है। मेरा माँगना उधार बन जाता है! ऐसा क्यों? क्योंकि भाई साहब आप अपने चोले से मार खा जाते हैं। आपका ‘लुक’ बाबाओं वाला नहीं है। ज्ञान देना है तो बाबाओं वाला लुक अपनाओ।

प्राइमरी स्कूल में मुंशी जी भी नैतिक शिक्षा का ज्ञान देते थे। उनका लुक भी बाबाओं जैसा नहीं था। रहा होता तो लोभ, लालच, पाप, क्रोध का नामो-निशाँ मिट गया होता।

गिनती की जाए तो देश में प्राथमिक शिक्षकों से अधिक बाबाओं की संख्या होगी। एक जिले में जितने प्राथमिक शिक्षक नहीं होंगे, उससे अधिक बाबा एक मठ से जुड़े होंगे; लोभ, लालच, काम, क्रोध का त्याग करने का प्रवचन देने वाले। इतने समाज सुधारकों के प्रवचन सुनने के बाद भी बुराइयाँ खत्म नहीं हो रही हैं! अर्थात समाज सुधार के लिए बाबा लुक भी निरर्थक है।

लुक बदलकर ज्ञान देने वाला रास्ता नहीं जँचा। पर गुरु बनने का मोह बरकरार रहा। इस दौरान खुद को शिष्य भी साबित करता रहा। कोई तारीफ करता- बढ़िया लिखते हैं आप। अमुक की तरह। मैं कहता- अभी तो मैं सीख रहा हूँ। शिष्य हूँ। जीवन भर सीखना है। अपने को शिष्य बताकर तारीफ भी पा जाता- ये तो आपका बड़प्पन है। सफलता आदमी को विनम्र बना देती है। जैसे फल लेने के बाद पेड़ की शाखाएँ झुक जाती हैं।

ज्ञानी कह गए हैं- विद्या ददाति विनयम। मैं पूछता हूँ, कौन सी विद्या विनम्रता देती है? निरक्षरों के अतिरिक्त विद्या सबने ली है। क्या विनम्रता सबको मिली? मुझे लगता है, ज्ञानी विनम्रता देने वाली विद्या की ‘बीट’ निर्धारित करना भूल गए होंगे। देखता हूँ तो ठग, धूर्त सबसे अधिक विनम्र नजर आते हैं।

जहरखुरानों की सफलता भी विनम्रता की देन है। कुछ मीठा हो जाए कहकर शिकार बना लेते हैं। ठगों और धूर्तों की विनम्रता की विद्या के कारण सच्चे विनम्र भी अविश्वास का शिकार हो गए हैं।

बीट पत्रकारिता से जुड़ा शब्द है- क्राइम बीट। पॉलिटिकल बीट। मेडिकल बीट आदि। बीट की रिपोर्टिंग करने वाले भी ज्ञानी होते हैं। इसीलिए उनकी बातें नहीं सुनी जाती हैं। सुनी जाती हैं, तो उन पर अमल नहीं किया जाता। क्राइम बीट का रिपोर्टर पुलिस के लुक में, पॉलिटिकल बीट का रिपोर्टर नेता के लुक में, मेडिकल बीट का रिपोर्टर डॉक्टर के लुक में हो, तो पत्रकारिता की गिरती साख को बचाया जा सकता है। किरदार में घुसकर। कई असामाजिक तत्व भी बीट की शाख पर कब्जा कर, पत्रकारिता की साख पर बीट कर रहे हैं। लुक का कमाल है, उन्हीं की तूती बोल रही है।

तारीफ करने वाले के ज्ञान का मेरे ऊपर असर नहीं होता। विनम्र नहीं बन पाया हूँ। मौका और स्थान देखकर विनम्र होने का दिखावा कर लेता हूँ। विनम्रता का दिखावा करने के लिए भले कह दूँ- शिष्य हूँ। सीख रहा हूँ। पर सोचता रहता हूँ- कोई मुझे गुरु माने। मेरी चरण रज से अपना तिलक करे। चरण रज अपने हृदय पर मले। या कोई ऐसा विनम्र मिले, जिसका जबरिया गुरु बन सकूँ। धार्मिक गुरु बनने के लिए लुक बदलने का झंझट है। किसी और बीट का गुरु बनने का उपाय सोचने लगा।

धार्मिक गुरुओं के साथ साहित्यिक गुरुओं की चर्चा भी गाहे-बगाहे सुनता रहा। चर्चा के कारणों का उल्लेख नहीं करूँगा। तय किया कि साहित्यिक गुरु बनूँगा। अपने शिष्य को पाताल की गहराई जितनी ऊँचाई तक पहुँचाऊँगा।


