देशान्तर: Tatmadaw को जेनरेशन Z की चुनौती और म्यांमार में लोकतंत्र की कठिन डगर


म्यांमार/बर्मा में नवम्बर 2020 चुनावों के नतीज़े के बाद नयी सरकार के शपथ ग्रहण समारोह के ठीक एक दिन पहले टाटमदाव (Tatmadaw)- बर्मीज़ सेना- ने 1 फरवरी को तख्तापलट कर दिया और देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। चुनावों में नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (NLD) को अपेक्षा से भी ज्यादा भारी बहुमत प्राप्त हुआ था। सेना के कमांडर-इन-चीफ और म्यांमार के वास्तविक शासक वरिष्ठ जनरल मिन आंग हालिंग ने बड़े पैमाने पर चुनाव में धोखाधड़ी का आरोप लगाया और तख्तापलट को जायज ठहराया, हालांकि चुनाव आयोग ने इन आरोपों को मानने से इनकार किया है। तख्तापलट के बाद स्टेट काउंसलर आंग सान सू ची और उनकी पार्टी के कई सहयोगियों को औपनिवेशिक सरकारी राज अधिनियम (ऑफिसियल सीक्रेट्स एक्ट) के उल्लंघन करने सहित अन्य आरोपों के तहत जेल में डाल दिया गया है। सेना की इस कार्यवाही के विरूद्ध देश भर में नागरिकों का प्रदर्शन लगातार जारी है और सविनय अवज्ञा आंदोलन (Civil Disobedience Movement) की शक्ल ले चुका है। आइए, इस बार देशांतर में चर्चा करते हैं बर्मा के घटनाक्रमों के ऊपर। 

संपादक

NLD का कठिन कार्यकाल और मौजूदा चुनावों में भारी जीत

तख्तापलट के ठीक बाद कुछ समय भयंकर खामोशी रही, जैसे तूफ़ान के पहले की ख़ामोशी। यह घटना सभी के लिए बिलकुल आकस्मिक थी। 2008 में बने नए संविधान के अनुसार  लोकतंत्र की बहाली के लिए कई कदम उठाये गए थे। 2010, 2012, 2015 और फिर 2020 में चुनाव हुए। इस बार के चुनावों में NLD के अलावा कई जाति/समुदाय आधारित दलों के लोगों ने भी भागीदारी की थी और लग रहा था की देश में लोकतंत्र की बहाली में देश एक कदम और आगे बढ़ेगा। बावजूद इसके कि 2008 के नए संविधान के मुताबिक़ Tatmadaw (बर्मीज़ सेना का दूसरा नाम) के पास अब भी भरपूर राजनैतिक और आर्थिक शक्ति थी, पूर्ण रूप से एक जनतांत्रिक व्यस्था बहाल नहीं हुई थी। नए संविधान के मुताबिक संसद के दोनों सदनों में सेना के पास 25% सीट आरक्षित हैं और 75% सीटों के लिए ही सिर्फ चुनाव होता है। इसके अलावा सेना के पास न्याय, रक्षा और गृह मंत्रालय भी सुरक्षित है। इस सत्ता के बँटवारे में जाहिर है, सेना का पलड़ा भारी है जिसके परिणाम भी शासन व्यवस्था में पिछले दस साल में देखने को मिले हैं।    

सेना के जनरलों को अपनी सुरक्षा का बड़ा ख़तरा ज़रूर है, अगर सू ची दुबारा सत्ता में आती हैं

8 नवंबर 2020 को म्यांमार के संसदीय चुनाव हुए थे। पर्यवेक्षकों को आंग सान सू ची के एनएलडी की बहुमत को लेकर संदेह नहीं था, लेकिन उनमें से कई ने इस तरह रिकॉर्ड समर्थन की उम्मीद नहीं की थी, खासकर कोविड-19 महामारी और 2015 में उनकी सरकार के कुछ फैसलों से उभरे असंतोष की वजह से। आंग सान सू ची के पहले कार्यकाल में कई कमियां रहीं, जैसे दशकों से चल रहे जातीय संघर्षों को ख़त्म करने के लिए चलायी शांति प्रक्रिया की विफलता, रोहिंग्या नरसंहार और मानवीय त्रासदी, नागरिक स्वतंत्रताओं पर लगी पाबंदियां, जनपक्षीय सुधारों की धीमी गति, बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण और पूंजीवादी ताकतों के द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के बर्बर दोहन को बढ़ावा, आदि। ये सभी संकेत थे कि एनएलडी सरकार का कार्यकाल अपने 2015 के चुनावी कार्यक्रमों और वायदों पर पूरी तरह खरा नहीं उतरा था। 

