‘डीपीटी लाइन’ या ‘प्रसेनजित लाइन’?
प्रकाश के. रे |
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा राष्ट्रपति पद के लिये कॉंग्रेस के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी को समर्थन दिए जाने के विरोध में पार्टी के तेज़तर्रार युवा नेता प्रसेनजित बोस के इस्तीफ़े और जे एन यू, नई दिल्ली की एस एफ़ आई इकाई को भंग कर उसके चार वरिष्ठ कार्यकर्ताओं को संगठन से निष्कासित करने के मसले पर जे एन यू के छात्र-संघ के पूर्व अध्यक्ष (1974 -75) और एस एफ़ आई के पूर्व सदस्य श्री डी पी त्रिपाठी ने पिछले दिनों एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने पार्टी के फैसले को सही बताते हुए प्रसेनजित और जे एन यू एस एफ़ आई के सदस्यों को नासमझ कहा था. श्री त्रिपाठी वरिष्ठ केन्द्रीय मंत्री शरद पवार के नेतृत्व वाली नेशनलिस्ट कॉंग्रेस पार्टी के महासचिव हैं और राज्यसभा के सांसद हैं. उस लेख के उत्तर में मैं यह पत्र लिख रहा हूँ- प्रकाश के रे
आदरणीय त्रिपाठी जी,
द इकनॉमिक टाइम्स के 16 जुलाई के अंक में प्रणब मुखर्जी को समर्थन दिए जाने के मुद्दे पर कॉमरेड प्रसेनजित बोस के मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से इस्तीफ़े और जे एन यू में एस एफ़ आई के विरोध पर आपका लेख पढ़ा. पहले तो मुझे लगा कि आप इस घटनाक्रम के बहाने तीस-पैंतीस साल पहले के एस एफ़ आई और मार्क्सवादी पार्टी से अपने कुछ साल के संबंधों पर कुछ यादें साझा कर रहे होंगे, लेकिन तुरंत ही यह बात समझ में आ गयी कि यह लेख एक ऐसे व्यक्ति द्वारा लिखा गया है जो किसी ज़माने में एक तेज़तर्रार राजनीतिक कार्यकर्ता था लेकिन जल्दी ही उसकी महत्वकांक्षाओं ने उसे उसी रास्ते पर धकेल दिया जिसके विरुद्ध खड़ा होकर उसने अपनी पहचान बनाई थी, और जो उस विरासत का वारिस होने के दावे के साथ-साथ अपने विचलन की ग्लानि को भी ढोने और उसे धोने की असफल कोशिश करते रहने के लिये अभिशप्त हो.
वाल्तेयर ने कहा है कि ग्लानि में पड़े किसी व्यक्ति को बचाना शुभ और श्रेयस्कर है. इसी बात ने मुझे यह पत्र लिखने के लिये प्रेरित किया है. मेरे लिये यह बहुत आसान था कि आपके जैसे राजनीतिक व्यक्ति की ऐसी बातों को नज़रंदाज़ कर देता जिसका देश के जनवादी और प्रगतिशील आन्दोलन से बरसों से कोई नाता नहीं है (और थोड़ा-बहुत ऐसा दिखता भी है तो वह जे एन यू के उन दिनों के कारण ही है), और जो एक ऐसे दल में है जिसका इस देश की वर्तमान दुर्दशा में बड़ा हाथ है. ग्रेगरी मग्वायर की सलाह मानें तो इधर-उधर करने से आप उस चीज़ से नहीं बच सकते जो एकदम आपके सिर पर खड़ी हो. अभी मसला यह है कि आप उन सवालों का जवाब दें जिनकी जवाबदेही आपके ऊपर है. मार्क्सवादी पार्टी, प्रसेनजित बोस या जे एन यू में एस एफ़ आई के बारे में जो चल रहा है, उस बाबत न तो आपको सफाई देनी है और न ही बिन माँगी सलाह. जिस बात से आपका दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है, उस पर एक बड़े अखबार, जिसका काम मुनाफ़ाखोरों के मुनाफ़े में बढ़ोतरी करवाना है, में लेख लिख कर आप उन सवालों से नहीं बच सकते जिनका जवाब देना आपकी जिम्मेदारी है. कहने वाले कह सकते हैं कि इस लोकतंत्र में लोगों को अपनी बात कहने या टिप्पणी करने का अधिकार है. और यह मैं भी स्वीकार करता हूँ कि आपको, मुझे या और किसी को इस तरह की राजनीतिक घटनाओं पर बोलने-लिखने का अधिकार है. लेकिन किसी दल के अन्दर उस दल के किसी राजनीतिक निर्णय को लेकर चल रही बहस और विवाद में नेशनलिस्ट कॉंग्रेस के महासचिव को दिलचस्पी क्यों होनी चाहिए और उसे उस दल को और बहस के खेमों को अनर्गल तर्क के आधार पर झगड़ा सुलझाने की सलाह देने का क्या मतलब है? यह सही है कि दशकों पहले उस पार्टी और छात्र संगठन में आप रहे हैं, लेकिन अब यह चिंता क्यों? यह तो वही बात हुई कि तीस साल पहले कुछ बरस आप जे एन यू के किसी छात्रावास के जिस कमरे में रहे हों, अब आज जाकर उसमें बिना दस्तक दिए घुस जाएँ और उसमें रह रहे छात्र को चे ग्वेरा की तस्वीर हटाकर गोर्बाचेव की तस्वीर लगाने की हिदायत दें. बेहतर तो यह होता कि आप इस लेख में अपने महान नेता शरद पवार का बखान करते और मार्क्सवादी पार्टी और उससे जुड़े लोगों को एन सी पी में आने की दावत देते. वैसे सबसे बढ़िया यह होता कि पवार साहब, देश के किसानों की दुर्दशा और लाखों टन अनाज की बरबादी पर लिखे पी साईनाथ के लेखों का जवाब दे देते. कम-से-कम इतना ही कर देते कि कम्युनिस्ट से कॉंग्रेसी और फिर नेशनलिस्ट कॉंग्रेसी बनने की अपनी यात्रा का ही विवरण दे देते और यह बता देते कि जे एन यू एस एफ़ आई के लिये सबसे अच्छी लाइन ‘डी पी टी लाइन’ रहेगी, न कि ‘प्रसेनजित लाइन’.
बहरहाल, आपके लेख के कुछ बिन्दुओं पर बात की जाये. मुझे बहुत मज़ा आया कि आप जैसे साहित्य में रुचि और उसकी समझ रखने वाले व्यक्ति को इस सन्दर्भ में किसी कवि की याद आई तो वह स्वनामधन्य कपिल सिब्बल साहब हैं. कुछ देर के लिये यह स्वीकार कर भी लिया जाये कि सिब्बल साहब कवि हैं और जो पंक्ति आपने उद्धृत की है, वह उम्दा काव्य का उदाहरण है तो भी यह पंक्ति सन्दर्भ से परे उद्धृत की गयी है. जहाँ तक मेरी समझदारी है, सिब्बल साहब ने यह कभी (शायद UPA-1 के समय) वामपंथियों से चिढ़ कर लिखा होगा, न कि प्रसेनजित की नाक देखकर. वैसे जिन कॉमरेडों ने प्रणब दा की उम्मीदवारी का धुआंधार समर्थन किया है, उन्हें अब आपकी तरह ही सिब्बल साहब की राजनीति के साथ उनकी कविता से भी लगाव हो जाये तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा. आपने शरद यादव की इस बात से सहमति जताई है कि प्रणब मुखर्जी के समर्थन का मतलब कॉंग्रेस का समर्थन नहीं है. शरद यादव जी इसी फॉर्मूले के तहत शायद भाजपा के साथ अटके हैं कि भाजपा और उसकी राजनीति का साथ देना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का साथ देना नहीं है. यह देश कितना सौभाग्यशाली है जिसे ऐसी-ऐसी राजनीतिक विभूतियाँ मिली हैं!
आपने कॉमरेड प्रकाश करात का बयान भी दोहराया है कि राजनीति में निरपेक्ष रहना कोई विकल्प नहीं है. शायद इसी बात से आपको यह लेख लिखने की प्रेरणा मिली होगी तो आपने इस मसले में भी पक्ष ले लिया. और इस हिसाब से कॉमरेड करात को भी पवार साहब और कॉंग्रेस के बीच की तनातनी में भी पक्ष लेना चाहिए. मेरे विचार से निरपेक्षता भी एक पक्ष हो सकता है और यह भी कि निरपेक्षता और नाक घुसाना दो अलग-अलग चीज़ें हैं.
आपने मार्क्स को उद्धृत करते हुए लिखा है कि राजनीति ठोस स्थिति के ठोस आकलन के आधार पर होनी चाहिए. जहाँ तक मुझे मालूम है, यह कथन लेनिन का है और उन्होंने यह बात मार्क्सवादी राजनीति के बारे में कही थी. अगर यह बात भारतीय राजनीति के बड़े-बड़े नेताओं को समझ में आ जाती तो वे क्रिकेट की जगह कृषि की चिंता करते, वोट की जगह भूख की चिंता करते, सत्ता की जगह समाज की चिंता करते. तब ‘golden opportunity’ और ‘political advantage’ जैसे जुमले हमारी राजनीति के मन्त्र नहीं बनते.
जिस बात को आप आदर्शवाद और रेडिकलिज्म कहकर प्रसेनजित और एस एफ़ आई जे एन यू के साथियों को ‘बगैर कॉमन सेन्स’ की समझदारी कह रहे हैं, वह राजनीतिक अवसरवाद, कैरियरिज्म और भटकाव के इस अँधेरे दौर में नई पीढ़ी की बेचैनी का उदाहरण है. यह बेचैनी हमारी पिछली पीढ़ियों के ढोंग और धोखे के कारण पैदा हुई है. आप जैसे वरिष्ठ अगर इस बेचैनी को बदलाव की ठोस कोशिशों में तब्दील करने में मददगार नहीं हो सकते तो कम-से-कम इसे विचलित और भ्रमित करने कोशिश मत करें. इस जवान पीढ़ी को उसके सपने गढ़ने दीजिये, उसे गिर-गिर के उठने-सँभलने दीजिये और आप वह करिए जिसका जिम्मा जनता ने आपको दिया है.
आदर सहित,
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