बात बोलेगी: भारतेन्दु की बकरी से बाबरी की मौत तक गहराता न्याय-प्रक्रिया का अंधेरा


आज की बात एक मशहूर कहानी से शुरू करते हैं। ये कहानी है एक ऐसे राज्य की जहां कोई मोटा नहीं होता है। इसके पीछे कई वजहें हैं, लेकिन जो सबसे बड़ी वजह है वो है उस राज्य के राजा का बेइंतिहाई सनकमिज़ाज होना। उस राज्य में सब चीज़ें एक भाव मिलती हैं। अपने यहां जैसा नहीं है कि अलग-अलग वस्तुओं पर अलग-अलग जीएसटी लगता हो। वहां सभी वस्तुओं की कीमत एक थी। और तो और, सभी व्यक्तियों की भी। यानी उस राज्य के सभी नागरिकों की जान की कीमत भी एक जैसी थी। इस लिहाज़ से वह राज्य अपने यहां से भिन्न था।

अपने यहां जैसा नहीं था कि दलित की बेटी की जान और अपमान की कीमत एक क्षत्रि‍य लड़की के अपमान और माल असबाब से कम हो। वहां राज्य द्वारा सभी के साथ बराबर का व्यवहार होता था। ऐसा नहीं कि एक क्षत्रि‍य बलात्कारी को बचाया जाए और एक मुसलमान डॉक्टर को इसलिए प्रताड़ित किया जाए क्योंकि उसने कई बच्चों की जान बचायी। इस मामले में वह राज्य थोड़ा साम्यवादी किस्म का था।

तो जिन आदरणीय भारतेन्दु हरिश्चंद्र जी ने हमें यह कहानी सुनायी थी करीब 200 साल पहले और जिसे कल अपने बच्चे को मैं पढ़ा रहा था, उसे पढ़ाते वक्‍त तब लगा कि हरिश्चंद्र जी को आज यहां होना चाहिए था। अगर वे आज होते, तो उस राज्य को ‘अंधेर नगरी’ न कहते। राजा के बारे में शायद उन्‍हें अपना ख्याल बदलने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती। अगर वह आज होते, तो इस राजा को मिली शक्तियों के उन स्रोतों के बारे में भी हमें बताते जो उस अंधेर नगरी के राजा के पास नहीं थे, जिसके चलते अंत आते-आते खुद को वह सनकी कम और मूर्ख ज़्यादा साबित कर देता है और खुद फांसी के फंदे पर झूल जाता है।

यह कहानी असल में न्याय प्रक्रिया के बारे में है। कहानी में एक नागरिक की बकरी मर जाती है। वो फरियाद लेकर आता है। उसका कहना है कि उसी नगर के एक कल्लू बनिया ने दीवार खड़ी की। इसकी बकरी उस दीवार के पास थी। दीवार गिर गयी और बकरी उस दीवार के नीचे दब कर मर गयी। इस लिहाज से बकरी की मौत के लिए कल्लू बनिया जिम्मेदार है। त्वरित न्याय के लिए आतुर राजा कल्लू बनिया को बुलाता है। कालू बनिया कहता है कि दीवार ज़रूर उसने बनवायी थी पर बनायी तो कारीगर ने है। बात सही है। अब दोष कारीगर पर आता है। कारीगर अपनी सफाई में कहता है कि चूना गीला हो गया था, इसलिए चूने में ज़्यादा पानी मिलाने वाला जिम्मेदार है। अब उसको बुलाया जाता है। वो कहता है कि इसमें मेरी गलती नहीं क्योंकि भिश्ती ने मशक बड़ी बना दी। उसमें पानी ज़्यादा आ गया और ज़्यादा पानी चूने में मिल गया। इससे दीवार कमजोर बनी। अब बारी भिश्ती की आती है। भिश्ती कहता है कि गलती उसकी नहीं है, बल्कि उसे कसाई ने बड़ी भेड़ दे दी थी। बड़ी भेड़ से मशक भी बड़ी बन गयी। अब फँसता है कसाई। कसाई भी बहाने के साथ दरबार में हाजिर होता है। वह अपनी सफाई में कहता है कि जब वह भिश्ती को भेड़ बेच रहा था, तभी नगर के कोतवाल साहेब धूमधाम से अपनी सवारी निकाल रहे थे। उनकी सवारी देखने के चक्‍कर में बड़ी-छोटी भेड़ का फर्क न कर सका।