बावजूद इसके, इस बात में दो राय नहीं थी कि सू ची और उनकी पार्टी ही एक तरह से सही मायने में देश को सक्रि‍य नेतृत्व दे सकती थी और सेना के प्रभाव को ख़त्म कर सकती थी। यह बात चुनाव परिणामों में परिलक्षित भी हुआ, जहां एनएलडी ने अपने 2015 प्रदर्शन को पार किया और 642 में से 396 सीटें जीतीं (2008 संविधान के अनुसार 166 सीटें सेना के लिए आरक्षित हैं)। सेना की पार्टी यूनियन सॉलिडेरिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी (USDP), जो कि‍ 2010-15 में सत्ता में थी, को कड़ी हार का सामना करा पड़ा और राष्ट्रीय स्तर पर केवल 30 सीटें जीत सकी। इसके बावजूद सेना द्वारा नियुक्त 166 सांसदों को जोड़ दें तो फिर भी मुख्य विपक्षी दल है। कई इलाकों में जातीय और क्षेत्रीय दलों ने संयुक्त उम्मीदवार खड़े किये थे, लेकिन उन्हें बड़ी सफलता नहीं मिल सकी।

1948 में आजाद हुए इस देश में लोकतंत्र को बहाल करने की प्रक्रिया में इन चुनावों का एक महत्व है। तख़्तापलट के पीछे NLD के इस बड़े बहुमत को बताया जाता है क्योंकि यह बात साफ़ है कि पुराने अनुभवों को देख कर, नई सरकार पूरी कोशिश करती सेना को नियंत्रित किया जाए और 2008 के संविधान को बदला जाए। यह भी दूसरा कारण माना जा रहा है की 2014 के संशोधनों के बाद, 2011 से सेना चीफ़ रहे मौजूदा जनरल मिन आंग हालिंग जल्द ही 65 वर्ष की उम्र होने के कारण सेवानिवृत्‍त हो जाते और उन्हें डर है कि‍ रोहिंग्या नरसंहार और अन्य मामलों में उनको सजा हो सकती है। चुनाव के नतीजों से भी यह साफ़ हो गया था कि सेवानिवृत्ति के बाद सेना की पार्टी को सत्ता नहीं मिलती, ऐसे में इस तख़्तापलट से वह सत्ता पर क़ाबिज़ रह सकते हैं, हालाँकि संविधान को बदलने के लिए NLD को 75% से ज्यादा समर्थन संसद में चाहिए, जो कि आसान नहीं है, फिर भी सेना के जनरलों को अपनी सुरक्षा का बड़ा ख़तरा ज़रूर है, अगर सू ची दुबारा सत्ता में आती हैं। 

जेनरेशन Z का सविनय अवज्ञा आंदोलन : ग़लत पीढ़ी से पंगा

हर उम्र और वर्ग के लोग सड़क पर हैं लेकिन नेतृत्व युवा पीढ़ी के हाथ में है

शुरुआती खामोशी के तुरंत बाद ही देश भर में लोकतंत्र समर्थक विरोध प्रदर्शन, जातीय मतभेदों से परे, देश के प्रमुख शहरों और पहाड़ी एवं सीमान्त क्षेत्रों में भी उठ खड़े हुए। सेना ने इन विरोधों और प्रदर्शनों को दबाने के लिए अत्यधिक हिंसा का सहारा लिया है जिसके परिणामस्वरूप अनुमानित 1,000 लोगों की मौत हुई है, जिसमें कई बच्चे भी शामिल हैं। देश के एक बड़े क्षेत्र में इंटरनेट शटडाउन है, घरेलू मीडिया पर प्रतिबंध है, कई पत्रकारों की गिरफ्तारी हुई है, अंतरराष्ट्रीय मीडिया का देश में प्रवेश बंद है और कई इलाकों से मौत और तबाही की पूरी खबरें नहीं आ पा रही हैं।

