सुशासन बाबू के कुशासन में परिवर्तन का एक नया चेहरा उभरा है। खानदानी कम्युनिस्टों की परंपरा से निकले इस सुर्ख युवा चेहरे की पसंद की फेहरिस्त में एक ओर स्वामी विवेकानंद हैं तो दूसरी ओर सचिन तेंदुलकर, मुंशी प्रेमंचद, ए.बी. बर्द्धन और बॉलीवुड की फिल्म ‘थ्री ईडियट्स’। देश की सबसे पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी सीपीआई के छात्र संगठन एआईएसएफ ने 28 साल बाद पटना युनिवर्सिटी में हुए चुनावों में जब क्लीन स्वीप नहीं किया था, उससे हफ्तों पहले अंशु कुमारी का नाम सोशल मीडिया के लती प्रगतिशील युवाओं की ज़बान पर चढ़ गया था। 9 फरवरी 1990 को जन्मी एम.कॉम (अंतिम वर्ष) की छात्रा अंशु के पास पीयूएसयू महासचिव पद पर काम करने के लिए बमुश्किल साल भर का वक्त है, लेकिन उनके सपनों और विचारों की दुनिया बहुत बड़ी है। अंशु की चिंताओं का दायरा व्यापक है। उन्हें इस बात से परेशानी है कि 70 साल पुरानी एक पार्टी आज भी राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छाप क्यों नहीं छोड़ पा रही है। उन्हें चिंता इस बात की है कि देश में नेताओं की इतनी भीड़ क्यों है जबकि क्रांतिकारियों की फसल क्यों खत्म हो रही है। चुनाव प्रचार में उनके साथियों ने अंशु से कहा था- आप नेता नहीं क्रांतिकारी लगती हैं। अंशु को इस बात की खुशी है। वे क्रांतिकारी ही बने रहना चाहती हैं। उन्हें नेता नहीं बनना। लेकिन वे अरविंद केजरीवाल की तरह ‘शॉर्ट टर्म की क्रांति’ भी नहीं करना चाहतीं।
कारवां बढ़ता रहेगा… |
अंशु कुमारी से फोन पर हुई लंबी बातचीत ने उम्मीद जगाई है कि हिंदी पट्टी अभी संभावनाओं से खाली नहीं हुई है। एक उम्मीद और जगी है कि युवाओं की आबादी के मामले में दुनिया में नंबर एक भारत अपनी इस नई फसल से निराश नहीं होगा। अफसोस है तो बस इस बात का, कि इस ऐतिहासिक पल की सुध दिल्ली में बैठे नेताओं ने अब तक नहीं ली। अंशु जब कहती हैं कि उनके पास दिल्ली की पार्टी लीडरशिप से अब तक कोई फोन नहीं आया, तो उनकी आवाज़ सधी रहती है। वे जानती हैं कि क्रांति के पुराने फॉर्मूलों से इस देश में बदलाव नहीं लाया जा सकता। आइए, इस देश के युवाओं के सबसे ताज़ा बदलावकारी चेहरे पर एक नज़र डालते हैं, खुद अंशु की ज़ुबानी।
”समाज के खिलाफ आवाज़ उठाने के क्रम में मेरे पिता की हत्या कर दी गई थी। कुछ लोग थे जो नहीं चाहते थे कि परिवर्तन हो। हम लोगों को घर में हमेशा से इसके बाद राजनीति से दूर रहने को कहा जाता था। हम लोग बहुत कुछ खो चुके थे। मेरे चाचा नहीं रहे थे। मेरे पापा नहीं रहे। दादाजी नहीं रहे, दादी नहीं रहीं। हम लोग बचपन में अच्छे घर से बिलांग करते थे। दिल्ली में हम लोगों का अपना घर था। इतना कुछ खोने के बाद आदमी सतर्क हो जाता है न… इसलिए हम लोगों को अलाउ नहीं होता था कि हम लोग राजनीति में जाएं।
हम लोग इनवॉल्व भी होना चाहते थे, तो वहां की सामंती ताकतें धमकियां देती थीं कि आप लोग बच कर रहिए नहीं तो फिर से याद दिलाना होगा… हमारे यहां अमरजीत कौर का, सुभाषिनी जी का स्पीच होता था। उन लोगों के साथ रहना जाना होता था। घर से था कि राजनीति से दूर रहना है, लेकिन माहौल तो बचपन से वही था… मम्मी इसमें इनवॉल्व थीं न! मम्मी लगातार पॉलिटिक्स में इनवॉल्व रहीं, तो मां कहीं आती-जाती है तो बच्चा भी साथ में आता-जाता है न! मेरी मां भी कम्युनिस्ट हैं। संगठन में हैं। मां लेकिन मना करती थी… बोलती थी कि जाओ यहां से, तुम लोगों को ये सब नहीं सुनना है। लेकिन बचपन से इसी माहौल में थे, तो कितना कोई दूर रखेगा!
