संक्रमण काल: डेढ़ दशक पहले निकली एक लघु-पत्रिका में प्रासंगिक तत्वों की तलाश का उद्यम


मासिक जन विकल्प का प्रकाशन पटना से जनवरी, 2007 में शुरू हुआ[i] और इसका अंतिम अंक उसी साल दिसंबर में आया। पत्रिका सिर्फ एक साल चली। उसमें भी एक अंक संयुक्तांक था। 10 सामान्य अंक निकले और एक अंक साहित्य वार्षिकी का प्रकाशित हुआ। इस प्रकार कुल 11 अंक प्रकाशित हुए। प्रेमकुमार मणि और मैं उसके संपादक थे।

अपनी प्रकृति में यह एक लघु पत्रिका थी। लघु-पत्रिकाओं का पाठक वर्ग सामान्यत: साहित्यिक अभिरूचि के व्यक्तियों के बीच होता है, लेकिन जन विकल्प का पाठक वर्ग वहीं तक सीमित नहीं था, बल्कि इसमें बड़ी संख्या में समाज और राजनीतिकर्म में दिलचस्पी लेने वाले लोग भी शामिल थे। विशेषकर, ऐसे लोग जो जमीनी स्तर पर परिवर्तनकारी संघर्षों में लगे थे। इसके लेखकों में भी अनेक ऐसे लोग शुमार हुए, जो मूल रूप से लेखक नहीं, बल्कि समाजकर्मी थे।[ii]

पत्रिका का उद्घाटन अंक से ही जोरदार स्वागत हुआ। भारत से ही नहीं, बल्कि दुनिया के अनेक देशों से पाठकीय प्रतिक्रियां आती रहीं। समाचार पत्रों में इसके ताजा अंकों की समीक्षाएं भी निरंतर प्रकाशित होती रहीं।[iii] अभी जब मैं ‘जन विकल्प’ में प्रकाशित चुने हुए लेखों और साक्षात्कारों का एक पुस्तकाकार संकलन तैयार कर रहा हूं तो डेढ़ दशक पहले के उस दौर की याद आना स्वभाविक है।

वर्ष 2006 तक मैं हिमाचल प्रदेश और पंजाब के हिंदी दैनिक समाचारपत्रों में काम कर रहा था। कई बार नौकरियां बदलीं, एक अखबार से दूसरे में गया, लेकिन न्यूजरूम की स्थितियां सभी जगह कमोबेश एक थीं। समाचारपत्रों में क्या छपता था और क्या-क्या लिखना होता था वह दीगर बात है, लेकिन न्यूजरूम में काम करने वालों के लिए जनतंत्र एकदम नदारद था। समस्या यह नहीं थी कि उनमें काम करने वाले अधिकांश सिर्फ दो-तीन समुदायों से आते थे, बल्कि समस्या यह थी कि वहां ऐसे लोगों का वर्चस्व था जो सोच और काम करने के तौर-तरीकों में न आधुनिक थे, न होना चाहते थे। उनमें से अधिकांश अपने समुदायों की तलछट थे, जिन्हें कहीं काम नहीं मिलने पर उनके किसी वरिष्ठजन ने अखबारों में फिट कर दिया था। नौकरी को वे अखबार के मालिक, संपादक और भगवान की नियामत मानते थे। उन्हें लगता था कि बड़े-बड़े लोगों के संपर्क में आने का जो मौका उन्हें मिल रहा है, वह किसी पूर्वजन्म का सुफल है। वे चौबीस घंटे अखबार के लिए काम करते, वही उनकी पूरी दुनिया थी। वे इस बात से कतई अनजान लगते थे कि एक कर्मी के कुछ अधिकार भी होने चाहिए, जैसे कि छुट्टियां व अन्य न्यूनतम सुविधाएं। इस दिशा में उनके अधिकतम सरोकार वेतन वृद्धि तक थे, उससे आगे वे सोचते तक नहीं थे। हालत गुलामों के एक बाड़े जैसी थी। इन सबका सीधा असर अखबारों में प्रकाशित होने वाली सामग्री पर पड़ता था। मौलिकता, रचनात्मकता और स्वतंत्र चिंतन सिरे से नदारद था।