इरादा नेक था। एक समस्या थी। धार्मिक गुरुओं को राह चलते शिष्य मिल जाते हैं। मुझे साहित्यिक शिष्य कहाँ मिलेगा? नहीं मिलेगा। तो बनाना पड़ेगा। बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी। लेखक बनने की इच्छा रखने वाले एक युवा का चयन किया। वो आर्थिक रूप से भी सुदृढ़ था। समाजसेवा उसके घर का खानदानी धंधा है। तीन-चार पीढ़ी पहले उसके एक पुरखे ने समाज की सेवा करते हुए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था। उस पुरखे की बाद की पीढ़ी ने अतीत से सबक लिया और समाज सेवा की दुकान खोल ली। आज देश के कई राज्यों में उनकी दुकान की शाखाएँ हैं। शिष्य बनाने के लिए उसके दिल का हाल-चाल लेना शुरू कर दिया। विनम्रता के साथ। हाल-चाल के साथ बिछाए जा रहे मेरे जाल में वो फँसता जा रहा था।

एक दिन उसने दिल का हाल सुनाया- मेरी रचनाएँ प्रकाशन योग्य नहीं मानी जा रहीं। कूड़ा कहकर खारिज कर दी जा रही हैं।

गुरु बनने की प्रक्रिया का शुभारम्भ करते हुए मैंने पूछा- गुरु कौन है तुम्हारा? उसने कोई नहीं कहा। आश्चर्यचकित होते हुए मैंने कहा- कोई नहीं! जानते हो न- गुरु बिन न होत ज्ञान। हूँ में सहमति जताकर वो शांत हो गया। मैंने कहा- सर्वप्रथम तुम एक गुरु बनाओ। उसने पूछा- किसे बनाऊँ?

बनना मुझे ही था। उसी योजनानुसार उसे बताया- जो तुम्हारे दिल का हाल सुने। जवाब भी सकारात्मक मिला- मेरे दिल का हाल आप ही सुनते हैं। मौका न गँवाते हुए मैंने कहा- मुझे ही मान लो। उसने तुरंत मान लिया। अपना प्रभाव जमाने के लिए मैंने कहा- मान लिए हो तो जान लो। मैं वो गुरु हूँ जो चेले को चीनी बना देता है। खुद गुड़ ही रहना चाहता है। उसने कहा- गुरु गुड़ रह गए, चेला चीनी हो गया; ये गुरु का उपहास करने के लिए कहा जाता है। उसकी आशंका का निराकरण करने के लिए उसे बताया- जिन गुरुओं को ये उपहास लगता है, वे छोटे दिल वाले होते हैं। वे नहीं चाहते कि उनका शिष्य उनसे आगे निकल जाए। मेरा दिल बहुत बड़ा है। मैं चाहता हूँ मेरा शिष्य मुझसे भी आगे जाए। मेरे बड़प्पन से प्रभावित होकर उसने चहकते हुए कहा- वाह, सबको आप जैसा गुरु मिले। अपनी तारीफ सुन और विनम्र होकर मैंने कहा- अब गुरुमंत्र सुनो, जिससे तुम्हारी रचनाएँ प्रकाशन योग्य हो जाएंगी। वे भी, जो कूड़ा कहकर खारिज कर दी गई हैं। विह्वल होकर उसने गुरुमंत्र पूछा। मैंने उससे पूछा- परिचय का महत्व जानते हो? उसने बताना शुरू किया- धंधे में परिचय का बड़ा महत्व होता है। धंधे….

उसे काटते और डाँटते हुए मैंने कहा- तुमसे परिचय पर निबंध सुनाने को नहीं कहा। साहित्य में परिचय का महत्व जानते हो? (गुरु-शिष्य के रिश्ते में डाँट का बड़ा महत्व होता है। धूर्त गुरु भी सही समय पर डाँटे, तो शिष्य का विश्वास और जमता है- गुरु जी मेरे भले के लिए ही मुझे डाँट रहे हैं।)

रोनी सूरत बनाते हुए उसने कहा- नहीं गुरु जी। साहित्य की मुख्यधारा मुझे हाथ साफ करने की इजाजत ही नहीं दे रही।

क्रोधित होते हुए मैंने कहा- हाथ साफ करने से क्या तात्पर्य है तुम्हारा?

