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अभिषेक श्रीवास्तव |
बिना संदर्भ के कुछ भी कहीं भी छाप देना पाठक के साथ ज्यादती है, इसलिए यह इंट्रो दे रहा हूं। बनारस गया था, चार दिन हुए लौटे। अब भी दिमाग ठिकाने नहीं है। कुछ पुराने सवाल थे, खुद से किया एक वादा था, और भी बहुत कुछ… लौट कर यह लिखा। कुछ मित्रों का कहना था कि मुझे इसे छापना नहीं चाहिए। मुझे लगता है कि लिखने और छपने का बड़ा गहरा सम्बन्ध है। इसे डायरी का हिस्सा माना जा सकता है, लेकिन हर डायरी का एक सामाजिक मूल्य भी होता है, हो सकता है। दूसरे, लिख कर बक्से में रख लेने से बोझ जस का तस रहता है। छपने के बाद हलका होने की गुंजाइश रहती है। न हो, तो अपनी बला से। अस्मिताओं के विमर्श और अस्मिताओं के संकट के इस दौर में एक संकट ऐसा भी है, जो यदि निहायत निजी है तो इसके एकाध साझीदार भी होंगे ही, क्योंकि मेरे जाने कुछ भी नितांत निजी नहीं होता। सार्वजनिकता की गुंजाइश हर जगह है। क्यों न ऐसा सचेतन तौर पर किया जाए? रेचन के कई तरीकों में यह भी एक है। शीर्षक सुझाने के लिए इस पोस्ट के पहले पाठक मित्र व्यालोक का शुक्रिया…
मैंने एक वादा किया था खुद से। इस बात को दस साल से ज्यादा हो गए। दस साल जब कहता हूं तो… ख़ैर, बहुतों के जीवन में बीस, तीस और पचास साल गुज़रे होंगे ऐसे ही, इस पर क्या बात करनी। वे जाती हुई गर्मी और आ चुकी बरसात के बीच के चिपचिपे दिन थे जब खादी वाला भूरा कुर्ता, बाटा की भूरी चप्पल और नीली जींस पहन कर लखनऊ में एक जन जागरूकता अभियान के परचे लिए मैं सड़कों पर घूम रहा था। गुजरात दंगा बीता था। हम लोग फासीवाद का डर लोगों के मन में बैठा रहे थे। ऐसे लोगों को फासीवाद की आहट से चेताने और बदले में उनसे राजनीतिक चंदा उगाहने में हम लगे थे, जो बिल्कुल निस्पृह भाव से सेल्स टैक्स दफ्तर में बैठ कर सरकारी पंखे के नीचे रिश्वत लिया करते थे। वे आज भी वहीं हैं जबकि हत्यारा, पीएमओ की राह पर काफी आगे जा चुका है और फासीवाद के खिलाफ लोग अब परचे नहीं बांटते। उन्हीं चिपचिपे दिनों में खबर आई थी कि मेरा दिल्ली जाना तय हो चुका है। लखनऊ से झट बनारस आया, एक बड़े से नीले सूटकेस में सामान पैक किया और पहली बार काशी विश्वनाथ को छोड़ कर शिवगंगा एक्सप्रेस से मैं दिल्ली आ गया। गाड़ी बदली, शहर बदला। और फिर, मैंने खुद से एक वादा किया।
मुझे नहीं पता था कि दिल्ली में दस साल कैसे बीतते हैं। मैं नहीं जानता था कि दस साल बाद किसी वादे को निभा पाना वास्तव में कितना आसान या मुश्किल होता है। लेकिन अपना वादा मुझे भरसक याद रहा। इस दौरान ट्यूशन, पढ़ाई, आंदोलन, नौकरी, अनौकरी, प्रेम, शादी, बसावट और आजीविका के जटिल दुश्चक्र में भी मैं अपना वादा नहीं भूला। हां, वादे को पूरा कर पाने का निश्चय आज से तीन साल पहले ही भ्रम में, खुशफ़हमी में, बदल गया था। बावजूद इसके, मैं नहीं चाहता था कि दस साल बीते और मैं अपने ही सामने झुठला दिया जाऊं। इसीलिए, 2008 से दिल को भरमाए रखने का एक सिलसिला शुरू हुआ जो जुलाई 2012 आते-आते मेरे भीतर अवसाद की तरह घर कर चुका था। मेरा वादा मेरी आंखों के सामने टूट रहा था और मेरा साथ देने को कोई नहीं था। ज़ाहिर है, वादा भी मैंने किसी से पूछ कर, कह कर नहीं किया था। ये समस्या मेरी थी, निहायत निजी।
हर बार जब मैं लौटता किसी न किसी बहाने से, सब पूछते कि मैं काशी विश्वनाथ से क्यों जाता हूं जबकि शिवगंगा तो 12 घंटे में बनारस पहुंचाती है। इसका जवाब इतना आसान नहीं होता था। बीएचयू के दिनों में लड़कों को घर जाने के लिए ट्रेन किराये में पचास फीसदी रियायत मिलती थी। मुझे घर नहीं जाना होता था, इसलिए किराये में छूट का सुख मैं कभी नहीं ले सका। जहां घर था, वहां कुछ नहीं था। जहां कुछ नहीं था, वहीं घर था। कहां जाता ट्रेन से? इसीलिए जब दिल्ली आया, तो एक कमी पूरी हो गई कि चलो, दिल्ली में जब टिकट करवाऊंगा तो कह सकूंगा कि गांव जा रहा हूं। सभी तो ऐसा ही कहते हैं। कौन जानेगा फिर, कि मेरा गांव कहां है। बस ज्यादा से ज्यादा इतना, कि ये तो बनारस का रहने वाला है। फिर बनारस आकर सोच लूंगा कि कहां टिकना है, या कहां जाना है। दिल्ली में रह कर बार-बार बनारस जाने का खयाल और जब भी जाने का तय हो, उसकी मुनादी करना, फिर लौटने के बाद कुछ-कुछ लिख देना, दूसरों को किस्से सुनाना, फोटो शेयर करना, ये सब आज़माइश बीएचयू वाली कमी को पूरा करती थी जहां मैं किसी से नहीं कह पाता था कि इन छुट्टियों में मैं गांव जाऊंगा। या कि छुट्टियों के बाद, गांव से मैं फलां-फलां चीज़ें लेकर आया हूं।
वास्तव में, आज तक दिल्ली में मुझसे किसी ने नहीं पूछा कि मेरा गांव कहां है। बहुत से लोगों को मैं खुद ही बताता हूं कि मेरा पैतृक घर गाज़ीपुर में है। कुछ से कहता हूं कि बनारस का रहने वाला हूं। अक़सर कुछ लोग पूछते हैं बनारस में कहां, तो बोल देता हूं खोजवां, अर्दली बाज़ार या साकेत नगर। जैसी सहूलियत हो। एकाध बार फंसा भी हूं। जब लोग गाज़ीपुर के बारे में पूछते हैं, तो अपेक्षाकृत आसानी होती है क्योंकि वहां घर का एक ही पता है। लेकिन उसके आगे-पीछे मुझे कुछ नहीं पता। जब कभी किसी से गांव के नाम पर सिखड़ी कहता हूं, जैसा कि मुझे बचपन से बताया गया है, तो डरता हूं कि कहीं कुछ और न पूछ दे और मैं जाली साबित हो जाऊं। वैसे, जन्मस्थान के अलावा गाज़ीपुर कभी मेरा घर नहीं रहा, सिवाय नाना के घर के, जहां मेरे बचपन का कुछ समय बीता। और नाना, अब रहे नहीं। छह साल हो गए। जब तक वे थे, गाज़ीपुर चेतन के एक कोने में बना हुआ था। बनारस इस मामले में मेरे लिए कहीं ज्यादा ऑथेंटिक स्पेस है, क्योंकि वहां के आगे-पीछे सब कुछ कहानी में बुनकर बोल तो सकता हूं। मैं बनारस पर क्लेम कर सकता हूं। बस, इतना न पूछे कोई, ‘केकरे घर से हउवा’?
दरअसल, बनारस में जिन जगहों पर मैं अलग-अलग समय में रहा, उनका उल्लेख अपने पते के तौर पर दिल्ली में करने की जो सहजता है, वह मेरा जीवन आसान बनाती है। बिल्कुल दूसरे कुछ लोगों की तरह जिनके अपने घर का एक पता तय है। और यदि किसी ने पूछ ही दिया कि बनारस में कौन गांव, तो चौबेपुर से बढि़या जवाब क्या होगा, जहां मैं हाईस्कूल तक वास्तव में रहा हूं। एक बार किसी ने पूछा था, चौबेपुर में कहां? मैंने उसे पावरहाउस के सामने से लेकर डुबकियां के बीच उलझा दिया। वैसे, जब कभी फंसा, कह दिया कि मामा के यहां रहता था। यहां कहानी की विश्वसनीयता असंदिग्ध हो जाती थी। अब ये थोड़ी कोई जानता है कि मेरा बचपन जहां बीता, वहां हर अगला आदमी मामा कहलाता था। अब भी कहता हूं, अर्दली बाज़ार वाले मामा या साकेत नगर कालोनी वाली मौसी। मेरे जानने वालों में शायद कुछ को ही पता हो कि मेरे अधिकतर परिजन लखनऊ में हैं, लेकिन लखनऊ मेरे अतीत का हिस्सा नहीं है। उसका जि़क्र मेरी कहानियों में तकरीबन वैसे ही आता है जैसे दूसरे लोगों की कहानियों में चंडीगढ़ वाली मौसी और रांची वाले मामा, वगैरह…।
तो ये तय रहा कि बनारस में कुछ जगहों पर रहने के कारण और उन्हीं जगहों को अपने घर का पता लोगों के सामने घोषित करने के कारण मैं बनारस से ज्यादा सहज हूं। ये सहजता बिल्कुल वैसी तो नहीं जैसी बनारस के किसी बाशिंदे के दिल्ली आने के बाद बनारस को लेकर होती है, लेकिन जब तक मैं बनारस पहुंच नहीं जाता, तब तक तो कम से कम मेरा जीवन आसान रहता ही है। अब वहां आकर कौन देख रहा है कि मैं होटल में रुका हूं या किसी मित्र के यहां। ये जो पूरा प्रपंच मैंने रचा है अपने घर/गांव के पते के इर्द-गिर्द, इसने मेरे जीवन की दो मुश्किलों को हल कर दिया है। अव्वल तो ये, कि दिल्ली इत्यादि के लोग मुझे बनारसी समझते हैं, जो लिटरली मैं हूं नहीं। दूजे, बनारस में आज मेरे जानने वाले गिनती के दस लोग भी नहीं हैं जो कि दिल्लीवालों से बात कर के मेरा झूठ पकड़ सकें। वैसे भी, कुछ भी चौबीस कैरेट नहीं होता। कहा जाए तो मैं खुद को बनारसी या गाज़ीपुरिया साबित कर सकता हूं ज़रूरत पड़ने पर। बुद्धिजीवी होने के ये सब लाभ हैं। गाज़ीपुर के कुछ लोगों के सामने मैं खुद को प्रवासी गाज़ीपुरी बताकर वहां के बारे में अपनी अज्ञानता को छुपा लेता हूं और वे सब समझते हैं कि मैं अब दिल्लीवाला बन चुका हूं, जो कभी घर/गांव नहीं जाता। हंसी आ रही है…।
बहरहाल, इसके आगे की स्थिति ये है कि मैं अब भी गांव जाना चाहता हूं, जैसे मैं बीएचयू की छुट्टियों में जाना चाहता था। तब काशी विश्वनाथ बनारस की स्टार ट्रेन हुआ करती थी। उससे एक रिश्ता सा लगता है। शिवगंगा को मैं कभी अपना नहीं सका। अव्वल तो इसलिए, कि मेरे बनारस छोड़ने के साल ही वह शुरू हुई थी। दूजे, उसमें बैठिए, खाना खाइए और सो जाइए, सवेरे सीधे बनारस में आंख खुलेगी। लगेगा ही नहीं कि आप अपने गांव जा रहे हैं। इसीलिए इस बार मुझसे जब फिर पूछा गया कि मैं काशी विश्वनाथ जैसी धीमी गाड़ी से क्यों जा रहा हूं, तो इस बारे में मेरे विचार पक चुके थे। मैंने तड़ से जवाब दिया कि देखिए, खरामा-खरामा चलने का लाभ यह होता है कि आप दिल्ली के विचारों का बोझ गाड़ी की धीमी गति के कारण उतार फेंक पाते हैं। इतना वक्त होता है कि खाली बैठे-बैठे आप गांव जाने के मोड में आ जाते हैं। और जब रात में सोते हैं, तो इस उम्मीद में कि सुबह अपने गांव का स्टेशन दिखेगा। सुबह का मतलब शिवगंगा की तरह सात बजे नहीं, खांटी पांच बजे। इस वक्त जब आप बनारस जंक्शन पर उतरते हैं, तो ऊंघते हुए शहर में अंगड़ाई लेता ट्रैफिक आपको अहसास कराता है कि आप गांव आए हैं। फिर आपकी मर्जी, चाहे तो अपने किसी पते पर पहुंच जाइए या फिर सीधा घाट पर। बनारस में रह कर इतना सुबह उठना और घाट पर जाना दिल्ली में बस चुके एक व्यक्ति के लिए वैसे भी संभव नहीं होता। काशी विश्वनाथ इस लिहाज से सबसे अच्छा साधन है। मैं हमेशा इसमें स्लीपर में चलता हूं। हमेशा बनारस के रहने वाले लोग मिल जाते हैं। मुसाफिरों से बातचीत में जब आप बनारस के नाम पर एक अलेजिएंस कायम करते हैं, तो लगता है कि जैसे उनके घर लौटने में आप भी सहभागी हैं। बीएचयू वाली कमी पूरी हो जाती है।
पिछले तीन साल में मैं जब चला हूं, काशी विश्वनाथ से ही। दस साल बाद दिल्ली छोड़ देने का खुद से किया वादा 2008 में ही मैं जानता था कि टूटेगा। शायद यही बेचैनी थी कि पिछले दस साल में 2012 इकलौता साल रहा जब मैं तीन बार बनारस हो आया। चौथी बार जाते-जाते रह गया था। हर बार वजह बतानी पड़ती है न! साल की शुरुआत में एक शादी, फिर पटना में कार्यक्रम के बहाने और इस बार भी दो शादियां। लेकिन एक बहाना मेरे पास स्थायी था, जिसका इस्तेमाल इस बार मुझे करना पड़ा। कहता तो हर बार हूं, लेकिन अबकी चूंकि शादी किसी ऐसे खास की नहीं थी जिसमें न जाना अखरता, इसलिए मेरा पुराना बहाना काम आया। मैं शायद चाहता भी था भीतर से कि अबकी इस बहाने को खत्म कर दूं ताकि अगली बार कोई बहाना ना रहे। खुश्फ़हमी ज्यादा देर नहीं टिकती। तीन साल से खुशफ़हमी में हूं कि दस साल दिल्ली में रहने के बाद बनारस लौट जाऊंगा। बेमतलब पिछले तेरह महीने से लौटने की गणित लगा रहा था बेरोज़गारी में। इसी जून में गुरु ने कहा था, ‘अपना खूंटा तलाशो’। खूंटा तलाशना जितना आसान होता है, शायद उतना ही मुश्किल भी। मुझे खुद नहीं पता था कि मैं आखिर क्या सोच कर बनारस में ज़मीन, मकान, दुकान आदि की ऑनलाइन खोज कर रहा था। एकाध मित्रों को मैंने कह डाला था कि सस्ते में कोई मकान-दुकान दिलवा दें। अपने पान वाले तक से मैंने ज़मीन खोजने को कहा था। ज़मीन भी तो उसी को मिलेगी जिसकी पहले से कोई ज़मीन हो। ज़मीन होती, तब न मिलती! मैंने पूरे घर को भरमा रखा था कि बनारस में एकाध काम-धंधा चालू करने वाला हूं। सब झूठ था। मैं जानता था कि मेरा खूंटा दिल्ली में ही गड़ा है। ठीक वैसे ही, जैसे 2002 में मैं जानता था कि मुझे दिल्ली जाना ही है। परीक्षा और नतीजा तो सब बाद की चीज़ थी।