इन्हीं परिस्थितियों में मैंने शिमला से प्रेमकुमार मणि को एक लंबा पत्र लिखा था। उस पत्र में क्या था यह तो ठीक याद नहीं, लेकिन इतना याद है कि पत्र काफी लंबा था और मैंने उसमें अखबारों की नौकरी छोड़ने की मंशा जताई थी और उनसे पूछा था कि जीविका का कोई वैकल्पिक साधन वे देखते हों तो सुझाएं।

दारूण स्थितियों के अनिर्वाह्य हो जाने पर 2005 के अंत में पत्रकारिता को अलविदा कह अपने शहर पटना लौट आया। पटना में मणि जी से मुलाकातों का सिलसिला स्वभाविक तौर पर बढ़ा। उनके मन में पत्रिका शुरू करने की चाह संभवत: पहले से मौजूद थी। जल्दी ही पत्रिका निकालने की योजना बन गई, जिसके लिए संसाधन मणि जी को उपलब्ध करवाना था। उन्होंने कहा कि पत्रिका के संपादक के रूप में उनके साथ मेरा नाम भी जाएगा। विचार और साहित्य की दुनिया में मणि एक प्रतिष्ठित नाम थे। संपादक के रूप में अपने साथ मेरा नाम देने का फैसला निश्चित तौर पर उनका बड़प्पन था।

हमारे बीच बातचीत का एक लंबा दौर पत्रिका के नाम को लेकर चला। हमने दर्जनों नामों पर विचार किया, लेकिन मणि जी को कोई नाम जंचता न था, लेकिन जब ‘जन विकल्प’ नाम सामने आया तो वे इस पर सहमत हो गए। इसका ‘जन’ राममनोहर लोहिया और मार्क्सवाद का है। लोहिया ने 1950 के दशक में ‘जन’ नामक पत्रिका निकाली थी; और यह मार्क्सवाद की शब्दावली का अभिन्न हिस्सा भी है।

जन विकल्प के प्रकाशन का समय इक्कीसवीं सदी की अंगड़ाई का समय था। बाजार का भूमंडलीकरण तीसरी दुनिया के देशों में पसर रहा था। भारत में एक ओर नया मध्यमवर्ग फलफूल रहा था तो दूसरी ओर राजनीति, धर्म और वैश्वीकृत बाजार की जुगलबंदी गहरी होती हो रही थी। दुनिया को देखने के लिए अब भी मार्क्स और लोहिया की विचार-पद्धति मददगार थी, लेकिन हम यह भी देख सकते थे कि उनके नाम पर बने संप्रदाय और पीठ– मसलन, मार्क्सवादी और लोहियावादी राजनीतिक दल मौजूदा समस्याओं को समझने में असफल हो रहे हैं। ऐसे में, विकल्प की बात सोचना स्वभाविक था।

यही कारण है कि पत्रिका में भूमंडलीकरण और विभिन्न राजनीतिक विकल्पों पर लगातार सामग्री प्रकाशित हुई। हमारी संपादकीय समझ थी कि भूमंडलीकरण को रोका नहीं जा सकता, बल्कि हमें देखना चाहिए कि आम जन के पक्ष में इसका क्या और कैसे उपयोग हो सकता है। हमने भूमंडलीकरण पर हिंदी में मची हाय-हाय को तवज्जो नहीं दी।

यह वह समय था जब हिंदी जगत में इंटरनेट ने अपनी शुरुआती धमक ही दी थी। प्रिंट पत्रिका के अतिरिक्त हमने जन विकल्प का ब्लॉग भी बनाया और इसके अंक ईमेल से भी प्रसारित किए। नतीजा यह हुआ कि अनेक देशों से हमें पाठक मिले जिनमें विदेशों में प्रवास कर रहे हिंदी लेखक, संस्कृतिकर्मी और समाजकर्मी भी शामिल थे। उस दौर में भारत से बाहर रह रहे हिंदीभाषियों के लिए अपनी भाषा में किसी चीज का पहुंचना दुर्लभ हुआ करता था।