बावजूद इसके आज म्यांमार में जातीयता, धर्म और पुराने मतभेदों को भूलकर, कई लोकतंत्र समर्थक समूहों, महिला संगठनों (लैंगिक समानता नेटवर्क, बर्मी महिला संघ, करेन महिला संगठन और अन्य), युवा समूहों, छात्र संघों और अन्य सैन्य और उनके समर्थक राष्ट्रवादी समूहों का विरोध कर रहे हैं।

महिलाओं और छात्रों का इन प्रदर्शनों में विशेष योग है जो कि नया नहीं है, लेकिन 70 और 80 के दशकों में हुए नागरिक/छात्र विद्रोहों से अलग जरूर है।  Generation Z के नाम से जाने जा रहे छात्रों और युवाओं के संघर्ष ने एक नयी उम्मीद पैदा की है। 1990 के दशक में जन्मी इस पीढ़ी को पुराने सेना के तानाशाही शासन का अनुभव नहीं है। इन्होंने अपनी राजनैतिक चेतना 2010 के बाद के राजनैतिक माहौल और इंटरनेट युग में हासिल की है। इसलिए सेना के दमन के खि़लाफ, नयी तकनीकों का इस्तेमाल करते हुए, हांगकांग, थाईलैंड और निकट के देशों में हो रहे युवाओं के प्रदर्शन से प्रेरित सड़क पर आ रहे हैं। सोशल मीडिया और तकनीक का अनूठा प्रयोग कर रहे हैं और सरकार की कई कोशिशों के बावजूद अपनी बात दुनिया को बता रहे हैं। पहले फेसबुक और उसके बंद होने के बाद ट्विटर (बर्मा में ट्विटर बहुत प्रचलित नहीं है) का प्रयोग करके आज अंतर्राष्ट्रीय समुदाय पर भी दबाव बना रहे हैं। #WhatIsHappeningInBurma #CivilDisobedienceMovement #Repeal2008Constitution आदि हैशटैग सोशल मीडिया पर ट्रेंड में हैं। 

हर उम्र और वर्ग के लोग सड़क पर हैं लेकिन नेतृत्व युवा पीढ़ी के हाथ में है। पुराने लोग अपने अनुभव से समन्वय की भूमिका कर रहे हैं, लेकिन युवा वर्ग उन्हें भी नयी तकनीक से अवगत करा रहा है। सविनय अवज्ञा आंदोलन के तहत उन्होंने अपने शिक्षकों, अस्पताल कर्मियों, सरकारी कर्मचारियों, मध्य वर्ग और सभी से अपील की है और प्रेरित किया है कि वह सेना के शासन को मानने से इंकार कर दें। उन्होंने ठान लिया है की यह विद्रोह नहीं बल्कि आखिरी लड़ाई है, सत्ता परिवर्तन की। जैसा कि उनके स्लोगन में है, “88! अब फिर नहीं”। इसका सन्दर्भ 8 अगस्त 1988 के छात्र विद्रोह से है।

एक अन्‍य नारा सड़कों पर सुना जा रहा है वह खुली चुनौती है सेना को – you have messed with the wrong generation, generation Z (गलत पीढ़ी से पंगा ले लिया है). This is the endgame (सन्दर्भ endgame : avengers फिल्म का) और three finger salutes जो कि थाईलैंड, जापान और कई देश के युवाओं ने इस्तेमाल किया है, सरकारी हुकूमत के विरोध में।

एक तरफ जहाँ कई सरकारी और निजी कर्मचारियों को अपने नौकरी से हाथ धोना पड़ा है क्योंकि उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लिया, वहीँ दूसरी तरफ फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया पर सेना के खिलाफ लिखने के कारण लोगों की गिरफ्तारियां जारी हैं। भले ही सू ची और उनके पार्टी के कई नेता जेल में हैं लेकिन चुनावों में जीते हुए नेताओं और दलों ने एक प्रोवीजनल सरकार बनाई है और देश के भीतर ही भूमिगत होकर निर्देश जारी कर रहे हैं। इस आंदोलन के तहत कई क्षेत्रीय वार्ड और कार्यालयों में जनता ने सरकारी हुकूमत को न मानते हुए नयी जन समितियां भी बनायी हैं। स्वशासन में एक अनूठा प्रयोग भी बर्मा की जनता कर रही है। 

जातीय मतभेदों के परे एक संघीय म्यांमार की परिकल्पना

रोहिंग्या समुदाय के खिलाफ 2017 सैन्य आक्रमण को व्यापक अंतरराष्ट्रीय निंदा मिली

बर्मा में राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया आजादी के 70 साल के बाद भी आज अधूरी है। कई जातीय/जनजातीय समुदायों वाला देश 1948 में अंग्रेज़ों से आज़ाद तो हो गया लेकिन आज भी आंतरिक स्थिरता स्थापित नहीं हो पायी। गौरतलब है कि वृहद् रूप से बर्मा में लोकतंत्र की स्थापना के संघर्ष में सेना और NLD की भूमिका की चर्चा हावी रहती है, लेकिन वहां वर्षों से चल रहे विभिन्न समुदायों के अपने स्वशासन के संघर्ष में लाखों लोगों की जान गयी है।

भारत, बांग्लादेश, चीन, थाईलैंड और लाओ से सटे इस देश के सीमान्त पर्वतीय इलाकों में रह रहे कचिन, चीन, करेन, शान, हाण, राखिन, रोहिंग्या समुदाय और मध्य एवं इरावदी नदी के समतल में रह रहे बहुसंख्य बर्मन समुदाय के बीच वर्चस्व की लड़ाई हमेशा रही है। फरवरी 1948 में पंगलोंग सम्मलेन में अल्पसंख्यक समुदायों ने जब यूनियन ऑफ़ बर्मा में शामिल होने की सहमति दी तो इस शर्त पर दी थी कि उनकी स्वायत्तता बरक़रार रहेगी जिसको लेकर आज भी संघर्ष जारी है। कई समुदायों की अपनी सशस्त्र सेना है और इस कारण से कई हिस्सों पर बर्मा की सेना और राज्य का आज भी कब्ज़ा नहीं है। इन कारणों से भी जनगणना या चुनाव की जैसी केंद्रीकृत प्रक्रियों के आंकड़ों में हमेशा निश्चितता नहीं होती।

पहले से ही जातीय संघर्ष से छलनी देश में मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियां केवल आंतरिक संघर्ष को और आगे बढ़ाएंगी, क्षेत्र में अस्थिरता पैदा करेंगी और देश में सत्ता के लोकतांत्रिक बदलाव की प्रक्रिया को भी प्रभावित करेंगी। रोहिंग्या समुदाय (बौद्ध बहुल देश में 4% आबादी मुसलामानों की है) के खिलाफ 2017 सैन्य आक्रमण को व्यापक अंतरराष्ट्रीय निंदा मिली, इसके बावजूद काचीन, शान, करेन, चिन और अन्य जातीय सशस्त्र संगठनों के खिलाफ Tatmadaw की ‘क्लीयरेंस ऑपरेशन’ जारी रही। 2016 में कथित शांति प्रक्रिया (21 सदी का पंगलोंग सम्मेलन) की शुरुआत सू ची और Tatmadaw की सरकार ने की थी, लेकिन 16 दलों के शुरुआती समर्थन के वावजूद सिर्फ 8 दलों ने अपनी सहमति दी थी, बाकी ने या तो मना कर दिया या फिर उन्हें सरकार ने अमान्य करार दिया। इस शान्ति प्रक्रिया के बावजूद सेना का ऑपरेशन लगातार चलता रहा जिसके कारण लगभग 10,000 लोगों मौत और करीब 10 लाख लोग आज भी विस्थापित है। इसलिए जातीय संगठनों के नेतृत्व ने शांति प्रक्रिया में अपना विश्वास नहीं निहित किया और यही माना कि सरकार युद्ध विराम को इन क्षेत्रों में अपने प्रभाव, पूँजी निवेश बढ़ाने और बर्मन समुदाय को बसाने आदि के लिए कर रही है। आंग सां सू ची की चुप्पी को भी उन्होंने मौन सहमति माना और यही स्थिति कमोबेश रोहिंग्या नरसंहार के खिलाफ वैश्विक निंदा के बावजूद बनी रही।

