ठगा जाना आपका अपना चुनाव है!



स्मृति सिंह 
बात कन्‍हैया कुमार के भाषण से निकली तो इस बात का अंदाज़ा हुआ कि कितना संजीदा मुद्दा है ये मौजूदा राजनैतिक दौर का। कन्‍हैया कुमार बोले कि इंस्टेंट मेसैज और मीम के आधार पर राजनीति हो रही है और जेएनयू में पढ़ने वालों की बातें आम लोगों के सर के ऊपर से निकल जाती हैं। बात आत्ममननकी भी है और चिंतन की भी। हाँ, शायदबड़े बड़े लफ्ज़, गूढ़वैचारिक सिद्धांत और शब्दावली समझ बनाने में दिक्कत पैदा करते है। तो क्या आम समझ और गहन समझ के अंतर अंकित कर दिए जाये? क्याआम जनता गहन समझ बनाने में असमर्थ है या हम पंडे का पद ग्रहण कर आम जनता को अपने आकलन अनुसार नाप तोल कर गहन विचार पचानेलायकहिस्सों में परोसने के पक्षधर बन रहे हैं? आम समझ और गहन समीक्षा का भेद इतना गहरा कैसे हो सकता है कि उसे संवाद लांघ पाये? राजनीति फिर किस स्तर पर की जानी चाहिए, आम समझ के स्तर पर या गहन समझ के स्तर पर? या आम समझ के स्तर पर अलग और गहन समझ के स्तर पर अलग राजनीति होनी चाहिए, जो शायद इस दौर में हो भी रही है।

आम समझ क्योंकि सरलता और संक्षिप्त बात को तवज्जो देती है, तो इस सन्दर्भ मेंजज़्बातसंवेदना की राजनीतिऔरक्षणभंगुर सामूहिक याद्दाश्तऐसे में बहुत महत्वपूर्ण हो जाते हैं। आप सीधे तौर पर और बहुत कम समय में सिर्फ संवेदना पैदा कर सकते हैं, विचार नहीं। और क्योंकि इन संवेदनाओं का कोई ठोस आधार नहीं, तो इस बात की ज़रूरत कम हो जाती है कि इन्हें इनके तर्कसंगत निष्कर्ष तक पहुँचाया जाए। ऐसे मेंक्षणभंगुर सामूहिक याद्दाश्तकाम आती है।क्षणभंगुर सामूहिक याद्दाश्त“, यानि इस बात की सामूहिक मगर असंयुक्त सहमति कि मुद्दों को उनके तर्कसंगत निष्कर्ष तक बिना पहुंचाए भी छोड़ा जा सकता है। यह सहमति इस बात को तय कर देती है कि नित नए मुद्दों के शोर से जनता में पुनः उत्तेजना भरे जज़्बात पैदा किये जा सकें और इस शोर में दबा दिए जाएं पुराने मुद्दों के घर्षण से पैदा हुए सामाजिक विमर्श और राजनैतिक संवाद। दिक्कत ये है संवेदना और जज़्बात छिछले आधार पर भी पैदा किये जा सकते हैं। इसलिए, क्योंकि इंसानी प्रवृति में निहित है संवेदना। हम किसी का दुःखतकलीफ समझ के खुद के प्रति उदार महसूस करते हैं, हम विचलित, रुष्ट महसूस कर के खुद को जीवंत महसूस करते हैं। मगर ये इंसानी प्रवृति का हिस्सा है और ये जज़्बात आप में तीन घण्टे की फ़िल्म देख कर भी पैदा होते हैं इन जज़्बातों का संवेग बना रहे, उसके लिए ज़रूरी है इनका किसी अनुभव या विचार में स्थापित होना।

जज़्बातसंवेदना की राजनीतिऔरक्षणभंगुर सामूहिक याद्दाश्तको आधार मान कर आम समझ की राजनीति को देखा जाये तो शायद समझ में आने लगेगा कि इंटरनेट मीम और इंस्टेंट मेसेज पर बिना आधार के पैदा की जा रही राजनैतिक समझ के क्या मायने हैं और क्या खतरे हैं। इंटरनेट मीम, सनसनीखेज ब्रेकिंग न्यूज़ आदि साबुन के बुलबुलों की राजनीति है जिनका मुमकिन है कोई आधार हो, पर ज़रूरी नहीं। टीवी स्क्रीन पर बिलबिलाती एक पंक्ति जिसकी प्रमाणिकता वह पंक्ति खुद है और जिससे जुड़े सुबूत सिर्फ उसके सहयोग भर के लिए हैं, इसका बेहद अच्छा उदाहरण है। इसके बाद ज़रूरत होती है दर्शकों को एक उपयुक्त अभिव्यक्ति का जरिया सुझाने की और ये काम टीवी कैमरा के लिए नाटकीय तौर से रुष्ट होते चीखतेचिल्लाते अतिउत्तेजित लोगों के मिनटमिनट भर के वीडियो क्लिप्स कर देते हैं। आपका दिमाग इन अवधारणाओं को इस्तेमाल कर उन अतिउत्तेजित (कलाकारों) लोगों के प्रति संवेदना पैदा करता है और आपकी प्रतिक्रिया तय हो जाती है। ये एक तरफ़ा क्रियाप्रतिक्रिया का समीकरण है। इसके बाद इस संवेदना पर राजनीति के खेल की रणभूमि तैयार हो जाती है।

संवेदना ज़रूरी है, मगर उतना ही ज़रूरी है उसका वैचारिक और तार्किक आधार। वैचारिक और तार्किक आधार पैदा होता है एक गहरे और गंभीर संवाद से। नुक्कड़ पर या चाय की किसी छोटी दुकान पर सुस्ताने बैठे रिक्शेवाले गहरे और गंभीर संवाद पैदा कर पाते हैं। इसमें कुछ भूमिका लेख, लेखों की प्रतिक्रिया में लिखे लेख, रेडियो पर होने वाली चर्चा की भी होती है। रेडियो इसलिए क्योंकि यहाँ एक वक़्त में एक बात को दर्ज करने की बंदिश होती है, आप एक के ऊपर एक बात सिर्फ जज़्बात पैदा करने के लिए नहीं रख सकते। फिर तो चर्चा का मूल उद्देश्य ही पूरा नहीं हो पायेगा। जिस वक़्त मैं ये लिख रही हूँ, उस वक़्त टीवी के दायरे से दूरी का अनुभव कर चुकी हूँ। अमरीका में रेडियो का एक चैनल है जिसे यहाँ नेशनल पब्लिक रेडियो (एनपीआर) कहा जाता है। जब आई ही थी, तो पाया कि सारा दिन घर में रेडियो चलता रहता है, मेरे साथ रहने वाली साथी की रुचि के चलते। दस बजे डाएन रीम राजनैतिक मुद्दों पर चर्चा करती हैं। इस चर्चा का हिस्सा विचारक, राजनैतिक सलाहकार, विशेषज्ञ, जानकार और ख़ास तौर पर श्रोता एक साथ होते हैं। एक वक़्त में एक सवाल के जवाब पर आपसी बातचीत से समझ बनायीं जाती है और बीच बीच में श्रोताओं के फ़ोन लिए जाते हैं। बहुत मज़ेदार अनुभव था ये, बचपन में गाँव में रेडियो सुनने जुटे आसपास के पड़ोसियों की याद ताज़ा हो आई। याद ताज़ा हुई तो याद आया कि पुरुष दालान में साथ बैठ कर सुने हुए समाचारों पर घंटो चर्चा करते थे (मेरा अनुभव हिन्दू सवर्ण परिवार की सामाजिक हैसियत, सुविधा और विशेषाधिकार का नतीजा भी हो सकता है, मैं इस बात के प्रति सचेत हूँ) औरतें घर में अपनी बारी का इंतज़ार करती थीं मैंने घर की औरतों को कभी समाचार सुनते नहीं देखासमाचार के समय घर का इकलौता रेडियो दालान में पहुँचा दिया जाता था।

यहाँ ज़रूरी सार ये है कि रेडियो एक कारगर माध्यम बन सकता है, मगर अब आप रेडियो सिर्फ तब सुनते हैं जब दैनिक सफ़र कर रहे हों या बिलकुल नहीं। और रेडियो पर भी अब सिवाय भद्दे बेतुके गानों और विज्ञापनों के कुछ ख़ास नहीं मिलता। ऐसे में राजनैतिक चर्चा या सामाजिक विमर्श तो दूर की बात है। गंभीर विचार, समीक्षा, लेख और रेडियो जटिल भाषा और आम समझ के बीच का माध्यम बन सकते हैं और मेरी राय में एनपीआर और डाएन रीम शो इस बात का बेहतरीन प्रयोग/उदहारण है। यहाँ ये बात साफ़ कर दूँ कि पब्लिक रडियो अपनी ज़्यादातर फंडिंग श्रोताओं से मिली स्वेच्छा से दी रकम से जुटाता है।

इसी राजनैतिक स्थिति को देखने का एक नजरिया ये भी हो सकता है कि क्षणभंगुर सामूहिक याद्दाश्त और जज़्बातीसंवेदना की राजनीति, इंटरनेट मीम और इंस्टेंट मेसेज पर पैदा की जाने वाली राजनैतिक समझसमर्थन मध्यवर्गीय राजनीति के दबदबे का प्रमाण है। वो भी इस क़दर कि राजनैतिक दुष्क्रिया के विरोध में खड़े हुए कन्‍हैया कुमार भी मीम, जुमले और इंस्टेंट नूडल जैसी इंस्टेंट राजनीति का उल्लेख करने लगे। ये प्रमाण है मध्यवर्ग के राजनैतिक प्रतिनिधित्‍व का या मध्यवर्गीय राजनैतिक तरीकों के दबदबे का। कुछ करने की सहमति क्यों सिर्फ मध्यवर्ग से ली जा रही है? मध्यवर्ग की राजनीतिक सोच और समर्थन को क्यों राष्‍ट्रीय राजनैतिक सोच और समर्थन का प्रतिबिंब समझा जा रहा है? शायद इसलिए क्योंकि इनके ज़रिये जज़्बातों को प्रमाणिकता प्रदान की जा रही है इस तर्ज पर किजब पढ़े लिखे लोगों के अनुसार कुछ गलत है, तो गलत ही होगा कुछ!”

ऐसे मेंक्या ज़रूरत नहीं है मध्यवर्गीय राजनीति को वैचारिक विमर्श की जड़ें देने की? क्या ज़रूरत नहीं है कि मध्यवर्ग के राजनीतिक तौर तरीकों को पूरे समाज का राजनीतिक विचार का परिचय बनने देने की? क्या ज़रूरत नहीं कि मध्यवर्ग के राजनीति करने के और राजनैतिक समझ बनाने के तरीकों में संजीदगी पैदा की जाये? अधकचरी जानकारी से कामचलाऊ सहयोगसमर्थन पर संशय लगाने की? शहरी तबकों को ग्रामीण सहजता और गहनता अपनाने की? टीवी को बंद कर लेख पढ़नेलिखने की, रेडियो पर उत्तेजना रहित चर्चा सुननेसमझने की? कहाँ है संपादकीय में छपे विमर्श पर पाठकों की चर्चा?

और एक ज़रूरी सवाल मध्यवर्ग के लिए ये है कि क्या हर्ज है यह मान लेने में कि आप किसी चीज़ के बारे में नहीं जानते, बजाय गूगल कर के हर विषय का जानकार होने का दावा ठोकने के? क्यापरेशानी है शोध कर के, जानकारी जुटा कर, सुनसमझ कर, वक़्त ले कर दृषिटकोण तय करने में? किसबात की जल्दबाज़ी है? क्यों फैसले और निष्कर्ष तुर्रे पर किये जाने ज़रूरी हैं? क्यों हिंसा और आलोचना में आपकी शिरक़त में क़तई देरी की गुंजाइश नहीं? क्याखामी है विचार सहेज कर फैसले करने में?

जंक फूड खाने वाले लोग जैसे कुपोषण और कमज़ोर नज़र का शिकार होते हैं, वैसे ही जल्दबाज़ी और जज़्बाती राजनीति कमज़ोर दृष्टिकोण से ग्रसित हो जाती है। लेखअखबारलेक्चरसंवाद आपको गहराई प्राप्त करने में मदद करते हैं, जज़्बातों को और संवेदना को वैचारिक विमर्श की जड़ें जमाने का मौका देते हैं।

इसमें कोईदो राय नहीं कि चटपटी जुमलेबाजी और कसे हुए तंज की अपनी मनोरंजकता है भाषणों को उल्लेखनीय बनाने में ये मददगार बेशक हो सकते हैं, मगरये राजनीति नहीं हो सकते, ये राजनैतिक दलों के गिमिक (gimmick) मात्र हैं। हर तरह की राजनीति के दो हिस्से होते हैं- विचारपृष्ठभूमिदृष्टिकोणविचारधारामुद्दा और गिमिक। किसी भी नज़रिये से और किसी भी आकलन से गिमिक मात्र ध्यान आकर्षित करने का माध्यम हैइसकी राजनीतिक उपयोगिता साबुन के पानी पर तैरते बुलबुलों जैसी है। ये आपको आकर्षित और उत्तेजित कर सकती है, मगर असल काम फिर भी साबुन और पानी ही कर सकते हैं, बुलबुले नहीं!

गिमिक को राजनीति की रीढ़ बनाना बेहद महँगा साबित होता है। इसका उदाहरण मोदीजी और केजरीवाल साहब में मिल जायेगा जहाँ जुमले नीतियों में तब्दील होने से पहले ही औंधे मुँह गिर पड़े। अमेरिका के डॉनल्ड ट्रम्प इस उद्योग में उतरे नए खिलाड़ी हैं- उनके विचार और विचारों में आतंरिक मतभेद, उनकाबातबात पर अपनी सम्पन्नता और अपनी कथित कामयाबी का डंका पीटना इसी बात का प्रमाण है।

यहाँ भारतीय सन्दर्भ का एक किस्सा समझ बैठाने में कारगर साबित होगा कि गिमिक का प्रभाव और उसे राजनैतिक विमर्श की रीढ़ बनाने के क्या खतरे हैं। जिस वक़्त मोदीजी प्रधानमंत्री बने ही थे, तो करीब साल भर के आसपास,किसीसज्जन ने सूचना के अधिकार के तहत पीएमओ से जानकारी मांगी थी कि आश्वासितअच्छे दिनकब आएंगे?! बातएक बार को शायद हास्यास्पद लगे, लेकिन अगर यह मान लिया जाये कि इस आधार पर वोट दिए गए हैं, तो अंदाज़ा लगा लीजिये कि अच्छे दिनोंके गिमिक के चलते आप पांच साल तक के लिए किसी को पूर्ण बहुमत से चुन आये हैं। और क्योंकिअच्छे दिनमात्र एक गिमिक था, तो ज़ाहिर है इसके फलित होने की सूरत में कितने लोग हताश भी होने वाले हैं। और अगर यह आपको अतिशयोक्ति लगे, तो याद कीजियेगा कि अच्छे दिन के वायदे का आपके निर्णय और मोदीजी के प्रति आपके दृष्टिकोण पर क्या असर हुआ था। मुझे यह खबर पढ़ कर ठिठक हुई कि अगर ये अर्ज़ी मज़ाक नहीं थी, तो बात बहुत गंभीर है कि बहुत से लोग जुमलेबाजी से प्रभावित हो अपना मत राजनीतिक विचार, विचारधारा, योजना और दर्शन को नहीं गिमिक को दे आये हैं। यह काफी विचलित कर देने वाला विचार हैआज की तारीख में जबकि प्रचार के दौरान प्रसारित किये किसी भी जुमले को सरकार प्रयोग में लाते या उल्लेखित करते नहीं नज़र आती, ऐसे में अगर आप भी  गिमिक के आधार पर वोट कर आये थे, तो ज़रा इस पर गहराई से सोचियेगा!

ऐसा नहींहै कि गिमिक की उपियोगिता नहीं, राजनीति में गिमिक ध्यान आकर्षित करने का जरिया भी है और एक तय अनुपात में राजनैतिक परिचय और दूसरों से अलग एक विशिष्ट पहचान और पैठ का आधार भी है। गिमिक की ज़रूरत इसलिए होती है कि लोग एक सी प्रतीत होने वाली अलगअलग विचारधाराओं के फ़र्क़ को तुरंत और स्पष्ट तरीके से देख सकें। ये राजनैतिक दलों का खुद को दूसरों से अलग बताने का और अपनी पहचान कायम करने का जरिया ज़रूर है, उनकी राजनीति नहीं। यह केवल निमंत्रण है, कार्यक्रम नहीं! अगरआप गिमिक के आधार पर वोट दे कर रहे हैं, तो राजनैतिक दल अपनी राजनीति सुधारने की ज़रूरत महसूस करें, ये लाज़मी है! और भारतीय राजनीति में इस समय गिमिक पर ज़ोर के चलते राजनीति के उपेक्षित होने का परिचायक है राष्‍ट्रीय दलों का कई नीतियों पर एक सा रुख, जिनका वे विपक्ष में बैठ कर विरोध करते हैं और सत्ता में आने पर समर्थन। ऐसी परिस्थिति में यह बात साफ़ हो जाती है कि आपने और हमने सवाल नहीं उठाये, हमने राजनीति की उपेक्षा कर गिमिक को आधार बना लिया अपने मत का। हम अपनी लोकतान्त्रिक ज़िम्मेदारी से चूक रहे हैं। हम अपनी राजनीति को सुधरने का कारण नहीं दे रहे।

आपके फ़ोनपर आने वाले मीम और इंस्टेंट मेसैज में तस्वीरों पर एक पंक्ति के निष्कर्षजुमलेबाजी ऐसे ही गिमिक का हिस्सा हैं जिसके आधार पर आप राजनैतिक उद्देश्यों को सहमति दे रहे हैं बिना विचारविमर्श के, और ये वाक़ई में बेहद खतरनाक है। आप जिस राजनैतिक दर्शन को अपनी सहमति दे रहे हैं, बेहतर होगा उसके बारे में गहराई से समझ बनाएं।

ज़रूरी है कि लफ़्ज़ों की किफ़ायत में विचारसंवाद तंग पड़ जाएं। और अब, जबकि हम स्मार्ट सिटी की ओर तेज़ी से अग्रसर हैं और इस फ़िराक़ में हैं कि ज़्यादा से ज़्यादा लोग इंस्टेंट राजनीति की चपेट में जायें, इंस्टेंट संवेग के दायरे में निरस्त्र पाएं खुद को, तो ऐसे में बेहद ज़रूरी है कि कुछ चीज़ों की उपयोगिता और उनकी संजीदगी तय कर दी जाये मसलन, आप मीम और इंस्टेंट मेसैज में आई तस्वीर पर छपी एक लाइन के जुमले का खुद पर क्या प्रभाव होने देना चाहते हैं, यह तय करें वरना राजनीति और जादू के खेल में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं रह जायेगा।

आँखों का धोखा और उत्तेजना की राजनीति हमारे सामाजिक विचार और राजनीतिक फैसलों का सबब नहीं हो सकती। तकनीक की बढ़त के दौर में ज़रूरत है विचारों की जटिलता को उनकी बारीकियों में  सहेजने की, ज़रूरत यह है कि समीक्षा और विचारों की गहनता इंस्टेंट जज़्बातों की राजनीति की बलिवेदी पर चढ़ जाएं गरीब दलितकिसानमजदूर आज भी रेडियो सुनता है। उसके साथ बैठ के सुनने और चर्चा करने में कोई हर्ज नहीं है। यहाँ अमरीका कर रेडियो काफी सुनने लगी हूँ अच्छी आदत है सुनना। जल्दबाज़ी में लिए फैसले अकसर चूक साबित होते हैं। हमारे समाचार चैनल भी उत्तेजना फैला रहे हैं। अब पत्रकार सम्मेलन में सवालयामें पूछे जाते हैं बात सुनने का वक़्त नहीं, हम एक के बाद एक बस फैसले लेना चाहते हैं। संवाद से चूक रहे हैं हम। संवाद का स्तर तकनीक से धुल कर सिकुड़ रहा है। ऐसा ही रहा तो समाज का लिहाफ तंग पड़ता जायेगा और बहुतों के पाँव हाथ उघारे छूट जायेंगे। तकनीकी नवीनीकरण के खतरों से आगाह रहने की ज़रूरत है। आपके क्षणभंगुर ध्यान पर निर्भर है आँखों का धोखा और जादूगर का खेल और आपका ठगा जाना भी।

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