उस समय तक हिंदी समेत भारतीय भाषाओं के लेखक व पाठक ईमेल के साथ तालमेल बैठाना शुरू कर ही रहे थे। गूगल का ब्लॉगर लोकप्रिय हो रहा था और ब्लॉग के लिए ‘चिट्ठा’, ब्लॉगिंग के लिए ‘चिट्ठाकारिता’, ब्लॉगर के लिए ‘चिट्ठाकार’ जैसे हिंदी शब्द बनने लगे थे। कुछ लोग वेबसाइट के लिए ‘जालपृष्ठ’ जैसा शब्द ढूंढ लाए थे, लेकिन अब भी प्रिंट सामग्री ही मुख्य थी। इसके निकट भविष्य में कमजोर पड़ जाने की आशंकाएं हवा में नहीं थीं। हां, इंटरनेट की आमद को देखते हुए अनेक लोग इस फिक्र में जरूर थे कि इसका हिंदीकरण कैसे किया जाए। संभवत: यह भी एक अवचेतन कारक था कि जन विकल्प में भी भाषा को लेकर अनेक लेख प्रकाशित हुए।

यह मुख्य रूप से समसामयिक मुद्दों की पत्रिका थी। युवा लेखक देश-विदेश की ताजा घटनाओं, समस्याओं का विश्लेषण उसमें लिखा करते थे। हमारी कोशिश होती थी कि साहित्यिक हलचलों पर भी कुछ सामग्री नियमित तौर पर प्रकाशित हो। इसके अलावा विभिन्न धाराओं के समाजकर्मियों, राजनीतिकर्मियों, इतिहासकारों व अन्य बौद्धिकों के साक्षात्कार भी हमने प्रकाशित किए। पत्रिका में अधिकांश सामग्री जिन स्तंभों के तहत प्रकाशित हुई, वे थे– ‘समकाल’, ‘अध्ययन कक्ष’, ‘धरोहर’ ‘साक्षात्कार’ और ‘पुस्तक चर्चा’।

हर अंक में कविता का भी एक स्तंभ अवश्य होता था। पत्रिका के पहले अंक के साथ वितरण के लिए हमने एक कविता-पुस्तिका ‘यवन की परी’ प्रकाशित की थी, जिसमें ‘एक पत्र पागलखाने से’ शीर्षक लंबी कविता व कुछ अन्य सामग्री थी।[iv] वह पागलखाने में बंद एक अनाम कवयित्री की कविता थी, जो किसी अज्ञात यवन देश के पागलखाने में कैद थी। उसका काव्यानुवाद हमें रति सक्सेना ने उपलब्ध करवाया था। वह कवियित्री कौन थी, क्या करती थी, यह रति जी को भी नहीं मालूम था, न आज तक दुनिया उनका असली नाम जान पाई है। रति जी उन दिनों एक वेब पत्रिका चलाया करती थीं। वह कविता उन्हें किसी ने ईमेल से इस सूचना के साथ भेजी थी कि इसे लिखने वाली महिला ने हाल ही में पागलखाने में आत्महत्या कर ली है। अक्का महादेवी और मीरा की काव्य-परंपरा की याद दिलाने वाली यह कविता अपनी शुरुआती पंक्तियों से ही विज्ञान, ईश्वर, साहित्य, संगीत, कला और युद्ध की निरर्थकता को अपने वितान में समेटे में इतने ठंडे लेकिन तूफानी आवेग से आगे बढ़ती है कि हम सन्न रह जाते हैं। स्त्री की आजादी के सवाल पर कथित आधुनिक और उत्तर-आधुनिक समाज की दोहरी मानसिकता को उजागर करने वाली यह कविता निश्चित रूप से विश्व की प्रतिनिधि समकालीन कविताओं में शुमार किए जाने लायक है।

अल्पजीवी होने के बावजूद जन विकल्प को इतनी व्यापक चर्चा किन कारणों से मिली इस पर सोचने पर पाता हूं कि शायद इसका कारण था इसकी जनपक्षधरता, वैचारिक खुलापन और उस समय उपलब्ध नवीनतम तकनीक– ईमेल और ब्लॉग का उपयोग। लेकिन, इसे इसकी वैचारिक पहचान प्रेमकुमार मणि द्वारा लिखी गई संपादकीय टिप्पणियों से मिली। उनकी संपादकीय टिप्पणियां तात्कालिक मुद्दों पर होती थीं, लेकिन उन्हें वे एक ऐसी ऊंचाई से देखते थे जिससे न सिर्फ उन तात्कालिक लगने वाले मुद्दों की ऐतिहासिकता एक कौंध की तरह उजागर होती थी, बल्कि भविष्य को देखने का नजरिया भी मिलता था। संभवत: यही कारण था कि समाचारपत्रों में प्रकाशित जन विकल्प की समीक्षाएं प्राय: उनके संपादकीय पर ही केंद्रित हो जाया करती थीं।

