भारत द्वारा लिपुलेख से धारचूला तक बनायीं सड़क का रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने बीते 8 मई को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये उद्घाटन किया था। इसके दस दिन बाद नेपाल की सरकार ने विरोध जताते हुए 18 मई को एक नया नक्शा जारी किया था जिसमें कालापानी, लिम्पियाधुरा तथा लिपुलेक को नेपाल का भू-भाग बताया है। इन्हीं इलाकों को भारत ने भी अपने नक्शे में भारतीय भू-भाग बता रखा है। अब जबकि नेपाल की संसद ने नक्शे में बदलाव से जुड़ा बिल पास कर दिया है, तो भारत के विदेश मंत्रालय ने नेपाल के दावे को नाजायज़ ठहराते हुए इसे सीमा विवाद पर होने वाली बातचीत के मौजूदा समझौते का उल्लंघन बताया है। ऐसे में स्थिति यह है कि दोनों देशों के बीच सीमा को लेकर तस्वीर साफ नहीं है। दोनों देशों के पास अपने-अपने नक्शे हैं और मीडिया से लेकर तमाम मंचों पर हो रहा विमर्श भी भ्रामक है। नेपाल के जानकार और समकालीन तीसरी दुनिया के संस्थापक वरिष्ठ पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा ने ऐसे में इतिहास के पन्नों को खंगाल कर एक लम्बा लेख जनपथ के पाठकों लिए लिखा है ताकि मौजूदा विवाद पर एक सही और समग्र तस्वीर सामने आ सके।
संपादक
नवम्बर 1814 से मार्च 1816 तक नेपाल (जिसे उस समय गोरखा अधिराज्य कहा जाता था) और भारत पर शासन कर रही ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच युद्ध चला जिसमें नेपाल को पराजय का सामना करना पड़ा। 4 मार्च 1816 को सम्पन्न सुगौली संधि के साथ इस युद्ध का समापन हुआ और संधि के फलस्वरूप नेपाल को अपने एक-तिहाई हिस्से से हाथ धोना पड़ा। संधि से पहले तक जो नेपाल का भू-भाग था वह ब्रिटिश भारत में शामिल कर लिया गया। नेपाल, जो कभी किसी का उपनिवेश नहीं रहा, अब भी एक स्वतंत्र राष्ट्र तो था लेकिन संधि के अनुसार काठमांडो में स्थायी तौर पर एक ब्रिटिश रेजिडेंट की नियुक्ति हुई और ब्रिटिश सेना के लिए गोरखा सैनिकों की भर्ती की प्रथा शुरू हुई। वैसे भी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का मकसद तिब्बत तक व्यापार के लिए रास्ता तैयार करना था।
सुगौली संधि की धारा 5 के अनुसार महाकाली नदी के पूर्व का क्षेत्र नेपाल के हिस्से में आया और इसके पश्चिम का सारा क्षेत्र ब्रिटिश भारत में मिल गया। इस संधि में लिंपियाधारा को महाकाली नदी का स्रोत बताया गया है। कालापानी और लीपुलेख महाकाली नदी के पूर्व में है जिसके आधार पर नेपाल इस पर अपना दावा करता है।
कालापानी में भारतीय सैनिक कब और कैसे पहुंचे, इसका किसी के पास ठोस रूप से कोई जवाब नहीं है। नेपाल के सीमा विशेषज्ञ और ‘भू सर्वेक्षण विभाग’ के पूर्व डायरेक्टर जनरल बुद्धि नारायण श्रेष्ठ का अनुमान है कि 1962 में भारत और चीन के बीच युद्ध होने के बाद जब चीनी सेनाओं ने भारतीय सैनिकों को पीछे खदेड़ना शुरू किया तो वे कालापानी तक पहुंचे। उन्होंने देखा की सामरिक दृष्टि से यह स्थान बहुत महत्वपूर्ण है और फिर उन्होंने यहां एक सैनिक अड्डा स्थापित कर लिया ताकि अगर चीन दोबारा हमला करे तो वे मुकाबला कर सकें। यह स्थान थोड़ी ऊंचाई पर था जहां से चीनी सैनिकों पर निगरानी रखी जा सकती थी।
