हम निकलने को हुए तो एक नौजवान जंगल की ओर से आता दिखा। उसने एक खूबसूरत सी सफेद रंग की टीशर्ट पहनी हुई थी। उस पर लिखा था ”आइ एम महान”। जंगलिस्तान प्रोजेक्ट का लोगो भी छपा था। उसने बताया कि यह शर्ट उसने बंबई से खरीदी है। बंबई क्यों गए थे, पूछने पर पता चला कि ग्रीनपीस की तरफ से गांव के कुछ लोगों को एस्सार कंपनी के खिलाफ प्रदर्शन करने के लिए ले जाया गया था जहां इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। विनीत ने बताया कि वहीं इस प्रदर्शन के सिलसिले में यह टी-शर्ट कार्यकर्ताओं में बांटी गई थी, हालांकि गांव में ही रहने वाले समिति के एक युवक जगनारायण ने तुरंत बताया कि एक शर्ट की कीमत 118 रुपये है। कुल 40 पीस बनवाए गए थे। टी-शर्ट की कहानी चाहे जो हो, लेकिन शहर के कुछ राजनीतिक कार्यकर्ता यह सवाल ज़रूर उठाते हैं कि जब कोयला खनन करने वाली कंपनी महान कोल में एस्सार और हिंडालको की आधा-आधा हिस्सेदारी है, तो फिर सारा का सारा विरोध एस्सार का ही क्यों किया जा रहा है। लोकविद्या जनांदोलन से जुड़े एक स्थानीय कार्यकर्ता रवि कहते हैं, ”मैंने भी एक बार पूछा था कि आखिर एस्सार की इमारत पर ही क्यों बैनर टांगा गया? यह काम तो हिंडालको की बिल्डिंग पर भी किया जा सकता था? मुझे इसका जवाब नहीं मिला।”
सिंगरौली: इंसान और ईमान का नरक कुंड-2
चयनित विरोध की राजनीति
संजय नामदेव ग्रीनपीस के काम के बारे में विस्तार से समझाते हैं। शुरुआती दौर में महान कोल के खिलाफ संयुक्त संघर्ष में एक अनशन की याद करते हुए वे कहते हैं, ”अनशन सबने मिलकर किया था। अनशन की योजना मेरी थी। शाम को ग्रीनपीस ने अपने नाम से प्रेस में बयान जारी कर दिया। ये क्या बात हुई? इन लोगों ने हमारे आंदोलन को हाइजैक कर लिया। उसके बाद से मैं पलट कर वहां नहीं गया।” इसके उलट ग्रीनपीस के कार्यकर्ता और समिति के लोग संजय का नाम सुनते ही एक स्वर में कहते हैं, ”वह तो भगोड़ा है। तीन दिन बाद बीच में ही अनशन को छोड़ कर भाग गया।” ग्रीनपीस के यहां आने से काफी पहले से संजय नामदेव सिंगरौली में ऊर्जांचल विस्थापित एवं कामगार यूनियन चला रहे हैं। इसका दफ्तर बरगवां में है। बीती 17 जनवरी को उन्होंने बरगवां में विस्थापितों और मजदूरों का एक विशाल सम्मेलन किया था। संजय कहते हैं, ”हम लोग तो यहां की सारी परियोजनाओं से विस्थापित लोगों और इनमें काम करने वाले मजदूरों की बात करते हैं। सवाल उठता है कि जब इतनी सारी परियोजनाएं यहां लगाई जा रही हैं तो ग्रीनपीस वाले सिर्फ एस्सार के पीछे क्यों पड़े हुए हैं।” ग्रीनपीस के सुनील दहिया ऐसे सवाल उठाने पर जवाब देते हैं, ”इस सवाल का जवाब मैं नहीं दे सकता। हो सकता है कि ऊपर के अधिकारियों ने यह देखा हो कि कौन सी कंपनी का विरोध करना ज्यादा ‘फीजि़बिल’ होगा। शायद उन्होंने सर्वे किया हो कि किसी बिल्डिंग पर जाकर विरोध करना ज्यादा आसान, व्यवहारिक और प्रचार के लिहाज़ से उपयुक्त है। शायद यही सोचकर उन्होंने एस्सार को चुना हो। बार-बार एस्सार का नाम आने की एक वजह यह भी हो सकती है कि जिन गांवों के जंगलों को उजाड़ा जा रहा है, वहां एस्सार कंपनी का प्लांट मौजूद है। चूकि गांव वालों को सामने एस्सार का प्लांट ही दिखता है, इसलिए समिति के लोगों ने एस्सार का विरोध करना चुना हो। हालांकि हम तो हिंडालको का भी विरोध करते हैं।”
चुनिंदा विरोध और व्यापक विरोध की राजनीति का फ़र्क सिंगरौली में बिल्कुल साफ़ दिखता है। पिछले कुछ वर्षों से यहां के विस्थापितों के बीच लोकविद्या की अवधारणा पर काम कर रहे रवि शेखर बताते हैं, ”यहां शुरू से तीन किस्म के संगठन रहे हैं। एक, जिनका अंतरराष्ट्रीय एक्सपोज़र रहा है। दूसरे, जिनका राष्ट्रीय एक्सपोज़र रहा है। तीसरे, जो स्थानीय हैं। तीनों ने अपने-अपने हिसाब से कंपनियों पर अलग-अलग मसलों को लेकर दबाव बनाया है और संघर्ष को आखिरी मौके पर भुना लिया है। कुछेक लोग अवश्य हैं जिन्हें हम ईमानदार कह सकते हैं, जैसे संजय या सीपीएम के रामलल्लू गुप्ता, वरना सबने ठीकठाक पैसा बनाया है।” ऐसा कहते हुए हालांकि रवि ग्रीनपीस के काम को ज़रूर सराहते हैं, ”शुरुआत में इनके काम करने का तरीका ठीक नहीं था। ये लोग पहली बार फील्ड में काम कर रहे थे और कई मसलों पर अपने निर्णय स्थानीय लोगों पर थोपते नज़र आते थे। धीरे-धीरे इन्होंने काम करना सीखा और मुझे खुशी है कि लोगों की भावनाओं को जगह देकर आज ग्रीनपीस ने यहां बरसों बाद एक बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया है। मुझे लगता है कि यहां काम कर रहे मजदूर संगठनों और अन्य को भी काम करने के अपने तरीकों में बदलाव लाना चाहिए।”
अमिलिया से लेकर बुधेर गांव तक आंदोलन की एक ज़मीन अवश्य दिखती है। पेड़ के नीचे गोलबंद औरतों से लेकर जिंदाबाद बोलता बच्चा-बच्चा ग्रीनपीस की मेहनत का अक्स है। कुछ बातें हालांकि ऐसी हैं जो अस्पष्टता लिए हुए हैं। मसलन, हम अपनी यात्रा के अगले पड़ाव में अनिता कुशवाहा के घर बुधेर गांव में पहुंचते हैं। अनिता शादीशुदा हैं। अपने पिता के घर पर रहती हैं। आंदोलन का महत्वपूर्ण चेहरा हैं लेकिन उनके पति खुद एस्सार कंपनी में नौकरी करते हैं। वे तीन दिन से काम पर गए हुए हैं और नहीं लौटे हैं। वे बताती हैं कि कंपनी ने 12000 रुपये का भुगतान अब तक नहीं किया है। उनके पिता के पास इस सीज़न में तेंदू पत्ते के संग्रहण का टेंडर है। हम जब वहां पहुंचते हैं, तो उनके पिता तेंदू पत्ता संग्राहकों के जॉब कार्ड उलट-पलट रहे होते हैं। इस गांव के 40 परिवारों में से 30 का ठेका उनके पास है। अगले दसेक दिन में तेंदू पत्ते का सीज़न समाप्त हो जाएगा। सरकार जो भी कमीशन देगी, वही उनकी कमाई होगी। जॉब कार्ड पर सबसे ज्यादा नाम क्रमश: खैरवार, यादव और कुशवाहा के हैं। खैरवार यहां के आदिवासी हैं। जो बातें हमें घाटी में गोलबंद महिलाओं ने बताई थी, अनिता भी कमोबेश वही सारी बातें हमसे बिल्कुल रटे-रटाए लहजे में कहती हैं। उनकी ससुराल बिहार के औरंगाबाद जिले में है। अब तक दो-तीन बार ही वे वहां गई हैं। यहां रहकर आंदोलन में हाथ बंटाती हैं। उन्हें नहीं पता कि उनके पति कंपनी में क्या काम करते हैं अलबत्ता कंपनी के उन अधिकारियों के नाम उन्हें कंठस्थ हैं जो गाहे-बगाहे यहां डराने-धमकाने आते हैं। हम अनिता के घर से देर शाम को लौटे। अगले दिन पता चला कि आधी रात उनके चाचा ने इस बहाने उनकी पिटाई की थी कि उन्होंने उनकी ज़मीन से फल क्यों बंटोरे। ग्रीनपीस के कार्यकर्ताओं का कहना है कि उसका चाचा कंपनी का आदमी है। अनिता कह रही थी कि उसका पूरा परिवार कंपनी का विरोधी है। किस घटना का क्या तर्क है, यह समझना यहां वाकई मुश्किल है।
पहचान का संकट
सिंगरौली में कौन किसका आदमी है, यह जानना सबसे मुश्किल काम है। यही सिंगरौली का सबसे बड़ा सवाल भी है। यह सवाल नया नहीं है, बल्कि आज़ाद भारत में उभरे औद्योगिक केंद्रों के भीतर नागरिकता की पहचान के संकट से जुड़ी जो प्रवृत्तियां अकसर दिखती है, उसकी ज़मीन सिंगरौली में बाकी हिंदुस्तान से काफी पहले तैयार हो चुकी थी जब 1840 में यहां पहली बार कोयला पाया गया। सिंगरौली में कोयला खनन की पहली संभावना को एक अंग्रेज़ कैप्टन राब्थन ने तलाशा था (लीना दोकुज़ोविच, सन्हति, 30 सितंबर 2012)। अठारहवीं सदी के अंत में यहां खनन का कारोबार शुरू हुआ। सिंगरौली की पहली ओपेन कास्ट खदान 1857 में कोटव में खोदी गई और सोन नदी के रास्ते दूसरे शहरों तक कोयले का परिवहन शुरू हुआ। कालांतर में रेलवे के विकास के चलते कोयले को ले जाना ज्यादा आसान हो गया जिसके चलते दूसरी खदानों को तरजीह दी जाने लगी और अगले कई सालों तक सिंगरौली की खदानें निष्क्रिय पड़ी रहीं। भारत की आज़ादी के बाद राष्ट्रीयकरण के दौर में जब ऊर्जा की जरूरत बढ़ी, तो कोल इंडिया ने पचास के दशक के आरंभ में सिंगरौली में दोबारा खनन कार्य शुरू किया। इसी दौर में यह बात साफ़ हो सकी कि 200 किलोमीटर की पट्टी में बिखरी कोयला खदानों के साथ प्रचुर मात्रा में पानी की उपलब्धता के चलते यह थर्मल पावर प्लांटों के लिए आदर्श जगह हो सकती है।
इसके बाद 1960 में अचानक बिना किसी पर्याप्त सूचना के गोबिंद सागर जलाशय और रिहंद बांध के लिए विस्थापन का काम शुरू कर दिया गया। चूंकि आबादी बहुत ज्यादा नहीं थी और सरकार के पास वन भूमि प्रचुर मात्रा में थी, इसलिए प्रत्येक परिवार को शुरू में पांच एकड़ ज़मीन दे दी गई। विस्थापितों में कुल 20 फीसदी परिवार जिनमें अधिसंख्या आदिवासी थे, उन्होंने इसके बावजूद इलाका छोड़ दिया जिनका आज तक कुछ अता-पता नहीं है (जन लोकहित समिति की रिपोर्ट, कोठारी 1988)। किसी पुनर्वास नीति के अभाव में लोगों ने औना-पौना मुआवज़ा स्वीकार कर लिया जिसमें एक नया मकान बनाना भी मुमकिन नहीं था। इन विस्थापित परिवारों में करीब 60 फीसदी जलाशय के उत्तरी हिस्से में बस गए, जो एक बार फिर कालांतर में एनटीपीसी के सुपर थर्मल पावर प्रोजेक्ट लगने के कारण विस्थापित हुए।
हार्डीकर की रिपोर्ट के मुताबिक सिंगरौली में बांध/जलाशय, खनन और ताप विद्युत परियोजनाओं से दो लाख से ज्यादा लोग अब तक उजड़े हैं। हार्डीकर अपनी रिपोर्ट में डाना क्लार्क को उद्धृत करते हैं (सेंटर फॉर इंटरनेशनल लॉ में अमेरिकी अटॉर्नी, जिन्होंने सिंगरौली में विशेष तौर से विश्व बैंक अनुदानित परियोजनाओं की भूमिका पर टिप्पणी की है), ”…सिंगरौली में ग्रामीणों की यातना की कहानी चौंकाने वाली है और इन लोगों का समग्र आकलन होना चाहिए जिनकी जिंदगी विकास के नाम पर तबाह कर दी गई।” जिस विकास की बात क्लार्क कर रही हैं, उसमें तेज़ी अस्सी के दशक में आई जब एनटीपीसी के तीन प्रोजेक्ट यहां प्रस्तावित हुए, साथ ही उत्तर प्रदेश बिजली बोर्ड का अनपरा प्रोजेक्ट प्रस्तावित किया गया। इन सभी परियोजनाओं के लिए नौ ओपेन कास्ट खदानें लगाई गईं जिनका मालिकाना नॉरदर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड के पास है। अगले दशक में इनके चलते 20,504 भूस्वामियों की ज़मीनें गईं और 4,563 परिवार विस्थापित हो गए। कई दूसरी बार विस्थापित हुए थे।
विश्व बैंक ने हालांकि एनटीपीसी से प्रभावित लोगों के लिए उपयुक्त पुनर्वास और पुनर्स्थापन पर ज़ोर दिया था और कोयला खनन परियोजनाओं ने हर प्रभावित परिवार में से एक व्यक्ति के लिए रोजगार का प्रावधान किया था, लेकिन लोगों ने खुद को जन लोकहित समिति के बैनर तले संगठित किया और परियोजनाओं का विरोध किया। समिति की रिपोर्ट कहती है, ”5 फरवरी 1988 को सामूहिक विरोध की एक विशाल अभिव्यक्ति के तहत 15000 से ज्यादा लोग जिनमें अधिकतर आदिवासी थे, सिंगरौली की सड़कों पर उतरे… वे बीते दिन दशकों में बार-बार हुए विस्थापन के सदमे और असुरक्षा से तंग आ चुके थे…।” विस्थापन की कहानी हालांकि यहीं नहीं रुकी बल्कि सिंगरौली के ”विकास” की तीसरी लहर निजी कंपनियों के रूप में देखने को अई जब यहां रिलायंस, हिंडाल्को और एस्सार ग्लोबल को परियोजनाएं शुरू करने की अनुमति मिली। एक बार फिर पहले से विस्थापित लोगों के सामने फिर से विस्थापित होने का खतरा पैदा हो गया। पहली और दूसरी लहर में विश्व बैंक व अंतरराष्ट्रीय वित्त संस्थाओं के कर्ज की भूमिका थी तो इस बार सीधे तौर पर कॉरपोरेट वित्तीय पूंजी से लोगों का सामना था।
संजय कहते हैं, ”जब तक सरकारी कंपनियों से विस्थापन का सवाल था, उनसे तो हम किसी तरह लड़-झगड़ लेते थे। माहौल इतना खराब नहीं था। प्राइवेट कंपनियों के आने के बाद स्थिति काबू से बाहर हो गई है। कब किसे उठा लिया जाए, मार दिया जाए, कोई पता नहीं।” छह दशक में लोगों के बीच पनपा यही डर और अविश्वास था कि हर व्यक्ति चाहे वह प्रभावित हो या अप्रभावित, निजी समृद्धि के एजेंडे में जुट गया और धीरे-धीरे आंदोलनों के ऊपर से जनता का विश्वास जाता रहा। रामलल्लू गुप्ता कहते हैं, ”लोगों को पैसा दो तो वे भागे हुए आएंगे। इनका ईमान बिगड़ गया है। अब हमारे बार-बार बुलाने पर भी कोई नहीं आता।” सिंगरौली एटक के महासचिव राजकुमार सिंह कहते हैं, ”यहां की जनता ही दोगली हो गई है। जब तक यहां की जनता का आखिरी रस नहीं निचुड़ जाएगा, उसे अपने सामने मौजूद खतरे की बात समझ में नहीं आने वाली। हम लोग उसी दिन का इंतज़ार कर रहे हैं।”
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