अगर आप जन विकल्प की मूल फाइल, जो कि इंटरनेट पर मौजूद हैं, से गुजरें तो पाएंगे कि अनेक लेखों में 1970 के दशक की राजनैतिक और बौद्धिक दुनिया की हलचलों को याद किया गया है। समेकित रूप से देखने पर सत्तर का दशक पत्रिका में एक ऐसे संदर्भ बिंदु के रूप में सामने आता है जिसकी रोशनी में लेखकगण नई सदी के पहले दशक को देख रहे हैं। इस क्रम में लेखकों ने उन परिवर्तनों को लक्षित किया है जो उस दौरान हुए। वे उन परिवर्तनों से कुछ-कुछ हैरान भी हैं, लेकिन नई चुनौतियों से निपटने के लिए नया रास्ता, नया विकल्प ढूंढने की कोशिश गहनता से कर रहे हैं।

आज जब 2022 के अंतिम दिनों में मैं यह पंक्तियां लिख रहा हूं, तो जन विकल्प के प्रकाशन के 15 साल बीत चुके हैं। इस बीच भी काफी कुछ बदल चुका है। ये बदलाव 1970 से 2007 के बीच की तुलना में बहुत तेज गति से हुए हैं। पिछले दो वर्षों में कोरोना वायरस महामारी की आड़ में इन बदलावों को एक ऐसी आंधी का रूप दे दिया गया जिसमें बहुत दूर तक देख पाना कठिन हो रहा है, लेकिन हम इतना तो देख ही सकते हैं कि मानव-सभ्यता के एक नए चरण का आगाज हो चुका है।

हमारी शिक्षा व्यवस्था, स्वास्थ व्यवस्था, प्रशासनिक व्यवस्था और बाजार सब बहुत तेजी से ऑनलाइन होने की प्रक्रिया में हैं। लिखने-पढ़ने की दुनिया काफी बदल चुकी है और निकट भविष्य में इसमें आमूलचूल परिवर्तन आ जाएगा। मशीनों की कृत्रिम बुद्धिमत्ता इस काबिल हो चुकी है कि वह न सिर्फ स्वयं नई चीजें सीख रही है, बल्कि अनेक क्षेत्रों में ऐसा बहुत कुछ पैदा करने में सक्षम हो गई है जिन्हें कुछ वर्ष पहले तक सिर्फ मनुष्य के बूते का काम माना जाता था। हमारे देखते-देखते मशीन और मनुष्य के बीच की विभाजन-रेखा धुंधला रही है।

मसलन, मशीनों के इस नए अवतार के कारण दुनिया की प्रतिष्ठित विज्ञान विषयों की शोध पत्रिकाएं एक अभूतपूर्व संकट से गुजर रही हैं। इन पत्रिकाओं में प्रकाशित होने पर लेखकों को उनकी नौकरियों में प्रमोशन, आर्थिक अनुदान आदि अनेक प्रकार के लाभ होते हैं। अनेक लेखक इन पत्रिकाओं को प्रकाशनार्थ मशीनों द्वारा तैयार किए गए फर्जी शोध-पत्र भेज रहे हैं। मशीनों द्वारा इंटरनेट पर मौजूद वैज्ञानिक शोधों के अथाह सागर से एकदम मौजूं संदर्भ ढूंढ कर सजाए गए ये ‘शोध-पत्र’ बिल्कुल मौलिक जैसे लगते हैं। पीयर रिव्यू करने वाले ऐसे जाली शोध-पत्रों को पकड़ पाने में असफल हो रहे हैं।[v]