लंबे समय तक नेपाल के लोगों का ध्यान कालापानी और वहाँ स्थित भारतीय सैनिक अड्डे पर नहीं गया क्योंकि 1991 के बाद से ही कालापानी की चर्चा सुनने को मिलती है। इसकी दो वजहें समझ में आती हैं। एक तो यह कि सुदूर पश्चिमी नेपाल का यह हिस्सा अत्यंत दुर्गम था और वहाँ तक पहुँचने के लिए कोई साधन नहीं था। महेंद्र राजमार्ग बनने के बाद ही सुदूर पश्चिम का काठमांडो तथा अन्य हिस्सों के साथ सहज संपर्क कायम हो सका। दूसरी वजह नेपाल की निरंकुश पंचायती व्यवस्था थी जिसमें राजा ही सर्वोपरि था और जनता की आवाज़ का कोई अर्थ नहीं था। राजकाज के मसलों से काफी हद तक लोग उदासीन रहते थे।
अब तक क्यों दबा रहा कालापानी का मुद्दा?
1990-91 में लंबे जन आंदोलन के बाद जब बहुदलीय व्यवस्था और संवैधानिक राजतंत्र की स्थापना हुई इसके बाद ही लोग ज्यादा मुखर हो सके। फिर जितने भी चुनाव हुए उनमें नेपाली कांग्रेस को छोड़ कर, जिसे भारत समर्थक माना जाता था, लगभग सभी पार्टियों ने ‘कालापानी खाली करो’ नारे को बुलंद किया। चुनाव खत्म होते ही यह नारा भी अगले चुनाव तक ठंडे बस्ते में चला जाता था। देखा जाय तो कालापानी का मसला चुनाव के समय ‘भारतीय विस्तारवाद’ के बरक्स ‘नेपाली राष्ट्रवाद’ को उभारने तक ही सीमित था। ‘नेपाली टाइम्स’ ने भी 2 नवम्बर 2019 के अपने संपादकीय में लिखा है- “नेपाल के शासकों ने 1990 के बाद अपने राजनीतिक हितों के लिए भारत-विरोध को राष्ट्रवाद के रूप में इस्तेमाल किया लेकिन अपने इस क्षेत्र पर वैधानिक दावे के लिए दबाव डालने के मकसद से कुछ नहीं किया।“
लेकिन क्या नेपाल के तत्कालीन राजा महेंद्र को भी इसकी जानकारी नहीं थी कि कालापानी में भारतीय सैनिकों ने अपनी छावनी बना ली है? नेपाली अखबार ‘माई रिपब्लिका’ में पत्रकार महाबीर पौड्याल ने प्रमुख राजनीतिज्ञ और इतिहासकार ऋषिकेश शाह के हवाले से बताया है कि राजा महेंद्र को इसकी जानकारी थी। उस समय ऋषिकेश शाह राजा के मंत्रिपरिषद के सदस्य थे और उन्होने नेपाल नरेश का ध्यान इस ओर दिलाया जिसके जवाब में महेंद्र ने कहा कि अभी इस मुद्दे को उठाना ठीक नहीं है क्योंकि भारत सरकार उनसे काफी नाराज है— उचित अवसर आने पर वह इस मुद्दे को उठाएंगे।
दरअसल, 1960 में उन्होंने बीपी कोईराला की निर्वाचित सरकार को भंग कर कोईराला को आठ साल तक जेल में रखा था जिससे भारत सरकार काफी नाराज थी। जेल से छूटने के बाद कोईराला ने 1968 में भारत में ही आ कर राजनीतिक शरण ली थी। 12 नवंबर 2019 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में पत्रकार युबराज घिमिरे ने लिखा कि “तकरीबन पाँच वर्ष पूर्व विदेश मंत्री महेंद्र बहादुर पांडे ने दावा किया कि स्वर्गीय राजा महेंद्र ने काला पानी के इलाके को भारत को सौंपा था।“
लगभग इससे मिलती जुलती बात भेख बहादुर थापा ने, जो 1997 से 2003 तक भारत में नेपाल के राजदूत थे, अपने एक संस्मरण में कही। 31 अगस्त 2015 को नेपाल के प्रमुख दैनिक ‘नया पत्रिका’ में उन्होंने लिखा कि उनके कार्यकाल के दौरान सीमा से संबंधित विवादों पर विचार विमर्श के लिए नई दिल्ली में नेपाली और भारतीय सर्वे ऑफिसर्स की एक बैठक हुई थी। उस बैठक में नेपाल की ओर से बुद्धि नारायण श्रेष्ठ जैसे विशेषज्ञों ने भाग लिया था और उन्होंने प्रामाणिक नक्शा तथा लिंपियाधारा और कालापानी के बीच वाले इलाकों में रहने वाले नेपाली नागरिकों द्वारा जमा की गई भू-राजस्व की रसीदें पेश की थी। भारतीय विशेषज्ञों के पास कोई ठोस प्रमाण नहीं था जिससे वे सिद्ध कर सकें कि काला पानी उनका इलाका है, तो भी बैठक बिना किसी निष्कर्ष के समाप्त हुई। शाम को दोनों देशों की सर्वे टीम के सदस्यों के लिए उन्होंने दूतावास में एक रात्रि भोज का आयोजन किया जिसमें भारत के सर्वे डिपार्टमेंट के डायरेक्टर जनरल भी उपस्थित थे।
आगे उन्होंने लिखा है- “मैंने उनसे (डायरेक्टर जनरल से) पूछा कि हमारी ओर से सारे दस्तावेज पेश किए गए फिर भी आप लोगों की ओर से समस्या को हल करने में इतना विलंब किया जा रहा है। इसके जवाब में उन्होंने कहा कि ‘हिज हाईनेस’ ने हमें कालापानी दे दिया था… मैंने उनसे कहा कि राजा अथवा संसद को भी यह अधिकार नहीं है कि वह देश के किसी हिस्से को किसी अन्य देश को दे दे। उन्होंने इसका कोई जवाब नहीं दिया।”
अपने इसी संस्मरण में राजदूत ने यह बताया है कि भारत के तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बृजेश मिश्र ने एक बातचीत के दौरान उनसे कहा कि “काला पानी से हटने में भारत अपने को सुरक्षित नहीं महसूस करता।“ राजदूत के अनुसार इसके कुछ ही समय बाद नेपाल में सत्ता परिवर्तन हुआ और नए शासकों को लगा कि भारत के हस्तक्षेप के बिना वे सत्ता में नहीं बने रह सकते हैं। इसका असर यह हुआ कि कालापानी का मुद्दा कहीं ओझल हो गया।
दस्तावेज़ का अभाव और 1952 की घटनाएं
अभी 24 मई 2020 को नेपाल के अखबार ‘माई रिपब्लिका’ में विदेश मंत्री का एक इंटरव्यू प्रकाशित हुआ है जिसमें यह पूछे जाने पर कि क्या कालापानी के लिए भारत को अनुमति देने का कोई दस्तावेज है, विदेश मंत्री ने कहा कि हमारे पास ऐसा कोई रिकॉर्ड नहीं है लेकिन अगर हम उस समय की घटनाओं को देखें तो जिस समय 1962 का भारत-चीन युद्ध हुआ था, नेपाल में एक तानाशाही व्यवस्था थी जहां जनता इस हालत में नहीं थी कि वह ऐसे मुद्दों पर शासकों से बात करे। भारत ने इस स्थिति का फायदा उठाया।
क्या वजह है कि नेपाल के पास ऐसा कोई दस्तावेज़ नहीं है जिससे यह पता चल सके कि नेपाल ने कालापानी भारत को कब सौंपा? इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें 1952 की घटनाओं पर सरसरी तौर पर निगाह डालने की जरूरत है। राजा त्रिभुवन और राणा शासकों के बीच समझौता कराने के कुछ समय बाद प्रधानमंत्री नेहरू ने त्रिभुवन से कह कर अपने चहेते मातृका प्रसाद कोईराला (नेपाली कांग्रेस) को प्रधानमंत्री