ज्योतिबा फुले ने अपनी पुस्तक ‘गुलामी’ (स्लेवरी) में स्पष्ट लिखा है कि वे अपने देश से अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकना चाहते थे। ज्योतिबा के छात्र जीवन से ही अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध छुटपुट घटनाएं होने लगी थीं। ज्योतिबा के साथ एक घटना घटित हुई जिसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी।
एक बार ज्योतिबा एक ब्राह्मण मित्र के विवाह में गए हुए थे। ज्योतिबा अपने ब्राह्मण मित्रों के सच्चे स्नेही थे। दूल्हे के साथ बारात सजधज कर जा रही थी। ज्योतिबा भी साथ में चल रहे थे। बारात में प्रायः ब्राह्मण जाति के लोग थे। एक ब्राह्मण ने ज्योतिबा को पहचान लिया। उसको यह सहन न हो सका कि ब्राह्मण के साथ शूद्र चले, वह आवेश में आकर ज्योतिबा फुले को डांटने लगा और कहने लगा, “अरे…! शूद्र, तूने जातीय व्यवस्था की सारी मर्यादा तोड़ दी, तूने सबको अपमानित किया है, तू जब हमारे बराबर नहीं है तो तुझे ऐसा करने से पहले सौ बार सोचना चाहिए था, तू बारात के पीछे चल या यहां से चल जा।”
ज्योतिबा स्तंभित रह गए, दिमाग शून्य हो गया। जब कुछ देर बाद सामान्य हुए तो उन्हें अपने अपमान का अहसास हुआ, उनकी रग-रग में खून खौल उठा। ज्योतिबा बारात से वापस अपने घर आ गए। उनकी आँखों में आंसू देखकर पिता ने जब कारण पूछा तो उन्होंने अपने अपमान का सारा कथानक पिता को सुनाया। उनके पिता ने तब उन्हें वर्ण व्यवस्था के बारे में विस्तार से समझाया और फिर कहा कि अच्छा हुआ तुमको उन्होंने सिर्फ वहां से भगा दिया अन्यथा वो तुमसे मार-पीट भी सकते थे। कभी-कभी तो वे इस तरह की बात पर हाथी के पैर के नीचे फ़ेंक कर कुचल भी देते हैं। ज्योतिबा के पिता नहीं चाहते थे कि वे सामाजिक रीति-रिवाज़ों का उल्लंघन करके ब्राह्मणों का कोपभाजन बनें परन्तु ज्योतिबा शिवा जी, वाशिंगटन तथा लूथर के आदर्शों को नहीं भुला सके। वह इसी उधेड़ बुन में पूरी रात सो नहीं सके। ज्योतिबा ने अनुभव किया कि इस व्यवस्था में तो शूद्रों को गुलामी और गरीबी में ही मरना-जीना है। शूद्र वर्ण में जन्म लेने का अर्थ है अपमान और दासता। ज्योतिबा ने हिन्दू धर्म में फैली ऊंच-नीच की अमानवीय भावना तथा रूढ़ियों एवं अंध-परम्पराओं को समाप्त करने का संकल्प लिया जबकि वह जानते थे कि इसकी जड़ें काफी गहरी हैं।
ज्योतिबा फुले ने इस अज्ञान को ध्वस्त करने के लिए विद्रोह की ध्वजा अपने हाथों में ले ली। उनको विश्वास था कि छोटी जातियों के लोग सामाजिक समानता के लिए अवश्य संघर्ष करेंगे। ज्योतिबा की तरह और भी वयस्क लोग थे लेकिन ज्योतिबा के पास जो साहस और संकल्प था वह और किसी के पास नहीं था। 21 वर्ष की आयु में ज्योतिबा फुले ने महाराष्ट्र को एक नये ढंग का नेतृत्व दिया। ज्योतिबा फुले ने महाराष्ट्र की नारी तथा शूद्रों दोनों को सामाजिक गुलामी से मुक्त कराने की प्रतिज्ञा की। सर्वप्रथम उन्होंने एक बालिका विद्यालय की नींव डाली और उस विदयालय में सभी छोटी जातियों की छात्राएं शिक्षा पाने लगीं। ज्योतिबा का विचार था कि अगर नारी शिक्षित नहीं होगी तो उसके बच्चे संस्कारी और परिष्कृत नहीं बन सकते। ज्योतिबा ने मनुस्मृति के आसामाजिक सिद्धान्तों का खंडन किया। मनुस्मृति की खुली आलोचना की। उन्होंने समाज के निम्न वर्गों को ललकारपूर्वक सम्बोधित किया और कहा, “मेरा अनुसरण करो, अब मत डगमगाओ। शिक्षा तुमको आनंद देगी, ज्योतिबा तुम से विश्वासपूर्वक कहता है।”
ज्योतिबा ने समूची सामाजिक परम्पराओं का विरोध किया तो परम्परा-प्रेमी ज्योतिबा को अपना शत्रु समझने लगे। उनके विद्यालय को जब कोई अध्यापक नहीं मिला तो उन्होंने इस कार्य के लिए अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को शिक्षित किया। उनकी पत्नी ने भी इस कार्य को सहज स्वीकार किया। उनकी पत्नी विद्यालय में पढ़ाने जाने लगीं। सवर्णों के क्रोध की कोई सीमा न रही। सावित्रीबाई फुले जब स्कूल जाती थीं तो लोग उन पर ढेले चलाना शुरू कर देते थे, उन पर कीचड़, कंकड़-पत्थर फेंकने लगे। साड़ी गन्दी हो जाया करती थी, इसलिए वो एक साड़ी हमेशा साथ ले कर चलती थीं। अब सवर्णों को कोई रास्ता नहीं दिख रहा था ज्योतिबा को रोकने के लिए, तब उन्होंने उनके पिता पर दबाव बनाना शुरू किया और कहा कि “तुम्हारा बेटा हिन्दू धर्म एवं समाज के लिए कलंक है और उसी तरह उसकी वह निर्लज्ज पत्नी भी। तुम अनावश्यक भगवान का कोपभाजन बन रहे हो। धर्म और भगवान के नाम पर हम तुमसे कहते है कि तुम उसे ऐसा करने से रोको या फिर घर से निकाल दो।”
उस समय ब्राह्मणों का वर्चस्व था इस कारण ज्योतिबा के पिता गोविंदराव को अपनी अन्तरात्मा विरुद्ध अपने ज्योतिबा से कहना पड़ा कि वह विद्यालय छोड़ दे या फिर घर को छोड़ दे। ब्राह्मण ज्योतिबा के घर में क्लेश करने में कामयाब हो गए। चूँकि ज्योतिबा को पता था कि वह सही रास्ते पर चल रहे हैं अतः उन्होंने पिता जी से कहा, “परिणाम चाहे कुछ भी हो पर मैं अपने उद्देश्य से विरत नहीं हो सकता।” पिता ने भी साहस समेटकर कर कह दिया कि “जहां तुमको जाना है वहां जाओ लेकिन मेरा घर छोड़ दो।”
सावित्रीबाई अनगिनत कष्ट सहते हुए अपने पति के साथ जाने के लिए कटिबद्ध हो गयीं। उसने समाज को अनेक प्रकार की विषमताओं से मुक्त कराने के लिए अपने पति की अनुगामिनी बनकर ही रहना उचित समझा। ज्योतिबा और उनकी पत्नी घर से निकाल दिए जाने के बाद भी विद्यालय चलाने की मंशा से मुक्त नहीं हो सके। सावित्रीबाई फुले ने अपने आगे की पढ़ाई को सुचारु रूप से पूरा किया। कुछ समय पश्चात अपने दो मित्रों के सहायता से पुनः एक बालिका विद्यालय खोला। विद्यालय के लिए जब कोई मकान किराये पर नहीं मिला तो उनके मित्र सदाशिव गोबांदे ने जूनागंज में एक स्थान की व्यवस्था कर दी, लेकिन वहां भी ब्राह्मणों ने अपना रोष व्यक्त किया और उस जगह को छोड़ने पर विवश कर दिया और उन्होंने एक मुसलमान से स्थान ले लिया। छात्रों के निर्धन होने के कारण ज्योतिबा उन्हें वस्त्र और पुस्तकें मुफ्त प्रदान करते थे।
पिछले तीन हज़ार सालों के इतिहास में ऐसे विद्यालय का खोला जाना पहली घटना थी तथा ज्योतिबा ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अपने साहस और लगन से यह अभूतपूर्व कार्य कर दिखाया। तब समाज की यह स्थिति थी कि यदि शूद्र कभी वेद पाठ सुन लेता तो उसके कानों में तपता हुआ तरल पदार्थ डाल दिया जाता था। दो वर्षों तक शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने के बाद ज्योतिबा ने 3 जुलाई 1953 को एक दूसरा विद्यालय पूना के अन्नासाहेब चिपलूणकर भवन में खोला। अपने इस विद्यालय के संचालन के लिए एक प्रबंध समिति का गठन किया। उस समय की सरकार को प्रबंध समिति की सूची प्रस्तुत की गयी। शासन ने ज्योतिबा फुले के शिक्षा सम्बन्धी कार्यों की प्रशंसा की और उन्हें एक महान समाजसेवी की रूप में मान्यता दी। प्रबंध समिति ने हमेशा यही आशा रखी कि ज्यों-ज्यों नारी शिक्षा की गति बढ़ेगी और उसका विकास होगा वैसे-वैसे देश का विकास होगा।
ज्योतिबा फुले केवल पीड़ित-शोषितजनों के ही नहीं, बल्कि समाज सुधारकों के भी रक्षक थे। ज्योतिबा फुले को उनके अदम्य साहस एवं सेवा भावना के फलस्वरूप उनको समाजसेवियों के बीच प्रथम स्थान मिला था। उस समय के कुछ समाजसेवी ब्राह्मणों ने ज्योतिबा की नीतियों से प्रभावित होकर उनका सहयोग करना प्रारम्भ कर दिया जिससे रूढ़िवादी और समाजसेवी ब्राह्मणों में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गयी। तदनंतर इसी क्रम में ज्योतिबा ने आगे कई विद्यालय खोले। 19 फरवरी 1852 के ‘टेलीग्राफ एंड कोरियर’ पत्र में एक पर्यवेक्षक ने लिखा था कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि “ब्राह्मण छोटी जातियों के भयानक शत्रु थे किन्तु कुछ ब्राह्मणों ने यह भी अनुभव करना प्रारम्भ कर दिया है कि उनके पूर्वजों ने इन जातियों के लोगों को अनगिनत अघात पहुचाएं हैं।”
ज्योतिबा ने पूना में एक पुस्तकालय की स्थापना की जो छोटी जाति के छात्र-छात्रों के लिए अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हुआ। इस कार्य के लिए पूना के अनेक महानुभावों ने हर प्रकार का सहयोग दिया। ज्योतिबा शिक्षक का कार्य जरूर करते थे किन्तु उनके अध्यापन की सीमा केवल विद्यालय तक सीमित नहीं रही, वे एक समग्र समाज के शिक्षक सिद्ध हुए। ज्योतिबा फुले की पहचान अब न तो माली थी, न शूद्र और न मात्र साधारण व्यक्ति। अब वे भारत की सामाजिक नवक्रांति के प्रतीक बन चुके थे। विचित्र था वह धर्म और अनोखी थी यहां की वर्ण व्यवस्था कि समाज की सेवा करने वाले मनुष्य को शूद्र कहकर अत्याचारों और अपमानों का हल उनकी छाती पर चलाया जाता था। ज्योतिबा ने सभी को चुनौती देते हुए शिक्षा के द्वार सभी के लिए खोल दिए, ज्योतिबा ने शूद्र और नारी उद्धार के लिए शिक्षा पर ही विशेष बल दिया। समाज में नयी चेतना के उदय होने पर भी ब्राह्मण अपना पुराना राग अलाप रहे थे। वे डर रहे थे कि यदि स्त्री और शूद्र शिक्षित हो गए तो समाज से उनका एकाधिपत्य और जातीय वर्चस्व ख़त्म हो जाएगा। काफी हिन्दू ईसाई हो चुके थे लेकिन ज्योतिबा फुले ने अपना धर्म परिवर्तन नहीं किया। उनका मानना था कि हिन्दू धर्म में रहकर ही उसकी कुरीतियों को दूर किया जा सकता है और उसका स्वरूप बदला जा सकता है। ईसाई धर्म का द्वार सबके लिए खुला था लेकिन हिन्दू धर्म का द्वार हिन्दुओं के लिए ही बंद था। अनेक प्रतिष्ठित लोगों ने हिन्दू धर्म को त्याग कर ईसाई धर्म को धारण कर लिया। उन दिनों हिन्दू समाज में एक अजीब सा सूनापन छा गया। ब्राह्मणों की जड़ता, अहंकार, छुआ-छूत का भाव तथा अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने के अहंकार ने हिन्दू धर्म को बर्बाद कर दिया और हिन्दुओं की संख्या घटती चली गयी। ज्योतिबा की यह शूद्र तथा नारी शिक्षा की सफल योजना पूना के उच्च वर्ग के लोगों के आँखों की किरकिरी बन गयी थी। ज्योतिबा के कुछ चुने हुए ब्राह्मण मित्र थे जो हर प्रकार का खतरा उठाकर कर ज्योतिबा की हरसंभव मदद करते थे। ज्योतिबा फुले ने जब देख लिया कि छोटी जातियां और स्त्रियों की शिक्षा पूना ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण महाराष्ट्र में व्यवस्थित रूप से चलने लगी तो उन्होंने समाज सुधार के दूसरे पटल पर अपना ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया।
1840 में महाराष्ट्र में विधवा विवाह का प्रचार प्रारम्भ हुआ। ज्योतिबा विधवाओं की स्थिति देखकर बहुत ही दुखी थे। पति के बाद उन्हें एकाकी जीवन जीना पड़ता था और उनका समाज से कोई लेना-देना नहीं रह जाता था, न ही वो किसी मांगलिक कार्यक्रम में जा सकती थीं। ज्योतिबा ने विधवा नारी के उद्धार का कार्यक्रम बनाया। ज्योतिबा की देखरेख में 8 मार्च 1860 को एक विधवा युवती का विवाह कराया गया। ज्योतिबा ने ब्राह्मण-पुरोहित के बिना ही विवाह-संस्कार आरंभ कराया और इसे मुंबई हाईकोर्ट से भी मान्यता मिली। वे बाल-विवाह विरोधी और विधवा-विवाह के समर्थक थे। ज्योतिबा के इस प्रयास से एक नयी क्रांति का उदय हुआ। स्त्रियों को एक नया जीवन मिल गया।
उन्हीं दिनों ज्योतिबा के पिता गोविन्द राव रोगग्रस्त हो गए। वे अपने दूसरे पुत्र राजाराम के साथ रहते थे। उनके दूसरे पुत्र ही उनकी सारी सम्पति की देख-रेख करते थे। ज्योतिबा के पिता को सबसे ज्यादा यह चिंता थी कि ज्योतिबा की कोई संतान नहीं थी इसलिए उन्होंने ज्योतिबा फुले को बुलाकर दूसरी शादी का प्रस्ताव रखा लेकिन ज्योतिबा इसके लिए तैयार नहीं हुए। ज्योतिबा की पत्नी सावित्रीबाई फुले ने कदम-कदम पर उनका साथ दिया तो वे भला दूसरे विवाह की कैसे सोच सकते थे। उन्हें पता था कि इससे अच्छा जीवन साथी और कोई नहीं हो सकता। कुछ समय पश्चात उनके पिता का निधन हो गया।
ज्योतिराव फुले उर्फ़ ज्योतिबा फुले का जन्म 11 अप्रैल सन 1827 ई. को महाराष्ट्र के पुणे नगर में हुआ था। ज्योतिबा फुले के पिता का नाम गोविन्द राव और माता का नाम चिमनबाई था। ज्योतिबा के बड़े भाई का नाम राजाराम था। पूना के आस-पास माली जाति के लोगों को फुले (फूल वाले) कहा जाता है। ज्योतिराव फुले की माता चिमनाबाई का निधन उस समय हो गया जब वे मात्र एक वर्ष के थे। अब उनके पिता जी के सामने ज्योतिबा के पालन-पोषण की चिंता थी। उन्होंने उनके लिए एक धाय को नौकर रखा लेकिन दूसरी शादी नहीं की। उस धाय ने भी एक माता के समान ज्योतिबा का पालन-पोषण किया। गोविन्द राव ने अपने पुत्र की जन्मजाति प्रतिभा को देखकर शिक्षार्जन हेतु भेजने का विचार किया। विद्यामन्दिरों में पंडित लोग तर्कशास्त्र, दर्शन-शास्त्र, व्याकरण आदि संस्कृत में ही पढ़ाते थे और किताबें इतिहास-भूगोल की जगह देवी-देवताओं की कहानियों से पटी पड़ी हुई थीं। सन 1836 से ग्राम पाठशालाओं का सूत्रपात हुआ। ब्रिटिश सरकार के प्रारम्भ होने पर ही व्यवस्थित शिक्षा का सूत्रपात हुआ। उस समय जो स्कूल थे उन पर सिर्फ सवर्ण समाज का ही अधिकार था यदि किसी अब्राह्मण बालक ने काव्यपाठ किया या कुछ पढ़ा तो उसके साथ कठोर व्यवहार किया जाता था। आगे समय बीतने के साथ-साथ ब्रिटिश सरकार ने शिक्षा का अधिकार सबको सुनिश्चित किया। गोविंदराव ने अपने पुत्र ज्योतिबाफुले को 7 वर्ष की आयु में एक मराठी पाठशाला में प्रवेश दिलाया। उधर ब्राह्मणों के लिए अंग्रेजी शिक्षा पद्धति अभिशाप प्रतीत हुई। वे अपने बच्चों को स्कूल के बाद इस लिए नहलाते थे कि वो अंग्रेजी पुस्तकें और अछूत बच्चों के साथ पढ़कर आया है। उस समय सवर्ण समाज की मानसिकता थी कि शिक्षा पाना सिर्फ ब्राह्मणों का अधिकार है अछूतों का नहीं और उनका विश्वास था कि सम्पूर्ण ज्ञान सिर्फ संस्कृत भाषा की पुस्तकों में विद्यमान है। ऐसी सामाजिक परस्थितियों में गोविंदराव ने अपने पुत्र ज्योतिबा को शिक्षा देने का आसाधारण कार्य किया।