फर्जी शोध-पत्रों की बात छोड़ भी दें तो कृत्रिम बुद्धिमत्ता की उन्नत प्रणालियां जीव विज्ञान, भौतिकी और रसायनशास्त्र में नित नई-नई अत्यंत उपयोगी खोजें कर रही हैं। महामारी के वर्षों के दौरान ही अल्फाफोल्ड नामक एक कृत्रिम बुद्धिमत्ता प्रणाली ने जीव विज्ञान के क्षेत्र में एक ऐसी सफलता हासिल की जिसने चिकित्साशास्त्र को युगांतकारी छलांग दे दी है। इस खोज के कारण अब यह पता लगाना संभव हो गया है कि अमीनो एसिड की एक शृंखला कैसे थ्री-डी आकार में परिवर्तित होकर जीवन के कार्यों को अंजाम देती है। इससे अब पृथ्वी ग्रह पर पाए जाने वाले मनुष्य समेत 10 लाख जीवों और सभी वनस्पतियों में मौजूद 20 करोड़ से अधिक प्रोटीन संरचनाओं की भविष्यवाणी संभव हो गई है, जो नई दवाओं और टीका के निर्माण में सहयोगी हो रही है।[vi]

यह अनायास ही नहीं कहा जा रहा कि मशीनें जिस तेज गति से चिकित्सा विज्ञान में नई-नई खोजें करने में सफल हो रही हैं उससे संभावना है कि अगर नोबल देने का मौजूदा पैमाना बरकरार रहा तो वर्ष 2036 तक नोबेल पुरस्कार किसी मशीन को देना होगा।[vii]

यह सब सिर्फ विज्ञान के क्षेत्र तक सीमित नहीं है। लेखन, चित्रकला, संगीत के क्षेत्र में भी मशीनें तेजी से पैठ बना रही हैं। अब वे संगीत की नई धुनें स्वयं बना ले रही हैं, ऐसी पेंटिंग कर रही हैं जिनमें अर्थवत्ता समेत प्राय: ऐसा बहुत कुछ है जो किसी बड़े चित्रकार के चित्र में पाया जाता था।[viii] पत्रकारिता में भी उसके कदम पड़ चुके हैं। दुनिया के बड़े मीडिया संस्थान मशीनों से डेस्क-संवाददता का काम लेना शुरू कर चुके हैं।[ix] अनेक सर्वेक्षणों में पाया गया कि मशीनों द्वारा लिखे गए खेल व आर्थिक विषयों से संबंधित समाचार मनुष्य संवाददाताओं की तुलना में अधिक गहरे और प्रभावशाली हैं।

मानविकी से संबंधित अकादमिक अनुशासनों में भी इसका पदर्पण हो चुका है। डिजिटल ह्यूमैनिटिज[x] नामक एक नया अनुशासन पिछले वर्षों में बना और विकसित हुआ है जिसके सहारे अब हम साहित्य, इतिहास, समाजशास्त्र, भूगोल समेत सभी मानविकी अनुशासनों में ऐसी अनूठी चीजें पलक झपकते देखने में सक्षम हो रहे हैं जिनके बारे में पहले कल्पना भी नहीं कर सकते थे। मशीनें कविताएं[xi] और उपन्यास[xii] भी लिख रही हैं, और जल्दी ही पाठक के लिए यह पकड़ पाना संभव नहीं रह गया है कि कौन-सी कविता और उपन्यास मनुष्य द्वारा लिखा गया है।[xiii] स्वाभाविक तौर पर इन परिवर्तनों से विचार और दर्शन की दुनिया भी बदल रही है। इसका दायरा मनुष्योन्मुखी संकीर्णता का त्याग कर समस्त जीव-जंतुओं और बनस्पितयों तक फैल रहा है। एंथ्रोपोसीन और उत्तर-मानववाद जैसी विचार-सरणियों के तहत इनपर जोर-शोर से विमर्श हो रहा है।

हमें इन परिवर्तनों को एक आसन्न संकट की तरह नहीं, बल्कि परिवर्तन की अवश्यंभावी प्रक्रिया के रूप लेना चाहिए और इसके उद्देश्यों की वैधता पर पैनी नजर रखनी चाहिए। दुखद है कि हिंदी समेत भारतीय भाषाओं के साहित्य और वैचारिकी में इसकी गूंज सुनाई नहीं पड़ रही।

हालांकि हमारा पाठक बदल चुका है, भारत का युवा पाठक आज आधिकांश मायनों में अपने लेखकों से बहुत आगे है। नित तेज होते बैंडबिथ पर वह सूचनाओं और ज्ञान की वैश्विक दुनिया की झलकियां देख रहा है। मशीनी अनुवाद की सफलता से भाषा के बंधन भी तेजी से टूट रहे हैं। 

इस ऐतिहासिक संक्रमण-काल में, जब इतना कुछ, इतनी तेजी से बदल रहा है, 15 साल पहले जन विकल्प में प्रकाशित हुई सामग्री का यह प्रतिनिधि संकलन तैयार करते हुए हमारे सामने एक अनिवार्य सवाल है कि कौन-सी सामग्री कितनी प्रासंगिक है और किसका मूल्य लंबे समय तक बना रहेगा। जैसा कि मैंने पहले बताया, जन विकल्प मुख्य रूप से समसामयिक मुद्दों की पत्रिका थी। उसकी अलग से पहचाने जाने वाली रंगत समसामयिक मुद्दों पर उसकी आवेगपूर्वक वैचारिकता में दिखती थी, लेकिन इस संकलन में हमने समसामयिक मुद्दों पर केंद्रित सामग्री को छोड़ दिया है। पुस्तक में उसी सामग्री को लिया है जिनमें दूरगामी और चिरजीवी प्रश्नों पर विचार किया गया है।


[i] जन विकल्प, जनवरी 2007, https://doi.org/10.5281/ZENODO.7022780.

[ii] रंजन, प्रमोद, व मणि प्रेमकुमार. जन विकल्प में प्रकाशित सामग्री की सूची. 2022, https://zenodo.org/record/7226378.

[iii] https://doi.org/10.5281/zenodo.7212776

[iv] एक अनाम कवयित्री. यवन की परी. 2007, https://zenodo.org/record/7220329.

[v] Wiener-Bronner, Danielle. “More Computer-Generated Nonsense Papers Pulled From Science Journals.” The Atlantic, 3 Mar. 2014, https://www.theatlantic.com/technology/archive/2014/03/more-computer-generated-nonsense-papers-pulled-science-journals/358735/.

[vi] Callaway, Ewen. “‘The Entire Protein Universe’: AI Predicts Shape of Nearly Every Known Protein.” Nature, vol. 608, no. 7921, July 2022, pp. 15–16, https://doi.org/10.1038/d41586-022-02083-2.

[vii] “What If an AI Won the Nobel Prize for Medicine?” The Economist, https://www.economist.com/what-if/2021/07/03/what-if-an-ai-wins-the-nobel-prize-for-medicine. Accessed 19 Oct. 2022.

[viii] “AI in Art: Applications in Today’s Art Scene.” INSPIRIT AI, https://www.inspiritai.com/blogs/ai-student-blog/ai-in-art-applications-in-todays-art-scene. Accessed 19 Oct. 2022.

[ix] Hassan, Abdulsadek, and Akram Albayari. “The Usage of Artificial Intelligence in Journalism.” Future of Organizations and Work After the 4th Industrial Revolution. Springer, Cham, 2022. 175-197.

[x] “What Are the Digital Humanities?” The British Academy, https://www.thebritishacademy.ac.uk/blog/what-are-digital-humanities/. Accessed 20 Oct. 2022.

[xi] Rich, Simon. “The New Poem-Making Machinery.” The New Yorker, 21 June 2022, https://www.newyorker.com/culture/culture-desk/the-new-poem-making-machinery.

[xii] Baguette, Rude. “Is Artificial Intelligence the Future of Writing?” Rude Baguette, 11 Apr. 2022, https://www.rudebaguette.com/en/2022/04/is-artificial-intelligence-the-future-of-writing/.

[xiii] Rich, Simon. “The New Poem-Making Machinery.” The New Yorker, 21 June 2022, https://www.newyorker.com/culture/culture-desk/the-new-poem-making-machinery.


[प्रमोद रंजन की असम विश्वविद्यालय के रवीन्द्रनाथ टैगोर स्कूल ऑफ़ लैंग्वेज एंड कल्चरल स्टडीज़ में सहायक प्रोफ़ेसर हैं। संपर्क: janvikalp@gmail.com ]

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