बनवाया। उधर 1949 की चीनी क्रांति और फिर 1951 में चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जा करने के बाद नेपाल और भारत दोनों को कम्युनिज्म का भूत सताने लगा। मातृका प्रसाद कोईराला के ‘अनुरोध’ पर नेपाली सैनिकों और नेपाली सेना के रेडियो आपरेटरों को प्रशिक्षण देने के लिए भारत ने सेना की एक टीम भेजी। नेपाल सरकार की ओर से वक्तव्य जारी हुआ कि “भारतीय सेना की टीम एक वर्ष अथवा इससे कुछ कम समय के अंदर हमारे सैनिक अधिकारियों को प्रशिक्षण देगी और नेपाल की सेना का पुनर्गठन करेगी।” लेकिन यह टीम एक वर्ष की बजाय 18 वर्ष तक वहाँ जमी रही।
उस प्रकरण पर ‘अन्नपूर्णा एक्सप्रेस डॉट कॉम’ में वरिष्ठ पत्रकार हरि बहादुर थापा ने लिखा- “भारतीय सैनिक मिशन ने अपना काम नेपाल के आधुनिकीकरण तक ही सीमित नहीं रखा। भारतीय सलाहकारों ने नेपाल सरकार को यह विश्वास दिलाया कि चीनी साम्यवाद नेपाल में प्रवेश कर सकता है। उनका कहना था कि नेपाल और भारत दोनों को चीन से खतरा है। नतीजा यह हुआ कि भारतीयों ने एक सामरिक योजना तैयार की और उसके अनुसार तिब्बत से लगी नेपाल की सीमा पर 18 चेकपोस्ट स्थापित किए गए। जब एक साल के बाद भारतीय सैनिक मिशन ने वापस जाने का इरादा नहीं प्रकट किया तो सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी के अंदर आपस में संघर्ष शुरू हो गया। इसके नेता बीपी कोईराला ने एक बयान जारी कर कहा कि “भारतीय सैनिक मिशन, जो यहां एक साल के लिए आया था, उसे अब वापस जाना चाहिए।” विपक्षी राजनीतिक पार्टियां भी यही चाहती थीं।”
फिर कैसे तत्कालीन प्रधानमंत्री कीर्तिनिधि बिष्ट ने राजा महेंद्र को समझा-बुझा कर और इन्दिरा गांधी की नाराजगी मोल लेते हुए भारत के साथ किए गए सैन्य समझौते को अप्रैल 1969 में रद्द किया और भारतीय सैनिकों को वापस भेजा, इसका ब्यौरा 24 जून 1969 के ‘दि राइजिंग नेपाल’ में देखा जा सकता है। 1969 में नेपाल के खिलाफ भारत ने जो पहली बार आर्थिक नाकाबंदी की थी उसके मूल में भी इन्दिरा गांधी की नाराजगी ही थी।
उन्हीं 18 भारतीय चेक पोस्टों में एक चेक पोस्ट सुदूर पश्चिम के टिंकर दर्रे में था जो लिपुलेख से कुछ किलोमीटर पूर्व में है। खाली किए गए 18 चेक पोस्टों की सूची में टिंकर दर्रे का भी नाम था लेकिन टिंकर से लौटते हुए भारतीय सैनिकों ने कालापानी को अपना बेस कैंप बना लिया, इसकी जानकारी नेपाल सरकार को काफी समय तक नहीं हो सकी। यही वजह है कि भारतीय सैनिकों के कालापानी में रहने का नेपाल के पास कोई रेकार्ड नहीं था।
बुद्धि नारायण श्रेष्ठ के ब्लॉग से भी यही जानकारी मिलती है। उन्होंने ‘कमेटी ऑफ इंटेलेक्चुअल ऐंड प्रोफेशनल सॉलिडेरिटी अगेंस्ट बॉर्डर एंक्रोचमेंट ऐंड दि स्टेट एट्रोसिटीज’ की 4 जुलाई 1998 की काठमांडों की एक बैठक का जिक्र किया है जिसमें कीर्तिनिधि बिष्ट से सवाल किया गया कि जब सभी चेक पोस्टों को हटा दिया गया था तो आपके प्रधानमंत्री रहते हुए कालापानी की चौकी कैसे बनी रही? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि “इसकी एक वजह यह हो सकती है कि कालापानी में सैनिक चौकी की स्थापना के समय दोनों देशों के बीच कोई पत्राचार नहीं हुआ था। हुआ यह होगा कि 1962 में चीन से पराजित होने के बाद जब भारतीय सैनिक टिंकर के मोर्चे से पीछे हटने लगे और उन्होंने कालापानी के इलाके को देखा तो उन्हें लगा कि सामरिक दृष्टि से यह बहुत अच्छी जगह है और फिर उन्होंने वहां अपना अड्डा बनाने का निर्णय ले लिया। वे यह भूल गए कि यह तो नेपाल की जमीन है। 1952 में जब दोनों देशों ने नेपाल की उत्तरी सीमा पर भारतीय चौकियों की स्थापना का निर्णय लिया था तो जो पत्राचार हुआ था, उनमें 18 स्थानों का नाम दर्ज था जिनमें कालापानी नहीं था। इसलिए जब चौकियों को सैनिकों ने खाली किया तो जाहिर सी बात है कि कालापानी का नाम नहीं था।”
अब कैसे टूटी नेपाल की नींद?
दशकों से सत्ता की आपसी खींचतान में व्यस्त और कालापानी के मामले में बेहद निश्चिंत पड़े हुए नेपाली नेताओं की नींद आज अचानक कैसे टूट गई? दरअसल, नवंबर 2019 में कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश दिखाते हुए भारत सरकार ने जो नया नक्शा जारी किया, उसमें कालापानी को भारत के हिस्से में दिखा दिया। भारत के इस नक्शे पर विरोध व्यक्त करते हुए नेपाल के विदेश मंत्रालय ने तुरंत एक बयान जारी किया। इसके जवाब में भारत ने कहा कि नेपाल का दावा अनुचित है। इस पर नेपाली जनता ने अपना रोष व्यक्त किया जिसकी अभिव्यक्ति लगातार अलग-अलग रूपों में नजर आने लगी थी। इसके कुछ ही दिनों बाद भारतीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये उत्तराखंड के धारचूला से लिपुलेख तक के लिए एक लिंक रोड का अनावरण किया जो मानसरोवर यात्रा रोड है। यहाँ यह बताना प्रासंगिक होगा कि भारत द्वारा नक्शा छापे जाने के बाद से ही नेपाल लगातार कालापानी-लिपुलेख पर भारत सरकार से बातचीत करने के प्रयास में लगा था लेकिन भारतीय अधिकारी कोविड-19 का हवाला दे कर बातचीत टालते रहे। ऐसे में कोविड-19 संकट के बीच सड़क-उद्घाटन की हड़बड़ी ने अनेक सवाल पैदा किए। 19 मई 2020 को प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने कहा कि “नेपाल के तत्कालीन शासकों ने कालापानी के मुद्दे पर भारत से बात करने में हिचकिचाहट प्रकट की लेकिन मौजूदा सरकार के प्रधानमंत्री के रूप में मैं आप सब को यह जानकारी देना चाहता हूं कि मैं इस मुद्दे को छोडूंगा नहीं।”
और इसी क्रम में सभी पार्टियों की अभूतपूर्व एकता के बीच नेपाल ने अपना नया नक्शा जारी किया जिसे संसद और राष्ट्रपति का अनुमोदन मिला।
इस दौरान नेपाल ने उन पुराने नक्शों को सार्वजनिक किया है जो उसके दावों की पुष्टि करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय सीमा-निर्धारण विशेषज्ञ प्रभाकर शर्मा ने, जिन्हें संयुक्त राष्ट्र ने कैमेरून-नाइजीरिया सीमा विवाद हल करने के लिए सर्वे इंजीनियर के रूप में नियुक्त किया था, अपने एक लेख में जानकारी दी कि “ब्रिटिश सर्वेयर जनरल ऑफ इंडिया द्वारा प्रकाशित और अभी भी उपलब्ध 1816 और 1827 तथा बाद में 1850 और 1856 के नक्शों में स्पष्ट तौर पर लिंपियाधारा, लिपुलेख और कालापानी को नेपाल का हिस्सा दिखाया गया है।” नेपाल के कुछ अखबारों ने इन नक्शों को प्रकाशित भी किया। भारत का कहना है कि काली नदी का स्रोत लिंपियाधारा से निकली एक दूसरी नदी है और इसके आधार पर इसने कालापानी को अपनी सीमा के अंदर ले लिया है। नेपाल के लैंड सर्वे डिपार्टमेंट के पूर्व डायरेक्टर जनरल बुद्धि नारायण श्रेष्ठ का कहना है कि चीन में छिंग राजवंश (1903) के समय ‘ओल्ड एटलस ऑफ चाइना’ में जो नक्शा प्रकाशित है उसमें लिंपियाधुरा को काली नदी का स्रोत दिखाया गया है। इस नक्शे में नदी के उत्तर-पूर्वी हिस्से को ‘नेपाल’ के रूप में चित्रित किया गया है।
अबसे पहले भारत ने नेपाल के दावे को कभी खारिज नहीं किया था- जब भी कालापानी की बात होती, भारत यही कहता कि मिल-बैठ कर इसे हल कर लेंगे। कुछ बातें ऑन रेकॉर्ड हैं, मसलन 1997 में प्रधानमंत्री आई के गुजराल ने कहा था कि “दोनों पक्षों के टेक्नीशियन सीमांकन के काम में लगे हुए हैं और अगर उनकी रिपोर्ट से यह निष्कर्ष निकलता है कि कालापानी नेपाल का हिस्सा है तो हम फौरन उसे खाली कर देंगे।” इसी प्रकार 1999 में विदेश मंत्री के रूप में जसवंत सिंह ने कहा था कि “नेपाल इंडिया ज्वाइंट टेक्निकल लेवल बाउंड्री कमेटी को निर्देश दिया गया है कि वह कालापानी सहित विवादित क्षेत्र के सभी इलाकों के बारे में तथ्य इकट्ठा करे और उसी के अनुसार सीमांकन के काम को जल्द से जल्द पूरा करे।” वर्ष 2000 में नेपाली प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोईराला की भारत यात्रा के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस बात पर सहमति प्रकट की थी कि स्थलगत अध्ययन के जरिये कालापानी के सीमा विवाद को 2002 तक हल कर लिया जाएगा। 2014 में नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री सुशील कोईराला ने भारत की यात्रा की और इस मौके पर भी दोनों पक्षों ने संकल्प व्यक्त किया कि “कालापानी सहित नेपाल-भारत सीमा से संबंधित सभी विवादों को हमेशा के लिए हल कर लिया जाएगा।” 2014 में ही अपनी पहली नेपाल यात्रा के समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आश्वासन दिया था कि कालापानी और सुस्ता सहित सीमा से संबंधित सभी विवादित मसलों पर जल्द से जल्द फैसला लिया जाएगा।
23 मई 2020 को ‘दि हिन्दू’ में नेपाल में राजदूत पद पर रहे जयंत प्रसाद ने लिखा कि नेपाल-इंडिया टेक्निकल लेवल ज्वाइंट बाउंड्री वर्किंग ग्रुप की स्थापना 1981 में हुई थी। इसका मकसद सीमा से संबंधित मुद्दों का समाधान ढूंढना, अंतर्राष्ट्रीय सीमा का अंकन करना और सीमा पर लगे खंभों का प्रबंधन करना था। 2007 तक इस ग्रुप ने सीमा से संबंधित 98 प्रतिशत विवादों को हल कर लिया था- बस कालापानी और सुस्ता का मामला रह गया था। नेपाल के पत्रकार अनिल गिरि (काठमांडो पोस्ट) की रिपोर्ट से पता चलता है कि 2014 में नेपाल इंडिया ज्वाइंट कमीशन की तीसरी बैठक काठमांडो में हुई जिसमें दोनों पक्ष इस बात पर राजी हुए कि कालापानी और सुस्ता से संबंधित विवाद को भारत और नेपाल के विदेश सचिवों को सौंप दिया जाएगा ताकि वे इसका समाधान ढूंढ लें, लेकिन इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई।
बढ़ता विवाद, आग लगाता मीडिया
नेपाल द्वारा नक्शा प्रकाशित करने के बाद सरकार के इशारे पर हमारे यहाँ के टीवी चैनलों ने नेपाल के खिलाफ जबरदस्त निंदा अभियान और डिसइंफार्मेशन कैम्पेन चला रखा है। पतनशीलता का आलम यह है कि इस अभियान में देश का सेनाध्यक्ष तक शामिल हो जाता है जब वह चीन को इंगित करते हुए कहता है कि “नेपाल किसी और के उकसावे पर काम कर रहा है।” क्या सेनाध्यक्ष मनोज मुकुन्द नरवणे को यह जानकारी नहीं थी कि भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा के अंतिम दिन 15 मई 2015 को जारी उस संयुक्त विज्ञप्ति का नेपाल ने विरोध किया था जिसमें भारत और चीन दोनों ने नेपाल की सहमति के बगैर द्विपक्षीय व्यापार मार्ग के रूप में लिपुलेख को समझौते में शामिल किया था? क्या उन्हें पता नहीं था कि कालापानी और लिपुलेख के मसले पर, नेपाल के नज़रिये से देखें तो, भारत और चीन दोनों की सोच एक जैसी है? फिर ऐसा बयान देने का मतलब साफ है- भारत के ढेर सारे घटिया हिन्दी चैनलों के सुर में सुर मिलाना और जनता को गुमराह करना। शुक्र है कि कम से कम नेपाल में कार्यरत दो पूर्व राजदूतों राकेश सूद और जयंत प्रसाद ने सेनाध्यक्ष नरवणे के बयान को ‘असंवेदनशील’ और ‘अनुचित’ कहा।
नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञवाली का कहना है कि अपने छोटे आकार और अपनी छोटी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद हम किसी को मनमानी नहीं करने देंगे। हाल ही में एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि “सीमाओं का निर्धारण द्विपक्षीय संधियों पर आधारित होता है… नक्शे में परिवर्तन कर भारत ने जमीन पर कब्जे की कार्रवाई शुरू की। भारतीय सेना कई साल से कालापानी में जमी हुई है। उस समय के शासकों ने एक खास उद्देश्य के लिए उन्हें वहां रहने की अनुमति दी। लेकिन बगैर किसी संधि के अथवा अस्थाई तौर पर अथवा जबरन कहीं किसी की मौजूदगी उस जमीन पर उसका वैधानिक दावा स्थापित नहीं कर सकती। यह दलील देना कि हम वहां लंबे समय से हैं इसलिए वह इलाका हमारा है, इसका कोई अर्थ नहीं है।” विदेश मंत्री ने यह भी बताया कि नेपाल ने 1955 में संधि की एक सत्यापित प्रतिलिपि संयुक्त राष्ट्र को सौंपी है।
माना कि प्रधानमंत्री के पी ओली ने इस मुद्दे को इस समय इसलिए उठाया कि वह पार्टी के अंदर अपने विरोधियों से घिर गए थे। यह भी माना कि नेपाल की सरकारें अपने क्षेत्र के अतिक्रमण के प्रति उदासीन थीं। यह भी सच हो सकता है कि 2015 की आर्थिक नाकाबंदी के बाद नेपाल का झुकाव अपने दूसरे पड़ोसी चीन की तरफ हो गया। सब सही है, लेकिन इससे क्या कालापानी पर नेपाल अपना दावा खो देता है?
बातचीत ही अंतिम रास्ता
अब इस मसले का समाधान क्या है? समाधान बस एक ही है- बातचीत। दबंगई से या ‘रोटी-बेटी का संबंध’ की दुहाई देने से समस्या नहीं सुलझेगी। अपने-अपने नक्शे ले कर बातचीत की टेबल पर दोनों पक्षों को बैठना होगा। भारत सरकार लगातार बातचीत से कतरा रही है। नेपाल के वरिष्ठ पत्रकार कुंद दीक्षित के अनुसार नेपाल सरकार ने दोनों देशों के विदेश सचिवों की बैठक के लिए दो-दो बार तारीखें प्रस्तावित कीं लेकिन भारत ने कोई जवाब नहीं दिया। 2014 में ही नरेंद्र मोदी की नेपाल यात्रा के समय इस बात पर सहमति बनी थी कि दोनों देशों के विदेश सचिवों के स्तर पर इस समस्या को सुलझाया जाएगा।
‘काठमांडो पोस्ट’ के अनुसार भारत स्थित नेपाली राजदूत नीलांबर आचार्य के सामने यह मुश्किल पैदा हो गई है कि भारत के विदेश विभाग के अधिकारियों से किस तरह बात करें। राजदूत ने कई बार प्रयास किए लेकिन अधिकारियों से उनका संपर्क नहीं हो पा रहा है। नेपाली दूतावास के सूत्रों के अनुसार राजदूत ने औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों चैनलों से यह प्रयास किया कि विदेश विभाग के साथ उनका संपर्क हो जाए लेकिन यह संभव नहीं हो सका। रिपोर्ट में बताया गया है कि राजदूत ने विदेश सचिव हर्षवर्धन सिंगला और नेपाल-भूटान डेस्क के इंचार्ज संयुक्त सचिव (उत्तरी) पीयूष श्रीवास्तव से संपर्क का प्रयास किया लेकिन विफल रहे।
9 मई को भारत के विदेश मंत्रालय ने एक वक्तव्य के जरिए यह जानकारी दी कि कोविड-19 का संकट खत्म होने के बाद वह औपचारिक बातचीत के लिए तैयार है, उधर काठमांडो में नेपाली विदेश सचिव शंकर दास बैरागी ने भारतीय राजदूत विनय मोहन क्वात्रा से भेंट की और अनुरोध किया कि जल्दी ही दोनों देशों के विदेश सचिवों के स्तर पर बातचीत का आयोजन किया जाय लेकिन उन्हें कोई सकारात्मक उत्तर नहीं मिला। भारत के विदेश मंत्रालय का कहना है कि बातचीत के लिए नेपाल पहले “अनुकूल वातावरण” का निर्माण करे।
“अनुकूल वातावरण” का खुलासा कौन करेगा- सरकार या न्यूज़ चैनलों के ऐंकर?