अब जाकर कानून के हाथ असल गुनहगार तक पहुँचते हैं। कोतवाल दरबार में हाजिर होता है। उसे फांसी की सज़ा सुना दी जाती है। वह अपनी सफाई में कहता है कि वह तो राज्‍य की व्यवस्था देखने निकला था। इतना सुनते ही उस राजा के तमाम बौद्धिक दरबारी सांसत में आ जाते हैं कि कहीं राजा पूरे नगर को ही आग-पलीता लगाने का फरमान न दे दे। वे किसी तरह कोतवाल तक इस न्याय प्रक्रिया को रोक देना चाहते हैं। खैर, नगर के कोतवाल साहेब को बकरी की मौत का दोषी करार दिया जाता है, लेकिन फांसी का फंदा उनकी गर्दन के आकार से बड़ा बन जाता है।

जब न्याय किया जा चुका है और यह साबित हो चुका है कि जुर्म हुआ है और फांसी से कम में मामला निपट नहीं सकता, तब यह ताया पाया जाता है कि इस फंदे के हिसाब से किसी उपयुक्‍त इंसान को ढूंढा जाए और उसे फांसी दे दी जाए। आखिर न्याय को अंजाम तक तो पहुँचना ही है।

इस न्याय प्रक्रिया में जो प्रविधि अपनायी गयी, वो परिस्थितिजन्य दोषियों और उनके बीच के आपसी जुड़ाव को तरजीह देती है। इसे अँग्रेजी में ‘गिल्ट बाइ एसोसिएशन’ कहते हैं। यानी किसी संदिग्ध व्यक्ति से जुड़ाव के कारण आपको दोषी करार दिया जा सकता है। आप तलाशते रहिए कि बड़ी भेड़ बेच देने और कमजोर दीवार की वजह से बकरी के मरने के बीच क्या ताल्लुक है, लेकिन न्याय व्यवस्था कभी भी इतनी सरल नहीं रही।

देखा जाए तो यही ‘गिल्ट बाइ एसोसिएशन’ जैसे आज के दौर की एक मुख्य बात हो गयी है। दिल्ली में हुई हिंसा हो या भीमा कोरेगांव की हिंसा, दोनों में न्याय प्रक्रिया उसी प्रविधि का इस्तेमाल कर रही है जो उस राज्य में प्रचलित थी, जिसकी कहानी हमें भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने सुनायी थी।

हमारे यहां तो बीमारी भी इसी प्रविधि से संचालित हो रही है। अगर किसी के घर में कोरोना आ गया तो तमाम लोग जो उस घर में रहते हैं, ज़बरदस्त ढंग से संदेह में ले लिए जा रहे हैं। लोग बीमार का हाल बाद में पूछ रहे हैं, पहले यह जान लेना चाहते हैं कि जो लोग बीमार के साथ हैं उन्होंने अपना टेस्ट करा लिया है या नहीं। अगर जवाब तसल्लीबख्श है, तो वो जो पूछ रहा है थोड़ी देर के लिए इस बात से निश्चिंत हो सकता है कि चलो फिलहाल मुझे कुछ नहीं होगा क्योंकि हाल ही में इससे मिले थे।

कई वर्षों से हम देख रहे हैं कि हर साल किसी को समर्पित कर देने का चलन रहा है। अगर अभी तक यह साल यानी 2020 किसी को समर्पित न किया गया हो तो इसे ‘गिल्ट बाइ एसोसिएशन’ के नाम कर देना चाहिए। बहरहाल…

ताज़ा मौजू यह है कि बाबरी मस्जिद को साज़िशन गिराये जाने की सुप्रीम कोर्ट की स्वीरोक्ति के बावजूद एक निचली अदालत ने किसी तरह का कोई एसोसिएशन इस मामले में नहीं देखा। अब यहां आकर अपने देश की व्यवस्था मज़ेदार हो जाती है। जिस घटना से खुद को जोड़कर और खुद के द्वारा किया गया बता-बता कर एक राजनैतिक दल और उसके शीर्ष नेता लोगों से वोट लेते रहे; 1992 का किया भुनाते रहे; वे न केवल अदालत में मुकर गये बल्कि अदालत ने भी उनके मुकरने को स्वीकार किया और उन्हें बेदाग बरी कर दिया।