आगे लोकतंत्र के लिए कड़ी राह

सभी मानते हैं कि 2008 के संवैधानिक फॉर्मूले के तहत सत्ता में रहते हुए NLD को बहुत कुछ करना संभव नहीं है, लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि बर्मा के अन्य जातीय समुदायों को साथ लेकर उनके हितों को आगे बढ़ाते हुए और पूरे देश को एक सूत्र में बांधने में NLD विफल रही और इस कारण उनकी मंशा पर भी संदेह रहा। यह मंशा तब गहरी हुई जब सू ची ने अंतरराष्ट्रीय क्रिमिनल कोर्ट के समक्ष बर्मा का बचाव करते हुए कहा कि गाम्बिआ द्वारा लगाया गया प्रायोजित नरसंहार का आरोप गलत है और रोहिंग्या के खिलाफ हुई हिंसा और उसके लिए जिम्मेदार लोगों की जाँच बर्मा की मिलिट्री न्याय व्यवस्था करेगी।

गौरतलब है कि 2017 में हुए रोहिंग्या के खिलाफ हुए हिंसा में लगभग हज़ारों की मौत और करीब 10 लाख लोग बांग्लादेश और अन्य पड़ोसी देशों में शरण लेने को मजबूर हुए। आज भी लाखों लोग बांग्लादेश में हैं और बर्मा के भीतर उन्हें सम्पूर्ण नागरिक का दर्जा प्राप्त नहीं है, जिस कारण से 2014 की जनगणना में भी उन्हें मान्यता नहीं मिली और न ही चुनाव में शामिल होने की अनुमति। अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय और अंतर्राष्ट्रीय न्याय न्यायालय में मामलों के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय समुदाय नरसंहार को रोकने और इसके लिए जिम्मेदार व्यक्तियों को जवाबदेह ठहराने में विफल रहा है। संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतर्राष्ट्रीय देशों ने वित्तीय और मानवीय सहायता तो दिया लेकिन उनके प्रयास सीमित रहे हैं, और कई संघर्ष ग्रस्त सीमावर्ती क्षेत्रों और शिविरों में उनकी उपस्थिति Tatmadaw के कारण बाधित रही है।

बर्मा में इस नए बदलाव के बाद स्थिति और सुधरती नहीं दिखती है। Tatmadaw ने पहले कहा था कि वह देश को सामान्य स्थिति में लाने और शांति स्थापित करने के लिए एक वर्ष का आपातकाल लगा रही है लेकिन अब ब्रिगेडियर जनरल जाव मिन तुन का बयान है कि यह स्थिति अब दो साल तक कायम रह सकती है।

तख्तापलट के बाद दुर्भाग्य से भारत सहित कई विदेशी शक्तियां तत्काल प्रतिक्रिया देने में विफल रहीं और म्यांमार में लोकतंत्र की तत्काल बहाली की मांग करने में भी, वह चाहे ASEAN हो या UN। इस दौरान भारत सहित कई देशों ने सेना द्वारा आयोजित 27 मार्च को सशस्त्र सेना दिवस के आयोजन में भाग भी लिया और अपने-अपने हितों को देखते हुए फैसले लिए, जिसने एक तरह से नए सैन्य राज्य को विश्वनीयता दी, जो दुर्भाग्यपूर्ण है। भारत ने भी आंतरिक और बाहरी आलोचना के बाद अपनी स्थिति बदल ली और म्यांमार में लोकतंत्र की बहाली की मांग की, जो एक स्वागत योग्य कदम है। आखिर में बढ़ते हिंसा को देखकर दो महीने बाद 1 अप्रैल को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने भी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ सैन्य हिंसा के खिलाफ कड़ी निंदा की, लेकिन चीन और रूस के दबाव में मजबूत भाषा का इस्तेमाल करने और सेना के खिलाफ निषेध इस्तेमाल करने से परहेज किया।

