सुनील
जहां उद्योग लगते हैं उस इलाके में माल के आवागमन के लिए रोड, बाजार का विकास होता है। एक ऐसा भी उद्योग है जहां सड़क के नाम पर सिर्फ पगंडडी होती है, बाजार तीन-चार किलोमीटर की दूरी पर होता है जहां मजदूर अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए 15 दिन पर जाकर खरीददारी कर पाते हैं। इस उद्योग को हम लोग ईंट-भट्टे के नाम से जानते हैं। यहां एक सीजन में (छह माह) डेढ़ से दो करोड़ रुपये का टर्नओवर होता है। प्रत्येक ईंट-भट्टे पर आपको 200-250 मजदूर काम करते हुए मिल जाएंगे, लेकिन इसको उद्योग की श्रेणी में नहीं गिना जाता है। इन भट्टों पर किसी भी प्रकार का श्रम कानून लागू नहीं होता। एक मालिक के कई-कई भट्टे हैं लेकिन सरकार की आंखों में धूल झोंकने के लिए स्वामित्व अलग-अलग नाम से होता है। मजदूर पूरी तरह से मालिकों के ऊपर आश्रित होता है। ईंट-भट्टा मालिकों की एसोसिएशन है लेकिन मजदूरों की कोई यूनियन नहीं है। श्रम अधिकारी आकर कभी उनसे जानना भी नहीं चाहता है कि वे किस हालत में काम कर रहे हैं और न यह बताते हैं कि मजदूरी की दर कितनी है।
दिल्ली के बाहरी इलाके में स्थित एक भट्ठे पर मजदूरों का आशियाना |
ईंट-भट्टा मजदूरों को काम के हिसाब से छह नामों (पथाई, भराई, बेलदार, निकासी, जलाई, राबिस) से जाना जाता है। ये मजदूर ईंट-भट्टे पर बने एस्बेसटस और टीन की छत के नीचे रहते हैं जिसकी ऊंचाई 6-7 फुट होती है। भट्टा मजदूर अपने परिवार के साथ या अकेले रहते हैं। इन मजदूरों का आपस में कोई तालमेल नहीं होता। इनकी बस्ती काम के आधार पर अलग-अलग होती है। जहां पथाई, भराई, निकासी, बेलदार अपने बच्चों, पत्नियों, मां-बाप, भाई-बहन के साथ भट्टे के कोने में बनी झुग्गियों में रहते हैं वहीं जलाई और राबिस वाले अकेले या परिवार के पुरुष सदस्य के साथ रहते हैं। उनका रहने का स्थान भट्टों पर होता है जिसको डाला बोला जाता है यानी जहां ईंट को पकाया जाता है। यहां गर्मी बहुत अधिक होती है और छह-छह घंटे की दो पारियों में वे प्रतिदिन 12 घंटे काम करते हैं। इस डाले पर दो टिन शेड आपको देखने को मिल जाएंगे। एक टिन शेड में जलाई के मजदूर रहते हैं जिनकी संख्या आठ से दस होती है तो दूसरे शेड में राबिस वाले होते हैं जिनकी संख्या चार से छह तक होती है।
काम के हिसाब से ये मजदूर एक ही गांव, जिले और एक ही जाति या धर्म के होते हैं। जलाई मजदूर ज्यादातर उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के सरोज, हरिजन जाति से आते हैं। राबिस का काम करने वाले ज्यादातर मजदूर उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले के प्रजापति जाति के हैं। इन मजदूरों को मासिक वेतन पर रखा जाता है।
पथाई करने वाले ज्यादातर मजदूर मुसलमान हैं जो कि पश्चिम बंगाल के कूच बिहार जिले से और उत्तर प्रदेश के बागपत, मेरठ, शामली के रहने वाले हैं। ये मजदूर अपने परिवार-रिश्तेदार के साथ सीजन के वक्त भट्टे पर ही रहते हैं और कुछ मजदूर तो कई साल से अलग-अलग भट्टे पर रह रहे हैं। ये मजदूर पढ़े-लिखे नहीं होते और न ही अपने बच्चों को पढ़ा पाते हैं। इन मजदूरों में आपको दस वर्ष के बच्चों से लेकर 70 वर्ष तक के महिला-पुरुष काम करते हुए दिख जाएंगे। ये औसतन 15-16 घंटे काम करते हैं और चार-पांच घंटे ही सो पाते हैं। उनसे यह पूछने पर कि आप बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहते, उनका जबाब होता है- ”अपने बच्चों को कौन नहीं पढ़ाना चाहता लेकिन हालत यह है कि बच्चे काम में हाथ न बंटाएं तो खाने लायक भी हम नहीं कमा पाएंगे।”
निकासी और भराई के ज्यादातर मजदूर परिवार के साथ भट्टे पर रहते हैं और इस काम में पूरा परिवार लगा रहता है। इनको एक हजार ईंट की ढुलाई पर 80-100 रुपये के हिसाब से मजदूरी दी जाती है। निकासी के मजदूर केवल शारीरिक श्रम ही नहीं करते, वे पूंजी भी लगाते हैं। उनके काम में घोड़े की जरूरत होती है जिनकी कीमत 60,000 से लेकर 80,000 रुपये तक होती है। इनको अपनी कमाई हुई मजदूरी से इन घोड़ों की देखभाल करनी पड़ती है। घोड़े के बीमार होने या मर जाने पर ये कर्ज के जाल में फंस जाते हैं।
समसेरपुर गांव (गाजियाबाद जिले के राजापुर ब्लॉक) के ईंट-भट्टों पर सावित्री (65 वर्ष) ने बताया कि वे अपने बेटे-बेटी के साथ पथाई का काम करती हैं। सावित्री के पति की बहुत पहले जमीन के विवाद में हत्या हो चुकी है, उसके बाद वे अपना गांव छोड़कर अपने मायके में झोपड़ी डाल कर रहती हैं और जीविका चलाने के लिए भट्टों पर पथाई का काम करती हैं। साथ में उनकी बेटी रानी (20 वर्ष) भी काम कर रही है। रानी लम्बे समय से बीमार है। उसके शरीर में सूजन आ गई है। सावित्री ने सात माह तक इलाज कराया, जो भी पैसा था डॉक्टर को दे दिया, अब वह दवा कराना भी छोड़ चुकी हैं। सावित्री बात कर रही थीं, वहीं रानी ईंट पाथने के लिए भाई को मिट्टी पहुंचाने का काम बिना रुके किए जा रही थीं। सावित्री को न तो विधवा पेंशन और न ही वृद्धा पेंशन मिलती है जबकि सरकारी कानून के मुताबिक सावित्री यह हक पाने का अधिकार रखती हैं। ऐसे अधिकार सावित्री जैसे लोगों को नहीं मिल पाते हैं। सावित्री जैसी कहानियां यहां ढेरों हैं।
सभी भट्टा मजदूरों को 15 दिन पर केवल खर्च का पैसा दिया जाता है और उनका हिसाब सीजन के अंत में जून में किया जाता है। किसी-किसी भट्टे पर उनके ये पैसे भी मालिक या ठेकेदार मार लेते हैं। साहपुर ईंट-भट्टे पर पथाई का काम करने वाले एक मजदूर ने बताया कि 2012 में भिकनपुर के फौजी नाम के भट्टा मालिक ने मजदूरों का लाखों रुपया नहीं दिया, उनमें वे भी शामिल थे। उनके और उनके रिश्तेदारों के भी 80,000 रुपये मालिक ने मार लिए।
अपना ही नहीं, घोड़े का भी पेट पालना है |
भिकनपुर में त्यागी के ईंट-भट्टा पर एक परिवार आठ वर्ष से रह रहा है और ईंट निकासी का काम कर रहा है। अपने बच्चों की शादी इस परिवार ने इसी भट्टे पर रहते हुए की है। मालिक ने पिछले तीन साल से इनका हिसाब नहीं किया है। जब भी वे हिसाब की बात करते हैं तो कोई न कोई बहाना बनाकर टाल दिया जाता है। एक बार इस परिवार की बेटी और दामाद में झगड़ा हो गया। दामाद गांव चला गया तो ठेकेदार उनकी बेटी को लेकर दूसरे भट्टे पर चला गया और बोला- ”इसके पास मेरा दस हजार एडवांस है। जो भी इस पैसे को देगा मैं उसके हाथ इसको बेच दूंगा।” दस हजार रुपये देकर उसके पिता ने अपनी बेटी को ठेकेदार के पास से छुड़ाया।
मालिक मजदूरों पर इल्जाम लगाते हैं कि वे पैसे लेकर भाग जाते हैं या कोर्ट में छेड़खानी और बंधुआ मजदूर का केस लगा कर चले जाते हैं। मजदूर कहते हैं कि कभी मिट्टी खराब आ जाती है जिससे मजदूरी भी नहीं निकलती और मजदूरी बढ़ाने की मांग करने पर मजदूरी भी नहीं बढ़ाई जाती। मालिक काम छोड़कर जाने भी नहीं देता। लिहाज़ा उन्हें कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाना पड़ता है।
अपने इलाज के लिए ये मजदूर झोलाछाप डॉक्टरों पर निर्भर रहते हैं। अधिक बीमार होने पर गाजियाबाद या मुरादनगर के प्राइवेट अस्पतालों में जाते हैं। यदि सीजन में परिवार का कोई भी सदस्य गम्भीर बीमार हो जाए तो ये मजदूर कर्जदार हो जाते हैं। इससे ठेकेदार-मालिक को और फायदा हो जाता है। मजदूर कर्ज के जाल में फंस कर उनके पास अगले साल के लिए भी बंधुआ हो जाता है।
जिंदगी या गड्ढा? |
घर बनाने में ईंट महत्वपूर्ण सामग्री होती है लेकिन ईंट बनाने वाले लगभग 90 फीसदी भट्टा मजदूरों के पास रहने को घर नहीं है। वे ईंट-भट्टों और गांव में भी झोपड़ी या कच्चे मकान में रहते हैं। इनमें से 90 फीसदी के पास मतदाता पहचान पत्र हैं और उनसे वोट भी डलवा लिया जाता है। पचीस फीसदी के पास राशन कार्ड हैं जिस पर तीन लीटर मिट्टी का तेल ही मिल पाता है, वह भी किसी-किसी महीने में नहीं मिलता। पांच फीसदी लोगों के पास मनरेगा जॉब कॉर्ड हैं जिस पर बहुत कम लोग ही एक साल में दस से तीस दिन काम कर पाते हैं। कुछ लोगों को काम करने के बाद भी पैसा नहीं मिला तो कुछ का जॉब कार्ड प्रधान के पास ही रहता है।
और यह सब राजधानी दिल्ली से महज़ कुछ किलोमीटर की दूरी पर हो रहा है- बंधुआ मजदूरी से लेकर बाल मजदूरी तक। इन मजदूरों की कहानी मनरेगा से लेकर खाद्य सुरक्षा योजना आदि सबकी पोल खोलती है। श्रम अधिकारों की धज्जियां तो हर जगह उड़ाई ही जा रही हैं। जिस उद्योग में 200 से 300 मजदूर काम करते हों, जिसका टर्नओवर डेढ़ से दो करोड़ के बीच हो, क्या वह लघु उद्योग कहा जाएगा? क्या इनके लिए संविधान में कोई जगह है?
(लेखक राजनीतिक कार्यकर्ता हैं)
sunilkumar102@gmail.com
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