क्या किसी बात को जानना और फिर उसे मानना उतना ही ज़रूरी है? मसलन, मैं जानता हूं कि मुझे दिल्ली में ही रहना है, लेकिन मैं इसे मान भी लूं, ये किसने कहा? मैं इसी डिनायल मोड में लंबे समय से था। कहां है कुछ बनारस में मेरे लिए? मेरा सिर्फ एक सामान था छूटा हुआ, वही पुराना बहाना जिसे लेकर हर बार मैं बनारस चला जाता था और खाली हाथ लौट आता था। हमेशा छुट्टी ही मिलती थी युनिवर्सिटी में। इस बार मैंने पूरे जतन से अपनी दस साल पुरानी डिग्री निकाल ली। एक मित्र कह रहे थे, डिग्री निकाल लेने से शहर से रिश्ता तो नहीं टूट जाता? उन्हें बताना मुश्किल है कि बीएचयू की वो डिग्री एक बैसाखी थी जिसके सहारे मैं अपने घर का पता लोकेट कर पाता था। अब मेरे पास बताने को कोई वजह नहीं है कि मैं बनारस क्यों जा रहा हूं। मैं जब डिग्री लेकर आया, तो मुझसे साकेत नगर वाली मौसी ने पूछा, ”अगली बार कब आओगे?” और मेरे मुंह से निकल गया, ”अब कभी नहीं।”
दरअसल, बनारस मेरा शहर कभी नहीं था। गाज़ीपुर के शुरुआती तीन साल छोड़ दें तो ग्रेजुएशन तक मैं इसी शहर में रहा। रवींद्रपुरी, तेलियाबाग, ककरमत्ता रहा बचपन में, फिर लंबे समय तक चौबेपुर से सिगरा अप-डाउन करता रहा। बीएचयू में जिस साल साइन डाइ हुआ, मैं विवेकानंद हॉस्टल में था। फिर बाहर आया। खोजवां रहा। घौसाबाद, दारानगर, सब जगह रहा। उसके बाद फिर बीएचयू और साकेत नगर कालोनी। लेकिन बनारस मेरा शहर नहीं बना। ये बात मुझे पता नहीं थी। मुझे ये बात कुछ लोगों ने बताई। पहली बार, जब 2006 में मैंने अपना ब्लॉग बनाया और कुछ संस्मरणात्मक लिखा। कुछ लोगों को लगा कि यह पोस्ट अश्लील है। मुझे बीएचयू से लेकर दिल्ली के टीवी चैनल में काम करने वाले कुछ बनारसियों से फोन करवाए गए। मेल भी आए धमकी भरे। खुद को बनारसी क्लेम करते हुए एक ब्राह्मण ने धमकाया, ”बनारस की जनता ने ऐसी भाषा लिखने की इजाज़त सिर्फ काशीनाथ को दी है।” जनता का लेखक सिर्फ काशीनाथ और जनता में से मैं नदारद! मैंने उस पोस्ट को डिलीट कर दिया। बुरा लगा था। जनता अगर इतनी सेक्टेरियन है तो मुझे इस जनता में नहीं होना। लेखन कर्म यदि इतना मोनोपोलिस्टिक है तो मुझे लेखक नहीं होना है। लेकिन दिल के मामलों में सख्ती नहीं चलती। मैंने खुद को थामे रखा। वादा याद रहा, कि लौटना है 2012 में।
मार्च में गया था एक शादी में। एक अनपेक्षित हादसे में एक साथ कई दोस्तों को गंवा बैठा। कई रिश्ते टूट गए। अप्रैल में गया तो जलाती धूप में मुझसे मिलने वाला कोई न था। जो थे भी, वे स्कूल के बाद के मेरे सफ़र से अनजान थे। उनसे संवाद मुश्किल था। अबकी गया तो सिर्फ आज़माने, कि क्या कोई गुंजाइश बची है। संभावनाओं के जो-जो मकान थे, वहां सेंध लग चुकी थी। शहर के हाशिये पर पावर डिसकोर्स हो रहा था। गंगा बीच नाव पर अनुदान के सौदे होते दिखे। युनिवर्सिटी गुरुकुल बन चुकी थी। लोग, नए-पुराने, कमाते-खाते दिखे। विरासत में मिले पांडित्य को ब्राह्मण रिश्तों में बदलते देखा। शहर में पहली बार रात के 12 बजे कुछ अनजाने हादसे दिखे। पहली बार ठंडई की सारी दुकानें बंद दिखीं। पहली बार अंधेरे में डर लगा।
मैं अब भी नहीं मानता कि दिल्ली में मुझे रहना है। खूंटे उखड़ते भी तो हैं। बनारस लौट जाने का एक वादा था, जो मैं पूरा नहीं कर सका। 2012 बीत रहा है। अब वह वादा पूरा नहीं होगा। मैं जानता तो था ही, अब मान भी चुका हूं। मेरा खूंटा बनारस में नहीं है। कभी था भी नहीं। गुरु को बताना अभी बाकी है। जल्द बताऊंगा। और हां, उन मित्रों को, जानने वालों को, हितैशियों को, सबको एक बात बतानी है जिन्होंने मुझे बार-बार अहसास कराया कि मैं बनारस का नहीं हूं। वो ये, कि मैं वास्तव में बनारस का नहीं हूं। गाज़ीपुर का तो खैर मैं हूं ही नहीं। और दिल्ली, इसका तो कोई नहीं हुआ आज तक। फिर क्या मैं, क्या पिद्दी का शोरबा। बनारस एक खूंटा था मेरे भीतर गहरे धंसा हुआ। मैंने अब उसे निकाल फेंका है। 2002 में दिल्ली आकर मैंने उससे पहले के जीवन को आर्काइव में डाल दिया था। 2012 के अंत में पिछले दस साल की आरकाइविंग करने जा रहा हूं। आरकाइव के उस बक्से में एक टूटा हुआ वादा भी होगा। कभी मौका लगा तो झाड़-पोंछ कर देखूंगा कि उसकी शक्ल कैसी है।
फिलहाल को तो बस इतना, कि दिल्ली के पास मुझे देने के लिए अब कुछ बचा नहीं है और बनारस से मैंने कभी कुछ मांगा नहीं था। एक पता था, एक आइडेंटिटी, एक भ्रम कह लीजिए, जिसे मैं छोड़ रहा हूं। कुछ हलका महसूस हो रहा है।
बाकी… एक मित्र अक़सर कहते हैं कि मेरे ऊपर पाउलो कोएल्हो की अलकेमिस्ट का गहरा असर है। यही सही… कीमियागर होना इतना बुरा भी तो नहीं!
अलविदा बनारस!!!
Guru…tumhara post tumhari uljhan ko bata raha hai, lekin yakin jano benars ko lekar tum ab bhi bhram mein ho…pehla ki ye mahadev ki nagari jo kisi ki bapauti nahi hai, dusara malviya putro ko benaras par utna hi adhikar hai jitne adhikar se benaras na malviya ji aur fir joshi ko apnaya hai..tisara benarasi hone ka dava jo log aapse kar rahe the vo khud benaras ke nahi hain..benaras se unka nata BHU ka hi hai, chautha assi se varuna nadi ke bich hi benaras, panchkoshi ki baat koi karta hai to kashi prant mein ghazipur bhi aa jata hai..raand saand sidhi sanyasi ka shehar jo inme se koi hai wahi claim kare…aur malviya putra kbhi BHU ko archieving me nahi daal sakta.lihaza hume benaras ka shukriya karna chahiye, kyunki usne hume apnaya hai…aur jisne apnaya hai ussae hum khud ko alag kaise kar sakte hai…
trishul le nok par base teen gaon, do ujad gaye, ek basa hi nahi,—-shayad sant gyaneshwar ne aisa kahin kaha hai!