सरकारी एकाधिकार का बुलंद झंडा |
अगली सुबह ठीक नौ बजे तैयार होकर हम निकल पड़े लखपत की ओर। सोचा सुबह की पेटपूजा रास्ते में कहीं कर लेंगे। नखतराणा से पहले एक मुस्लिम बहुल कस्बा पड़ा जहां हमने गाड़ी रोकी। एक छोटे से रेस्टोरेंट में बड़े अरमान से इडली सांभर का ऑर्डर दिया। सांभर का पहला चम्मच मुंह में जाते ही याद आया कि हम कच्छ में हैं। सांभर में चीनी थी। ज़ायका ठीक करने के लिए चाय पी और निकल पड़े। रास्ते में दो चीज़ें ध्यान देने लायक थीं। कदम-कदम पर माइनिंग की साइटें और हर आबादी मुस्लिम बहुल। ऐसा लगता था कि इस रूट पर गुजरात खनिज विकास निगम का कब्ज़ा है। लिग्नाइट की बड़ी-बड़ी खदानों के बीच पठानी पहनावे में नज़र आते बकरी चराते इक्का-दुक्का स्थानीय लोग। शायद हम पाकिस्तान की सीमा के करीब थे। लखपत पहुंच कर पता चला कि वहां से पाकिस्तान की दूरी सिर्फ 50 किलोमीटर है।
बारह किलोमीटर में फैले लखपत शहर की प्राचीर |
तकरीबन दिल्ली के तुग़लकाबाद की शैली में बना लखपत का किला दूर से ही दिख जाता है। बाहर एक चाय की गुमटी है। उसके अलावा दूर-दूर तक कुछ नहीं। शुरुआत चाय से हुई, जहां मिले दाढ़ी वाले दो गेरुआधारी बाबानुमा जीव। उन्हें नारायण सरोवर जाना था जो यहां से कुछ किलोमीटर की दूरी पर है। एक बाबा कच्छ के ही थे, दूसरे जूनागढ़ के। जब मैंने बताया कि मैं बनारस का हूं, तो उन्होंने तुरंत गांजे की मांग की। हमने असमर्थता ज़ाहिर की, तो चुनौती देते हुए एक बाबा ने अपनी पोटली खोली, बचा-खुचा स्टॉक निकाला और चिलम दगा दिया। कैमरे ने कमाल किया। बाबा अब ग्रिप में थे, लेकिन माल कमज़ोर निकला। बाबा ने जाते-जाते हिंगलाज के दो दाने दिए और उसे चांदी के जंतर में पहन लेने की सलाह दी।
बाबाओं से विदा लेकर हम चल दिए मुख्य द्वार के भीतर, जहां ज़माने भर की हवा कैद होकर ऐसे चक्कर लगा रही थी मानो गाड़ी समेत उड़ा ले जाएगी। अब हम लखपत शहर के बीचोबीच थे।लखपत का किला बनाने का श्रेय कच्छ के राजा के सेनापति मोहम्मद ग़ौस को जाता है। इसी किले के भीतर उनका मक़बरा है। अब वो सेनापति नहीं, पीर हैं।
मुहम्मद ग़ौस का मक़बरा और उनके भतीजों की मज़ार |
कहते हैं कि एक ज़माने में यहां सिर्फ समुद्री व्यापार से एक दिन में एक लाख कौडि़यों का कारोबार होता था। वक्त ने ऐसा बदला लिया कि 1819 में बड़ा भूकंप आया जिससे सिंधु नदी ने अपना रास्ता बदल दिया। पहले नदी इस शहर के बीच से गुज़रती थी, अब वो सीधे समुद्र में मिलती है। उसके बाद ये शहर अपनी मौत मर गया। करीब 50 परिवार अब भी इस शहर के भीतर हैं जो धीरे-धीरे अपनी मौत का इंतज़ार कर रहे हैं। मौत की दहलीज़ पर खडे ऐसे ही एक बुज़ुर्गवार पर तब नज़र पड़ी जब हम ग़ौस के मक़बरे की तस्वीरें उतार रहे थे। वे हमें देख कर भी नहीं देख रहे थे। चेहरे पर अन्यमनस्कता का ऐसा भाव था कि करीब जाने में संकोच हो रहा था, लेकिन हम गए।
पीर अली शाह |
आप… यहीं रहते हैं… मैंने पूछा। उन्होंने मेरी ओर देखे बगैर सिर हिलाया। ये मक़बरा किसका है… ? पीर मोहम्मद ग़ौस का। और आप यहां कब से रह रहे हैं…? हम इनकी आठवीं पीढ़ी हैं। आपका काम कैसे चलता है…कोई खेती-वेती…? अब उन्होंने पहली बार मेरी ओर देखा। फिर उनकी ज़बान खुली तो रुकी नहीं, ”;..पांच करोड़ रुपए दिए थे सरकार ने यहां के लिए… नीचे वाले सब खा गए। खेती क्या करेंगे इस बंजर में… कुछ नहीं है… भूखे मर रहे हैं। पिछले महीने दो मर गए भूख से। यहां से कुछ दूर 22 कारखाने खुले थे…हमारे लड़कों को नौकरी मिली थी। सरकार ने सब बंद करवा दिया। सबकी नौकरी चली गई…।’ मैंने टोका, ”किसका कारखाना था…?” ”सीमेंट फैक्ट्री थी…सब सरकार ने ले ली और बंद कर दिया। यहां सिर्फ जीएमडीसी की चलती है।” जीएमडीसी यानी गुजरात खनिज विकास निगम। मैंने उनकी पीढ़ी के बारे में पूछा, और पूछा कि मक़बरे के बाहर किनकी मज़ारें हैं। उन्होंने बताया कि उनका नाम पीर अली शाह है। उनके वालिद हुआ करते थे परी मोहम्मद शाह, उनके वालिद पीर जहांगीर शाह… और ऐसे ही आठ पीढि़यां गुजर गईं। जो मज़ारें मक़बरे के साथ हैं, वे पीर ग़ौस के भतीजों की हैं।
इतनी देर की बातचीत में मुश्किल से उन्होंने दो बार मेरी ओर देखा होगा। पीर अली शाह की आंखें शून्य में जाने क्या देख रही थीं। हमारे साथी इस बीच गाड़ी लेकर इधर आ गए। ग़लती से उनकी झोंपड़ी के बाहर लगे दो पत्थरों में से एक से पहिया छू गया…। पीर अली शाह गुस्साए, ”…गाड़ी चलाना भी नहीं आता…सरकारी पत्थर है… उठाओ इसको।” हमने गुस्ताखी के लिए माफी मांगी, पत्थर को उठा दिया, वे सामान्य हो गए और बोलते गए, ”… यहां क्या है, कुछ नहीं। बॉर्डर का इलाक़ा है। सिर्फ बीएसएफ वाले हैं। वो देखो दूर एक खड़ा है किले पर, लगातार इधर देख रहा है।” हमारी नज़र गई उस ओर। हम पर लगातार नज़र रखी जा रही थी। ”क्या मुख्यमंत्री कभी इधर आए हैं…”, मैंने पूछा। ”कभी नहीं, उसकी क्या गलती है, पैसा तो भेजता है, नीचे वाले सब खा जाते हैं।” ”आप वोट देते हैं…?” ”नहीं…।”
पीर अली शाह जैसे करीब चार सौ लोग इस भुतहा शहर के भीतर जि़ंदगी काट रहे हैं। या कहें जि़ंदगी इन्हें काट रही है। सरकार की ओर से मिला हुआ मल्टीपरपज़ नेशनल आइडेंटिटी कार्ड है। ये सारे भारत के नागरिक होने का दावा कर सकते हैं, लेकिन इस नागरिकता का सिर्फ एक ही फ़ायदा है कि बीएसएफ की संगीनें इनकी ओर कभी नहीं तनीं। बाकी मौत लगातार इन्हें घूरे जा रही है सही वक्त की तलाश में। बहरहाल, आगे बढ़ते हैं। सिर्फ इंसान नहीं, ढहती इमारतें भी हैं यहां।
गुरुद्वारा कोट लखपत, जहां गुरुनानक देव रुके थे |
ग्रंथी सुखचंद जी |
इन्हीं में से एक वो गुरुद्वारा है जिसे गुरुनानक के शिष्य ने बनवाया था। कहते हैं कि गुरुनानक मक्का की यात्रा पर जब गए थे तो रात इसी जगह पर उन्होंने गुज़ारी थी। गुरुद्वारे के ग्रंथी सुखचंद जी बताते हैं कि ये भारत का पहला गुरुद्वारा है। यहां गुरुनानक की पादुका और कई अन्य चीज़ें अब तक सहेज कर रखी हुई हैं। यहां रोज़ दो बजे लंगर खुलता है। अधिकतम पंद्रह लोग, कम से कम दो लोग शामिल होते हैं। आज इत्तेफ़ाक था कि हमारे अलावा एक सरदार जी और उनके न्यूजीलैंड से आए दो मित्र भी लंगर में शामिल थे। बड़े प्यार से रोटी सब्ज़ी हमने यहां खाई। खाना खाकर उठे बरतन धोने तो सुखचंद जी का बच्चा मेरे पैर से लिपट गया। मेरा पैर ही क्यों, पता नहीं। कहते-कहते भी उसने पैर नहीं छोड़ा। उसकी मां को आना पड़ा। वो बताती है कि यहां कोई नहीं आता, इसलिए आप लोगों को देखकर ये ऐसे कर रहा है।
निर्जन बचपन |
न्यूजीलैंड वाले सरदार जी ने पूछा कि ये बच्चा पढ़ता है या नहीं। सुखचंद जी दुखी हो गए। बोले, इसे पढ़ाने चंडीगढ़ ले जाऊंगा, यहां तो कुछ भी नहीं है। सरदार जी नसीहत देकर चले गए कि इसे ज़रूर पढ़ाना। मुझे समझ नहीं आया कि उनसे क्या कहा जाए, हम चुपचाप निकल लिए सत श्री अकाल कर के।
अब इस शहर में रुकना भारी हो रहा था। बाहर निकले और नारायण सरोवर के रास्ते पर चल दिए। करीब दो किलोमीटर की दूरी पर बीएसएफ की सीमा सुरक्षा चौकी दिखी। सोचा, सीमा भी देख लें। वहां पहुंचे तो संतरी ने अपने अधिकारी को बुलाया। एक जवान भी आया। उसने बताया कि वो हमें किले में दूर से आवाज़ दे रहा था। दूरबीन से उसने हमें देख लिया था। कुछ देर की बातचीत हुई जवानों के साथ। सामने एक बोर्ड पर लिखा था, ‘करके रहूंगा।’ मैंने पूछा आप क्या करते हैं यहां। यहां तो कुछ भी नहीं। एक जवान ने कहा, ”कब कौन आ जाए यहां, कुछ भी हो सकता है। जैसे देखिए, आप ही यहां आ गए…यही काम है हमारा।” हमने सोचा, अच्छा हुआ, हम खुद मिलने आ गए। क्या जाने कब किससे राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा पैदा हो जाए।
एक अजीब सा खालीपन भर गया लखपत हमारे भीतर। जाने अगली बार यहां आने पर पीर अली शाह मिलें या नहीं। भुज में नौकरी की तलाश में भटकते उनके लड़के नहीं जानते कि उनका बाप शून्य में क्या देखता रहता है। हम भी केवल अंदाज़ा लगा सकते हैं। अगर इस देश का नागरिक होना संगीनों से बच जाना भर है, तो इस शहर को तुरंत मौत का फ़रमान सुना दिया जाना चाहिए।
न शिकन, न रुकन: पाकिस्तान से लगी सीमा की एक सड़क जिस पर इंसान नहीं चलते |
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कच्छ कथा: भाग 1
कच्छ कथा: भाग 2
कच्छ कथा: भाग 3
कच्छ कथा: भाग 4
टिप्पणी: इस पोस्ट को लिखने के बाद मैं अचानक लंबे समय तक अवसाद में घिरा रहा था। नतीजा ये हुआ कि कच्छ कथा के दो खंड अब भी बाकी हैं- एक मंडावी और दूसरा धौलावीरा का। चीज़ें दिमाग में अब भी ताज़ा हैं, डीटेलिंग भले मिट गई हो। किसी दिन सुर चढ़ने पर लिख डालूंगा। (12.05.2012)
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बहुत सुन्दर वृतांत….
मुर्दा होते शहर की जिंदा दास्तान
अद्भुत विवरण. क्योंकि हम लोग कच्छ यात्रा पर जाने वाले हैं इसलिए और भी अधिक रोचक लगा. आपके अगले लेखों की प्रतीक्षा है. ६ वर्ष हो गए हैं. अब लिख ही डालिए ताकि हम भी मंडावी और धौलावीराके बारे में पढ़ सकें. दोनों जगह जाना और रहना है.
आभार
ghughutibasuti