आर्टिकल 19: लोकतंत्र का मुंडा हुआ सिर और लोकभवन के सामने झुलसती लोकलाज


उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के लोकभवन के सामने लोकलाज बुरी तरह झुलस गयी है। लोकभवन विकास का वही चबूतरा है जहां महंत योगी आदित्यनाथ विराजते हैं। उस पवित्र चबूतरे के सामने मां-बेटी ने अपने शरीर में मिट्टी तेल छिड़क कर आग लगा ली। दोनों का इलाज चल रहा है। मां का नाम सोफिया है और बेटी का नाम गुड़िया। कानपुर वाले विकास दूबे के मामले में यूपी पुलिस का नाम खुलने के बाद ये दूसरी बड़ी घटना है जब यूपी पुलिस की तत्परता के कारण इतना बड़ा कांड हुआ है। उम्मीद है विकास के एनकाउंटर के बाद प्रसन्न चल रहे योगी आदित्यनाथ अपने पुलिसतंत्र की चुस्ती को लेकर अतिरिक्त तौर पर प्रसन्न होंगे।

हैरानी की बात ये है कि मास्क सिलने में मशगूल केंद्र की कपड़ा मंत्री और अमेठी की सांसद ने अभी तक ये नहीं कहा है कि इसके पीछे राहुल गांधी का हाथ है। या ये कि गांधी परिवार अमेठी को बदनाम करने की कोशिश कर रहा है। आने वाले दिनों में इन सबकी उम्मीद की जा सकती है। इसकी वजह ये है कि लखनऊ के लोकभवन के सामने खुद को आग लगाने वाली मां-बेटी अमेठी की रहने वाली हैं। कहानी में फिर से विकास वाले दूबे आते हैं क्योंकि दूबे हों या विकास, दोनों नाम नहीं परिघटना हैं। हर थाने में विकास के ऐसे-ऐसे चेहरे मिल जाएंगे।

गुड़िया और सोफिया इसी विकास के झुलसे हुए चेहरे हैं। यह विकास की व्यवस्था में न्याय की हालत की तस्वीर है। गुड़िया ने पुलिस को बताया है कि एक विवाद में गांव के दबंगों ने उसकी मां पर हमला कर दिया। मामला अमेठी के जामो थाने पहुंचा, लेकिन थानेदार से पहले विकासवादी दबंग पहुंच गए। पुलिस के सामने ही उन्हें खदेड़ने लगे। कोतवाल टुकुर-टुकुर व्यवस्था के विकास को निहारता रहा। गुड़िया और सोफिया ने बड़े अफसरों के सामने हाथ-पैर जोड़े। किसी तरह एफआइआर दर्ज हुई। और जब एफआइआर दर्ज हुई तो विकास-पुरुष रात में घर में घुस आये। लाठी-डंडे से मां-बेटी की पिटाई की। वे फिर थाने पहुंचीं। पुलिस वालों ने कहा- विकास का ज़माना है, भरोसा रखो।

कार्रवाई न होने से नाराज़ मां-बेटी दोनों शुक्रवार की शाम लखनऊ पहुंचे और लोकभवन के सामने खुद को आग लगा ली। अब हंगामा मचा हुआ है। सवाल है कि ये सारा हंगामा है ही क्यों? क्योंकि जिस तरह से विकास के पुर्जे तय किये गये हैं उसमें नागरिक होने के बोध की तो सबसे पहले हत्या की गयी है। इस हत्या ने आदमी को भीड़ में बदल दिया है। और भीड़ में खड़ा हर आदमी किसी दिन नेता हो जाने की उम्मीद में नारे लगाये जा रहा है। यह इस समय का सबसे भयावह सच है। हर सामाजिक अन्याय को अपराध की एक घटना तक सीमित किया जा रहा है। टेलीविज़न चैनलों की कंडिशनिंग भी इस हिसाब से कर दी गयी है।

लखनऊ से पहले बनारस में एक घटना घटी। एक नेपाली मजदूर के बाल मूंड दिये गये। उसके सिर पर जय श्री राम लिख दिया गया और उससे नारे लगवाये गये। इसकी वजह यह है कि नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने कहा है कि अयोध्या नेपाल में था और राम नेपाली थे। इस पर विश्व हिंदू सेना नाम के एक पोस्टर संगठन ने नेपालियों को निशाना बनाने का एलान कर दिया। मतलब ओली के बयान का बदला आपके घरों की पहरेदारी करने वाले बहादुरों से लेंगे बांकुरे।