उसने बताया- आप गलत समझ रहे हैं गुरु जी। मेरा तात्पर्य है- मेरे हाथ में पैसे का मैल लगा हुआ है। साहित्य की पुण्य सरिता में डुबकी लगाकर उस मैल को साफ कर देना चाहता हूँ।

उसका जवाब सुन मैं निश्चिंत हो गया। इसके अंदर सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले अपने पुरखे के गुणों की अधिकता है। तभी परिचय के महत्व को धंधे तक ही जानता है।

खुश होते हुए मैंने कहा- उत्तम विचार। अब परिचय का महत्व सुनो- परिचय हिंदी की गौरवशाली परम्परा का अभिन्न अंग है। हिंदी साहित्य आज जिस ऊँचाई पर है, वहाँ पहुँचाने में परिचय का महत्वपूर्ण योगदान है। फिर भी परिचय का लाभ लेते समय सावधानी बरतनी चाहिए। परिचय अधिक प्रगाढ़ होने पर गुट का निर्माण हो सकता है। गुट की महत्वाकांक्षा बढ़ जाए तो वह साम्राज्यवादियों की तरह लूट-पाट शुरू कर देता है।

लूट-पाट! चौंकते हुए उसने कहा। मैंने उसकी जिज्ञासा शांत की- एक गुट दूसरे गुट का ईनाम-इकराम लूटना शुरू कर देता है। हाल ही में मासिक ‘अंदरूने साहित्य’ में ऐसी ही एक लूट की खबर प्रकाशित हुई थी। खबर के अनुसार एक गुट ने अपने एक उदीयमान रचनाकार को सम्मानित करने के लिए एक संस्था को ‘मैनेज’ किया। सम्मान समारोह एक बड़े शहर में आयोजित किया जाना था। दूसरे गुट को इसकी भनक लग गई। दूसरे गुट ने सम्मान करने वाली संस्था से अपना विरोध जताया। संस्था सम्मान के फैसले से पीछे हटने को तैयार नहीं हुई। इसके बाद दूसरे गुट ने लूट की योजना बनाई। जब स्मृति चिह्न और पुरस्कार राशि समारोह स्थल की तरफ ले जाई जा रही थी, उसी दौरान रास्ते में दूसरे गुट ने पुरस्कार के साथ चल रहे काफिले पर धावा बोल दिया। थोड़ी देर की गुत्थमगुत्था के बाद दूसरा गुट पुरस्कार लूट ले गया। लूटे गए पुरस्कार से दूसरे गुट ने अपने एक उदीयमान रचनाकार का सम्मान कर दिया। सम्मान देने वाली संस्था ने भी लूट को अंजाम देने वाले गुट की ताकत को देखते हुए आत्मसमर्पण कर दिया। संस्था अब उसे ही पुरस्कृत करेगी, जिसकी संस्तुति ताकतवर गुट करेगा।

उसने पूछा- क्या आप भी परिचय का लाभ उठाते हैं? नाराज होते हुए मैंने कहा- तुम मेरे शिष्य बनने योग्य नहीं हो। (गुरु-शिष्य के रिश्ते में नाराजगी का बड़ा महत्व होता है। धूर्त गुरु भी सही समय पर नाराजगी जताए तो शिष्य का विश्वास और जमता है- गुरु जी मुझे शिष्य बनाकर मुझ पर बहुत बड़ा एहसान कर रहे हैं!)

वो घबरा गया। उसने पूछा- ऐसा क्यों गुरु जी? नाराजगी में थोड़ी विनम्रता मिलाकर मैंने कहा- मैंने पहले ही बता दिया था, मैं चाहता हूँ मेरा शिष्य चीनी बने। जो गुरु न कर पाया, वो शिष्य करे। यही शिष्य की मौलिकता है। जो गुरु करे, वही शिष्य भी करे, तो कैसी मौलिकता? मेरा गुरुमंत्र सुन खुश होते हुए उसने कहा- समझ गया गुरु जी। 

मैं एक ही दिन में उसे सभी गुरुमंत्र नहीं देना चाहता था। डर था, दोबारा आए ही न। उसे छुट्टी देते हुए कहा- आज के लिए इतना ही। जो बताया है, उसका पालन करो। आज्ञाकारी शिष्य की तरह उसने पैर छुए, और चला गया।

वो परिचय बढ़ाने में लग गया। परिचय ने अपना असर दिखाया। कूड़ा कहकर खारिज की गई उसकी रचनाएँ भी प्रकाशन योग्य मानी जाने लगीं। जिस दिन किसी पत्र-पत्रिका में रचना प्रकाशित होती, फोन करता- गुरु जी, मिलना चाहता हूँ। कहाँ हैं आप? मैं बताता- घर पर ही हूँ। सब्जी लेने जा रहा हूँ। वो कहता- मैं लेते आ रहा हूँ। जब-जब मिलने आता, तब-तब मैं सब्जी-दाल-चाय-चीनी लेने जा रहा हूँ कहता। भले ही आराम से लेटा रहूँ। वो लेकर आ जाता।

एक दिन उसका फोन आया। गुरु जी, और आगे बढ़ना चाहता हूँ। गुरुमंत्र दीजिए। (इसके आगे सब्जी-दाल-चाय-चीनी वाली बात)

वो आया। मेरे पैर छुए। और बगल वाली कुर्सी पर बैठ गया। मैंने पूछा- बताओ क्या चाहते हो ? उसने बताया- मुख्यधारा में शामिल होना चाहता हूँ। मैंने कहा- अर्थात किताब के लेखक बनना चाहते हो? अभिभूत होते हुए उसने पूछा- आपको कैसे पता चला गुरु जी?