EU और US ने कुछ निषेध तख्तापलट में शामिल लोगों के ऊपर ज़ाहिर किया है, वहीं दूसरी तरफ कई विदेशी कम्पनियों ने सेना और उससे जुड़ी कंपनियों और उद्योगों के साथ अपने रिश्ते जारी रखे हैं। सविनय अवज्ञा आंदोलन ने आग्रह किया है कि टोटल, शेवरॉन, पेट्रोनास, अडानी आदि जैसे बड़े औद्योगिक समूह सेना के साथ काम करना बंद करें। इन उद्योगों से सेना को और बल मिल रहा और साथ ही और हथियार खरीदने के लिए पैसा। अभी हाल में आये ऑस्ट्रेलियन सेंटर फॉर इंटरनेशनल जस्टिस और जस्टिस फॉर म्यांमार के संयुक्त रिपोर्ट ने यह खुलासा किया की भारत का अडानी समूह बर्मा की सेना के उद्यम म्यांमार इकनोमिक कोरोपोरशन के साथ 3 करोड़ USD का सौदा कर रहा है उनका यांगोन बंदरगाह बनाने के लिए। उन्होंने अडानी से भी मांग की है कि वह इससे पीछे हटे। वहीँ कुछ कंपनियों जैसे फ्रेंच कंपनी वोलटालिआ ने अपना काम बंद कर दिया है।

आज बर्मा की जनता हरेक मोर्चे पर संघर्ष कर रही है ताकि जनतंत्र स्थापित करने की प्रक्रिया जो शुरू हुई है वह बाधित नहीं हो। वैसे में इन बदले हुए हालात में यह देखना लाजिमी होगा की यह संघर्ष कहाँ तक जाता है।

इन संघर्षों के भविष्य के बारे में लाहापाई सेंग रॉ, बर्मा की मशहूर सामजिक कार्यकर्ता 2013 रेमन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता, लिखती हैं कि आज पुरानी पीढ़ी को नयी पीढ़ी जेनेरशन जेड से बड़ी उम्मीदें हैं लेकिन उन्हें यह स्वीकार करने की आवश्यकता होगी कि वर्तमान में स्वतंत्रता के लिए हमारे संघर्षों में एक महत्वपूर्ण अंतर है। हमें एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था की जरूरत है जो हमारे देश के सभी लोगों के अधिकारों की गारंटी दे। बर्मा विविधताओं और कई समुदायों, जातियों का देश है और जब तक हम सभी की शांति, समृद्धि और स्वायत्तता की बात नहीं करेंगे और इस विविधतता को एक कमजोरी के बजाय ताकत मान के एक नए भविष्य की रूपरेखा तैयार करने के लिए एक साथ नहीं आएंगे तब तक यह संभव नहीं।

यह न्याय, स्वायत्तता और सही मायने में जनतंत्र की प्रक्रिया केवल चुनाव से ही संभव नहीं है, इसके लिए समुदायों का राजनैतिक, आर्थिक और प्राकृतिक संसाधनों पर भी नियंत्रण होना होगा और इसमें सबकी भागीदारी जरूरी है। आखिर में एक अस्थिर और अशांत म्यांमार इस क्षेत्र में शांति और लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए चिंताजनक है और इसके लिए ज़रूरी है कि दुनिया भर के जनतांत्रिक देश और आंदोलन सविनय अवज्ञा आंदोलन का साथ दें।

मधुरेश कुमार जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्‍वय (NAPM) के राष्ट्रीय समन्वयक हैं और मैसेचूसेट्स-ऐमर्स्ट विश्वविद्यालय के प्रतिरोध अध्ययन केंद्र में फ़ेलो हैं


About मधुरेश कुमार

मधुरेश कुमार जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समनवय के राष्ट्रीय समन्वयक हैं और मैसेचूसेट्स-ऐमर्स्ट विश्वविद्यालय के प्रतिरोध अध्ययन केंद्र में फ़ेलो हैं (https://www.umass.edu/resistancestudies/node/799)

View all posts by मधुरेश कुमार →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *