दिल्‍ली-23 जून, 2016 : ‘अपने जैसोंं’ के गिरोह और उठ खड़े होने की एक अदद धुन


पहला प्रफुल्‍ल बिदवई स्‍मृति पुरस्‍कार, 23 जून 2016, दिल्‍ली 
दिल्‍ली मुझे पसंद है। इसलिए नहीं कि वह राहत देती है, इसलिए कि वह झकझोरती है। सोचने को मसाला देती है। दिमाग के पट पर दस्‍तक देती है। थोड़ा टेढ़ा होकर देखने की सहूलियत देती है। मैं अचानक यह बात क्‍यों कह रहा हूं? मेरे एक प्राचीन मित्र हैं जो आजकल पूर्वांचल पर केंद्रित एक टेबलॉयड निकाल रहे हैं। इसके पहले भी वे तमाम किस्‍म के पत्रकारीय/अलाइड धंधे शुरू कर के बंद कर चुके हैं लेकिन कभी उन पर लिखने का ऐसा मन नहीं बना। उन्‍होंने दरअसल कल यानी गुरुवार 23 जून को अपने अख़बार की ओर से एक भव्‍य आयोजन करवाया दिल्‍ली के श्रीराम सेंटर में, जिसमें दर्जन भर लोगों को सम्‍मानित किया गया, मालिनी अवस्‍थी का नाच-गाना हुआ और रात में भोजन भी हुआ। मैं वहां जिस माहौल से होकर पहुंचा था, वह भी एक सम्‍मान समारोह ही था लेकिन कतई अलहदा। शाम छह बजे कांस्टिट्यूशन क्‍लब में मरहूम पत्रकार प्रफुल्‍ल बिदवई की पहली बरसी पर उनकी स्‍मृति में एक पुरस्‍कार दिया जाना था और मीडिया के संकट पर परंजय गुहा ठाकुरता का व्‍याख्‍यान था। यहां अध्‍यक्षता इतिहासकार रोमिला थापर कर रही थीं जबकि पूर्वा सम्‍मान आयोजन की अध्‍यक्षता केंद्रीय मंत्री नोएडा वाले महेश शर्मा को करनी थी। कंट्रास्‍ट देखिए- वैचारिक भी दिखेगा, भाषायी भी दिखेगा, वर्गीय भी दिखेगा, और भी बाकी बहुत कुछ दिखेगा, जो अन्‍यथा न दिख पाता अगर मित्र अवतंस चित्रांश ने यह कार्यक्रम दिल्‍ली की जगह बनारस में रखा होता। यह संयोग ही रहा कि दोनों आयोजनों का समय भी आसपास था और आयोजन स्‍थल की दूरी भी, वरना कुछ बुनियादी चीज़ें वाकई मेरी समझ से बाहर रह जातीं।


दोनों ही आयोजनों में सभागार क्षमता से ज्‍यादा भरा रहा। दोनों में ही एक-दूसरे को जानने वाले लोग मौजूद रहे। पत्रकार दोनों जगह थे। कांस्टिट्यूशन क्‍लब में एक किस्‍म के पत्रकार थे, श्रीराम सेंटर में दूसरे किस्‍म के। नेता दोनों जगह थे, लेकिन भिन्‍न किस्‍म के। बुद्धिजीवी भी दोनों जगह थे, लेकिन अपने-अपने किस्‍म के। मसलन, कह सकते हैं कि दोनों आयोजनों को कामयाब बनाने वाली जो भीड़ थी, उसका एक तय चरित्र था और दोनों भीड़ों का चरित्र परस्‍पर विरोधी नहीं, तो अजनबी बेशक था। अपने जैसे लोग सामान्‍यत: रामबहादुर राय या महेश शर्मा का नाम देखकर ही कार्यक्रमों में नहीं जाते हैं, लेकिन पी. साइनाथ, रोमिला थापर आदि के नाम पर कटिबद्ध होकर ऑटो में आधा घंटा पहले ही बैठ लेने के आदी रहे हैं। ये बात अलग है कि अपनी वर्गीय और क्षेत्रीय पृष्‍ठभूमि के चलते वैचारिक रूप से