जब यह हो रहा था तो आसपास बहुत सारे लोग थे। क्यों? क्योंकि जो यह कर रहा था उसे भीड़ अपने अवचेतन में नेता मान चुकी है। और न भी मान चुकी हो तो उसे अस्वीकार करने का साहस नहीं है क्योंकि अरुण पाठक नाम का गुंडा जो इस धतकर्म का खलनायक है, विकास की व्यवस्था को उसे नायक साबित कर देना है। यह बात अरुण पाठक भी जानता है और विकास दूबे भी जानता था। तभी तो ये आदमी से नाम बन जाते हैं। अरुण पाठक वही आदमी है जो रात के अंधेरे में भी काला चश्मा लगाता है और जिसने बीएचयू के बाहर पोस्टर लगवा दिया था कि कम्युनिस्टों का प्रवेश वर्जित है।

ये सारे नाम हमारी मूल संस्कृतियों को मिटाकर खड़े किये जा रहे हैं। बनारस कोई शहर नहीं है, एक संस्कृति है। फक्कड़पन की संस्कृति। बनारस का आकर्षण ही यही है कि बनारस किसी को बैरी नहीं मानता। सामूहिकता ही उसकी चेतना है। शंकर उसके देवता हैं जिसकी बारात में भूत पिशाच नर नारी किन्नर औघड़ बैताल सब नाचते हुए जाते हैं। बनारस के लिए शंकर हिंदू-मुसलमान का सवाल ही नहीं हैं। शंकर उसके लिए यार हैं। मस्ती हैं। हमजोली हैं। उसी बनारस में इंसान होने की तौहीन की गयी है। है। शर्मिंदा हो उठी शंकर के त्रिशूल पर टिकी हुई एक अल्हड़ चौहद्दी। शर्मिंदा हो उठा गंगा का पानी। शर्मिंदा हो उठी जुलाहों के कतान पर टंगी हुई रेशमी नौगजी। शर्मिंदा हो उठीं सूरज की किरणें, दशाश्वमेध की हवाएं, अस्सी का किनारा। ये वो बनारस तो नहीं कि जिसके घाटों पर खेलते हैं कबीर। ये वो बनारस तो नहीं कि जिसकी आबोहवा में गले मिलते हैं अजान और आरती। ये किस गली में ले आया कौम बनारस को, जिसके चौबारे महकते हैं एकजेहती के कत्थे से।

आखिर वो कौन लोग हैं जो हर तहजीब को छोटा बना देना चाहते हैं? हर यकीन को छोटा बना देना चाहते हैं? हर सरोकार, हर संस्कार को छोटा बना देना चाहते हैं? अरुण पाठके के खिलाफ एफआइआर हो गई। मुमकिन है सोफिया और गुड़िया के गुनहगार भी पकड़ लिए जाएं। विकास दूबे भी मारा गया, लेकिन क्या इस पर खुश हुआ जा सकता है? सवाल इससे कहीं ऊपर का है क्योंकि इसके पहले प्रतिरोध की आवाजों को अपराधी साबित कर दिया गया है, नक्सली और उग्रवादी साबित कर दिया गया है। मुसलमानों के मामले में तो आतंकवादी। याद कीजिए नागरिकता कानून के विरोध के बाद शहरों के चौराहों पर चिपके हुए पोस्टर। वो कार्रवाईयां कुछ लोगों के खिलाफ नहीं थीं। भविष्य में उठने वाली आवाजों के खिलाफ थीं।

आज 80 साल के वरवरा राव को रिहा करने के लिए आवाजें उठ रही हैं, लेकिन सवाल तो ये है कि एक कवि को, एक चिंतक को, गिरफ्तार ही क्यों किया गया था? गौतम नवलखा को, आनंद तेलतुंबडे या सुधा भारद्वाज को गिरफ्तार ही क्यों किया गया? इसीलिए किया गया था कि हर सामाजिक अन्याय को अपराध की एक घटना तक सीमित कर दिया जाए। वह भी तब, जब तस्वीरें सत्ता के लिए असहज स्थिति पैदा करें।

सच तो यह है कि इस देश के हर सोच समझ वाले आदमी का किसी चौराहे पर मुंडन होना है। आज नहीं तो कल। इसके लिए नयी संस्कृति के नायक गढ़े जा रहे हैं। हमारी चुप्पियां उस तारीख को नजदीक ला रही हैं। हम स्वीकार करना नहीं चाहेंगे, लेकिन सच यही है कि लखनऊ के लोकभवन के सामने जलती हुई दो सजीव आकृतियां लोकतांत्रिक विश्वास की हैं, संवैधानिक मूल्यों की हैं। इसी दिन की आशंका में बाबासाहेब ने हमें चेताया था कि किसी किताब में लिख देने से एक देश लोकतंत्र में तब्दील नहीं हो जाता। क्या हम पलटकर उन जड़ों को देखने का हौसला रखते हैं?



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