क्या बताता उसे? पता तो मुझे भी नहीं था। पता तब चला जब पैंतीस रचनाकारों का एक साझा संग्रह आया। सबकी एक-एक रचना। एक रचनाकार ने अपने गुरु के प्रति आभार प्रकट करते हुए घोषणा की- गुरु जी के सानिध्य और सहयोग से मुख्यधारा में शामिल होकर अभिभूत हूँ। उस दिन पता चला, एक रचना वाली किताब का लेखक बनने के बाद मुख्यधारा में शामिल होने की स्व-घोषणा की जा सकती है।

मैंने उसे बताया- सच्चा गुरु वही, जो शिष्य के मन की बात जान ले। उसने कहा- वाह गुरु जी। इसीलिए तो आप महान हैं। उसकी तारीफ से विनम्र होने की जगह चौकन्ना हो गया। अपनी एक भावी योजना को जमीन पर उतारने की भूमिका भी तैयार करनी थी। मैंने कहा- तुम मुख्यधारा में शामिल हो सकते हो। पर इसके लिए सर्वप्रथम तुम्हें भी गुरु बनना होगा। तुम्हें भी बीस-पच्चीस शिष्य बनाने होंगे।

मुख्यधारा की पावन सरिता में डुबकी लगाने के लिए उसने तुरंत कहा- बना लूँगा गुरु जी। उसके बाद क्या करना होगा? उसे बताया- उन शिष्यों के साथ मिलकर एक साझा संग्रह निकालना। प्रकाशक की जेब में परिचय का हाथ डाल देना। एक किताब को बेचने वाले पच्चीस-तीस लेखक हों, तो प्रकाशक के लिए फायदे का सौदा होगा।

मेरी बात सुन उसका उत्साह गायब हो गया। उसने कहा- गुरु जी, जो बड़े लेखक हुए, वे तो ऐसा नहीं करते थे। पहले उनकी दो-चार किताबें आती थीं, फिर उन्हीं किताबों की चुनिंदा रचनाएँ सम्पादित की जाती थीं। या सप्तक आते थे। सप्तक में भी सबको जगह नहीं मिलती थी।

लाभवाद का लाभ लेने के बाद नैतिकता की बात कर वह मेरी भावी योजना पर पानी फेर रहा था। अपनी योजना की सफलता के लिए डाँट और नाराजगी के महत्व को नजरंदाज करना पड़ा। उसे समझाया- कितनी बार कहूँ, मैं तुम्हें मौलिक बनाना चाहता हूँ। जो पहले किया जा चुका है, वही तुम भी करोगे तो कैसी मौलिकता? अपने आस-पास देखो। प्रकाशन के अभाव में कई प्रतिभाशाली रचनाकार दम तोड़ रहे हैं। तुम्हारे पास मौका है। एक रचना से तुम मुख्यधारा में शामिल हो सकते हो। अगर मुख्यधारा में अपना तेज और बढ़ाना चाहो, तो पाँच-दस साझा संग्रह प्रकाशित कराओ। पाँच रचनाएँ, पाँच किताबों में। सिर्फ पाँच रचनाओं की रचना कर, अपनी लाइब्रेरी में तुम अपनी लिखी पाँच किताबें सजा सकते हो। पाँच किताबों का लेखक। मुख्यधारा में इसका वजन जानते हो तुम?

कुछ देर खामोश रहने के बाद उसने कहा- जैसी आपकी मर्जी गुरु जी।

लाभ लेने के बाद नैतिकता की बात कर उसने गुरु बनने की प्रक्रिया शुरू कर दी थी। प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए मैंने कहा- अब तुम जाओ और तत्काल शिष्यों की तलाश शुरू कर दो। जी गुरु जी कहते हुए वह उठा। मेरे पैर छुए और चला गया।

कुछ दिन बाद उसने फोन किया। खुशखबरी दी- संग्रह आ गया है। एक प्रति आपको भेंट करना चाहता हूँ। कहाँ हैं आप। इस बार सब्जी-दाल-चाय-चीनी की बात नहीं की। सीधे घर बुला लिया।