विरोधी जान पड़ने वाले आयोजनों में भी दस लोग नमस्‍ते बंदगी के लिए मिल ही जाते हैं। ये दिल्‍ली की देन है, जहां लोग अपने-अपने पाले में रहना पसंद करते हैं। एक फूहड़ प्रयोग करें तो जैसे कुत्‍तों का इलाका होता है, वैसे ही दिल्‍ली के सभ्‍य नागरिकों का सभागार और बैनर भी तय होता है। ये अलग-अलग सभागार और बैनर दाएं या बाएं से दरअसल सत्‍ता के विमर्श के ही हिस्‍सेदार होते हैं। पचास हज़ार का सभागार बुक कराना किसी सड़कछाप आदमी के वश की बात नहीं है यहां।
अपने आदर्श पत्रकार पी. साइनाथ दिल्‍ली के सभ्‍य नागरिकों के सायास चुने हुए समुदायों के लिए एक शब्‍द का इस्‍तेमाल करते हैं- पीपुल लाइक अस यानी पीएलयू। मुझे आज तक साइनाथ का 2011 में लिखा हुआ वह आर्टिकल याद है- ”दि डिस्‍क्रीट चार्म ऑफ सिविल सोसायटी”, जिसमें उन्‍होंने पीएलयू का बेहतरीन प्रयोग करते हुए अन्‍ना हज़ारे और रामदेव की अपनी-अपनी भीड़ का फ़र्क काफी तीक्ष्‍णता के साथ समझाया था। आज अचानक वह लेख कौंध गया जब मैं कल के दोनों आयोजनों के बारे में सोचने लगा। ध्‍यान रहे कि प्रफुल्‍ल बिदवई के नाम पर दिया गया पहला सम्‍मान कल साइनाथ के प्रोजेक्‍ट ‘परी’ को मिला है। बहरहाल, साइनाथ उक्‍त लेख में लिखते हैं:
”भारत का अभिजात्‍य तबका पीएलयू का खेल खेलने में दूसरों के मुकाबले ज्‍यादा माहिर है। इस क्‍लब में आपका प्रवेश या तो जन्‍मना होता है या फिर आमंत्रण से। और रसूखदार तबकों से मान्‍यता हासिल कर लेना मेहनत की मांग करता है। आपकी अपनी पृष्‍ठभूमि को ताकत मिल सकती है, बल्कि वह लाभ भी दे सकती है अगर आपके इर्द-गिर्द पर्याप्‍त मज़बूत पीएलयू मौजूद हों। अन्‍ना हज़ारे के साथ यह था। बाबा रामदेव के साथ नहीं था। दोनों ही ‘नागरिक समाज’ के हक़ में बोलने का दावा कर रहे थे। मीडिया अन्‍ना हज़ारे से जुड़े लोगों के लिए इस शब्‍द का इस्‍तेमाल सम्‍मान के साथ कर रहा था, लेकिन रामदेव के मामले में वह उनके पीछे खड़ी भीड़ को बवालियों की तरह देखता था।”

इस हिस्‍से में आप अन्‍ना हज़ारे को हटाकर उसकी जगह पी.साइनाथ, रोमिला थापर, परंजय गुहा ठाकुरता, मने इस पीएलयू से जुड़ा कोई भी नाम लिख दें और रामदेव को हटाकर उसकी जगह पूर्वा सम्‍मान समारोह से जुड़ी किसी भी पहचान का नाम लिख दें। फिर देखिए, यह लेख उतना ही प्रासंगिक हो जाएगा जितना 2011 में था। आप देखिए कि दोनों ही कार्यक्रम ‘पत्रकारिता और सामाजिक सरोकार’ के नाम पर हुए। दोनों में ही अपने-अपने लोगों को सम्‍मान दिया गया। एक में डी. राजा मौजूद थे, दूसरे में महेश शर्मा को आना था जो नहीं आ सके। एक में रामबहादुर राय पत्रकारिता के मूल्‍य पढ़ा रहे थे तो दूसरे में पी.साइनाथ। फ़र्क बस इतना सा ही तो है।
इस फ़र्क या समानता के बहाने आखिर मैं कहना क्‍या चाह रहा हूं? दो घटनाओं से जल्‍दी में अपनी बात को समेटने की कोशिश करता हूं। बात सन् 2002 की है जब हम दिल्‍ली आए थे। एक दिन हमने तय किया कि चलकर रामबहादुर राय से उनके घर पर मिल आते हैं। घोर गर्मी और उमस के बीच मुनीरका से मैं और चित्रांश ब्‍लूलाइन में बैठकर वैशाली के सेक्‍टर-4 राय साहब से मिलने आए। ग़ाज़ीपुर के किसी भी आदमी के लिए उस समय की तरह आज भी रामबहादुर राय पत्रकारिता के प्रात: स्‍मरणीय नाम हैं। चूंकि ग़ाज़ीपुर से होने का सवाल था, इसलिए मुलाकात आसान दिख रही थी। मुलाकात में नौकरी की गुंजाइश भी कुलबुलायमान थी। हम उनके फाटक पर पहुंचे, घंटी बजाया, तो एक व्‍यक्ति बाहर आया। हमने उसे अपना परिचय दिया, वज़न डालने के लिए ग़ाज़ीपुर में उनके जीजा के यहां से लाया रेफरेंस भी दिया। वे भीतर गए, वापस आए और बोले, ”राय साहब अभी लिख रहे हैं, आप लोग कभी और आइएगा।” हम पहली बार दिल्‍ली में ठुकराए गए थे। वो भी अपने यहां के आदमी से- यानी क्षेत्र के आधार पर एक पीएलयू में घुसने की कोशिश नाकाम रही। इसके बाद मैंने कभी राय साहब का रुख़ नहीं किया, लेकिन चित्रांश ने कल उन्‍हें अपने आयोजन में बुलाया और उनके मुंह से अपने अख़बार की सराहना भी सुनी। चित्रांश का चौदह साल का वनवास इस तरह खत्‍म हुआ।
अब दूसरी घटना सुनिए। मैं 2002 में ही ऐसी कवायदों की निरर्थकता और टुच्‍चेपन को समझ चुका था। सो मैंने अलग राह चुनी। सरोकार और पत्रकारिता वाली राह। पी.साइनाथ से फैसिनेट होने वाली राह। उनके जैसा बनने वाली राह। वास्‍तव में, वह मामला चुनने का था ही नहीं। मैं वही सब करने दिल्‍ली आया था। बस, जोड़तोड़ और जनसंपर्क के प्रति मन में राय साहब वाली घटना के बाद हिकारत सी पैदा हो चुकी थी। इस रा‍ह में दोस्‍ती-यारी को कोई नुकसान नहीं पहुंचना था, यह भी तय रहा। लिहाजा, चित्रांश की पिछले बरसों के दौरान अनगिन असफल परियोजनाओं में मेरा वर्कप्‍लेस लगातार बैकरूम बना रहा। बहरहाल, साइनाथ ने दो साल पहले जब पीपुल्‍स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया (परी) की शुरुआत की, तो इंडिया इंटरनेशनल सेंटर वाले आयोजन के अगले ही दिन मैं उनसे मिलने आइएनएस में उनके दि हिंदू वाले ठिकाने पर गया। ‘परी’ को लेकर पहली बार कुछ उम्‍मीद जगी थी कि हमारे जैसे लोगों के लिए कहीं तो स्‍पेस है लिखने की। यहां राय साहब वाला जवाब नहीं मिलना तय था क्‍योंकि अनिल चौधरी के माध्‍यम से यह मुलाकात तय हुई थी। साइनाथ से लंबी बात हुई। मैंने उन्‍हें अपने काम की जानकारी दी। उन्‍होंने अपने प्रोजेक्‍ट की अवधारणा समझायी। फिर तय हुआ कि रात में मैं उन्‍हें अपनी कुछ स्‍टोरी, तस्‍वीरें आदि भेजूंगा। मैंने वैसा ही किया। इसके बाद साइनाथ प्रिंसटन पढ़ाने चले गए। दो साल बाद लौटकर वे दिल्‍ली आए तो ‘परी’ के लिए कल प्रफुल्‍ल बिदवई स्‍मृति पुरस्‍कार लेकर निकल लिए। उन्‍हें भेजे मेरे मेल का क्‍या हुआ? आज तक उसका जवाब भी उन्‍होंने नहीं दिया। प्राप्ति की सूचना तक नहीं।
मैंने ‘परी’ की एक विस्‍तृत आलोचना उसी वक्‍त जनपथ पर लिख दी थी, क्‍या इसलिए वे कट लिए? लेकिन वे तो डेमोक्रेटिक आदमी हैं। विनम्र तो रामबहादुर राय भी थे, जैसा हम सुनते आए थे, लेकिन वे तो मिले ही नहीं। लिखते रह गए और लिखते-लिखते मोदी सरकार के प्रत्‍यक्ष लाभार्थी बन बैठे। ये दोनों घटनाएं मैंने किसी निजी शिक़वे के चलते नहीं बताई हैं। इसे बताने का आशय केवल इतना था कि दरअसल साइनाथ जिन पीएलयू की बात अपने लेख में कर रहे थे, वैसे कुछ गिरोहों का वे खुद हिस्‍सा हैं। यह मामला गलत या सही का नहीं है, किसी नैतिक जजमेंट की दरकार भी नहीं है य‍हां। समझने वाली बात बस इतनी है कि किस तरह पहले से सजा हुआ कोई बाज़ार किसी बाहरी को अपने बीच दुकान नहीं खोलने देता है। मेरी मंशा तो दुकान खोलने की नहीं थी, लेकिन चित्रांश की हमेशा से थी। मैंने अपने समान, लेकिन छोटे से सरोकार को व्‍यापक सरोकारों से जोड़ने की लगातार कोशिश की, लेकिन मैं ऐसे तमाम पीएलयू में आउटसाइडर बना रहा। चित्रांश ने सजे हुए बाज़ार में रेहड़ी लगाने की कोशिश की, वे भी बहरियाए गए। अभ्‍यास से वे समझ गए कि दुकान कैसे लगाई जाती है। कल का कामयाब कार्यक्रम इसका गवाह था। मैंने अपने अभ्‍यास से यह समझा कि सरोकारों की भी दुकानें होती हैं। मेरी समझदारी इस मामले में उनसे कई साल पीछे की है। कोई कह सकता है बेशक कि इतने दिन में यह समझा तो क्‍या समझा! लेकिन ठहरिए! समझने में और नतीजे पर पहुंचने में फ़र्क होता है।
मैं पूर्वा सम्‍मान समारोह के साथ वैचारिक रूप से कतई नहीं खड़ा हूं। बारह में से सात ब्राह्मणों को और दो राजपूतों को पत्रकारिता का पुरस्‍कार देने का मैं चीख-चीख कर विरोध करूंगा, कि क्‍या इस अखबार को पूरे पूर्वांचल में या दिल्‍ली निवासी पुरबियों में एक भी पिछड़ा या दलित नहीं मिला? इसे तो छोडि़ए, सबसे दिलचस्‍प यह रहा कि खुद अख़बार होते हुए इस अख़बार ने किसी प्रिंट के पत्रकार को सम्‍मान के लायक नहीं समझा। यह संपादक/मालिक की निजी पेशेवर पृष्‍ठभूमि का दबाव हो सकता है, लेकिन इसकी निंदा की जानी चाहिए। अखबारों की ओर से खुफिया अफ़सर, फ़ौजी या पुलिस अधिकारी को सम्‍मान दिए जाने का क्‍या तुक? कल के पूर्वा सम्‍मान पर सवाल अनेक हैं, लेकिन प्रफुल्‍ल बिदवई स्‍मृति पुरस्‍कार पर भी सवाल कम नहीं हैं, जिसे पत्रकार अमित सेनगुप्‍ता महज एक वाक्‍य में अपनी फेसबुक टिप्‍पणी में समेट चुके हैं: ”हम सब को साइनाथ का सपोर्ट करना चाहिए, हालांकि साइनाथ ने कभी किसी को सपोर्ट नहीं किया।” इसे किसी का निजी दर्द कह कर टाला जा सकता है, लेकिन ठुकराए जाने या सपोर्ट न किए जाने का एक सामाजिक आयाम भी होता है।
पहला पूर्वा सम्‍मान समारोह, 23 जून 2016, दिल्‍ली  

चित्रांश कार्यक्रम के दो दिन पहले एक बात कह रहे थे। वे कह रहे थे कि मैं बहुत ठुकराया गया हूं। वे इस बात से दुखी थे कि इस दौर में न तो समाजवादियों ने और न ही कांग्रेसियों ने उनको सपोर्ट किया। चित्रांश की पृष्‍ठभूमि एनएसयूआइ की है। वे अब भी खुद को संघी नहीं मानते। मैं भी मानता हूं कि वे संघी नहीं हैंं, लेकिन मसला केवल इतना है कि उन्‍हें दुकान सजाने आ गई है। ज़ाहिर है, दुकान सजाने में हाथ वही लगाएगा जिसे दाम में हिस्‍सेदारी का लोभ होगा या किसी सत्‍ता-पोषित पीएलयू के करीब जाने का लोभ होगा। तो उन्‍होंने जैसा चाहा, उन्‍हें वैसे लोग भी मिले। कांस्टिट्यूशन क्‍लब में जुटे ‘सभ्‍य’ पीएलयू के मुकाबले एक ‘असभ्‍य’ पीएलयू के सहारे हुए पूर्वा सम्‍मान के कामयाब कार्यक्रम के बाद उनकी अपने तरीकों पर आस्‍था और मज़बूत हुई होगी। वे मुड़ कर पीछे नहीं देखेंगे, इतना तय है, लेकिन यह सवाल दिल्‍ली के अपेक्षाकृत सभ्‍य नागरिक समाज समूहों से है कि क्‍या वे मुड़ कर पीछे देखने की ख्‍वाहिश रखते हैं कि उनकी कतारें इतनी कमज़ोर क्‍यों हो चुकी हैं?
श्रीराम सेंटर में मौजूद कम से कम 50 ऐसे लोगों को मैं निजी तौर पर जानता हूं जो ऐन उसी वक्‍त अन्‍यथा कांस्टिट्यूशन क्‍लब में हो सकते थे, लेकिन उन्‍होंने वहां चेहरा तक नहीं दिखाया। ये तमाम लोग सेकुलर हैं, प्रगतिशील हैं लेकिन इन्‍हें पकड़ने वाला कोई नहीं है। इनके लिए प्रफुल्‍ल बिदवई और रोमिला थापर के नाम के ऊपर रामबहादुर राय और मालिनी अवस्‍थी का नाम भारी पड़ गया। क्‍यों? इसलिए क्‍योंकि ऐसे ”क्‍लबों में आपका प्रवेश या तो जन्‍मना होता है या फिर आमंत्रण से।” वैचारिक प्रतिबद्धता क्‍या कोई निजी गुण है? अपने खूंटे को पकड़े रहना क्‍या अकेले अपने वश में है? समाज में इतने बेचैन लोग टहल रहे हैं। वे एक को पकड़ते हैं। नहीं पकड़ाता तो दूसरे को पकड़ते हैं। इस तरह पकड़ा-पकड़ाई का यह खेल जारी रहता है। जो हताशा में दूसरों को पकड़ना छोड़ देते हैं, वे मार्क्‍स की एलिनेशन थियरी का सब्‍जेक्‍ट बन जाते हैं। कुछ खुदकुशी कर लेते हैं। कुछ दलाल बन जाते हैं। कुछ लुम्‍पेन बनकर रह जाते हैं। विदेह होना सब के बस की बात नहीं।
हम महानगरीय लोगों ने एक-दूसरे को पकड़ना छोड़ दिया है। हमने रहने की जगहों पर गेटेड समुदाय बना लिए हैं जहां हम आरडब्‍लूए की राजनीति करते हैं। काम की जगहों पर हम पेशागत एकता पर आधारित समुदायों का हिस्‍सा होते हैं। समाज के भीतर हम अलग-अलग मूल्‍यों पर आधारित समूहों के बीच भटकती आत्‍माओं की तरह घूमते हैं। जहां दरवाज़ा खुला मिलता है, घुस लेते हैं। याद कीजिए और दोबारा पूछिए- समाज के संभावनाशील तत्‍वों को पकड़ने की जिम्‍मेदारी ऐतिहासिक रूप से किसकी थी? जाहिर है, उन्‍नत चेतना वालों की। इन लोगों ने आज अपना एक घेटो बना लिया है। अपने लोगों की मेलिंग लिस्‍ट तैयार रहती है, प्रोग्राम बना और दांय से फॉरवर्ड। इनकीी निगाह में ‘कम’ चेतना वालों का भी यही हाल है। वे ऊपर देखकर हंसते हैं। ‘ऊपर’ वाले ‘नीचे’ हिकारत से देखते हैं। हालत यह हो गई है कि तरक्‍कीपसंद पत्रकारों और लेखकों के बीच भी ‘बुद्धिजीवी’ होना मज़ाक का विषय बन चुका है। ‘इंटेलेक्‍चुअल’ या ‘क्रांतिकारी’ कह कर किसी की हंसी उड़ा दी जाती है। तमाम मसलों पर एक जैसा पक्ष रखने की संभावना वाले बौद्धिक हलके में ‘वी’ और ‘दे’ यानी ‘हम’ और ‘वे’ वाला भाव आ चुका है। ये कैसा समाज बना दिया है हम लोगों ने जहां एक जैसा सोचने की संभावना रखने वाले भी कटे-कटे फिर रहे हैं अपने-अपने आयोजनों में? इससे तो कहीं बेहतर है कि एक व्‍यक्ति के संघर्ष और उसकी कामयाबी का जश्‍न मनाया जाए!
मेरे लिए कल का दिन रूटीन नहीं था। दिल्‍ली में पत्रकारिता पर दो आयोजन थे। पहला वाला बड़े बौद्धिक चेहरों के बावजूद रूटीन और कुछ-कुछ बनावटी था, लेकिन दूसरे में एक तंग पत्रकार का खून, पसीना, घरबार, बच्‍चे, जीवन, सब कुछ दांव पर लगा था। इस आयोजन ने चित्रांश की महत्‍वाकांक्षाओं को नया जीवन दिया। कुछ साल से बेरोज़गार यह पत्रकार खुदकुशी भी कर सकता था। आसान विकल्‍प था। उसने लड़ने की ठानी। बीच बाजार दुकान लगाई। दुकान चले या न चले, सवाल यह नहीं है। राहत यह है कि एक आदमी जी गया है। एक दोस्‍त भीतर से हंस रहा है। बाकी आलोचना का क्‍या है, घर बैठाकर सामने गरिया दूंगा, इतनी स्‍पेस है मेरे पास। 

बहुत देर तक सोचने के बाद खुलकर लिख रहा हूं कि अपने वैचारिक सरोकारों और राजनीतिक पक्ष को बेशक बनाए रखिए, लेकिन ऐसी वैचारिक कट्टरता मत पालिए जो अपनों की जान ले ले या उसे आपसे दूर कर के दुश्‍मनों की गोद में डाल दे। जिस कठिन दौर में हम जी रहे हैं, उसमें कुनबा बचाए रखने की चुनौती सबसे बड़ी है। ऐसे में अगर आप अपनी विचारधारा के हिटलर बनेंगे, तो अंत में खुद को शोले का ठिगना जेलर ही बना पाएंगे जिसके साथ खड़े तमाम लोगों में से आधे दाएं और आधे बाएं कट लिए थे। उसने जब पीछे मुड़कर कहा कि ‘बाकी मेरे पीछे आओ’, तब तक काफी देर हो चुकी थी। पीछे कोई नहीं बचा था। 

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