Benares Grapevine-2: परेशान चेहरे और लड़खड़ाते घुटने



अस्‍सी चौराहे स्थित पप्‍पू की दुकान पर एक लंबा सा आदमी चाय पीने आया। उसकी लंबाई औसत से कुछ ज्‍यादा थी। एक व्‍यक्ति ने उसे देखकर दूसरे से कहा, ”ई आइबी क हौ।” दूसरे ने सुना और तीसरे को बताया। तीसरे ने उसमें मूल्‍यवर्द्धन किया, ”अरे, तीन-चार मिला हउवन। दू ठे घाटे पे घूमत रहलन।” बात आगे बढ़ी। चौथे ने बताया कि अकेले आइबी वाले नहीं, बल्कि सीआइए और रॉ वाले भी आए हुए हैं। एक पांचवें व्‍यक्ति ने इन बातों को सुन कर कहीं फोन मिलाया और बताया, ”अबे, पता हौ, आइबी, रॉ अउर सीआइए क टीम बनारस में आयल हौ। अस्‍सी पर हउवन सब।” वहां से बात आगे बढ़ी और कुछ पत्रकारों को विश्‍वसनीय सूत्रों से जानकारी मिली कि शहर में छापा पड़ने वाला है। अगले दिन के अखबारों की हेडलाइन थी: ”शहर के चप्‍पे-चप्‍पे पर आइबी की निगाह, पड़ सकते हैं छापे, संवेदनशील हालात।”

बनारस की पत्रकारिता का यह किस्‍सा पिछली रात तुलसी घाट पर महंतजी विश्‍वम्‍भर मिश्र के छोटे भाई डॉक्‍टर साहब ने अनौपचारिक बातचीत में सुनाते हुए शहर की पत्रकारिता पर अफ़सोस जताया। कहने का अर्थ ये कि बनारस में कौन सी बात ख़बर बन जाए और कौन सी ख़बर बतकही, कुछ कहा नहीं जा सकता है। मसलन, कल सवेरे मेरी डेढ़ घंटे की नींद खोलने के लिए एक फोन आया। फोन करने वाले ने सूचना दी कि आम आदमी पार्टी ने एक सर्वे जारी किया है जिसके मुताबिक बनारस में ”आप” पहले स्‍थान पर, बसपा दूसरे पर, भाजपा तीसरे पर, सपा चौथे पर और कांग्रेस पांचवें स्‍थान पर रहेगी। अब, सवाल ये है कि क्‍या कोई भी पार्टी खुद को हारता हुआ कहती है? अगर नहीं, तो इसमें मौलिक क्‍या है? बहरहाल, जंगल की आग की तरह यह सर्वे ऐसा फैला कि दोबारा झपकी आने पर भी यही ख़बर देने के लिए किसी और का फोन आ गया। किसी तरह दिन शुरू हुआ, तो व्‍योमेश शुक्‍ल ने फोन कर दिया कि विष्‍णु खरे के कमरे में हूं, आइए। विष्‍णुजी हाफ पैंट में बैठे कॉफी पी रहे थे। पहुंचा गया। वे अब भी रीयल पॉलिटिक पर कायम थे। व्‍योमेश लगातार पान दिए जा रहे थे। उन्‍हें अभी दो दिन रुकना था लेकिन हमें मार्केट में निकलने की जल्‍दी थी। लेनिन के ज़माने का सवाल अब भी दुनिया में कायम था: ”क्‍या करें?” विष्‍णुजी ने अपनी इच्‍छा प्रकट की, ”अगर प्रियंका न भी आ सकें तो कम से कम उनका कोई संदेश वाला वीडियो रिकॉर्ड करवा कर लोगों में बंटवा दिया जाए। इसका बहुत असर पड़ेगा।” मैंने कहा, ”ये करेगा कौन?” वे बोले, ”मेरी तो सोनिया, प्रियंका या राहुल किसी से भी पहचान नहीं है।” मैंने कहा, ”मेरी तो किसी कांग्रेसी सभासद तक से पहचान नहीं है।” सवाल गंभीर था, जवाब नदारद। व्‍योमेश बोले, ”कुछ करते हैं।”

शाम को व्‍योमेश ने सचमुच कुछ तो किया। उन्‍होंने फिर फोन किया, ”विष्‍णु खरे और शबनम हाशमी नई सड़क पर कांग्रेस के मंच से बोल रहे हैं।” लहजा सूचित करने का था, लेकिन पहुंचने पर उन्‍होंने सभा में बैठने का आग्रह कर डाला। ज़ाहिर है सभा ईसा भाई की थी और वहां अजय राय के आने की भी अटकलें थीं, लेकिन यह कांग्रेसी अपनापा देखकर मुझे थोड़ी वितृष्‍णा हुई। मित्र व्‍यालोक का चप्‍पल टूटा था, सो हम लोगों ने इस समय का सदुपयोग किया और गली में से नया चप्‍पल खरीद ले आए। लौटे तो हाथ में अखबार में लिपटा चप्‍पल था और मंच पर विष्‍णु खरे। सड़क के बीचोबीच कतार में लगी लाल कुर्सियों पर बैठे मुसलमान भाइयों को वे भरभराई आवाज में संबोधित कर के अजय राय के लिए वोट मांग रहे थे। रियल पॉलिटिक शबाब पर था। संचालक ने उन्‍हें दिल्‍ली से आया पत्रकार बताया था, तो लोगों में उनका वज़न बढ़ गया था। वे बोले, और मंच से उतरते वक्‍त लड़खड़ा गए। मुझे अटलजी की याद हो आई।

खैर, बनारस के अल्‍पसंख्‍यक इलाकों में मेरी देखी यह पहली कांग्रेसी सभा थी। पचासेक लोग रहे होंगे। अजय राय को नहीं आना सो नहीं आए। बड़ी अजीब स्थिति है, कि कांग्रेस और मुसलमानों के बीच का रिश्‍ता समझ में नहीं आ रहा। हमने दिन में न्‍यूज़ एक्‍सप्रेस के कार्यक्रम ”वाराणसी: ब्‍लैक एंड वाइट” के शूट पर मदनपुरा के तमाम मुसलमानों से बार-बार पूछा कि वे किसे वोट देंगे। सबने बिना किसी अपवाद के केजरीवाल और झाड़ू का नाम लिया। इस लोकतंत्र में मुसलमान कभी भी अपनी पसंद ज़ाहिर नहीं करता है। यह बात हम सब जानते हैं। मेरे जाने पहली बार ऐसा हुआ कि मुसलमान बोल रहा है। नाम बोल रहा है। पसंद बता रहा है। क्‍या करें? उस पर भरोसा कर लें? अब तक के चुनावों का सबक ये रहा है कि भरोसा न किया जाए। मेरे मित्र रोहित प्रकाश एक अलहदा बात कहते हैं कि संभव है मोदी के डर से इस बार मुसलमान ज्‍यादा असर्टिव हुआ हो और अपने को खोल रहा हो। यह संभावना है, लेकिन केजरीवाल का नाम इनके मुंह से सुनकर अभ्‍यास यही बताता है कि वे केजरीवाल को वोट नहीं देंगे। इस बात से कांग्रेसी खुश हैं। बनारस में कांग्रेसियों का कोई नामलेवा नहीं है, ऐसा नहीं है। विष्‍णु खरे या शबनम हाशमी या फिर तीस्‍ता सीतलवाड़ का कांग्रेसी प्रचार उनकी दुकानदारी से उतना ही ताल्‍लुक रख सकता है जितना उनके अपने चुनावी विश्‍लेषण से। अजय राय के नाम पर मतदाताओं की चुप्‍पी कुछ कह रही है। उसे सुनने की ज़रूरत है। इसके बरक्‍स एक और आवाज है जो पूर्वांचल के खांटी सामंती चरित्र से निकल रही है।

रविदास गेट पर केशव की दुकान पर पान खाते एक पुलिसकर्मी मिले। छपरा निवासी थे। अजय राय से दुखी थे। बोले, ”पिछले चुनाव में हम बिधायकजी के संगे लगातार लगल रहली। हमरा चुनाव आयोग नोटिस भेज दिहलस। कोई बात ना.. बिधायक जी क सम्‍मान रहे। लेकिन अबकी ऊ ठीक नाहीं कइलन।” ऑटोमैटिक गति से पान बांधते राजेंदरजी की आंखें लाल हो गईं। वे बोले, ”जो राजनीत के लिए अपने भाई के कफ़न का सौदा कर ले, उसका कोई चरित्र है?” सिपाहीजी बोले, ”बताइए, ई सरवा गवाह है अपने भाई की हत्‍या में… कुछ तो लिहाज करना चाहिए था। ई न जीती।” पता नहीं इस कोण से कितने लोग सोच रहे हैं। मुख्‍तार का समर्थन लेकर अजय राय ने क्‍या कफ़न का सौदा सियासत के लिए कर लिया? क्‍या सियासत को इस उच्‍च आदर्शवादी स्‍तर पर जाकर सोचने वाले सामान्‍य लोग भी हैं? क्‍या अपने भाई की हत्‍या का बदला मोदी को हराने की चुनौती से बड़ा होना चाहिए?  ये ऐसे सवाल हैं जिन पर बनारस बहस कर रहा है। सवाल प्राथमिकताओं का है।

एक और सवाल है। क्‍या नरेंद्र मोदी को हराने के लिए अजय राय उतने ही सीरियस हैं जितने अरविंद केजरीवाल? यह सवाल ज्‍यादा गंभीर है। ज़रूरी नहीं कि गंभीरता सड़कों पर दिखाई ही दे, लेकिन सड़कों के सन्‍नाटे के पार रात के धुंधलके में जो बनारस में घट रहा है, वह भी मामूली नहीं। नई सड़क की सभा के दौरान खबर मिली कि शरद यादव तुलसी घाट पहुंचने वाले हैं। उनकी पार्टी जेडीयू ने आम आदमी पार्टी का समर्थन किया है। वे महंतजी को श्रद्धांजलि देने रात साढ़े ग्‍यारह बजे उनके घर पहुंचे। अप्रत्‍याशित रूप से चार पत्रकार वहां मौजूद थे। मैंने पूछा, ”सिर्फ बनारस में मोदी का विरोध कर के क्‍या सारी सेकुलर ताकतें वड़ोदरा में उन्‍हें वाकओवर नहीं दे रही हैं?” शरद यादव ने जवाब दिया, ”ये बेकार का सवाल है।” मैंने दुहराया, ”क्‍या बनारस की समरसता को बचाना प्राथमिक है या मोदी को हराना? ” वे मुस्‍करा कर बोले, ”भाई, हम सत्‍ता में तो हैं नहीं। बहुत कमज़ोर हैं। हमारी जितनी ताकत है उतना कर रहे हैं।” दालान से निकल कर सीढि़यों से ऊपर आते वक्‍त वे लड़खड़ा गए। उन्‍हें सहारा देकर लाया गया। मुझे अटलजी की फिर याद आ गई।

दरअसल, घुटने कमज़ोर हों तो हर आदमी अटलजी हो जाता है। मसलन, आज सवेरे शबनम हाशमी बहुत चिंतित थीं कि 9 तारीख को कबीर मठ में सूफ़ी गायन के लिए एडीएम ने उन्‍हें मंजूरी नहीं दी। वे मतदाता जागरूकता की बात कर रहे हैं और किसी का भी प्रचार करने वाले कार्यक्रमों को मंजूरी नहीं दे रहे। आज सवेरे-सवेरे बनारस के अखबारों में कांग्रेस प्रचार के लिए 60,000 परचे बंटवा चुकीं शबनम के चेहरे पर लेकिन इसका कोई उत्‍साह नहीं था। एक मित्र कह रहे थे कि राहुल गांधी के कांग्रेस की सत्‍ता में मज़बूत होने के बाद कुछ बदलाव आया है। कांग्रेस पोषित एनजीओ और व्‍यक्तियों को भाव नहीं दिया जा रहा और वे अपनी जगह दोबारा बहाल करवाने के लिए चार कदम आगे बढ़कर कांग्रेस के पक्ष में काम कर रहे हैं। यह बात कितनी सही है और कितनी गलत, यह तो नहीं पता लेकिन शबनम हाशमी को रायबरेली में परचा बांटने पर आरएसएस के लोगों द्वारा धमकाए जाने की घटना पर एक लेखक ने 4 तारीख को कबीर मठ में वाजिब टिप्‍पणी की थी, ”रायबरेली में साम्‍प्रदायिक फासीवाद का कौन सा खतरा है? ज़रा उनसे पूछिए कि वे वहां किसका परचा बांट रही थीं?” इस तरह के कई सवाल हैं जो बनारस के मोदी विरोधी खेमे में तैर रहे हैं, इसके बावजूद कुछ कमज़ोर घुटने मोदी को हराने के लिए किसिम किसिम की सीढि़यां उतर-चढ़ रहे हैं।

बनारस की पत्रकारिता में ऐसे औसत से ”लंबे लोग” आकर्षण का केंद्र होते हैं। ये खबरें बना रहे हैं, अफ़वाह के पात्र बन रहे हैं और अंतत: सहानुभूति के पात्र बन जा रहे हैं। जनता के लिए ऐसे लोग बस नए चेहरे हैं। नई सड़क पर कांग्रेसी सभा जहां हो रही थी, उसके बगल वाली गली में गुटखा चबाता एक नौजवान इदरीस मंच की ओर देखते हुए कहता है, ”जीतना मोदी को है, परेशान सब लोग हो रहे हैं।” यही परेशानी फि़लहाल नरेंद्र मोदी के सबसे मजब़ूत मुहावरे के बरक्‍स बनारस को बना-बिगाड़ रही है।

पिछली किस्‍त 
अगली किस्‍त 

Read more

5 Comments on “Benares Grapevine-2: परेशान चेहरे और लड़खड़ाते घुटने”

  1. पिछले पाँच महीनों से बाएँ घुटने में एक मोच से लम्बी तकलीफ है.फिजियोथेरपी भी चली.यहाँ तक कि बीच में छड़ी लेकर भी चलना पड़ा.बनारस में भी नी-कैप पहन कर घूमा हूँ. 'भर्राई हुई आवाज़','लड़खड़ाते घुटने''अटलबिहारी जैसा सहारा'आदि जैसे जुमले उस नव-कमीनेपन की भाषा-शैली के सुस्पष्ट लक्षण हैं जो आप जैसे लोगों ने अपनी गिरगिटी खाल के बचाव के लिए विकसित किए हैं.यह मेरा शर्मनाक पतन-बिंदु है कि मुझे आप जैसे लोगों के साथ बैठ कर शराब पीनी पड़ी, लेकिन मैं किसी भी सभा में शराब पीकर नहीं जाता – मुसलमानों की सभा में तो कोई सूअर ही गंधाता हुआ जाएगा.वह आप ही थे जो कबीर मठ वाली सभा में लपक कर मंच के पास आए थे और मुझे अपना बयान वापिस न लेने का 'साहस' दे रहे थे – आप-जैसा दो-ति-चौमुंहा आदमी, जिसके लेखन और संगत से पता ही नहीं चलता कि वह किस तरफ है और बनारस में उसकी संदिग्ध उपस्थिति किसके लिए है !
    मोदी को यदि कोई व्यक्ति हरा सकता है तो वह अजय राय ही है.इसीलिए मैं सब जानते हुए भी सारे जोखिम उठाकर बनारस गया था.वह कोई भी,किसी भी दूसरी पार्टी का आदमी मेरा दोस्त और भाई है जो इस समय बनारस से मोदी को हारने का पोटेंशियल रखता हो.आप बनारस में किसी भयानक और घिनौनी भूमिका में हैं जो जल्द ही उजागर हो जाएगी.

  2. रोमन से नागरी में अंतिम दूसरी पंक्ति में 'हराने' का लिप्यन्तरण 'हारने' हो गया.उसे कृपया 'हारने' पढ़ा जाए.

  3. खेद है कि लिप्यन्तरण में फिर गड़बड़ हुई.उसे भी हराने पढ़ा जाए.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *