अब तक भाजपा जिन राज्यों में भी चुनाव लड़ती थी, वहां केंद्र (बोले तो दिल्ली) केवल सहयोग की भूमिका में होता था। केंद्रीय टीम जाती तो गुजरात या राजस्थान आदि के चुनाव में भी थी, लेकिन केवल पर्यवेक्षण और सहयोग के लिए। बिहार में पहली बार केंद्रीय टीम ने ही सारी कमान अपने हाथ में ले ली है (इसके पीछे हालांकि लोकसभा चुनाव में मची ज़बर्दस्त धांधली और गुटबाजी को भी कारण बताया जा रहा है)। उसमें भी दिल्ली से आये युवक इतने खरे बोलने वाले (दूसरी भाषा में उद्दंड, पेशेवर या जो भी आप कहना चाहें) हैं कि कार्यकर्ताओं की उनसे अच्छी-खासी दूरी हो गयी है।
इस दूरी की वजह से उसी भाजपा में कम्युनिकेशन-गैप इतना बढ़ गया है कि अब सरेआम-सरेशाम जूतमपैजार हो रही है, लट्ठ बरस रहे हैं। परसों भाजपाइयों ने पप्पू यादव की जाप (जन अधिकार पार्टी) के कार्यकर्ताओं की तुड़ाई की, तो आज अपने ही मंत्री विजय कुमार सिन्हा के मुर्दाबाद के नारे बुलंद कर दिये।
हुआ दरअसल यह कि भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष और परमानेंट डीसीएम सुशील मोदी आदि को प्रेस कांफ्रेंस करनी थी, उसी में सिन्हा साब भी पधारे हुए थे। श्रम संसाधन मंत्री विजय कुमार सिन्हा जी को यह पता ही नहीं था कि उनके ही इलाके लखीसराय से कुछ युवक भी पहुंच चुके हैं। भाजपा कार्यालय में जैसे ही साहब वापसी के लिए गाड़ी में बैठे, मुर्दाबाद के नारे बुलंद होने लगे। इधर से मंत्री महोदय के समर्थक तो होने ही थे। बस, जमकर लात-घूंसे नहीं चले, बाक़ी सब कुछ हो गया। उनकी गाड़ी के आगे लोटने से लेकर उनके समर्थकों के मुंह भसका देने की धमकी तक, कुछ बाकी न रहा।
भाजपा के साथ बड़ी दिक्कत है। दिक्कत है कि उसकी किश्ती वहीं डूबती है जहां पानी कम होता है और उसे अपने ही लूटते हैं वरना गैरों में कहां दम होता है! दिक्कत यह है कि 15 वर्षों से सत्ता में रहने के बावजूद उसके पास इतराने तो छोड़िए, दिखाने लायक काम भी नहीं है, इसलिए मजबूरन उसे आज भी आरजेडी के जंगलराज और लालू प्रसाद यादव को गाली देकर काम चलाना पड़ता है। दिक्कत यह है कि भाजपा एक बड़ी पार्टी है, उसके पास अकूत धन है और उसके तमाम कार्यकर्ताओं को यह पता है।
समस्या भाजपा के साथ ये है कि पार्टी जड़ और जमीन से जुड़कर ही आज आकाश को छू रही है, लेकिन अब इसके प्रबंधक चुनाव को पूरे कॉरपोरेट स्टाइल में लड़ रहे हैं। ज़मीनी कार्यकर्ता आ रहे हैं, देख रहे हैं कि उनको ‘भाईसाब’ तक पहुंचने में खासी मशक्कत करनी पड़ रही है जबकि दिल्ली के लैपटॉपधारी युवा जब चाहें उन तक पहुंच जाते हैं।
भाजपा के साथ समस्या यह भी है कि पिछले लोकसभा में सारा चुनाव-कार्य फिलहाल महामंत्री पर पदोन्नत एक उम्रदराज शख्स पर था, तो उनका दबदबा भी था और लोगों को आपत्ति भी नहीं होती थी। कार्यकर्ताओं का ईगो भी आहत नहीं होता था। धोती वाले भाईसाब और दिल्ली वाले यंगस्टर्स का संतुलन भी बना हुआ था। इस बार चुनाव का सारा प्रबंधन सीधा दिल्ली से आये लोगों के हाथ में है, वह भी लैपटॉप, पामटॉपधारी युवाओं के हाथ में।
संघ के पुराने लोग बता रहे हैं कि यह सब कुछ बस टिकट बंटवारे तक ही है और उसके बाद पार्टी फिर से अश्वत्थ की तरह खड़ी रहेगी।
यह कहते हुए वह थोड़ा सा मुस्कुराने लगे और फिर बोले, ‘’बै महाराज, पॉलिटिक्स छोड़िए, एगो कहानी सुनिए। इ अनुष्का-गावस्करवा के झगड़ा से याद आ गया है। ये तब की बात है, जब हिंदी में कमेंट्री का शगल शुरू हुआ ही था। अब कपिल देव साब आ गये कमेंट्री करने, तो उस समय शायद सचिन या राहुल द्रविड़ कोई बैटिंग कर रहा था, तो बॉलर जो था, वह काफी तेज गेंदबाज था, शायद शोएब अख्तर। उसकी एक गेंद आयी और सचिन की अमुक जगह में लग गयी। दो-तीन मिनट तक वह वहीं लेट गया, फिर खड़ा हुआ और अपना बल्ला वगैरह ठीक करने लगा। कपिल साब ने बड़ी दुरुस्त टिप्पणी की- ‘सचिन को चोट लगी थी, लेकिन अब हालात ठीक हैं और वह अपना सामान खड़ा कर रहे हैं…।’ अब बताइए, कपिल क्या कहना चाहते थे और क्या कह बैठे?”
इस रिपोर्टर ने जब भाईसाब को वापस पॉलिटिक्स पर मोड़ा तो उन्होंने हा हा करते हुए कहा, ‘’अरे चिंता मत कीजिए, भाजपा भी अपना सामान खड़ा कर रहा है। छोटी-मोटी घटनाएं तो होती रहती हैं, बात बस ये है कि ओल्ड गार्ड को ये नये महत्वाकांक्षी, उद्धत युवा पसंद नहीं आ रहे। इन युवाओं को तमीज भी नहीं है बात करने की, लेकिन कुल मिलाकर एक महीने की बात है। पॉलिटिकल पार्टी के प्रोग्राम इसी तरह होते हैं, भाई। इसमें अनुष्का टाइप दिमाग मत लगाइए।‘’