दक्षिणावर्त: क़त्ल पर जिन को एतराज़ न था, दफ़्न होने को क्यूं नहीं तैयार…


प्रलय कैसी होती होगी? अपोकैलिप्स कैसा होगा? संसार की तबाही का मंज़र जो हमारी कल्पनाओं में, हॉलीवुड की फिल्मों में होता है, क्या आज की दुनिया से वह बहुत अलग है? यह सवाल बक्सर, चौसा या उन्नाव में नदियों की धारा में बहती-उपराती लाशों को देखकर कौंधा या नदी के पास की रेतीली जमीन में दफना दी गयीं लाशों को देखकर, यह दिमाग ठीक-ठीक हिसाब नहीं लगा पाता है।

आरोप-प्रत्यारोप, भक्त-चापलूस, मोदीजी-सोनियाजी, भाजपा-कांग्रेस-सपा-तृणमूल आदि के शोर के बीच मुद्दे की बात गायब हो गयी है। वह बात मुद्दा बन गयी है जो कतई बेमज़ा है, बेबुनियाद है और बेमतलब है। हम सांस्थानिक असफलता (सिस्टमिक फेल्यर) की बात तो कर रहे हैं, लेकिन ‘सामाजिक असफलता’ की बात हम कब करेंगे? हम क्यों नहीं कर रहे हैं?

पिछले साल कोरोना से हमारा परिचय हुआ था। 22 मार्च को देशव्यापी लॉकडाउन हुआ था, 24 मार्च को पलायन की भयावह तस्वीरें आयी थीं, उसके बाद सैकड़ों किलोमीटर पैदल या साइकिल से चलने की लोमहर्षी दास्तानें भी नुमायां हुईं, कुछ फिल्में भी बनीं। कांक्रीट के जंगलों से निकलकर जो लोग हजारों किलोमीटर दूर अपने गांव-घर जाने का दुस्साहस कर रहे थे, उनके लिए प्राप्य क्या था, काम्य क्या था और क्या थी वह प्रेरणा?

बाकी कारकों की व्याख्या भले विद्वान कर लें, लेकिन शायद हमारे ‘सामाजिक जीवन’ की थाती और मूल्य ही थे, जो शहरों से चल चुके पांवों को गति दे रहे थे। प्रवासियों को भरोसा था कि गांव ‘उन्हें भूखा नहीं रहने देगा’, गांव उन्हें अकेला नहीं छोड़ेगा, गांव उन्हें ‘बचा लेगा’।

इंडिया और भारत अगर दो छोर थे, तो शहर और गांव भी। गांव पुरातन भारतीय मूल्यों का, सामाजिक-सामासिक संस्कृति का, नॉस्टैल्जिया का और तमाम अच्छी चीजों का प्रतीक था। इस भरोसे और मूल्य को महानगरों ने, शहरों ने तोड़ दिया था, जब कई वर्षों और पीढ़ियों तक अपनी हड्डियां गला कर शहरों को बनाने वाले इस वर्ग को ऐन महामारी के बीच शहर ने मझधार में छोड़ दिया था; जब लाउडस्पीकर से बरसती आवाजों ने उन्हें उनके हाल पर छोड़ देने का ऐलान किया; और उनका मुस्तकबिल अंधेरे में आ गया था। भरोसे की बस एक रेख बाकी थी, एक लकीर दिख रही थी। उनके बिवाई फटे पैरों ने, हवाई चप्पल या बिना उसके भी, उसी भरोसे के सहारे अपनी मंजिल तामील करनी चाही थी।

यह बचा हुआ भरोसा गांवों ने तोड़ दिया, जब गांव के सीवान पर बांस-बल्लियां लगाकर प्रवासियों का रास्ता रोका गया। इस लेखक की स्मृति में यह पहली बार हुआ था, जब गांव की सीमा पर किसी गांववाले को रोका गया। मूल्य औऱ भरोसे की यह दीवार पिछले साल जो दरकनी शुरू हुई, तो इस बार गंगा और रेत में दर्जनों लाशों को बहाकर और उतराकर गांव ने उस दीवार का ‘समतलीकरण’ कर दिया है।

पिछली बार गांवों ने जिंदगी देने से इंकार किया था। इस बार जिंदगी खत्म होने के बाद अंतिम संस्कार का अधिकार भी छीन लिया। पिछली बार गांवों में भूखा नहीं रहने का भ्रम मिटा था, तो इस बार जौनपुर में अपनी बीवी की लाश साइकिल के बीच में फंसाये बुजुर्ग की छवि ने वह गलतफहमी भी दूर कर दी कि शहर में न सही, गांव में तो चार कांधे लाश के लिए नसीब हो ही जाएंगे।

जौनपुर के उस व्‍यक्ति को कांधा नहीं मिला। जिन्‍हें ढोने को कांधे मिले, उन्‍हें श्‍मशान नहीं मिला। जिन्‍हें श्‍मशान मिला, उनके पास नौ मन लकड़ी के पैसे नहीं थे। जिन्‍हें मरने के बाद सब कुछ नसीब हुआ, उनकी जलती चिताओं की बहुप्रचारित तस्‍वीरों ने ऐसा खौफ़नाक मंज़र खड़ा किया कि बाकी ने श्‍मशान का रास्‍ता लेने के बजाय सीधे नदी का रुख़ कर लिया। नदी में बहते शव मछलियों और घाट लगे शव कुत्‍तों का ग्रास बनते रहे। यह समाज परत दर परत जब उघड़ गया, तो अब ऊपर से पैबंद लगाने के प्रोटोकॉल जारी हो रहे हैं।

NHRC-Advisory-for-Upholding-Dignity-Protecting-the-Rights-of-Dead

सरकार को और वह भी मात्र केंद्र सरकार मात्र को प्रचुर और प्रभूत मात्रा में गालियां मिल रही हैं, इसलिए मेरा उसी में कुछ जोड़ना मात्र बकना ही हो जाएगा, कहना नहीं। ऑक्सीजन की कमी से लेकर श्मशान घाट से लाइव, कैमरा और एक्शन के जरिये प्रधानमंत्री को कठघरे में खड़ा किया गया है। यह एक लोकतंत्र की ठीक निशानी भी है। इस बार चूंकि केंद्र सरकार पिछले साल के लॉकडाउन से जली हुई थी, तो उसने गेंद राज्य सरकारों के पाले में डाल दी। हो गया चमत्कार। पिछले साल जो लोग लॉकडाउन के घनघोर विरोधी थे, इस बार मोदी सरकार की सख्त आलोचना इसलिए करने लगे कि अब तक संपूर्ण लॉकडाउन या तालाबंदी क्यों नहीं हुई। इस पर अधिक विस्तार में जाना विषयांतर हो जाएगा।

दरक चुके अपने समाज की आलोचना हम कब करेंगे? अपने सामाजिक-सांस्‍कृतिक दायित्व का बोध हमारे भीतर कब होगा और हम संविधान में वर्णित अधिकारों को रटने के साथ सामाजिक ‘कर्त्तव्यों’ को भी कब जानेंगे? इन सवालों को समझने के लिए एक ह्वाट्सएप ग्रुप में हुई बातचीत का संदर्भ मदद कर सकता है। इस समूह में ठीक-ठाक पढ़े लिखे, पत्रकार और समाज के कुलीन लोग शामिल हैं।

कल इस ग्रुप में प्रधानमंत्री को इसलिए धन्यवाद दिया जा रहा था कि उन्होंने किसान-निधि के 2000 रुपए दे दिये। जो धन्यवाद दे रहे थे, उनका खेती-किसानी से सिर्फ इतना वास्ता है कि वे नॉस्टैल्जिया के मारे घर चले जाते हैं। दूसरे सज्जन इसका गणित समझा रहे थे कि टॉयलेट से लेकर घर बनवाने तक के पैसे सरकार से कैसे लिए जा सकते हैं औऱ किसको रिश्‍वत देना उचित होता है। ये लोग एक नौजवान को इन बातों की प्रेरणा दे रहे थे, जो पहले से ही ‘धन’ मात्र की महत्ता से परिचित है और अपना ध्येय वाक्य ‘अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता’ बताता है।

यह उदाहरण देने का एकमात्र कारण यह है कि जब हमारे समाज के आलिम-फाजिल लोग, मैं-आप, हम सभी सिर्फ और सिर्फ ‘स्व’ के चिंतन में व्यस्त हैं, तो ‘पर’ की चिंता भला कोई क्यों और कैसे करेगा? ‘सरकार’ या ‘सिस्टम’ कोई आसमानी संस्था नहीं है। वह इस देश के, हमारे-आपके जैसे नागरिकों से ही तो बनी है। बहुत घिसी हुई कहावत भी लें, तो यह कहना ही होगा कि हम जैसे हैं, हमारे नेता भी वैसे ही हैं। इसीलिए सरकार की चौतरफा आलोचना हो, कटुतम आलोचना हो, किंतु केवल केंद्र, बल्कि एक व्यक्ति मात्र- नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी- को तमाम गलतियों का जिम्मेदार बताकर आप आखिर किसको बचा ले जाना चाह रहे हैं? या अनचाहे ही बचा रहे हैं?

खुद को? अपने जैसे लोगों को? क्षय की दहलीज पर खड़े इस समाज को? उस अमूर्त जनता को, जो अपने ही जैसे हाड़-मांस के मनुष्‍यों का मरने के बाद अनादर करने को लाचार हो चुकी है? या उस अमूर्त जनता को, जो कालाबाज़ारी और मुनाफाखोरी के चक्‍कर में खुद इन मौतों के लिए जिम्‍मेदार है? या आप उस कफ़नखसोट जनता को बचा रहे हैं जो किसी शव के क्रियाकर्म से भी मुनाफा बनाने में जुटी है?    

यह इंटरनेट का युग है। सारी चीजें एक क्लिक की दूरी पर हैं। पंजाब में दवाएं नहर में डाली गयीं, राजस्थान में ऑक्सीजन के सिलिंडर को बर्बाद किया गया, बिहार में पीएम-केयर्स के वेंटिलेटर घूर पर चले गए, दिल्ली में ऑक्सीजन के उल्टे-सीधे आंकड़े दिए गए, पीएम की बैठक में केजरीवाल उल्टे-सीधे मुंह बनाते रहे, महाराष्ट्र में सरकार घोटाले में व्यस्त रही। ये सारे पाप, सारे अपराध क्या केवल एक व्‍यक्ति के खाते में डाल कर यह देश मुक्त हो जाएगा?

राजनीति को एकबारगी किनारे रख दें। हमारे समाज ने कब यह विकृति अपना ली कि हम लाशों को अंतिम संस्कार तक न दें? हम कब इतने पतित हो गये कि पंजाब में एक मां गाड़ी में बैठी रही और उसके बेटे ने घर का दरवाजा तक नहीं खोला? हम कब इतने गर्हित हो गये कि आज किसी में इतना नैतिक बल नहीं बचा कि वह गलत करते नेताओं-अधिकारियों की नरेटी पकड़कर उनको सही-गलत का बोध न करा सके?

क्योंकि हम सभी गलत हैं, हम सभी भ्रष्टाचारी हैं, हम सभी मौके की ताक में हैं? ऐसा भी नहीं है, क्‍योंकि ‘हम’ कोई एक इकाई नहीं है। फिर भी, मानवीय आपदा के बीच थोक मात्रा में हो रही ऐसी घटनाएं सामाजिक-सांस्‍कृतिक जीवन मूल्‍यों के छीजने का अहसास कराती हैं और बेशक उनमें ‘हमारी’ भी हिस्‍सेदारी है।  

गंगा के किनारे बसे 100 से अधिक गांवों में लगभग दो हजार लाशें मिलने की ख़बर में भले ही कुछ अतिरंजना हो, भले ही इनमें से कुछ तस्वीरें फेक हैं (2014 की), भले ही कुछ लाशें सर्पदंश से, अस्वाभाविक मौत से हुई वजह से बहा दी गयी हों, लेकिन यह तो सच है ही कि बहुतेरी लाशों को अंतिम संस्कार नसीब नहीं हुआ। सरकारें सोयी हैं, सोयी रहेंगी क्योंकि उनको जगाने वाले हम लोग सो गए हैं। सरकारों को जगाने के लिए चिल्‍लाने से पहले अपने नितांत निजी कोने में हम चीखें तो शायद अपने भीतर सोया पड़ा इंसान जाग जाय। समाज जाग जाय।

सरकारों को तो समाज ही चुनता है। समाज सदियों से है, सरकारें पंचवर्षीय हैं। क्‍या ऐसा नहीं लगता कि हमारी सारी लड़ाई अब तक गलत दिशा में थी? हम अपने लिए जितना लड़े, हमारी चुनी सरकारें उतना ही हमारे खिलाफ होती गयीं? एक फिल्म में अपोकैलिप्स के बाद नायक बचे-खुचे लोगों को संबोधित करते हुए कहता हैः

हम लड़े यह महत्वपूर्ण नहीं है, हम अपने मूल्यों के लिए लड़े, हम मानवता को बचाने के लिए लड़े, यह अधिक महत्वपूर्ण है।

हम और आप किस लिए लड़ रहे हैं, यह भी देख लिया जाना चाहिए।


(कवर तस्वीर साभार Reuter, शीर्षक कैफ़ी आज़मी की एक नज़्म से)


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