मुझे लगता था, वो किताब का लोकार्पण मेरे हाथ से कराएगा। पर उसने ऐसा नहीं किया। मुझे अफसोस नहीं हुआ। मेरी योजना से मिलने वाला सुख, लोकार्पण न कर पाने के दुःख से बड़ा था।

वह आया। वह पैर छूने के लिए झुका तो मैंने उसे पकड़ लिया और गले लगा लिया। उसे पकड़ने की ‘टाइमिंग’ पर विशेष ध्यान दिया था। ऐसे पकड़ा कि पकड़ते-पकड़ते वो पैर भी छू सके। (गुरु-शिष्य के रिश्ते में टाइमिंग का बड़ा महत्व होता है। धूर्त गुरु भी पकड़ की टाइमिंग का ध्यान रखे तो शिष्य पैर भी छू लेगा और विश्वास भी जमेगा- ये तो गुरु जी का बड़प्पन है। पैर भी नहीं छूने देते।)

उसने किताब भेंट की। मैंने किताब के कवर की तारीफ की। कहा- पूरी किताब पढ़ने के बाद टिप्पणी करूँगा। उसने सहमति में सिर हिलाया। मैंने अपनी योजना पर कार्य शुरू कर दिया। उससे कहा- मेरे सानिध्य में रहकर तुम्हारा उद्देश्य पूरा हुआ। अब गुरु दक्षिणा की पावन बेला का समय आ चुका है। गुरु दक्षिणा की बात सुन वह उठा और रसोई में चला गया। मुझे लगा चाय-पानी के लिए गया होगा। थोड़ी देर बाद खाली हाथ वापस आया। मैंने पूछा- रसोई में क्या करने गये थे? उसने बताया- आज आप कुछ लाने नहीं जा रहे थे। सोचा देख लूँ, सब्जी-दाल-चाय-चीनी है या नहीं। मैंने विह्वल होते हुए कहा- जिसके पास तुम्हारे जैसा शिष्य हो, उसे धन-धान्य की कमी नहीं हो सकती। आज मुझे कुछ और चाहिए।

उसने यंत्रवत कहा- आपकी सेवा में मेरा सर्वस्व न्यौछावर है गुरु जी। (गुरु-शिष्य के रिश्ते में यंत्रवत का बड़ा महत्व होता। धूर्त गुरु भी शिष्य को यंत्र बनाकर अनुशासन का काव्य लिख सकता है। परिजनों पर भी प्रभाव जमता है- गुरु जी बड़े अनुशासनप्रिय हैं।)

गुरु दक्षिणा का नाम सुनकर वो पौराणिक कथाओं में चला गया था। उसे वापस 21वीं सदी में लेकर आया- मेरी एक किताब आने वाली है। तुम्हें उसकी अधिक से अधिक समीक्षा लिखवानी होगी। परिचय और अपने शिष्यों का सदुपयोग कर ये गुरु दक्षिणा दे दो।

उसने कहा- समीक्षा का कार्य तो आप भी कर सकते हैं। उसका कथन सुन मुझे क्रोध आया। पर अपनी योजना की सफलता के लिए विनम्र बना रहा। उसे समझाया- मैं तुम्हें मौलिकता सिखा रहा हूँ। तुम हो कि नकलची बनना चाहते हो। अगर ये कार्य मैं करूँगा, तो अपनी किताब की समीक्षा के लिए भी तुम यही करोगे। तुम अपने गुरु की नकल करोगे तो मौलिकता कहाँ रहेगी? अपने गुरु की नकल कर रहा है, ऐसा लोग कहेंगे कि नहीं?

धीमी आवाज में उसने कहा- कहेंगे।

उसके कंधे पर हाथ रख मैंने कहा- अब तुम जाओ। गुरु दक्षिणा के प्रबंध में लग जाओ। उसने यंत्रवत पैर छुए और चला गया।

किताब आने के बाद समीक्षा लिखवाने के लिए मैं उससे सम्पर्क करने लगा। वो सम्पर्क क्षेत्र के बाहर हो गया था। उससे सम्पर्क नहीं हो पाया। मैं समझ गया, वो भी नहीं चाहता कि उसके शिष्य उसकी नकल करें। अपनी किताब की समीक्षा के लिए अपने शिष्यों की मौलिकता बचाए रखना चाहता है। इसलिए वो मेरी किताब की समीक्षा नहीं कराएगा।

मुझे गर्व हुआ। मेरा चेला चीनी हो गया। सच्चा गुरु ऐसा ही होता है। वो ये इच्छा नहीं रखता कि उसका शिष्य हमेशा उसके पीछे लगा रहे। गुरु की हर हाँ में अपनी हाँ मिलाए। बल्कि सोचे। शंका करे। मौलिक बने।

