असली देशभक्ति क्या है? महामारी के संदर्भ में स्वामी विवेकानंद की याद


बीते कुछ साल से हमारे देश में देशभक्ति और देशद्रोही, इन दो शब्दों की काफी चर्चा होती रही है। बीते सात साल से केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। भारतीय जनता पार्टी और उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वयं को सबसे अधिक देशभक्त और अपने से इतर मत रखने वालों को, राष्ट्र के प्रति उनके दृष्टिकोण से सहमति न रखने वालों को देशद्रोही कहकर अपमानित करने का काम करती रहती है। बीते वर्षों में इस प्रक्रिया ने इतनी तेजी पकड़ी कि ऐसा लगता है जैसे कि देश में अपराध की, गलती की सभी धाराओं को हटा दिया जाएगा और सिर्फ एक ही धारा रह जाएगी- देशद्रोह की।

स्वामी विवेकानंद कहते हैं:

क्या तुम हृदय से अनुभव करते हो कि लाखों आदमी आज भूखे मर रहे हैं? क्या तुम यह सब सोचकर बेचैन हो जाते हो? क्या इस भावना ने तुम्हें निद्राहीन कर दिया है? क्या यह भावना तुम्हारे रक्त के साथ मिलकर तुम्हारी धमनियों में बहती है? क्या उसने तुम्हें पागल बना दिया है? क्या देश की दुर्दशा की चिंता ही तुम्हारे ध्यान का एकमात्र विषय बन बैठी है? क्या इस चिंता से तुम्हें अपने नाम यश पुत्र धन-संपत्ति यहां तक कि अपने शरीर का भी ख्याल नहीं रहा? अगर ऐसा है तो तुमने देशभक्त होने की पहली सीढ़ी पर पैर रखा है।

भारत में कोरोना महामारी के कारण आई विपदा के संदर्भ में उपर्युक्त उद्धरण को पढ़ें तो सवाल उठता है कि स्वामी जी द्वारा तय किये गये देशभक्ति के इस पैमाने पर उन पर दावे करने वाली और उनके नाम की माला जपने वाली संस्थाएं कहां खड़ी नजर आती हैं? 

भाजपा और स्वयंसेवक संघ राष्ट्रवाद की अपनी धारणा को मजबूत दिखाने के लिए भारतीय पुनर्जागरण के पुरोधा स्वामी विवेकानंद पर जिस तरह दावा करता है, ऐसा लगता है जैसे कि आरएसएस उनके विचारों पर चलने वाली एकमात्र संस्था हो। हम यदि स्वामी जी के विचारों का थोड़ा भी अध्ययन करें तो हम यह जान जाएंगे कि इस्लामी शरीर और वेदांती मस्तिष्क वाले भारत का सपना देखने वाले स्वामी जी के विचारों और सपनों से आरएसएस न सिर्फ कितनी दूर है बल्कि वह उनके सपनों के भारत को निर्ममता से कुचलने वाली संस्था भी है। राष्ट्रीय एकता के बजाय साम्प्रदायिक भेदभाव पर आधारित आरएसएस के क्रियाकलापों पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है। बहुत कुछ लिखा भी गया है।

वर्तमान सत्ताधारी दल के अनुसार तो देशभक्ति का पैमाना यह है कि जो भी अल्पसंख्यकों को, पाकिस्तान को और उन सबके खिलाफ विषवमन करे जो सरकार की नीति का विरोध करते हैं या क्रिकेट में हिंदुस्तान की जीत पर खुशी मनाए, वही देशभक्त है। अपनी सत्ता को बनाए रखने, अपनी विचारधारा को सर्वमान्य बनाने के लिए उन्होंने एक परिभाषा गढ़ी है। इस खांचे में आप फिट बैठते हैं तो आप देशभक्त हैं अन्यथा देशद्रोही हैं।

मैं सत्ताधारी दल के इस पैमाने में फिट नहीं बैठता और न मैं इसमें फिट होना चाहता हूं। मेरा मानना है कि बहुसंख्यक समाज भले भूखे न मर रहा हो (हालांकि लॉकडाउन ने उसे इस स्थिति में पहुंचा दिया है) लेकिन उनकी स्थिति लगातार बद से बदतर होती जा रही है और उसके लिए व्यवस्था और सरकारें दोषी हैं।

तन मन जन: स्वामी विवेकानंद का ‘प्लेग मेनिफेस्टो’ और दहशत का वायरस

निर्धन, असहाय लोगों को देखकर स्वामी जी इतने दुखी होते थे कि वह किसी भी प्रकार से उनकी मदद करने की कोशिश करते थे। वे अक्सर ही अपने शिष्यों से कहते थे कि मठ की जमीन बेच दी जाए और भूखी और निर्धन जनता की मदद की जाए। हमारा क्या है, हम तो संन्यासी हैं, हम तो पेड़ के नीचे भी रह लेंगे।

अपने एक शिष्य शरतचंद्र को स्वामी जी ने चिट्ठी लिखकर भोजनालय खोलने की हिदायत दी थी। कहा था- ‘जब रूपये आएं तो एक बहुत बड़ा भोजनालय खोला जाएगा। उसमें सदैव यही गूंजता रहेगा : दीयता:, नीयता:, भज्यता:! भात का इतना मांड़ होगा कि अगर वह गंगा में रुलमिल जाए तो गंगा का पानी श्वेत हो जाए। देश में वैसा एक भोजनालय खुलते अपनी आंखों से देख लूं तो मेरे प्राण चैन पा जाएं!”

स्वामी विवेकानन्द दरिद्र-नारायण के प्रति इतनी करुणा का भाव रखते थे। उन पर दावा करने वाले दल और संगठन उनसे कितना दूर हैं! ऐसे समय में जब दवा और इलाज के अभाव में इतने लोगों की जान जा रही है, इस स्थिति का जिम्मेदार कौन है?



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