हाथरस पर दलित समाज के नेताओं की दबी जुबान चौंकाने वाली है


देश को आजादी मिले भले ही सात दशक बीत चुके हों लेकिन दलितों पर जुल्म और अत्याचार थमने का नाम नहीं ले रहा है। इसका कारण है कि उच्च श्रेणी वाला समाज दलितों के प्रति अपनी मानसिकता में बदलाव लाने में नाकाम रहा है। उत्तर प्रदेश के हाथरस में दलित समाज की लड़की से तथाकथित अगड़ी जाति के चार लड़कों ने गैंगरेप के साथ जो बर्बरता और क्रूरता की है, उसने पूरे समाज को दहला कर रख दिया है।

आजादी के तुरंत बाद से ही यह सवाल उठने लगा था कि जब तक सवर्ण समाज अपनी जाति श्रेष्ठता वाली मानसिकता को उतार कर फेंक नहीं देता है तो मुमकिन है कि दलितों का उत्पीड़न और शोषण होता रहेगा। भारत के संविधान निर्माताओं ने दलित और स्त्रियों को ध्यान में रखकर उनकी भागीदारी और सुरक्षा संविधान में सुनिश्चित की थी। इसके बावजूद जातिवादी और सामंती मूल्यों के रखवालों ने संविधान और लोकतंत्र को ताक पर रखकर दलितों और स्त्रियों पर जुल्म और अत्याचार करने के मामले में सारी हदें पार कर दी हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि सवर्णों की प्रताड़ना के निशाने पर दलित होते हैं। दलितों और स्त्रियों पर अत्याचार के मामले में सवर्ण समाज के लोग इतिहास के पन्नों को काला करते आये हैं। दलित युवती के साथ दुराचार के बाद जैसी बर्बरता और क्रूरता हुई है, वह अत्याचारों की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है? सामंती और जातिवादी मूल्यों के समर्थक दलितों और स्त्रियों को दोयम दर्जें का नागरिक मानते रहे हैं। इस विचार और मानसिकता वाले लोगों को यह कतई बर्दाश्त नहीं है कि दलित-स्त्रियां उनके दायरे से बाहर आकर अपनी स्वतंत्र अस्मिता और पहचान का निर्माण करें। यदि कोई दलित इस घेरे को चुनौती देता है या फिर मानने से इनकार कर देता है तो जातिवादी और सामंती वसूलों के रखवालों द्वारा दलितों को सबक सिखा दिया जाता है। गैंगरेप पीड़ित दलित युवती की रीढ़ तोड़ देना और उसकी जीभ काट देना, यह दलितों को मनुकाल की याद दिलाना नहीं तो और क्या है? दलित समाज मनुकाल से निकलना चाहता है लेकिन जातिवादी ताकतें अपने रसूख के बल पर दलितों को बार-बार मनुकाल की ओर ले जाकर धकेलती रहती हैं।

सवर्णें को जाति के खोल से बाहर आकर अपने भीतर बदलाव लाना होगा। सवर्णों को सवर्णवादी मानसिकता के खिलाफ गोलबंदी करनी होगी और दलितों को न्याय मिले, इसके लिए उन्हें आगे आकर पहलकदमियां भी उनको करनी होंगी। यदि सवर्ण समाज के लोग अपने भीतर के सामंती और जातिवादी मूल्यों को उतार कर फेंक दें, उस दिन से दलित और स्त्रियों को न्याय मिलने में देर नहीं लगेगी।

दलित स्त्रियों की समाज में स्थिति वंचितों में वंचित जैसी होती है। दलित समाज की शैक्षिक और आर्थिक स्थिति भी बड़ी दयनीय होती है। ऐसे में उनके साथ संवेदनशीलता से पेश आने के बजाय सामंती और जातिवादी लोग अपनी मरदाना ताकत की सारी कुंठाएं दलित समाज और उनकी स्त्रियों पर निकालते रहते हैं। इस तरह के गैंगरेप को अंजाम देने के पीछे जातिवादी पूर्वाग्रह और सामंती रसूख का प्रदर्शन भी करना होता है। सवर्णवादी और सामंती ठसक से लैस लोग दलितों को दिखाना चाहते हैं कि यदि किसी दलित ने उनके सामने सिर उठाया तो उसकी बहन बेटियों का भी यही हाल किया जाएगा। एक तरह से दलितों को डराने-धमकाने और भय पैदा करने के लिए ऐसी घटनाओं को अंजाम दिया जाता है। जातिवादी और सामंती गठजोड़ के वाहक लोग आज भी दलित को बड़ी हिकारत भरी दृष्टि से देखते हैं और उनके साथ बड़ी निर्ममता और संवेदनहीनता के साथ पेश आते हैं। दलितों का पढ़ना, लिखना, अपने हकों की दावेदारी करना अब भी जातिवादी मानसिकता से ग्रसित लोगों को बर्दाश्त नहीं होता है।

21वीं सदी में आकर भी उच्च श्रेणी के दंभ से ग्रसित तथाकथित सवर्ण दलितों को वर्ण-व्यवस्था की संरचना के दायरे में रखकर देखते हैं। जो दलित इस वर्ण संरचना के दायरे को तोड़ता है तो उसको प्रताड़िता किया जाता है, उसकी बेटी के से दुराचार किया जाता है, रीढ़ हड्डी और जीभ काट दी जाती है। हाथरस की दलित युवती से गैंगरेप की घटना बताती है कि आज भी उच्च श्रेणी का समाज सामंती और जातिवादी आग्रहों से भरा पड़ा है, जो दलितों पर अत्याचार के मामले में क्रूरता की सारे हदें पार कर सकता है।

दलितों का सरकारी हलकों और न्याय व्यवस्था में हस्तक्षेप न होने के कारण उनके के लिये न्याय पाना दूर की कौड़ी साबित होता है। चूंकि शासन और प्रशासन में बैठे तथाकथित अगड़े जाति के लोगों का व्यवहार दलितों के साथ सहयोगात्मक नहीं होता है, इसलिए दलितों को न्याय की सीढ़ी चढ़ने से पहले ही जाति का रसूख दिखाकर उनकों न्याय के गलियारों से लौटा दिया जाता है जबकि संविधानवादी मूल्यों का तकाजा कहता है कि स्त्रियों और दलितों को न्याय दिलाने की पहलकदियां सरकारी निज़ाम को करनी चाहिए। हाथरस की गैंगरेप पीड़ित दलित युवती के मारने के बाद उसके परिवार के साथ निज़ाम ने जैसी संवदेनहीनता दिखाई है, वह संविधान और लोकतांत्रिक मूल्यों की धज्जियां उड़ा के रख देता है।

यदि गैंगरेप पीड़िता दलित जाति से नहीं होती तो क्या उसके मरने के बाद जो उसकी लाश के साथ किया गया है, क्या सरकारी निज़ाम यह हिमाकत दिखा पाता? यह घटना बताती है कि दलित समाज को न जीते जी और न ही मरने के बाद सम्मान मिलता है। दलित समाज के लोग दलित राजनेताओं को सामाजिक न्याय की लडाई को बुलंद करने के लिए वोट देते हैं। इस घटना पर दलित समाज से आने वाले नेताओं का मद्धम स्वर निश्चित तौर पर चकित करता है। उन्हें जिस तरह से पीडिता और परिवार को न्याय दिलाने की पैरोकारी करनी चाहिए थी, अभी तक वह दिखाई नहीं दी है।


लेखक आलोचक और अध्येता हैं


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