शिष्य अपनी साधना में रम गया। मैंने अपनी साधना शुरू कर दी।


समय गुजरता गया। इसी बीच एक दिन बिना पूर्व सूचना के मेरा शिष्य सनसनाते हुए मेरे पास आया। उसे देख अपनी नाराजगी छुपा मैं मुस्कुराया। आते ही वो पैर छूने के लिए झुका। मैंने उसे रोकने की कोशिश की। उसे रोकने की ‘टाइमिंग’ पर विशेष ध्यान दिया। रोकने की सही टाइमिंग भी एक साधना है। आसान साधना है। दो-चार बार के अभ्यास में सध जाती है।

टाइमिंग की साधना के अतिरिक्त कई अन्य प्रकार की साधना भी हैं, जो आसानी से नहीं सधती। उनमें पारंगत होने के लिए तप करना पड़ता है। एक साधना ‘पोज’ देने की है। इसमें कई ‘सब-पोज’ भी होते हैं। कठिन साधना है। कठिन इसलिए कि पोज में अंतर होने पर नाराजगी पैदा हो सकती है- अमुक के साथ खड़े थे तो आपके होंठ पौन सेंटीमीटर अधिक मुस्कुराए थे। अमुक के साथ खड़े थे तो आपकी गर्दन उसकी तरफ साढ़े सात डिग्री अधिक झुकी हुई थी। इन्हीं शिकायतों को दूर करने के लिए इधर एक साहित्य साधक क, साहित्य से अधिक एकांत में पोज साधना करते हैं। पोज साधक बनने के लिए उन्होंने अपने लिए विशेष कक्ष बनवाया। विशेष कक्ष की चार-दीवारों पर आदमकद आईना लगवाया। एक आईने के सामने खड़े हो पोज बनाते। फिर दूसरे आईने के सामने खड़े हो, पहले आईने में बनाये पोज की नकल करते। फिर तीसरे, चौथे आईने में। असंतुष्ट होते तो ‘री-टेक’ कर लेते। पहले आईने से शुरू करते।

पोज साधना के कठिन तप से उन्होंने सबके साथ एकरूप पोज को साध लिया। उनकी साधना की सफलता उनके शिष्यों और ‘घरेलुओं’ के साथ की तस्वीरों में नजर आती है। तस्वीरों के दौरान वे किसी को नाराज होने का मौका नहीं देते। सबकी तरफ उनकी गर्दन बीस डिग्री झुकी हुई रहती है। पर हाँ, मुस्कुराने के दौरान उनके होंठों के फैलाव का अनुपात देख मैं हैरान हुआ था। मध्य से दाहिनी तरफ के होंठ तीन सेंटीमीटर फैली हुई मुस्कान ले रहे थे। एक सेंटीमीटर का जोर और लगा देते, तो होंठ का मिलन कान से हो जाता। मध्य से बाईं तरफ के होंठ पौने दो सेंटीमीटर की मुस्कान ले रहे थे। मुझे लगा, बाईं तरफ के दाँतों में दर्द होगा, इसलिए उधर के होंठ तीन सेंटीमीटर का विस्तार नहीं ले रहे होंगे। खोजबीन करने पर पता चला, साधना के दौरान वो सब-पोज उनको विशेष उपलब्धि के रूप में प्राप्त हुआ है। साधना से प्राप्त हुई मुस्कान उनकी राजनीति पर पर्दा डालने के भी काम आती है।

एक दिन क अपने घरेलुओं के बीच साहित्यकार ख की दुर्दशा कर रहे थे। आरी की तरह चल रही उनकी जबान ख के लिखे को काट रही थी। आरी की गति तेज होती तो गाली निकल जा रही थी। गाली के साथ मुँह से थूक का बुरादा भी झरता। घरेलुओं के ऊपर गिरता। घरेलू अपने कपड़े झाड़ते। बुरादा था, कपड़े झटक दिए, साफ हो गया।

एक दिन उनका सामना ख से हुआ। रक्तपात की आशंका से घबराकर मैंने आँखें बंद कर लीं- आज ख की गर्दन पर आरी चलेगी। जब लगा कि ख का सिर, धड़ से अलग हो गया होगा, तब आँखें खोलीं। देखा, दोनों एक-दूसरे का हाथ थामे मुस्कुरा रहे हैं। यों कि वनवास के दौरान राम से भरत राजकाज सँभालने की विनती कर रहे हों। अलग होते समय क ने अपने थैले से एक किताब निकालकर ख को दी- इसे गद्दी पर रख राजकाज चलाओ।

मिलाप के बाद क और ख अलग हुए। क से मैंने पूछा- आप तो ख की गर्दन काटने वाले थे ? उन्होंने बताया- मैं पेशेवर अपराधी नहीं हूँ। गर्दन काट दूँगा तो पुलिस की नजर में चढ़ जाऊँगा। फिर कोई और गर्दन काटेगा, तब भी पुलिस पुराने रिकॉर्ड को देखते हुए पहले मुझे ही उठाएगी।

जिन दिनों शिष्य सम्पर्क में नहीं था, उन दिनों में मैंने क को अपना गुरु मान उनकी तरह मुस्कुराने की साधना की। पर मेरे होंठ बराबर विस्तार लेते हैं। मुझे शंका है, मुस्कुराने के दौरान गुरु क एक तरफ के होंठों को कम विस्तार देकर एक विद्या छुपा रहे हों।

पिछली बार के गुरुमंत्रों के सहारे मेरा शिष्य साहित्य में अंगद का पाँव बन गया था। उसके बाद उसने मुझसे सम्पर्क तोड़ लिया था। आज सनसनाते हुए आया। मुस्कुराते हुए मैंने उसकी कुशल-क्षेम पूछी। उसने मेरी पूछी। फिर उसने इधर-उधर की बातें शुरू कर दीं। साधना से प्राप्त हुई मुस्कान के पीछे छुपी मेरी नाराजगी वो देख रहा था। आखिर गुरु जो बन गया था। मुझे मनाने के हथकंडों से भी वो परिचित था। वो जानता है कि जब वो मेरे पास आता है, तब मैं वरदान देने वाले गुरु की तरह बोलने लगता हूँ- जो माँगोगे, वो मिलेगा। बताओ, क्या चाहते हो?

उसी अनुसार वो बातें कर रहा था। बातचीत के दौरान उसने बताया- एक उदीयमान की चर्चा जोरों पर है। उसे नई सनसनी कहा जा रहा है।

सनसनी सुन मुझे लगा भीड़-भाड़ वाले बाजार में कोई लावारिस अटैची मिली हो। अटैची में बम की आशंका से बाजार में सनसनी फैली हो।

मैंने उससे पूछा- तुम्हें क्या परेशानी है? उसने बताया- सनसनी जम गया तो मेरी धाक कम हो जाएगी। आप ही मेरी धाक को बचा सकते हैं। सभी जगह से निराश होने के बाद आपकी शरण में आया हूँ।

वो वरदानी गुरु को जगा रहा था। वरदानी गुरु जग भी रहा था।

मैंने समाधान बताया- उसे अपना घरेलू बनाकर उसकी सोच को अपने अनुसार चलाओ।

उसने जवाब दिया- ये कोशिश खुद की। करवाई भी। वो तैयार नहीं हो रहा है।

वरदानी गुरु की तरह मैंने पूछा- तब क्या चाहते हो ? दीवारें न सुनने पाएँ, उसने साँय-साँय करते हुए बताया- उसे ठिकाने लगाना होगा।

मैं उसकी शब्दावली के बारे में सोचने लगा। ठिकाने लगाने वाली शब्दावली का प्रयोग अपराधी करते हैं। ये साहित्यकार होकर भी ठिकाने लगाना चाहता है! ये साहित्य का अपराधीकरण कर रहा है!

उदीयमान के अंग-भंग की आशंका को समाप्त करने के लिए मैंने कहा- साहित्य हवेली (शिष्य के निवास का नाम) में जो तुम्हारे प्रिय हैं, उन्हें सनसनी पर छोड़ दो। या उसके पीछे लगा दो। वे सनसनी को ठीक कर देंगे। उसने बताया- खुल्ला छोड़ रखा है। बल्कि सनसनी को कटवाने के लिए तिकड़म भी किया था। साहित्य हवेली के गेट पर से ‘कुत्तों से सावधान’ की पट्टिका हटा दी। ताकि सनसनी असावधान होकर प्रवेश करे और कुत्ते उसे काट लें। सनसनी आया, खुल्ला छोड़े गए कुत्ते भौंकते रहे। काटा किसी ने नहीं। बल्कि पुचकारते-पुचकारते सनसनी ने एक कुत्ते को अपना वफादार बना लिया। अब वो भौंकने की जगह सनसनी के कदमों में लेट कूँ-कूँ करता है।

मैं उसके अपराधीकरण की गवाहियाँ सुन अवाक था। वो अपनी योजना बताता रहा- एक के पाला बदल का बदला लूँगा। चार और खरीद लूँगा। अब गली-गली में दो-चार मिलते हैं। भौंकने और कूँ-कूँ की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में उनकी कीमत भी कम हो गई है। दो सिर्फ बिस्किट के लिए मेरे कहे अनुसार भौंकने के लिए तैयार भी हैं।

मुझे लगा सनसनी नामक दुःख से उसके मन-मस्तिष्क पर गहरा आघात लगा है। बहक कर न जाने क्या-क्या कहे जा रहा है। उसका बहकाव रोकने के लिए मैंने उसे टोका- मैं उन आलोचकों और समीक्षकों के बारे में कह रहा था, जिन्हें तुमने घरेलू बना लिया है।

उसका दुख और गहरा हो गया। उसकी आवाज का ‘बास’ और ‘ट्रेबल’ गायब हो गया- उनकी आवाज सनसनी तक नहीं पहुँचती। सनसनी उनकी सुनता ही नहीं।

शिष्य था। उसका अपराधीकरण रोकना मेरा फर्ज था। साथ ही सनसनी को सन्नाटे में भी डालना था। मैंने सोचा- सनसनी से मुक्ति पाने के लिए ये अपने अपराधीकरण के रास्ते पर काफी आगे बढ़ चुका है। इसे वापस नहीं लाया जा सकता। ये किया जा सकता है, इसका राजनैतिक अपराधीकरण करना होगा। इसे दिल्ली से बनारस लाना होगा। वाया लखनऊ।

मैंने पूछा- क्या सनसनी जानता है कि तुम उसे ठिकाने लगाना चाहते हो? उसने नहीं कहा। मैंने योजना बताई- तो तुम उसके हितैषी बन उसका विश्वास अर्जित करो। दुश्मन बन उतना नुकसान नहीं कर पाओगे, जितना नुकसान दोस्त बन कर पाओगे। मेरी बात खत्म होते ही उसने कहा- फिर। उसकी बेकरारी से मुझे आभास हो रहा था- गुरुमंत्र लेकर फिर मुझे छोड़ देगा। फिर भी उसे योजना बताई। आखिर सच्चा गुरु इसकी इच्छा नहीं रखता कि उसका शिष्य हमेशा उसके आगे-पीछे लगा रहे।

योजनानुसार मैंने पूछा- तुम किसी संपादक के घरेलू बने? उसने बताया- तीन-चार का बन चुका हूँ। एक को जिला-जवार की याद दिला-दिला कर उसका घरेलू बना। एक को याद दिलाया कि मेरे पिताजी उसके पिताजी का झोला ढोते थे। एक की पत्रिका को ससुर से मोटा चंदा दिलवाया। एक का घरेलू बनने के लिए बहुत परिश्रम करना पड़ा। सुबह दूध, शाम को सब्जी ढोई। उसके बच्चों को सैर कराई। उन्हें आइसक्रीम खिलाई। टॉफी दिलाई। फिर भी उसका दिल नहीं पसीजा। अंततः उसकी पत्नी से राखी बँधवा ली।

रिश्तेदार बनाने की उसकी कला पर मुझे गर्व हुआ। शिष्य के रूप में उसका चयन करने वाली अपनी पारखी नजर के बारे में सोचते हुए मैंने उससे कहा- संपादक के घर तीज पहुँचाकर किसी विशेषांक के अतिथि संपादक बन जाओ। उसने पूछा- इससे क्या होगा ? उसे याद दिलाई- अतिथि संपादक बनने के पहले तुम सनसनी के हितैषी बन चुके हो? उसने हूँ कहा। मैं आगे बढ़ा- तुम विशेषांक के अतिथि संपादक हो, ये जान सनसनी रचना भेजेगा। तुम संपादन के नाम पर रचना के साथ ऐसी छेड़छाड़ करना, अर्थ का ऐसा अनर्थ करना कि सनसनी पाठकों को मुँह दिखाने के काबिल न रहे। जिन संपादकों के घरेलू हो, उनसे भी सनसनी की रचनाओं का यही हश्र करवाना। पाठक कहने पर मजबूर हो जाएँ- ढेले की सनसनाहट थी।

वाह गुरु जी कहते हुए उसने मेरे चरणों को अपनी हथेली में ले लिया। उसे सीधा कर मैंने कहा- अब जाओ और योजना के मार्ग पर चल पड़ो। उसने यंत्रवत मेरे पैर छोड़े। झटके से उठा और विजयी मुद्रा में चल दिया।

उसके जाने के बाद मैं सोचने लगा- इस सनसनी को सन्नाटे में डालने के बाद ये तब तक नहीं आएगा, जब तक साहित्य हवेली का सन्नाटा नई सनसनी भंग न करे।

ये सोच मेरे स्वार्थ से उपजी थी। तुरंत ही स्वार्थ पर प्रेम हावी हुआ- उसका जब मन करे, तब आए। सच्चा गुरु कभी इसकी इच्छा नहीं रखता कि उसका शिष्य हमेशा उसके आगे-पीछे लगा रहे।



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