बहुत छोटे थे, तो जब पापा और चाचा का डेथ हुआ था, क्रिमिनल लोगों ने मारा था, तो बचपन में जब गांव जाते थे तो दुख होता था। सोचते थे कि बदला लेना है। लेकिन जैसे-जैसे बड़े होते गए, तो लगा कि इस सब से कोई फायदा नहीं है। लेकिन एक चीज़ हमेशा होता था कि जब कुछ भी गलत होता था तो बर्दाश्त नहीं होता था… बाद में लोग कॉलेज में बोलते थे कि तुम्हारे में लीडरशिप क्वालिटी है… अच्छा लगता था। लेकिन मेरी मम्मी कहती थीं कि ऐसा नहीं है… लेकिन आज मम्मी बहुत खुश हैं। जब हम खड़े हुए थे तो बहुत खुश थीं, लेकिन ऊपरी मन से बोलती थीं कि क्या ज़रूरत है इस सब का। आज वो सबको खुश होकर सबको बता रही हैं।
…दिल्ली से भी कुछ लोग आए हुए थे, जैसे लेनिन… लेकिन वो लोग प्रचार के लिए नहीं आए थे, सिर्फ ऑब्जर्वेशन के लिए। हम लोगों को समझाए कि कैसे क्या करना है। बहुत लोगों का फोन आया, लेकिन दिल्ली से अब तक कोई फोन नहीं आया है। बिहार स्तर पर जितने भी लोग थे, जैसे शुत्रुघन बाबू का, बेगूसराय से, राजस्थान से, फोन आया सबका। आया भी होगा दिल्ली-विल्ली से तो हम नहीं रिसीव कर पाए होंगे… ये भी हो सकता है।
भारत को बोला जाता है कि कृषि प्रधान देश है। हम देखते हैं कि हमारे किसान लोग इसलिए खेती करते हैं कि जीवनयापन करना है। अधिकांशत: ऐसा ही करते हैं। हमें लगता है कि वे ये सोच कर खेती करें कि वो हमारा व्यवसाय हो, अर्निंग करेंगे ज्यादा से ज्यादा, टेक्नोलॉजी के साथ… अपने दिमाग को ज्यादा से ज्यादा यूज़ करेंगे, प्रॉफिट में रहेंगे, अगर ये सोचें तो ठीक रहेगा। इनमें अवेयरनेस की कमी है। हमें बताया जाता है कि हमारे पास रिसोर्सेज़ की कमी है, लेकिन रिसोर्सेज़ की कमी का आज तक हम डाटा नहीं देखे। दरअसल, रिसोर्सेज़ का ऑप्टिमम युटिलाइज़ेशन नहीं हो पा रहा है। जो किसान पढ़े-लिखे नहीं हैं, उन लोगों को अगर नाटक के थ्रू, एनजीओ के माध्यम से मोटिवेट किया जाए, तो मोटिवेशन से प्रोडक्शन बढ़ेगा।
फिर एक और चीज हमको सबसे बुरा लगता था… अगर पॉलिटिक्स का बात करें तो, संसद वगैरह में लोग कुर्सियां एक-दूसरे पर फेंकते रहते हैं। आप सोच सकते हैं कि हम लोग अपने देश को किस तरह प्रोजेक्ट कर रहे हैं। पूरा देश देखता है उनको। जो आदमी, हम ही लोग के बीच से चुन के वहां पहुंचता है, वो अगर ऐसा बिहेव करता है, तो आम आदमी उससे क्या सीख पाएगा। ये सब बहुत बड़ा कारण है कि देश में करप्शन बढ़ता जा रहा है। ये सब बंद होना चाहिए। ये सब हमारे देश को बहुत गंदा संदेश देता है। बहुत शर्मनाक है ये सब।
अब देखिए, हम ही लोग पॉलिटिक्स में आए हैं…लोग बोलते हैं कि क्या ज़रूरी है पॉलिटिक्स में आने का… अगर हम ही लोग ये सोचेंगे तो परिवर्तन कैसे होगा। फिर तो वही गाली-गलौज, वही कुर्सीपलट। क्रांति तो युवा ही देगा न… देश को क्रांति की ज़रूरत है।
…अन्ना हजारे? बहुत शॉर्ट टर्म है उन लोगों का काम। अब देखिए क्या होता है कि नेता लोग शांति पर भाषण देते हैं। लंबा-लंबा स्पीच देते हैं। जब आप आई कॉन्टैक्ट कर के ही नहीं बात कर पा रहे हैं तो क्या फायदा… ठीक है, लोग अरविंद केजरीवाल के साथ जुड़े… इतना अशांति हो गया है देश में तो लोग जहां से कुछ मिल रहा है वहीं जुड़ने लगते हैं… लोग बहुत हड़बड़ाए हुए रहते हैं न। सबको शॉर्ट कट चाहिए।
एक चीज़ और बताएं… ज़रा हट के… कुछ दिन पहले हम लोगों के पार्टी का गोष्ठी हो रहा था। जेएनयू से भी लोग आए हुए थे। आप जानते हैं पार्टी की स्थापना 1936 की है… ये जो विचारधारा है वो समाजवादी है, पूंजीवादियों की अवहेलना करती है। मेरे दिमाग में बैठे हुए एक सवाल आया कि हम लोग 1936-37 से समानता की विचारधारा पर काम करते आ रहे हैं, न्याय के लिए लड़ते हैं, कुरीतियों के खिलाफ लड़ते हैं, फिर भी हमारा आंदोलन रा ष्ट्रीय क्यों नहीं बन पाया? ये बहुत बड़ा क्वेश्चन है। बहुत दिन हो गया… हम लोग अलग दिशा में भी नहीं जा रहे। वजह… बहुत सारा है… हमको तो बहुत दिन नहीं हुआ पॉलिटिक्स में आए हुए। लेकिन हमको लगता है कि हम लोगों को अपने सोच को थोड़ा सा लोगों के हिसाब से बदलना चाहिए। उसमें एडीशनल चेंजिंग को लाते हुए पेश करना होगा ताकि लोग इसको बेकार के चीज़ों में नहीं लें, अच्छे से समझ सकें…
…विवेकानंद बोलते थे कि बहुत दिनों बाद ऐसा होगा कि जो हम लोग अभी विदेशों का रहन-सहन अपनाते हैं, वो लोग हमारी शांति को देख के हम लोगों के रहन-सहन को अपनाना शुरू होगा… और उसी समय भारत का पतन होगा… विवेकानंद तो आदर्श नहीं, लेकिन उनका कुछ-कुछ सोच अच्छा लगता है। जैसे, अवधेश कुमार मेरे आदर्श हैं…
हमको प्रेमचंद अच्छे लगते हैं। हमको मधुशाला बहुत अच्छी लगती है… वो सुकून देता है कि, चलो… मधुशाला के अलावा अभी एक पढ़ रहे थे स्त्री… हां, वो भी अच्छा लगा। उपन्यास ज्यादा हम नहीं पढ़ पाए हैं… पढ़ाई को लेके हम ज्यादा ही.. ये रहते थे। क्रिकेट के बारे में मत ही पूछिए, वैसे सचिन अच्छे लगते हैं। मूवी देखते हैं, बहुत कम लेकिन… थ्री ईडियट्स, रंग दे बसंती, मदर… जो कुछ सिखाता हो, समाज को बदलने का बात करता हो। हीरो-हीरोइन का गाना बजाना नहीं अच्छा लगता है।
…अभी जब खड़े हुए थे, तो लोग बोल रहे थे कि आप नेता नहीं, क्रांतिकारी लगती हैं। हमें ज़रा भी दुख नहीं लगा क्योंकि सच बताते हैं, हम नेता बनना ही नहीं चाहते हैं। देश में बहुत नेता हो गए हैं, क्रांतिकारियों की ज़रूरत है अब… क्रांति मने परिवर्तन होना चाहिए हमारे समाज में, देश में। आप लोग रूरल का बात नहीं कर रहे हैं, अरबन एरिया का बात कर रहे हैं… अंदर का जो रहन-सहन है… हम तो अभी भी जाते हैं घर तो वही देखते हैं जो दस साल, पंद्रह साल पहले देखते थे। लोग न मूवी को देख के, सीरियल को देख के अपना लाइफस्टाइल बदलने में लगे हुए हैं, लेकिन अपनी क्वालिटी और एजुकेशन को नहीं देख पा रहे हैं। इतना ही खुल के वे विचारों, शिक्षाओं को ग्रहण करने लगें, तब जाकर परिवर्तन होगा। कुछ-कुछ ऐसा होना चाहिए कि जो आदमी को मोटिवेट कर सके… हर आदमी में इतना कैपेसिटी, एनर्जी होता है कि उसे अगर मोटिवेट कर दिया जाए तो बहुत कुछ हो सकता है।
लालूजी का राज तो बाप रे… खोखला ही कर के चले गए। एक चीज है, लालूजी जब 1990 में आए थे तो जाति को लेकर के… अब नीतिश जी का भी… जैसे चुनाव हुआ था न तो उसमें था क्या कि सारे जो उम्मीदवार थे बोलते थे कि विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय में बदल देंगे.. सारे के सारे। हमसे जब पूछा गया तो हम बोले कि इतना तत्कालीन समस्याएं दिखाई देती हैं कि उतना बड़ा हम सोच ही नहीं पाते। उस समय हमसे भी मीडिया पूछा था, तो हम भी बोले थे कि मेरा भी कोशिश रहेगा कि केंद्रीय विश्वविद्यालय बन जाए तो बिहार को फायदा होगा। लेकिन महसूस होता था कैम्पस में कि, जैसे हमारे नीतिश जी हैं… माननीय मुख्यमंत्री… कई सालों से राजनीति किए जा रहे हैं कि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलवाएंगे। यही राजनीति हमको कैम्पस में महसूस होता था कि केंद्रीय विश्वविद्यालय बनवाएंगे। हमको बहुत हंसी आती थी… वैसे हम पूरे कैम्पेनिंग में वादा नहीं किए थे… मेरा यही कहना था कि आप सब देख रहे हैं… ऐसे आदमी को चुनिए जो आपके अपने बीच का हो… क्या होना चाहिए, क्या नहीं, सबको पते हैं।
अभी यहां लिंगदोह कमेटी आई थी इलेक्शन में… हमसे मीडिया पूछा लिंगदोह कमेटी के बारे में, हम बोले लिंगदोह अंकल जी को तो हम देखे ही नहीं नोमिनेशन के बाद। कमेटी बोल रही थी कि आप पांच हजार रुपया खर्च कर सकते हैं। एक-एक उम्मीदवार थे जो दूसरे संगठन के, उनका एक दिन में पांच हजार से ज्यादा पेट्रोल पर खर्च होता था। ई सब बेवकूफी टाइप लगता था… लोगों को ये सब बात समझ में आया… लोग हमको 960 वोट से जिताए। अध्यक्ष 1700 वोट पाए हैं और मेरा था 2100 वोट। पूरी युनिवर्सिटी में हमको सबसे ज्यादा वोट मिला। एंटी संगठन हमसे बोले कि आप अध्यक्ष के लिए क्यों नहीं खड़ी हुईं, तो मेरे लिए ये गर्व की बात थी।
खुशी तो हो रही है, लेकिन अब एक अलग सा जवाबदेही, रिसपॉन्सिबिलिटी लग रहा है। लोगों ने इतने वोटों से जिताया है। हम लोग को तो बहुत सा बात पता भी नहीं है कि क्या-क्या हम लोग का अधिकार है… इतने साल बाद चुनाव हुआ है। हम लोग का कहना है कि सबको अच्छा शिक्षा मिले, डेमोक्रेटिक कैंपस हो।
देखिए, अगस्त में तो अगला चुनाव सुन रहे हैं, लेकिन दिसंबर तक होगा। इसीलिए जिम्मेदारी ज्यादा लग रहा है कि इतना कम समय है…
अभी पॉलिटिक्स में जाने का तो नहीं सोचे हैं। अभी कैंपस में हम अच्छा कर सकेंगे तभी आगे जाएंगे। हम नहीं चाहते हैं कि उन नेताओं में खडे हों जिन्हें लोग गालियां देते हैं। गाली सुनने को हम पॉलिटिक्स में नहीं जाएंगे, कुछ परिवर्तन कर सके, तभी सोचेंगे…”
(अभिषेक श्रीवास्तव से फोन पर हुआ संवाद )
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Ummed ki kiran abhi vaki hai
राज का अर्थ अच्छा ,नीति -नियम ,सिद्धान्त आदी, कहने का अर्थ अच्छा नियम ही राजनीति हैं ,देश को अच्छी सिद्धान्तों द्वारा चलाना जिससे सब खुशाल रहें । यदि मेरा सिद्धान्त अच्छा हैं और देश के लिए कुछ अच्छा करू तो मैं राजनीति करता हूं ,इसलिए पार्टी करना और व्होट की राजनीति करना आवश्यक नहीं ,देश में एक भी पार्टी नहीं जो सिद्धान्त की राजनीति करता हैं अत: यदि कोई वास्तविक रूप से सिद्धान्त की राजनीति करता हैं तो उसे साथ देना चाहिए ,वर्तमान स्थिती में एक आन्दोलन की आवश्यकता हैं, इसी आन्दोलन से जो सिद्धान्त निकलकर आएगा उस पर निर्भर करके पार्टी बनाना चाहिए अत: आन्दोलन पहले और आन्दोलन से जो लोग खाटी बनकर निकलेगा उन्हें देश सेवा का भार दिया जाए ,यही राजनीति हैं । मैं चाणक्य और चन्द्रगुप्त को नतमस्तक करता हुं ।
राज का अर्थ अच्छा ,नीति -नियम ,सिद्धान्त आदी, कहने का अर्थ अच्छा नियम ही राजनीति हैं ,देश को अच्छी सिद्धान्तों द्वारा चलाना जिससे सब खुशाल रहें । यदि मेरा सिद्धान्त अच्छा हैं और देश के लिए कुछ अच्छा करू तो मैं राजनीति करता हूं ,इसलिए पार्टी करना और व्होट की राजनीति करना आवश्यक नहीं ,देश में एक भी पार्टी नहीं जो सिद्धान्त की राजनीति करता हैं अत: यदि कोई वास्तविक रूप से सिद्धान्त की राजनीति करता हैं तो उसे साथ देना चाहिए ,वर्तमान स्थिती में एक आन्दोलन की आवश्यकता हैं, इसी आन्दोलन से जो सिद्धान्त निकलकर आएगा उस पर निर्भर करके पार्टी बनाना चाहिए अत: आन्दोलन पहले और आन्दोलन से जो लोग खाटी बनकर निकलेगा उन्हें देश सेवा का भार दिया जाए ,यही राजनीति हैं । मैं चाणक्य और चन्द्रगुप्त को नतमस्तक करता हुं ।
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बहुत सुन्दर…अशेष शुभ कामना.
क्या राजनीति में इतनी सरल सोच के साथ कोई आ सकता है…? अंशु जी को शायद विरासत में झुझना मिला है…उम्मीद है यह चिंगारी शोला बने-