फरवरी 2002 में जब गुजरात के मुस्लिमों को चुन-चुन कर मारा जा रहा था, तब बनारस में संकटमोचन के पास एक चाय की दुकान पर दैनिक जागरण के संपादकीय पन्ने पर नज़र गई थी। मुख्य लेख भानुप्रताप शुक्ल का था, जिसका हाइलाइटर तकरीबन कुछ यूं था: ”भारत मां के सपूतों, कहां हो। आओ और बाबर की इन संतानों का नाश करो।” बीच के वक्फे में वरुण गांधी के हास्यास्पद ”जय श्रीराम” को छोड़ दें, तो 11 साल बाद 31 मई 2013 का दैनिक भास्कर अपने एक वरिष्ठ संपादक शरद गुप्ता के नाम से भानुप्रताप शुक्ल की भाषा बोलता दिख रहा है। ऐसी ही घृणित भाषा पिछले हफ्ते भोपाल के किन्हीं संजय द्विवेदी और रायपुर के किन्हीं अनिल पुसदकर की देखी गई है।
इन नामालूम व्यक्तियों पर बात बाद में, लेकिन एक संस्थान के तौर पर दैनिक भास्कर चाहे जितना गिरा हुआ हो, पर देश को मिलिटरी स्टेट में तब्दील करने की हिमायत कैसे कर सकता है? क्या इसलिए, कि धरमजयगढ़ में खुद उसकी खदानों को आदिवासियों से चुनौती मिल रही है? क्या इसलिए, कि कोयला घोटाले में अपना नाम आने से रोकने के लिए वह सरकार को खुश कर सके? क्या इसलिए कि अखबार का एक वरिष्ठ दलाल प्रधानमंत्री के विदेश दौरे पर पीआईबी पत्रकार बनकर आगे भी विमान में साथ जाता रहे और अग्रवाल परिवार के पाप गलत करता रहे? हिंदुस्तान और संडे इंडियन में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके संघी पृष्ठभूमि के शरद गुप्ता जैसे पत्रकार आखिर अपने मगज को क्या पूरी तरह बेच चुके हैं? उन्हें क्या लगता है कि आज मालिकान के हितों को बचाने के लिए वे जिस जहरीले ”दृष्टिकोण” का प्रचार कर रहे हैं, वह उन्हें अग्रवालों से आजीवन पेंशन दिलवाता रहेगा?
सवाल उन ”कायदे के पत्रकारों” से भी उतना ही है जो 31 मई के बाद भी भास्कर की नौकरी मुसल्सल बजा रहे हैं? सवाल जनसत्ता से भी है जिसने दैनिक भास्कर के खिलाफ एक पत्रकार का लेख छापने से पिछले दिनों मना कर दिया? सवाल उनसे भी जिन्होंने 31 मई का दैनिक भास्कर पढ़ा और निराकार भाव से काम पर निकल गए? शुक्रिया पंकज श्रीवास्तव जी का, जिन्होंने इस पर चिंता तो ज़ाहिर की। अगर सबसे ज्यादा राज्यों में पढ़ा जाने वाला अखबार इस देश को मिलिटरी स्टेट ही बनाना चाह रहा है, तो मामला वाकई गंभीर है।
पाणिनि आनंद |
फिलहाल तो, सैन्य कार्रवाई के इस कायराना और सियाराना हुंकार के बीच 2010 में पाणिनि आनंद की लिखी एक कविता अचानक प्रासंगिक हो गई है। उनके ब्लॉग मृदंग से हम इसे साभार नीचे चिपका रहे हैं।
चावल पछोरने के सूप से
कैसे रुकेंगी गोलियां,
इस सोच में
हसिया पत्थर पर हरा हो गया है
और आंखें,
सिंदूर से ज़्यादा लाल.
नए आदमखोर से
चिढ़ गया है पुश्तैनी हरामखोर
क्योंकि सेंध लग गई है
राशन में
शासन में
प्रशासन में
कोई और ताकतवर दिखने लगा है
कुत्ते भी
नहीं काटते अपने मालिक को
गाय दूसरे ठौर दूध दुहवाकर नहीं लौटती
बैल दूसरे गांव पानी नहीं पीते
सुअर तक पहचानते हैं अपना कीचड़, हाता
कबूतर, तितर, मुर्गे, सबमें बाकी है वफादारी
यहाँ
यह कैसा लोकतंत्र है
जहाँ मालिक असहाय है,
अपाहिज, अनपढ़, अनावश्यक
और अब दुश्मन भी
एकदम सही कहते हैं
दलाली के कागज़ पर छपे
ये तमाम अख़बार
देश में अब सैनिक कार्रवाई की ज़रूरत है
है… ज़रूरत है
एक सैनिक कार्रवाई की
दिल्ली से
ऐसे तमाम लोगों के ख़िलाफ़
जो
पिछले छह दशकों से
गांव का सूरज नहीं उगने दे रहे
जो कई मन पहाड़ रोज़ खा जाते हैं
जिनके घर में एक पेड़ उनके हाथ का लगाया नहीं,
और जो जंगल पर अपना दावा करते हैं
जिन्होंने पोटलियों में बंधे पिसान में रेत मिला दी है
तमाम उम्र जिन्होंने मिल मालिकों, दलालों,
व्यापारियों, सटोरियों, हत्यारों और कारखानेवालों की वकालत की है.
जो आज भी सत्ता की सुराही में
लोगों का खून भरकर पी रहे हैं.
जो अपना डर फैलाने के लिए
ठोक रहे हैं, मर्दों को गोलियों से
औरतों को भी
जिन्हें ज़िंदा जिस्म या तो जननांग नज़र आते हैं
या फिर गुलाम.
जिनकी हर मनमानी क़ानून की किताब में सही है
और हर बेहयाई एक नैतिकता
(उन्होंने क़ानून की देवी को अपनी रखैल बना रखा है)
जिन्होंने नंगों, भूखों के वजीफे के पैसों से
अपनी औलादों को विलायत भेज दिया है.
जिन्होंने पानी में पेशाब कर दी है
उसे लोगों के पीने लायक नहीं छोड़ा.
ऐसे
तमाम लोगों के खिलाफ़
सैनिक कार्रवाई की ज़रूरत है.
ऐसे तमाम लोगों के ख़िलाफ़
सैनिक कार्रवाई की ज़रूरत है
जो सेना के आम सिपाही की ओट में
सिखंडी बने
अपने स्वार्थों का रोलर चला रहे हैं
जो खो चुके हैं विश्वास
लोगों का
जनता का
आम आदमी का
और फिर भी उसके बाप बने बैठे हैं.
मैं पूछता हूँ भारत की सेना से
कि वो कबतक इस्तेमाल होती रहेगी
कबतक कुलबुलाएगी,
अपने ही गांव में गोली चलाते, लोगों को मारते हुए
कबतक इस्तेमाल होगी
सेना,
कार्रवाई करो
एक सच्ची सैनिक कार्रवाई
अगर कर सको तो…
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मैं पूछता हूँ भारत की सेना से
कि वो कबतक इस्तेमाल होती रहेगी
कबतक कुलबुलाएगी,
अपने ही गांव में गोली चलाते, लोगों को मारते हुए
कबतक इस्तेमाल होगी
kavita bahut achchhi hai, aik imanadar dil aor dimag se nikli huee aisi hi kavita desh ko chahiye, jo nyay aor sachchayi ko abhivakt kr saken. dhanyvad
aisi kavita kabhi kabhi padhne ko milti hai, aik sachchi bat aor sachchi tasvir jo desh aor samaj ko aayina dikha rahi hai, aor sach ki awaz bulan kr rahi hai.