दक्षिणावर्त: ये सरकार डरी हुई है या मोदी जी महान बनने के चक्कर में हैं?


एक युवा मित्र ने दिल्ली के बोर्डर पर चल रहे किसान-आंदोलन में प्रस्‍तुत नाटक का एक वीडियो दिखाया। उसमें देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के मुखौटे पहने लोगों को एक चौपाये के तौर पर दिखाया गया था। पीछे कुछ गाने चल रहे थे। यह दिखाते हुए उसने टिप्पणी की, ‘सर, लोग मोदी को तानाशाह कहते हैं, पर मुझे तो लगता है कि इस आदमी ने भारत में लोकतंत्र को जितना पुष्पित-पल्लवित किया है, उतना तो किसी ने नहीं किया।’

यह टिप्पणी सुनकर मैंने उसे आपादमस्तक एक बार फिर गौर से देखा। वह सहस्राब्दी की समाप्ति वाले दशक में पैदा हुआ है, जेन वाय या जेड का। यह ठीक है कि हमारे प्रधानसेवक युवाओं के एक वर्ग को ‘कूल या ड्यूड’ लगते हैं, दरअसल 2014 में तो उनकी झमकती-चमकती जीत के पीछे स्मार्टफोन से लैस इन युवाओं का भी योगदान कहा गया है, लेकिन 2021 में मोदी को लोकतंत्र का पहरुआ बताना कुछ अधिक नहीं हो गया?

मेरे इस सवाल पर युवक ने कहा, ‘आप खुद देख लीजिए सर। एंटी सीएए प्रोटेस्ट हो, जामिया-जेएनयू-अलीगढ़ के मामले हों, दिल्ली के दंगे हों, शाहीनबाग हो या फिर ये अब किसानों के नाम पर प्रोटेस्ट, मोदी ने तो अपनी कटुतम आलोचना के लिए बाकायदा स्पेस दिया है, सुरक्षा मुहैया करायी है और लोगों को विरोध करने का पूरा मौका दिया है।’

इसके बाद की लंबी बातचीत को यहां देने का कोई मतलब नहीं है, लेकिन मैं सोच में पड़ गया। क्या सचमुच मोदी लोकतांत्रिक भारत, जीवंत भारत की सबसे सहज और सुलभ तस्वीर हैं या फिर मामला कुछ और ही है? नरेंद्र मोदी यदि चाह लें तो सबसे अधिक आलोचना (यहां तक कि निम्नस्तरीय गालियां भी) सुनने का विश्व-रिकॉर्ड बनाने के लिए गिनीज़-बुक से भी संपर्क कर सकते हैं। या फिर, जैसा कि वह कहते भी हैं कि लोग उन पर ईंट-पत्थर फेंकते हैं और वे उनका इस्तेमाल सीढ़ियां बनाने में कर लेते हैं। ‘मौत का सौदागर’ कहना श्रीमती सोनिया गांधी को कितना भारी पड़ा था, वे ही जानती हैं। उसके अलावा बिहार चुनाव में निर्वीर्य, नपुंसक, शैतान और क्या-क्या नहीं कहा गया मोदी को। एक नेता ने तो उनका सिर काटने की ही धमकी दे दी, पर हरेक गाली के बाद मोदी और मजबूत होते गए।

या फिर, मोदी का यह तरीका वही है, जो हम लोग बचपन में नागरिक-शास्त्र की किताब में पढ़ते थे। कांग्रेस ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम में सेफ्टी-वॉल्व का काम किया- यह अक्सर ही परीक्षा में 5 या 10 नंबर का सवाल होता था, जिसके पक्ष या विपक्ष में हमें लिखना होता था। कहीं मोदी इन तथाकथित आंदोलनों को स्पेस देकर, सुरक्षा देकर प्रेशर कुकर की उसी सीटी का तो काम नहीं ले रहे, ताकि जनता बड़े औऱ असल मुद्दों को भूली रहे। आखिर, यह देश पिछले साल कोरोना की महामारी में लिपटा रहा है, अर्थव्यवस्था हलकान है, बेरोजगारी बढ़ती जा रही है और सच पूछें तो देश में फिलहाल ‘अच्छे दिन’ नहीं दिख रहे हैं।

विपक्ष के लिए यह समय मुफीद है। इतना मुफीद कि बिहार में तेजस्वी यादव ने अकेले सरकार की नाक में दम कर रखा है। हालांकि, वह अक्सरहां दिल्ली में ही रहते हैं लेकिन सोशल मीडिया के जरिए उन्होंने नीतीश कुमार की कटुतम आलोचना को कोई भी मौका नहीं छोड़ा है। फिलहाल तो वह ज़मीन पर भी नज़र आ रहे हैं। शिक्षकों के आंदोलन के बहाने उन्होंने अपनी ज़मीन को पकड़ तो रखा ही है, हाल ही में अकाली दल के नेता से मुलाकात के बाद वह अब 30 जनवरी को मानव श्रृंखला बनाएंगे और एक मुट्ठी मिट्टी उठाकर किसानों के साथ एकजुटता दिखाएंगे। यानी, अब तक जो बिहार अछूता रहा है, वह भी किसान आंदोलन की जद में आएगा।

अब यह संयोग है या प्रयोग, लेखक को नहीं पता लेकिन बिहार सरकार ने कल ही एक सर्कुलर निकाला है, जिसके तहत सोशल मीडिया पर सरकारी अधिकारियों, मंत्रियों और नेताओं की आलोचना वाले पोस्ट  स्क्रूटनी किये जाएंगे और जरूरत हुई तो कार्रवाई भी की जाएगी। इस सर्कुलर को लेकर राज्य भर में तूफान मचा हुआ है औऱ बिहारी इसे ‘अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला’ और ‘असहिष्णुता’ का नया प्रारूप बता रहे हैं। यहां याद करना मौजूं होगा कि ममता बनर्जी ने किस तरह एक कार्टून के शेयर करने पर कानूनी कार्रवाई कर दी थी। यह भी याद करना प्रासंगिक होगा कि दो बच्चियों पर पुलिसिया कार्रवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने आइटी ऐक्ट की धारा 66 (ए) को ही खत्म कर दिया था। ऐसे कई उदाहरण आपको याद आ जाएंगे कि नेताओं ने अपने खिलाफ होने वाली आलोचना को बहुत हल्के में नहीं लिया है।

लोकतंत्र या अभिव्यक्ति की सीमा क्या हो, नहीं हो, यह लंबे समय से बहस का विषय रहा है। हाल ही में नीति आयोग के सीइओ ने ‘टू मच डेमोक्रेसी’ कह कर इस आग में और हवा दे ही दी है। प्रधानसेवक के जो कट्टर समर्थक हैं, जिन्हें उनके विरोधी ‘भक्त’ भी कहते हैं यानी भाजपा-संघ के काडर वोटर, उनमें से कई इस बात के लिए निराश नज़र आते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी में गुजरात के सीएम वाली बात नज़र नहीं आती है। हालिया गेटअप-बदलाव ने भी इस धारणा को पुख्ता ही किया है। वह अब किसी कठोर जेनरल की तरह नहीं, दयालु अभिभावक की तरह नज़र आते हैं जिसकी आलोचना कोई भी कर सकता है।

सवाल यह है कि आखिर मोदी (यहां उनको संघ-भाजपा का प्रातिनिधिक चेहरा मान लिया जाए) के मन में क्या है? उन्होंने अपने इर्द-गिर्द जो एनिग्मा, जो रहस्य बांध रखा है, उससे उनके मन की थाह तो मुश्किल है, लेकिन राजनीति को देखते हुए, मोदी की यात्रा को देखते हुए मुझे मोटामोटी दो-तीन बातें समझ में आती हैं।

पहली तो यह कि मोदी के पास राजनीति को छोड़ कर कोई काम नहीं है, दोस्त नहीं है, तो वह कम से कम डरने वाले तो नहीं हैं, न ही वह सेफ्टी वॉल्व बनाने में यकीन रखते हैं। वह देश की आधारभूत संरचना, अब तक चली आ रही अवधारणों को बदलने औऱ बनाने में लगे हैं, जो एक समयसाध्य काम है और यह वे भी अच्छी तरह जानते हैं। तो, वह वक्त ले रहे हैं। वह अपने विरोधियों को थकाकर चित्त कर देने में यकीन रखते हैं। जैसा सीएए विरोधी आंदोलन में किया।

दूसरे, प्रधानसेवक जाहिर तौर पर ट्रंप नहीं बनना चाहते। उनको भारत की विविधता और अनेकता के बारे में अच्छे से पता है। इसलिए, वह अपने एजेंडे पर आगे तो बढ़ रहे हैं, लेकिन किसी भी दल, समूह या समुदाय से सीधी टक्कर नहीं चाहते। आखिर, राम जन्मभूमि औऱ अनुच्छेद 370 का एजेंडा तो पूरा हुआ ही। यूनिफॉर्म सिविल कोड की राह में पहला कदम भी ‘तीन तलाक’ को हटाकर रख ही दिया है।

तीसरी संभावना यह भी है कि वह इस देश की जनता के मिजाज को अच्छी तरह समझते हों, आखिर 40 वर्षों तक वह संघ के प्रचारक के तौर पर दर-दर की खाक छानते फिरे हैं। उनको पता है कि भारत की जनता अतिवादी नहीं है। वह ‘इंदिरा इज़ इंडिया’ की पुकार लगा सकती है, राजीव जैसे नौसिखिये और अ-राजनैतिक को 400 से अधिक सीटें दे सकती है, लेकिन पांच वर्षों में इनको हरा भी सकती है, कांग्रेस को घूरे पर भी फेंक सकती है। भारतीय जनता के लिए कोई भी अपराजेय नहीं, कोई भी अपरिहार्य नहीं।

एक दूर की कौड़ी हालांकि यह लेखक औऱ सोच सका है। शायद, मोदी सचमुच वह नहीं जो उनकी छवि है। वह शायद सचमुच यह जानते और मानते हैं कि तीनों कृषि-कानूनों से सचमुच किसानों का भला हो जाएगा, शायद वह सचमुच भारत को विश्वगुरु बनाना चाहते हों, शायद वह अपने एजेंडे को लेकर इस कदर दृढ़ हैं कि वह तमाम विरोधों के बावजूद उसे आगे बढ़ाना चाहते हैं।

नेहरू भी स्वप्नद्रष्टा थे, वह अंतरराष्ट्रीय छवि और स्तर के नेता थे, महान थे। महानता के बारे में ही यह कहा जाता है कि कुछ लोग पैदाइशी महान होते हैं, कुछ उसे अर्जित करते हैं और कुछ पर थोप दी जाती है। कहीं मोदी महानता अर्जित तो नहीं करना चाहते, हालांकि उनके चाहने वालों ने तो उन पर यह थोप ही दी है। अंतरराष्ट्रीय संबंधों में नेहरू ने ढिलाई और देने का रुख अपनाया, उनके पड़ोसियों से संबंध तो अच्छे रहे ही, भारत ने कुछ जमीन भी गंवाई। मोदी के सख्त रुख के चलते मालदीव से लेकर नेपाल तक से भारत के संबंध हालिया वर्षों में तनावपूर्ण रहे हैं, पाकिस्तान और चीन की तो बात ही क्या।

मोदीजी के शुरुआती पांच वर्षों के कार्यकाल को देखें तो वह स्टूडेट्स के विद्रोह से भरा रहा, लेकिन खरामा-खरामा देश चलता रहा है। दूसरी पारी में सीएए विरोधी आंदोलन से होते हुए कोरोना और फिर लॉकडाउन से लेकर किसान-आंदोलन तक सरकार गहरे फंसी हुई दिखती है। सरकार को पहले सुप्रीम कोर्ट ने कानूनों पर स्टे लगाने का निर्देश दिया, तो फिर सरकार खुद ही डेढ़ वर्षों तक उन पर रोक लगाने को तैयार हो गयी। यह बिल्कुल भी मोदीनुमा नहीं था।

तो क्या, सरकार डरी हुई है या मोदीजी भी महान बनने के चक्कर में हैं?



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