बात बोलेगी: परेशानियों को पहचानने की सलाहियत से महरूम सरकार पर मुस्कुराता बुद्ध का चाँद


आज बुद्ध पूर्णिमा का चाँद है। वैसे तो चाँद का स्थायी स्वभाव शीतल है, बुद्ध की तरह, लेकिन आज उसका मुंह लाल होगा। रक्ताभ लाल। आज वह एक भारी ग्रहण से गुज़र रहा है। आज वह उदास है, बुद्ध की तरह दुख से प्रेरित है। कष्ट सहते हुए भी उसमें करुणा का संचारी भाव है। बुद्ध और चाँद के बीच के इस खगोलीय इत्‍तेफ़ाक़ से इतर एक समानता भी है- बुद्ध जीवन को स्थायी शै मानने के विरुद्ध खड़े दिखायी देते हैं, तो चाँद भी कष्टों और दुखों के बने रहने की धारणा के खिलाफ खड़ा दिखलायी देता है। इनके बरअक्‍स हम, सब कुछ देखकर भी स्थायीपन के खूँटे से खुद को बंधा पाते हैं। बुद्ध ने कहा था हम एक नदी में दो बार स्नान नहीं कर सकते; कि दिये की लौ केवल एक निरंतर लौ नहीं होती, वह बदलती रहती है। इसके उलट हमने न बदलने की हरचंद कोशिशें की हैं। हर पल बदलती इस दुनिया में हम अपने स्थायी हो जाने को लेकर चिंतित हैं। अपने घरों में कैद हम खुद को बदलने, ढलने और गुज़र जाने से बचाने के लिए अपनी जान हलकान किये बैठे हैं। बुद्ध की कही बात को हम झुठला रहे हैं।

सारे परिवर्तन बाहर हो रहे हैं। भीतर केवल इतना परिवर्तन हो रहा है हम हर दिन खुद को बचा पाने की खुशी में सराबोर हो रहे हैं। अब तो हालांकि यह बच जाने या खुद को बचा ले जाने का भाव भी इतना एकरस हो चला है कि कभी-कभी लगता है बाहर निकल कर सड़कों पर यूं ही बेतहाशा दौड़ लगा दें। यूं ही चीखें। किसी को दूर से बुलाएं और उसके नाम को इतनी देर तक पुकारें कि उसका नाम केवल उसे ही नहीं आपके पास के कई और लोगों को सुनायी दे और फिर यह एक खेल में तब्दील हो जाये। सब एक दूसरे को इसी तरह देर तक पुकारते रहें। जिसे किसी का नाम नहीं पता वो उसके कपड़ों के रंगों के नाम से पुकारे। अगर यह खेल शोर में भी बदल जाये तो कोई बुराई नहीं। चुप्पियां शोर से ज़्यादा खतरनाक होती हैं। हम इस तरह एक दूसरे का नाम पुकार कर अपने बीच घर कर चुकी चुप्पियों से लड़ें। कोई हर्ज़ नहीं कि चुप्पियां हम पर हँस ही लें।

बात बोलेगी: जीने के तमाम सुभीते मरने की आस में मर गए…

परिवर्तन संसार का सबसे स्थायी नियम है- टिका हुआ है अब तक और आगे भी पता नहीं कब तक यूं ही टिका रहेगा। इस परिवर्तन की गति पर हमारा कुछ वश है, लेकिन उसका इस्तेमाल करना हम भूल गये हैं। हम परिवर्तन की निरंतरता में तो यकीन करते हैं लेकिन शर्त ये रख देते हैं कि वो बेहतरी की तरफ हो- अपनी और केवल अपनी बेहतरी। वरना परिवर्तन की निरंतरता में यकीन होते हुए भी हम उससे भयभीत रहते हैं। जो इससे भयभीत नहीं हैं और इसे अपने पक्ष में मोड़ना चाहते हैं वे आज अपने परिवर्तन की उत्कट आकांक्षा और मुहिम के छह महीने पूरे करने का जश्न मना रहे हैं। जिन्‍हें परिवर्तन के इस अभियान से डर लग रहा है, वे सात साल पहले हुए परिवर्तन की बरसी भी नहीं मना पा रहे। वे जानते हैं कि सात साल पहले हुआ परिवर्तन ईमानदार नहीं था, आज भी ईमानदार नहीं है। वे दरअसल अपनी नाकाबिलियत का जश्न मनाने से खुद को रोक रहे हैं। यह पहली दफा हो रहा है, जब बेशर्मी को शर्म का भय लगा है।