ज्योतिबा पढ़ने में काफी होशियार थे। उन्होंने जल्द ही मराठी लिखना-पढ़ना और बोलना सीख लिया। उन्ही दिनों एक बार ऐसा हुआ कि ‘बम्बई नैटिव एजुकेशन सोसाइटी’ के संकेत पर सोसाइटी के विद्यालय से तत्समय निम्न जाति के छात्रों को निकाल दिया गया। गोविंदराव ने भी उसी समय अपने पुत्र ज्योतिबा को विद्यालय से निकाल लिया। अब ज्योति फावड़ा और खुरपी लेकर खेतों में लग गए तथा फूलों के कार्य को आगे बढ़ाने लगे। धीरे-धीरे ज्योतिबा जब 13 वर्ष के हुए तो पिता गोविंदराव ने परम्परागत पद्धति के अनुसार ज्योतिबा का विवाह निश्चित कर दिया। बालिका-पत्नी जिसका नाम सावित्रीबाई फुले था, की आयु 8 वर्ष थी। पूना के पास एक गाँव कबाड़ी में लड़की का मायका था। विद्यालय से अलग हो जाने से भी ज्योतिबा का लगाव पुस्तकों से दूर न हो सका। ज्योतिबा दिन भर खेतों में काम करने के बाद रात में दिये की रोशनी में पुस्तकें पढ़ते थे। उनकी इस लगन का पड़ोस में रहने वाले दो पड़ोसी गफारबेग तथा लेजिट पर बहुत प्रभाव पड़ा और उन्होंने गोविंदराव को स्कूल में दाखिला दिलाने का परामर्श दिया। गोविंदराव ने इस परामर्श को स्वीकार करते हुए 1841 ई. में पुनः मिशन स्कूल में ज्योतिबा को प्रवेश दिलाया।
ज्योतिबा महाराष्ट्र के पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने शिवाजी के पराक्रम, साहस और कुशलता पर गीत लिखे। उन्होंने शिवाजी के महान आदर्शों का वर्णन किया। पंद्रह वर्ष के लगातार संघर्ष के पश्चात ज्योतिबा ने अनुभव किया कि उनके विचार, सिद्धांतों एवं आदर्शों के लिए एक ऐसे मंच और संस्था की आवश्यकता है जिसके माध्यम से छोटे वर्गों को समाज के समान धरातल पर लाने के लिए भरपूर प्रयास किया जाएं। अभी तक वह पुस्तकों, पर्चों और भाषणों के द्वारा ही इस कार्य को सम्पादित कर रहे थे। अतः ज्योतिबा ने 24 सितम्बर 1873 में अपने सभी हितैषियों, प्रशंसकों तथा अनुयायियों की एक सभा बुलाई। उनसे विचार-विमर्श के बाद तथा ज्योतिबा के विचारों से सहमत होते हुए संस्था का गठन कर दिया गया। ज्योतिबा ने संस्था का नाम दिया “सत्य शोधक समाज।”
यहां जो अहम बात है जो हमें याद रखना होगा कि उनके तीन ब्राह्मण मित्र विनायक बापूजी भंडारकर, विनायक बापूजी डेंगल तथा सीताराम सखाराम दातार ऐसे थे जिन्होंने सत्यशोधक समाज को हर प्रकार का सहयोग देने का वचन दिया। जुलाई 1883 में ज्योतिबा ने अपनी एक किताब पूरी कर ली। उसकी एक प्रति उन्होंने महाराजा बड़ौदा व एक प्रति गवर्नर जनरल को भेंट की। पुस्तक की प्रस्तावना के प्रारम्भ में ज्योतिबा फुले ने लिखा था:
शिक्षा के अभाव में बुद्धि का ह्रास हुआ।
बुद्धि के अभाव में नैतिकता की अवनति हुई।
नैतिकता के अभाव में प्रगति अवरूद्ध हो गयी।
प्रगति के अभाव में शूद्र मिट गए।
सारी विपत्तियों का आविर्भाव निरक्षरता से हुआ।
उनकी समाज सेवा देखकर 1888 ई. में मुंबई की एक विशाल सभा में उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि दी गयी। डॉ. अम्बेडकर तो महात्मा फुले के व्यक्तित्व-कृतित्व से अत्यधिक प्रभावित थे। वे महात्मा फुले को अपने सामाजिक आंदोलन की प्रेरणा का स्त्रोत मनाते थे। 28 नवम्बर 1890 में ज्योतिबा फुले ने इस संसार से विदा ली।