नेपाल का संविधान और 40 सूत्रीय मांग


विष्‍णु शर्मा 


4 फरवरी 1996 को तत्कालीन संयुक्त जनमोर्चा (नेपाल) की ओर से डाॅ बाबुराम भट्टराई ने प्रधान मंत्री शेर बहादुर देउबा को 40 सूत्रीय मांग पत्र सौंपा। संयुक्त मोर्चा ने यह भी घोषणा की कि इन मांगों पर यदि सरकार की ओर से कोई जवाब नहीं आया तो वे राज्यसत्ता के विरोध में सशक्त संघर्ष के रास्ते में जाने के लिए बाध्य होंगे14 फरवरी 1996 को नेपाल की कम्युनिस्‍ट पार्टी (माओवादी) ने नेपाल की राज्यसत्ता के विरुद्ध जनयुद्ध की घोषणा कर दी।



नेपाल के नए संविधान (मसौदा) की 1996 के उपरोक्त मांग पत्र के साथ तुलना करने पर यह साफ हो जाता है कि नया संविधान उन मांगों को संबोधित करने में पूरी तरह विफल साबित हुआ है जिसने नेपाल को 10 साल के लिए अनिश्चय, अस्थिरता और अशांति के रास्ते में डाल दिया था।
माओवादियों की 40 सूत्रीय मांग नेपाली समाज में व्याप्त उन अंतरविर्रोधों का लघु मानचित्र है जिनके हल न होने से नेपाल हमेशा एक ऐसे ज्वालामुखी के समान बना रहा है जो छोटे-छोटे अंतराल में फटता रहता है और सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल का कारण बनता है।

नेपाल में एक नए संविधान का बन जाना कोई ऐतिहासिक महत्व की घटना नहीं है। 1950 के बाद से नेपाल के वर्तमान संविधान को मिलाकर कुल छह संविधान बन चुके हैं। नेपाल का सबसे पहला संविधान 1951 (अंतरिम) में बना, उसके बाद 1959, 1962, 1990 और 2007 (अंतरिम) में नेपाल में संविधान जारी हुए। इस अल्प अवधि में इतने संविधानों का जारी होना यह बताता है कि नेपाली समाज में व्याप्त अंतर्विरोधों का समाधान किए बिना शांति, स्थिरता और विकास की आशा नहीं की जा सकती। संविधान का निर्माण भावनाओं में बह कर नहीं किया जा सकता। यह किसी के अंहकार की तुष्टि का साधान नहीं है। संविधान का निर्माण वस्तुपरक स्थिति के ठोस मूल्यांकन के आधार पर ही हो सकता है। नेपाल के वर्तमान संविधान में इन सारे मूलभूत सिद्धांतों की अवहेलना की गई है। अंततः उसने उन कारकों को पुनः मान्यता प्रदान कर दी है जो नेपाल को बार-बार अराजकता, अस्थिरता और अशांति की ओर धकेल देते हैं। नेपाली समाज का छोटा मध्यम वर्ग और सम्पन्न वर्ग चाहे जितना ही ईमानदारी से शांति, स्थिरता और विकास की बात करता रहे, यह तब तक संभव ही नहीं है जब तक यह वर्ग व्याप्त अंतर्विरोधों को हल करने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाता और बहुसंख्यक गरीब आबादी को यह अहसास नहीं दिलाता कि देश हित की उसकी दलीलों में उनका भी हित शामिल है।

नेपाल को एक स्वतंत्र देश से अर्ध-उपनिवेश और अब नव-उपनिवेश की स्थिति तक पहुंचाने में नेपाल पर समय-समय पर लादी गई असमान संधियां एवं समझौतों की बड़ी भूमिका है जिसमें सबसे प्रतिक्रियावादी संधि भारत और नेपाल के बीच 1950 में हुई शांति और मैत्री संधि ही है। इस संधि ने नेपाल के अर्ध-औपनिवेशिक चरित्र को मजबूत किया।[1]  इसलिए 1950 के बाद नेपाल में जितने भी छोटे-बड़े आंदोलन हुए उन सबकी प्रमुख मांग इस संधि को खारिज किया जाना था। 1996 में माओवादी द्वारा प्रस्तुत 40 सूत्रीय मांग की पहली मांग इस संधि को निरस्त करना था। वर्तमान संविधान में इस दिशा में कोई ठोस आश्‍वासन नहीं है।

एक अध्ययन के अनुसार, नेपाल की 65 प्रतिशत जमीन पर 10 प्रतिशत सम्पन्न सामंत वर्ग का अधिकार है। नेपाल में 8 प्रतिशत लोग पूरी तरह से भूमिहीन हैं और 65 प्रतिशत गरीब किसानों के हिस्से में मात्र 10 प्रतिशित भूमि है।[2] इसलिए नेपाल की बुनियादी जरूरत ठोस भूमि सुधार कार्यक्रम को लागू करना है। भूमि सुधार कार्यक्रम को सख्ती के साथ लागू किए बिना बहुसंख्यक जनता के हित में भूमि संसाधन का दोहन नहीं हो सकता। वर्तमान संविधान में वैज्ञानिक भूमि सुधार करने की बात तो है लेकिन भूमि के वितरण पर खामोशी है। साथ ही अनुपस्थित भू-स्वामित्व को केवल निरुत्साहित करने की बात की गई है। इस संबंध में स्पष्ट दृष्टिकोण का अभाव बहुत भ्रामक है। साथ ही 40 सूत्रीय मांग में गरीब किसानों के लिए पूर्ण रूप से कर्ज माफी की बात की गई थी लेकिन संविधान ने इस पर आंखें बंद कर ली हैं।

40 सूत्रीय मांग में गोर्खा भर्ती केन्द्रो को बंद करने की मांग की गई थी। इसका उद्देश्य उस घृणित परंपरा का अन्त करना था जिसके कारण नेपाली जनता को दूसरे देशों की जनता के आंदोलनों को कुचलने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यह असभ्य और मानवता के खिलाफ है। आज ही नहीं ब्रिटिश उपनिवेशवाद के दौर से ही ऐसा हो रहा है। 1857 में भारत में हुए अंग्रेज विरोधी संघर्ष में नेपाली सैनिकों का प्रयोग किया गया। इसके अतिरिक्त पंजाब, कश्मीर, अफगानिस्तान, लैटिन अमेरिका में भी नेपाली सैनिकों ने सक्रिय रूप से भाग लिया। वर्तमान संविधान इस पंरपरा को बनाए रखता है।

2005 के अध्यन के अनुसार मात्र काठमांडू में 31 हजार से अधिक संपत्तिहीन लोग हैं जो झुग्गियों में रहते हैं। पूरे नेपाल में यह संख्या कई गुणा अधिक है। 40 सूत्रीय मांग में इन लोगों के लिए उचित व्यवस्था की मांग थी। साथ ही यह भी उल्लेख है कि बिना विकल्प के इन लोगों की बेदखली नहीं होनी चाहिए। लेकिन मसौदा संविधान कानून के अनुसार बेदखली को वैधानिकता प्रधान करता है।

इसके अलावा भारत नेपाल बीच की खुली सीमा को नियंत्रित एवं व्यवस्थित करने पर भी संविधान में कुछ नहीं कहा गया है।

40 सूत्रीय मांग की ऐसी अनेक बातें हैं जिसे वर्तमान संविधान में पूर्ण रूप से निषेध कर दिया गया है। 40 सूत्रीय मांग में नेपाल की सभी भाषाओं को समान अवसर और सुविधा देने की बात है लेकिन वर्तमान संविधान में नेपाली को ही सरकारी कामकाज की भाषा का दर्जा दिया है। इस तरह लाखों गैर-नेपाली भाषाई नागरिकों को हाशिये पर धकेल दिया गया है।

माओवादियों की मांग थी कि नेपाल के सभी नागरिकों के लिए निशुल्क और वैज्ञानिक स्वास्थ सेवा एवं शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। वर्तमान मसौदा संविधान शिक्षा और स्वास्थ सेवा के निजीकरण को संवैधानिक अधिकार के रूप में मान्यता देता है। इस तरह यह शिक्षा और स्वास्थ्‍य के नाम पर होने वाली लूट को चुनौती देने तक को आपराधिक अथवा गैरकानूनी बना देता है।

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि 1996 में प्रस्तुत माओवादियों की 40 सूत्रीय मांग को अंततः यह संविधान खारिज कर देता है जो जनयुद्ध के शुरू होने और विस्तार करने का महत्वपूर्ण कारण था।

[1] संधि को ठीक से समझने के लिए नेपाल के तत्कालीन प्रधान मंत्री मोहन शमशेर और भारतीय राजदूत सी पी नारायण सिंह द्वारा हस्ताक्षरित लेटर आॅफ एक्सचेन्जका अध्ययन आवश्यक है।
[2] बाबुराम भट्टराई, पोलिटिको-इकोनोमिक रैशनैल आॅफ पीपुल्स वाॅर इन नेपाल


(जारी)


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