इसका आशय यह है कि यहां का समाज चूंकि विविधतावादी है, इसलिए कानून के तौर-तरीकों में यहां विचलन भी देखने को मिल सकता है जबकि उस राज्य में राजनैतिक जीवन, व्यक्तिगत जीवन, सार्वजनिक जीवन और कानून के सामने खड़े व्यक्ति के चरित्र में कोई फर्क नहीं होता था और गिल्ट बाइ एसोसिएशन का पालन भी हो जाता था।

उस कहानी में अंतत: न्याय की प्रक्रिया की पूर्ति के लिए राजा को ही फांसी दे दी जाती है और यह राजाज्ञा से ही होता है। राजा ही खुद को फांसी पर लटकाने का हुकुम देता है। उसके पीछे एक गुरु का शातिर दिमाग होता है। इस कहानी के नाटक रूप को भारतीय रंगमंच में सबसे ज़्यादा बार खेला गया। निर्देशकों ने इसके अंत के साथ खूब प्रयोग भी किए। एक प्रयोग बहुत सामयिक बन पड़ा जिसमें राजा को फांसी देने के बाद एक उसी गुरु को राजा चुन लिया जाता है जिसने राजा को फांसी पर लटकाने का खेल रचा था।

कहते हैं उसके बाद से अंधेर नगरी में अंधेरा और बढ़ गया। ठीक है कि एक महंत अब राजा बन गया था, लेकिन प्रजा के साथ भेदभाव भी तेज़ी से बढ़ गया। वस्तुओं की कीमतें भी बेतहाशा बढ़ गयीं। लोगों के पास काम न रहा। राज्य की संपत्ति एक-एक करके बेची जाने लगी। दरबारियों में उन सेठों को शामिल कर लिया गया जिनका एकमात्र उद्देश्य जनता को लूटना और अपनी तिजोरियां भरना था। राज्य ने तमाम तरह के टैक्स लगा दिये। राज्य की तमाम सम्पत्तियों को औने-पौने दामों में इन्हीं दरबारी सेठों को दिया जाने लगा। लोगों ने बोलना चाहा पर जिसने पहले बोला था उन पर रासुका, यूएपीए और राजद्रोह जैसे कानून थोप दिये गये। बिना चार्जशीट के ही लोग जेलों में सड़ने लगे। उन्हें सड़ता देख कई ने बोलने का ख्याल ही छोड़ दिया। वे इंतज़ार करने लगे कि अभी भी हो सकता है अच्छे दिन आ जाएं। हो सकता है पहले तमाम बोलने वालों को शांत करा दिया जाए, फिर जो बचें उन्हें अच्छे दिन दिये जाएं।

लोग पहले केवल इस डर से दुखी रहते थे कि राजा सनकी है तो पता नहीं कब कौन सा फरमान दे डाले, लेकिन हाल ही में एक खबर आयी कि 2016 के बाद से वहां भी अपने देश की तरह नोटबंदी, जीएसटी, देशबंदी आदि की गयी जो सनकी फरमान ही थे। बहरहाल, लोग अब वाकई दुखी हैं वहां। वो बोलना चाहते हैं, सड़कों पर निकलना चाहते हैं, बदलना चाहते हैं निज़ाम, लेकिन सुनते हैं वहां आजकल महामारी कानून और आपदा प्रबंधन का कानून लगाया हुआ है जिसके तहत लोग घरों से बाहर नहीं निकल सकते। अत्याचार बेतहाशा बढ़ गये हैं। जो सेठ दिवालिया हो चुके हैं उन्हें ही देश की रक्षा के लिए ज़रूरी विमान बनाने का ठेका दे दिया गया है। लोग सब देख रहे हैं, लेकिन कई लोग इसलिए भी कुछ नहीं बोल रहे हैं कि ऐसा करने से महंत, मठ और अंतत: धर्म पर तोहमत आ जाएगी।

शुक्र है अपने यहां लोग ऐसा नहीं सोचते, या सोचे बिना कुछ नहीं बोलते।


कवर तस्वीर: साभार Greg Groesch/The Washington Times


About सत्यम श्रीवास्तव

View all posts by सत्यम श्रीवास्तव →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *