मैं और मेरा सच: जनपथ पर लंबे सन्नाटे का सबब



अभिषेक श्रीवास्तव 

बहुत से लोगों ने इधर बीच पूछा कि जनपथ क्‍यों ठप पड़ा हुआ है। मेरे पास कोई कन्विंसिंग जवाब नहीं था। अब भी नहीं है। अगर जवाब जानना ही हो तो आप इसे प्रथम दृष्‍टया आलस्‍य कह सकते हैं। आलस्‍य भी क्‍या, मेरे हिसाब से एक किस्‍म की अन्‍यमनस्‍कता, एक बेपरवाही वाला भाव। जवाब इससे भी हालांकि पूरा नहीं होता। अब जब लिख ही रहा हूं, तो कायदे से बात हो जानी चाहिए।
यह मेरा ब्‍लॉग है। निजी ब्‍लॉग। निजी ब्‍लॉग कहना अतिरंजना है। ब्‍लॉग का माध्‍यम निजी ही होता है। ख़ैर, इसमें न मुझे कोई संदेह है न ही उन्‍हें जो जनपथ को जानते आए हैं, देखते आए हैं। दस साल हो रहे हैं जब अभिव्‍यक्ति के वैकल्पिक मंच की तलाश में मैंने यह ब्‍लॉग शुरू किया था। उस वक्‍त हिंदी ब्‍लॉगिंग शुरुआती दौर में था और हिंदी पत्रकारिता गड्ढे में गिर कर छटपटा रही थी। अखबारों के विकल्‍प के तौर पर बाद में मशहूर हुए तमाम ब्‍लॉग जनपथ के बाद में बने और कब का कमा-धमा कर बंद भी हो गए। जनपथ चलता रहा। खरामा-खरामा। पसंद की सामग्री मिली तो डाल दिया। नहीं मिली तो लंबी छुट्टी। कंटेंट पर कोई जोर-जबर नहीं था। पैसे कमाने का तो दिमाग में कभी आया ही नहीं। वो तो इधर बीच यशवंत सिंह ने विज्ञापन डालने का आग्रह किया, तब मैंने उन्‍हें कहा कि वे खुद ही इस पर गूगल ऐडसेंस का कोड लगा दें। उसके बाद से मैंने अब तक यह जानने में कोई दिलचस्‍पी नहीं ली कि इसका अंजाम क्‍या रहा है।
बहरहाल, एक प्रक्रिया में मैंने धीरे-धीरे जनपथ को अपने से स्‍वतंत्र करने की भी कोशिश की। कोशिश की, कि इसे एक ऐसी स्‍वतंत्र वेबसाइट के तौर पर विकसित किया जा सके जहां कुछ हटकर पढ़ने को मिल सके। जहां बने-बनाए पालों की लकीर पीटने की मजबूरी न हो। जनपथ ने एक हद तक अपने सुधी पाठक भी जनरेट किए। एक स्थिति ऐसी आ गई थी जब अखबारों में यहां से उठाकर पोस्‍ट लगा ली जाती थी और आज़मगढ़ से कोई फोन कर के बताता था कि भाई, आपका जनपथ हिंदुस्‍तान में या फलाना में छपा है। वह स्थिति अब नहीं है। अखबारों की ब्‍लॉग पर से निर्भरता का संक्षिप्‍त दौर जा चुका है।
मुझे आश्‍चर्य होता है कि 9 फरवरी, 2016 की घटना के बाद उपजे ऐतिहासिक घटनाक्रम पर तमाम ऑनलाइन और ऑफलाइन मंचों पर उत्‍पादित टनों सामग्री में जितने ज्‍यादा शब्‍द खर्च किए गए, उसका एक छटांक भी मैंने जनपथ पर क्‍यों नहीं खर्चा। इस दौरान इतनी हलचल रही, इतना कुछ कहा और लिखा गया कि कुछ वेबसाइटों के लिए फरवरी मध्‍य से मार्च मध्‍य की अवधि हिट जनरेट करने में ऐतिहासिक साबित हुई। इंडिया रेजिस्‍ट जैसी वैकल्पिक सूचना की वेबसाइट भी एलेक्‍सा रैंकिंग में 1200 के भीतर पहुंच गई। कैचन्‍यूज़, क्विंट, वायर आदि ने खूब हिट जनरेट किए। जनपथ के लिए यह सुनहरा अवसर था। समर्पित पाठक भी थे और विश्‍वसनीयता भी। संसाधन भी थे। कुछ नहीं तो रोज़ाना पांच लेखों का अनुवाद छापकर ही हिंदी के पाठकों तक रोज़ाना पहुंचाया जा सकता था। मैंने ऐसा कुछ भी नहीं किया। 23 फरवरी को कुछ नागरिकों द्वारा जारी एक बयान छापने के अलावा कुल जमा प्रकाशित सामग्री जेनयू की शोध छात्रा स्‍मृति सिंह के तीन लेख रहे जो राष्‍ट्रवाद की धूल बैठ जाने के बाद ठंडे दिमाग से लिखे गए थे। आखिरी लेख डेढ़ महीने पहले छपा था, तब से जनपथ सन्‍नाटे में है।
मुझे लगता है कि कोई भी माध्‍यम अपने नियंता/मॉडरेटर से स्‍वतंत्र नहीं हो सकता, जब तक कि ऐसा व्‍यावसायिक बाध्‍यता न बन जाए। शायद यह बात भी उतनी सही नहीं है, बल्कि इंडिया टीवी या इंडिया न्‍यूज़ या ज़ी न्‍यूज़ (या विरोधी पक्ष का प्रचार करने वाली वेबसाइटों) को देखें तो उलट ही जान पड़ती है। ये सभी विशुद्ध व्‍यावसायिक उपक्रम हैं, लेकिन अपने नियंता की राजनीति से कतई स्‍वतंत्र नहीं है बल्कि कहीं ज्‍यादा नाभिनालबद्ध हैं। इसे कैसे समझा जाए? क्‍या  वैचारिक पक्ष व्‍यावसायिक पक्ष को ताकतवर बनाता है? अब तक तो हम यही जानते आए थे कि व्‍यवसाय और विचार का छत्‍तीस का आंकड़ा है। हमारी सहज समझदारी यही थी कि व्‍यावसायिकता की आड़ में चोरी-छुपे कुछ विचार आगे-पीछे ठेले जा सकते हैं, लेकिन वैचारिक पक्ष को लेकर व्‍यवसाय करना किसी भी नज़रिये से फयदेमंद नहीं होता। फरवरी-मार्च 2016 का घटनाक्रम इस मान्‍यता को तोड़ता है।
हमारे पास दो विकल्‍प थे। या तो हम राष्‍ट्रवादी हैं या नहीं। या तो हम राष्‍ट्रभक्‍त हैं या नहीं। हम जेएनयू के साथ हैं या उसके विरोध में। हम नारा लगाने वालों के पक्ष में हैं या उनके विरोध में। 9 फरवरी के बाद इस देश में विचार के दो पाले साफ़-साफ़ खींच दिए गए थे। शायद अब भी होंगे। अचानक चीज़ें इतनी तीव्रता से और इतने आवेग से हमारे ऊपर तारी हुई थीं कि पाला चुनने के अलावा और कोई रास्‍ता नहीं छोड़ा गया था। ज़ाहिर है, जब युद्ध होता है तो आपको पक्ष चुनना ही पड़ता है। हम सब ने पक्ष चुना। कुछ भी गलत नहीं किया। एक व्‍यक्ति के बतौर पक्ष चुनना और एक लेखक/प्रकाशक/पत्रकार के तौर पर पक्ष चुनने में हालांकि बुनियादी फर्क है। कायदे से ऐसा होना नहीं चाहिए, लेकिन है तो है। जिन माध्‍यमों ने थोपे गए राष्‍ट्रवाद को चुना, उन्‍होंने अपने व्‍यवसाय को बाकायदा इससे नत्‍थी कर डाला। जिन्‍होंने दूसरा पक्ष चुना, उनका व्‍यवसाय भी इसी दृष्टि से संचालित होता रहा। व्‍यावसायिक लाभ दोनों तरफ हुआ। इसकी वजह साफ़ थी। लोगों को तेज़ी से बदलते घटनाक्रम में जानने की भूख पैदा हुई थी। उनका काम एक माध्‍यम से नहीं चल रहा था। एक आदमी टीवी भी देख रहा था, वेबसाइट भी देख रहा था और अखबार भी पढ़ रहा था। टेलिग्राफ पढ़ने वाला नागरिक एनडीटीवी भी देख रहा था और कैच, वायर या क्विंट भी देख रहा था। ज़ी न्‍यूज़ देखने वाला दर्शक दैनिक जागरण पढ़ रहा था और टाइम्‍स नाउ देखने वाला दर्शक इंडिया डॉट कॉम व नीतिसेंट्रल देख रहा था। विचार के दो पालों में न केवल सूचना माध्‍यमों का, बल्कि पाठकों/दर्शकों का भी बंटवारा हो चुका था।
ऐसे में विचार या विचारधारा कुल मिलाकर अपनी मार्केटिंग करने वालों के लिए खाद-पानी जुटाने का काम जाने-अनजाने में कर रही थी और दोनों ओर के समर्थक ताली पीट रहे थे। जिसे विचारधारा की जंग का नाम दिया गया, वह ड्राईंग रूमों में दरअसल विचारधारा के व्‍यावसायिक वाहकों के बीच की जंग थी जिसमें अपने-अपने नायकों और खलनायकों का उत्‍पादन किया जा चुका था। ये नए नायक विचारधाराओं के नए ब्रांड एम्‍बेसडर बनकर उभरे। चूंकि स्थिति आपातकालीन थी, इसलिए ठहर कर सोचने का मौका नहीं था। हमें भी इन्‍हीं नायकों और खलनायकों में से अपने लिए माल चुनना था। हमने ऐसा ही किया। फिर अपने ‘चुने’ नायकों की लोकप्रियता के हिसाब से अपनी विचारधारा की जीत को आंकने लगे और यह अंदाजा लगाने लगे कि सामने वाला कितना पीछे हट चुका है। दूसरी ओर भी यही हाल था। इस तीखे विभाजन ने दो काम बड़ी आसानी से किए।
कहने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए कि अव्‍वल तो इसने सच को बड़ी करामात से ठिकाने लगा दिया। दूसरे, विचारधारा को जाहिलों का खेल बना दिया। विचारधारा यानी आइडियोलॉजी लंबे समय तक इतिहास में परखे गए कुछ सिद्धांतों का सार होती है, एब्‍सट्रैक्‍ट होती है। उस एब्‍सट्रैक्‍ट से तथ्‍यों/घटनाओं को परखने का एक ढांचा तैयार होता है। फरवरी-मार्च में हम जिस वैचारिक जंग के गवाह बने, वहां सार गायब था। ढांचा गायब था। जब ढांचा गायब था, तो तथ्‍यों और घटनाओं की परख का सवाल ही कहां उठता। जो पहले कहा गया, वही सच बन गया। बाद में इसे झूठ बताया गया, तो एक दूसरा सच तैयार हो गया। दोनों ही सच अलग-अलग विचारों के वाहक थे, यह बात स्‍वयंसिद्ध मान ली गई। इस तरह आइडियोलॉजी का एक सुविधाजनक स्‍थानापन्‍न गढ़ा गया। मुंह से निकले पहले वाक्‍य के आधार पर इस देश में कोई भी किसी को कम्‍युनिस्‍ट या संघी, राष्‍ट्रभक्‍त या राष्‍ट्रद्रोही कहने की छूट पा गया। ऐसा नहीं है कि इस बीच सच कहा नहीं गया। ऐसा नहीं है कि दुतरफा प्रचारतंत्र पर सवाल नहीं उठाए गए। बेशक ऐसा हुआ, लेकिन अपने-अपने पाले सलामत रखने की कीमत पर ही यह हुआ।
यह एक ऐसी तीखी मुठभेड़ थी जिसमें सच पहले ही दिन मारा जा चुका था और विचारधारा चौराहे पर सस्‍ती रंगीन पन्नियों में बांधकर नीलाम की जा चुकी थी। सरकार संसद में साजिशें कर रही थी और टीवी का डब्‍बा देश को चला रहा था। सवा अरब आबादी के बीच बहस करने में सक्षम हर नागरिक की एक या दूसरी राय थी। आप पूछेंगे जो मारा गया, वह सच क्‍या था? इसका जवाब आसान है। तीसरी या चौथी या पांचवीं या सौवीं राय ही वह सच है जिसे कुचल दिया गया। सच को उसके बहुवचनों में कुचला गया। बार-बार। हर दिन। हर पल। और इस तरह हमने दोनों पालों में कुछ नायक और कुछ खलनायक खड़े कर दिए। सच न नायक के साथ था, न खलनायक के साथ। 9 फरवरी के बाद की ‘जंग’ इस लिहाज से सत्‍य और विचारधाराविहीन थी। देखने में यह लड़ाई खूब सच के पक्ष में और उसके खिलाफ जैसा आभास दे रही थी। ऐसा लग रहा था गोया विचारधाराएं आलमारियों से निकलकर 90 साल बाद सड़कों पर उतर आई हों। जरा पलट कर अब देखिए: अगर आपने महीने भर चले महाभोज में दिल से शिरकत की है, तो इस वक्‍त दिल के बीचोबीच आपको एक गहरा सुराख़ सा मिलेगा। एक ब्‍लैकहोल।
जाने कितना कुछ कितने ब्‍लैकहोलों में इस बीच समा गया। महीने भर पहले की उत्‍तेजना, भय, उन्‍माद, दहशत, आक्रोश, दुख और बग़ावत ने अब जाकर चैन की सांस ली है, तो यह साफ़-साफ़ समझ में आ रहा है कि जनपथ पर डेढ़ महीने सन्‍नाटा क्‍यों बना रहा। एक आभासी जंग में हम लोग खींच लिए गए थे हमेशा की तरह और अपनी नादानी में इसे बहुत अहमियत दे बैठे। मुझे लगता है कि उस दौरान जो लोग भी लगातार लिख रहे थे, वे हम जैसों के मुकाबले कहीं ज्‍यादा आश्‍वस्‍त थे कि यह दौर भी टल जाएगा। कम से कम मैंने तो अपनी कलम खड़ी कर दी थी। कीबोर्ड बांधकर रख दिया था। जनपथ पर आना छोड़ दिया था। लगातार एक धुकधुकी सी लगी हुई थी जो लिखने-रचने की हर प्रेरणा पर कहीं ज्‍यादा भारी पड़ रही थी। लोग इतना कुछ लिख रहे थे। मैं केवल पढ़ रहा था और इस बात की दाद दे रहा था कि इतने सारे लोग हैं जिन्‍हें इतने विभाजित समय में भी कलम पर कोई बोझ महसूस नहीं हो रहा। अब समझ में आता है कि वाकई इतना कुछ जो लिखा गया, वह अधिकांश व्‍यवसाय और पेशे के बोझ तले था।
मेरे जाने ऐसा पहली बार हुआ कि पत्रकारिता के पेशे ने वैचारिक पक्षों को इतनी सहजता से व्‍यवसाय के हित में इस्‍तेमाल कर लिया। अतीत का मुझे नहीं पता। बुजुर्ग बताएंगे। केवल और केवल इसी वजह से रवीश कुमार के 19 फरवरी की रात नौ बजे वाले प्राइम टाइम में दिखाया गया खाली और काला परदा मुझे एकबारगी अपील करता है, लेकिन उसके पीछे बोले गए कुल 2031 शब्‍द एक ईमानदार कृत्‍य को इतना खोखला ओर बेमानी बना देते हैं कि सच की अनावश्‍यक मौत हो जाती है। बताइए, 19 फरवरी की रात के बाद से जब एक पाला इस प्राइम टाइम के प्रचार में खिंचा हुआ था और दूसरे पाले में गालियों की बौछार हो रही थी, तो मैं क्‍या खाकर अपनी बात कहता? क्‍या चाह कर भी कह पाता? कह कर भी सुना पाता? सुनाकर क्‍या अपना पाला सुरक्षित रख पाता? पाले से ब‍हरियाए जाकर कहीं मोहल्‍ले में ही धर लिया जाता तो? कथित राष्‍ट्रद्रोही मुझे थोड़ी रियायत देते हुए यह कह कर बहरिया देते कि मैं 2031 शब्‍द बोलने के लिए रवीश की आलोचना क्‍यों कर रहा हूं। मैं इस तरह अकेला पड़ जाता। फिर राष्‍ट्रवादी मुझे राष्‍ट्रद्रोही कह कर मार देते कि मैंने रवीश के काले परदे की बड़ाई क्‍यों की।
बताइए, तब मेरी मौत का स्‍टेटस क्‍या होता? ज़ाहिर है, मैं ऐसा राष्‍ट्रद्रोही होता जिसके पक्ष में कोई राष्‍ट्रद्रोही बोलने नहीं आता। आता भी तो बोलता नहीं, चुप रह जाता। कुल मिलाकर मेरी मौत ‘सच की जंग’ में ज्‍यादा से ज्‍यादा एक ‘कोलैटरल डैमेज’ होती। मैं तो अपने जाने सच कह रहा था, लेकिन मेरा सच कोलैटरल डैमेज का शिकार हो जाता। सो, मैं चुप रहा।   
इसीलिए जनपथ पर डेढ़ महीने सन्‍नाटा रहा। जैसा मैंने शुरू में कहा- मामला मेरे आलस्‍य का उतना नहीं था, जितना अपने सच को अपने साथ बचा ले जाने का था। मेरा सच मेरे साथ बचा हुआ है, मुझे इसका संतोष है। अगर नहीं लिखने से अपना सच बच जाता हो, तो यही सही। आपका सच आपकी जिम्‍मेदारी है। समाज का सच समाज की जिम्‍मेदारी है। जब पूरा समाज झूठ को बचाने की लड़ाई लड़ रहा हो, तो मेरे जैसों का चुनाव सबसे मुश्किल हो जाता है जिनके न आगे नाथ है न पीछे पगहा। अब मुझे भरोसा हो रहा है कि झूठ की धूल शायद आने वाले दिनों में कुछ बैठेगी। जनपथ फिर से खरामा-खरामा आगे की ओर खिसकेगा।
बकौल फ़ैज़:
फिर से एक बार हर एक चीज़ वही हो जो है

आसमाँ हद-ए-नज़र, राह-गुज़र राह-गुज़र, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय
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