आज चाँद, बुद्ध, दुख, परिवर्तन और हम, इस ब्रह्मांड में एक-दूसरे का पीछा कर रहे हैं। दुख की धुरी घूमती है तो चाँद उसके पीछे हो लेता है, उसके पीछे बुद्ध मुस्कुराते हुए चल पड़ते हैं। चाँद अपने ऊपर लगे ग्रहण की तकलीफ़ों से वाबस्ता बुद्ध के चेहरे पर फैली करुणा की स्मिति से खुद को उस तकलीफ से गुजारने की हिम्मत ले लेता है। सर्वत्र परिवर्तन की इस खगोलीय, ऐतिहासिक और राजनैतिक आभा में देश के किसान खुद को ज़्यादा निखरा हुआ पा रहे हैं। और सरकार? वह न दुख से दुखी है, न चाँद के दुख में शामिल है और न ही बुद्ध की करुणा से उसने कुछ सीखा है। वह किसानों से भयभीत है। वह अपनी भौतिक उपस्थिति से दुखी है। अपने चेहरे पर उभर आ रहे दागों को लेकर परेशान है। चेहरे की लीपापोती में बुद्ध, चाँद, दुख, परिवर्तन और किसान जबर्दस्त खलल डाल रहे हैं। उसके चेहरे पर मेकअप करते समय मक्खियां भिनभिना कर परेशान कर रही हैं। वह मक्खियों से परेशान है। किसानों से भी परेशान है, जीते जी जिनकी कीमत एक वोट मात्र थी उनके मरने की ज़्यादा कीमत देखकर परेशान है। मौतें बखेड़ा खड़ा कर रही हैं। ध्यान भटकाने की तमाम कोशिशें उलटा असर पैदा कर रही हैं। मानो एक दलदल से बाहर निकलने की कोशिश में सरकार और भी गहरे धंसती जा रही हो।

बात बोलेगी: भंवर में फंसी नाव के सवार

सरकार दलदल में फंसी है लेकिन इसे वह अपना दुख नहीं मान रही, बल्कि दूसरों की साजिश मान रही है। बुद्ध ने कहा था पहले यह बात स्वीकार करो कि दुख है, तब उसके निदान पर सोचो। सरकार यह मान ही नहीं रही कि यहां दुख है। वह खुद को भी दुख से ऊपर मानने से कतरा रही है। चाँद ऐसा मानता है, इसीलिए बुद्ध के चेहरे से करुणा का संबल लेता है। सरकार बुद्ध से कुछ नहीं ले सकती। उल्टा बुद्ध को ही अपने दफ्तर में एक नये अवतार की पोस्ट का प्रस्ताव देती है। बुद्ध इस सरकार की नींव के पत्थरों को खिसका देने का माद्दा रखते हैं। सरकार को यह बात पता है, इसलिए वह बुद्ध को को-ऑप्ट करने के जतन करती है। बुद्ध हाथ नहीं आते। खिसक जाते हैं।

बुद्ध हिंदुस्तान के सबसे प्राचीन एम्बेस्डर हैं। जब हिंदुस्‍तान नामक देश इस धरती पर नहीं था तब से बुद्ध इस धराधाम के राजदूत हैं पूरी दुनिया में। यह सरकार और इसके पहले की सरकारों ने बुद्ध को वह हैसियत नहीं दी जो बुद्ध ने धरती के इस टुकड़े को महज़ एक कारुणिक स्मिति से पूरी दुनिया में दिलवायी। आज किसान पूरी दुनिया में भारत के राजदूत बन गये हैं। दुनिया सरकार की कम, किसानों की बातें ज़्यादा सुन रही हैं। सरकार इस बात से हलकान है। वह अपनी भड़ास उन माध्यमों पर निकाल रही है जिनके मार्फत आज के बुद्ध अपनी बात दुनिया तक पहुँचा रहे हैं। बुद्ध अगर आज हुए होते तो उन्हें दीक्षाभूमि में ही महदूद किये जाने की कोशिशें की जा रही होतीं। ठीक वैसे ही जैसे किसानों को सिंघू, गाजीपुर, टिकरी में घेर देने की कोशिशें की जा चुकी हैं।

बुद्ध और किसान कोई भौतिक शै नहीं हैं बल्कि एक संदेश हैं। बहुत बड़े संदेश। ये मनुष्यता के इतने बड़े संदेश हैं जिन्हें माध्यमों पर लगाम लगाकर रोकने की कोशिशों का हासिल संदेशों के और ज्‍यादा व्यापक प्रसार के अलावा कुछ और नहीं होगा। सरकार इसी हासिल से परेशान है। सरकार सब होती है, लेकिन परेशान नहीं होती। पहली बार देश की सरकार परेशान है, इसलिए उसे नहीं पता कि किस बात पर परेशान होना चाहिए। अपनी नाकाबिलियत और असहनीय घमंड के चलते सरकार ने देशवासियों को जिस भंवर में फंसा दिया है, वक़्त का तक़ाज़ा है कि सरकार को इस वक़्त उसे लेकर परेशान होना चाहिए। सरकार ने आने वाले कई साल के लिए देश को आर्थिक बदहाली में धकेल दिया है, उससे उसे परेशान होना चाहिए। सरकार को अपने नागरिकों से किये झूठे वादे पूरे न करने से उपजे हालात से परेशान होना चाहिए, लेकिन सरकार परेशान हो रही है कि ट्विटर ने उसके एक झूठ को पकड़ा क्यों?

सरकार परेशान है कि लक्षद्वीप में इतनी शांति क्यों है? सरकार परेशान है कि बंगाल में कुछ नहीं कर पाये तो इसके टुकड़े कैसे किसे जायें? वह इस बात से परेशान है कि आज सात साल बाद भी देश में कुछ ऐसी जगहें क्यों बची हुई हैं जहां लोग कम परेशान हैं। बताइए, सेंट्रल विस्टा की फोटो ज़ाहिर होने से परेशान है सरकार। वह इस बात से परेशान नहीं है कि इतने पैसों से वह देश के नागरिकों के लिए वैक्सीन खरीद सकती थी। वह इस बात से भी परेशान नहीं है कि अपने सारे रिज़र्व निकाल-निकाल कर खर्च कर चुकी है और आने वाले समय में उसके पास कुछ नहीं होगा, बल्कि वह परेशान है कि पीएम केयर्स से दिखावे के लिए ही सही काफी कुछ खर्च करना पड़ गया।

यह सरकार भविष्य को लेकर परेशान है। वर्तमान तो उसके हाथ में है। सरकार 2022 में उत्तर प्रदेश चुनाव को लेकर परेशान है, इसलिए सरकार किसानों को लेकर परेशान है। वह तो तीन लाख से ज़्यादा लोगों की मौतों से भी परेशान नहीं है, बल्कि इस बात से खुश ही है कि मौतें तो तीस गुना ज़्यादा हुई हैं लेकिन जनता को केवल इतना ही पता है। वह परेशान है मौतों के बाद मुर्दों के साथ किये गये व्यवहार से। वह मुर्दों को शिनाख्त के लिए ओढ़ायी गयी पीली-नारंगी चादरों को बरामद करके मौतों के निशान मिटाकर संतुष्ट है, फिर भी परेशान है कि कहीं कोई देख न ले।

असल बात तो ये है कि इस सरकार के पास परेशान होने का कोई एक मुकम्मल रोडमैप नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि इसको परेशान होने का अभ्यास नहीं है। इंसान हो या सरकार, उसे ज़िंदगी में परेशानियों से परेशान होने की सलाहि‍यतें भी हासिल करना चाहिए। उसे दूसरे के जूते में अपने पाँव रखना आना चाहिए। घरों में कैद हमें भी यही सीखना चाहिए। परेशानियों में परेशान होना सीखने से पहले हमें क्या सीखना चाहिए, यही बुद्ध ने हमें बताया था। बुद्ध ने सरकार को कुछ नहीं बताया क्‍योंकि सरकार ने बुद्ध से कुछ नहीं पूछा। इसीलिए अपनी बनायी परेशानियों को पहचानने की कला से महरूम यह सरकार अब अपने ही बुने जाल में उलझती चली जाएगी। उसे न बुद्ध का संबल मिलेगा, न चाँद का।

उधर चाँद आज अपने ग्रहण से मुस्‍कुराता हुआ बाहर निकलेगा। उसमें बुद्ध का अक्स होगा। दिल्‍ली की सीमाओं पर किसान यूं ही जोश से डटे रहेंगे। इन तीनों की व्याप्ति पूरी दुनिया में अपनी आभा बिखेरेगी।



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