इधर एक मध्यमवर्गीय मालिक रहते हैं। मालिक की दिनचर्या का पालन करते हैं। दिनचर्या की शुरुआत ‘मॉर्निंग वॉक’ से करते हैं। मॉर्निंग वॉक से लौटकर नहाते हैं। लक्ष्मी की घंटी बजाते हैं। ब्रेकफास्ट करते हैं। दिन भर सुख इकट्ठा करने का काम करते हैं। बीच में लंच कर लेते हैं।
एक दिन मॉर्निंग वॉक की उछल-कूद के दौरान उनके पैर में फ्रैक्चर हो गया। डॉक्टर के यहाँ गए। प्लास्टर चढ़ा। फिर अपने घर में भर्ती हो गए। महीने भर में ठीक हो गए। अपनी दिनचर्या का पालन करने लगे। मॉर्निंग वॉक करने लगे। पहले से अधिक ‘एक्टिव’ होकर। वॉक के दौरान दूसरों से हाल-चाल पूछते। अपना हाल-चाल सुनाकर सब आगे बढ़ जाते। उनका हाल-चाल कोई नहीं पूछता। वे जब अपने घर में भर्ती थे, और ठीक होकर जब पहले दिन वॉक पर आये, तब ही सभी ने उनका हाल-चाल ले लिया था। दो बार उनका हाल-चाल लेने के बाद सबकी हिम्मत छूट चुकी थी।
एक दिन मैंने उनका हाल-चाल पूछ लिया। मेरे सवाल से लगा कि वे ‘डी-हाइड्रेट’ हो गए। डायरिया के मरीज की तरह। होंठ सूख गए। होंठों पर पपड़ी जम गई। जीभ तालू से चिपक गई। मुँह से शब्द नहीं फूट रहे थे। कुछ देर पहले झरने की तरह कल-कल करते बह रहे थे। पहाड़ी नदी की तरह उछल-कूद कर रहे थे। सबका हाल-चाल पूछ रहे थे। अब क्या हुआ? मैं सोच रहा था, क्या हुआ; तभी एक शब्द फूटा- क्या। सेकेंड-दो सेकेंड बाद एक और शब्द फूटा-बताऊँ। इसी तरह सेकेंड-दो सेकेंड में एक-एक शब्द फूटता रहा। मिनट-दो मिनट में उन्होंने हाल-चाल बताया- क्या बताऊँ, बहुत कष्ट सहना पड़ा।
मुझे लगा, पानी के लिए डार्क जोन घोषित इलाके में हैंडपम्प चला रहा हूँ। हैंड से पम्प करते-करते पानी आता है। आने के बाद जितनी बार पम्प करो, उतनी अँजुरी पानी आता है-छल्ल….छल्ल। एक बाल्टी पानी भरने में शरीर से बाल्टी भर पानी निकल जाता है। पसीने के रूप में।
उनके मुँह का हैंडपम्प भी डार्क जोन घोषित इलाके के हैंडपम्प की तरह चल रहा था। बाल्टी भरने में घंटों लगेंगे। शरीर की होने वाली जल-हानि के बारे में सोचकर मैं तुरंत बोतल भर पानी गटक गया।
मैं हैंड से पम्प करता रहा। अँजुरी भर पानी गिरता रहा- छल्ल…..छल्ल। घंटों पम्प करने के बाद बाल्टी भर गई। उनकी दुःख गाथा बाल्टी के बाहर छलकने लगे, उसके पहले ही पुश अप्स (हैंड से पम्प) करते-करते मैं निढाल हो गया। उनसे कहा- आज काफी वर्जिश कर ली है। किसी दिन घर आता हूँ। आराम से बात करेंगे। इतना सुनते ही वे डार्क जोन से बाहर आ गए। जैसे बारिश के दिनों में पहले कुएँ भर जाते थे, उसी तरह शब्द उनके कंठ तक आ लगे। जरूर, मैं आपका इंतजार करूँगा- बिना विराम के बोलते हुए वे चले गए।
उनके जाने के बाद मैं वहीं बेंच पर लेट गया। जाते हुए उनके पैरों को देख रहा था। सोच रहा था- मध्यम वर्ग कोल्ड स्टोरेज में रखे आलू की तरह है जो बाहर से देखने में कृत्रिमता के सहारे सुंदर नजर आता है।
दरअसल वे दुःख की कमी से पीड़ित हैं। उनको मरहम-पट्टी लायक चोट भी नहीं लगी थी। मॉर्निंग वाक के दौरान उनका एक पैर भचकटैय्या से टकरा गया था। खरोंच लग गई। उन्हें दुःख कमाने का अवसर मिल गया। सुख उनकी तिजोरी में, जमीन जायदाद, मकान, फ्लैट आदि के रूप में कई जिलों में फैला हुआ है। अर्थात उनका सुख अंतरजनपदीय है। उन्होंने खरोंच को भी अंतरजनपदीय बनाने की सोची। खरोंच पर प्लास्टर बँधवा लिया। प्लास्टर के कारण उन्हें उम्मीद से अधिक ‘रिटर्न’ मिला। दुःख अंतरराज्यीय हो गया। राष्ट्रीय ‘ब्रेकिंग’ भी हो जाता, अगर वे बता देते कि उनका पैर भचकटैय्या से टकराकर टूटा- ध्यान से देखिए, हम आपको सबसे पहले दिखा रहे हैं वो भचकटैय्या का पेड़, जिससे टकराकर मध्यम वर्ग की टाँग टूट गई। अपने खान-पान की बहादुरी को बचाये रखने के लिए उन्होंने अपने दुःख को राष्ट्रीय ब्रेकिंग होने से बचा लिया।
उनका हाल-चाल लेने के लिए पहले दिन इक्का-दुक्का लोग ही आये। जैसे ही कोई आता, वे अपना मुँह निकालकर प्लास्टर के अंदर घुसेड़ देते। इससे खरोंच का दर्द उन्हें नहीं बताना पड़ता। खरोंच ही बताती। दर्द बोलता। जैसे मुझसे बोल रहा था। हाल-चाल लेने वाला सुनता। दर्द के उतार-चढ़ाव के साथ सुनने वाले के चेहरे का उतार-चढ़ाव बदलता। आखिर खरोंच पर लगा मुँह जो बोल रहा था। दुख की जड़ में जाकर। हाल-चाल लेने वाला चला जाता, तो वे मुँह प्लास्टर से निकालकर नियत स्थान पर लगा देते। जब दुःख का दायरा स्थानीय की सीमा पार कर अंतरजनपदीय और अंतरराज्यीय हुआ, तो हाल-चाल लेने वालों का ताँता लग गया। उन्हें मुँह को प्लास्टर में घुसेड़ने की भी फुर्सत नहीं मिलती। तो उन्होंने मुँह को स्थाई रूप से प्लास्टर में घुसेड़ दिया।
मैंने उनसे खरोंच लगने की घटना के दो वर्ष बाद उनका हाल-चाल पूछा था। अब तक उनका मुँह खरोच पर ही रखा हुआ है। हटाना भूल गए होंगे। या नए दुःख का इंतजार कर रहे होंगे, मुँह को नए दुःख की जड़ में रखने के लिए।
निदा फ़ाज़ली ने कहा है-
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिस को भी देखना हो कई बार देखना।
मैं कहता हूँ कि हर आदमी के दस-बीस मुँह भी होते हैं।
मुझे आदमी के दस बीस मुँह होते हैं, ये नहीं पता था। रुपये-दस रुपये के लिए इधर-उधर मुँह मारते-मारते पता चला कि मेरे दस-बीस मुँह हैं। चाय पीता हूँ। पीने के बाद चाय वाले से दस रुपये उधार भी माँग लेता हूँ- 15 रुपया हो गया तुम्हारा। ऐसे ही विविध प्रकार के मुँह बना-बनाकर उधार माँगते-माँगते मुझे पता चला कि मेरे दस-बीस मुँह हैं। ये भी मेरी एक उपलब्धि थी।
कर्ज लेना भी एक उपलब्धि है। बशर्ते कि कर्ज लाखों-करोड़ों में हो। उसी कर्ज से खरोंच, फ्रैक्चर बन जाती है। कर्ज अगर बैंक की कृपा से एनपीए घोषित हो जाये, तो खरोंच, सेप्टिक जितनी घातक हो सकती है। टाँग काटने की नौबत आ सकती है। ऐसी खरोंच राष्ट्रीय ब्रेकिंग बनेगी- ध्यान से देखिए…।
मुझे अपने दस-बीस मुँह होने की उपलब्धि का गर्व था। गर्व धीरे-धीरे गैर होता गया। तीस-चालीस मुँह वालों से पाला पड़ता गया, मेरे गर्व का मुँह लटकता गया। तीस-चालीस मुँह वाले अपने शरीर में कई जगह मुँह रखते हैं।
मेरा एक बहुत-बहुत दूर का रिश्तेदार है। पहले वो मेरा चचेरा भाई था। जब देखा कि वो अपने जीवन में दुःख की कमी से दुखी रहता है, तो उसे बहुत-बहुत दूर के रिश्तेदार तक सीमित कर दिया- क्या पता इस दुःख से वो सुखी हो जाये। सुखी हुआ भी- चलो पीछा छूटा हक से माँगने वाले का। वो अपने सभी मुँह जेब में रखता है। जब मैं पैसा माँगता, तो जेब में हाथ डाल देता। मुझे लगता कि देगा। पर वो तो हाथ से अपने मुँह को भींच देता। फिर वही खरोंच वाले की तरह पैसा न होने की दारुण कथा निकलती- छुलुक….छुलुक।
हर साल उसे नई कार बदलते देखता हूँ, तो सोचता हूँ कि इसे सौ-डेढ़ सौ मुँह मिल जायें, ताकि ये हर साल अपनों को भी बदलता रहे। वसीम बरेलवी के शब्दों में- उसी को हक़ है जीने का जो इस ज़माने में, इधर का लगता रहे और उधर का हो जाये। दलबदलुओं को देखिए। उनकी कीमत आसमान छू रही है। इधर के लगते रहे और उधर के हो गए।
देश के एक नेता के पास कितने मुँह हैं, उसकी गिनती चालू है। रोज एक नया मुँह लेकर हाजिर होता है। उसके पास कितने मुँह हैं, ये अभी निश्चित नहीं हुआ है। पर ये तय है कि वो किन्हीं और का मुँह है। उन किन्हीं और को जब कुछ बोलना होता है, तब वे अपना मुँह नेता के मुँह पर दे मारते हैं। नेता चालू हो जाता है।
नेता लगभग सत्तर वर्ष का है। जब से वो पैदा हुआ है, तब से देश की चिंता में दुखी ही रहा है। दुखी होने के सुख के सहारे वो तरक्की करता गया। अब उस ‘पोजीशन’ पर पहुँच चुका है, जहाँ से वह अपने वर्ग को दुःख का महत्त्व समझाने के लिए आपदा की नीतियाँ बनाता है। आपदा के दुःख में सुख बटोरने वालों को अवसर उपलब्ध कराता है।
मैं भले ही उपर्युक्तों को ‘हिप्पोक्रेट’ कहूँ, पर जाने-अनजाने में ही वे एक कला का संरक्षण कर रहे हैं। सर्वे करने वाले उस कला से जलते हैं। वे चाहते हैं कि इनकी एक और कला को मिटा दिया जाए।
देश की खुशहाली आँकने वाले एक विदेशी सर्वे में हमारे देश को 158 देशों में 117वीं पायदान पर रखा।
देश में होने वाली कुछ घटनाओं की बाबत नेता कहते हैं कि इसमें विदेशी ताकतों का हाथ है। सर्वे के माध्यम से हमें इकतालीस देशों से अधिक खुशहाल बताने वाली विदेशी ताकतें ये नहीं जानती कि हमारे यहाँ सबसे खुशहाल माने जाने वाले भी उनके सर्वे से दुखी हैं। विदेशी ताकतों के हाथों की लम्बाई के बारे में सोचकर अपने देश में सबसे खुशहाल में से एक और अपने लम्बे हाथों के लिए विश्व प्रसिद्द कानून भी दुखी है। लम्बे हाथों वाला कानून ये सोचकर दुखी हैं कि हैप्पीनेस इंडेक्स का सर्वे करने वाले कानून के हाथ नहीं हैं, फिर भी ये हमारे देश तक कैसे पहुँच गये!
विदेशी हमारी कला और संस्कृति से परिचित हैं। उन्होंने कुछ कलाओं को हमसे पूरी तरह छीन लिया है। उन्हें अपने नाम से पेटेंट करवा लिया। जिस कला को पूरी तरह छीन नहीं पाये, उसके आयात में लगे हुए हैं। हैप्पीनेस इंडेक्स के माध्यम से विदेशी हमारी दुखी होने की कला को मिटाने की साजिश रच रहे हैं। एक दिन ऐसा भी आएगा जब हैप्पीनेस इंडेक्स में हम टॉप पर होंगे। फिर एक नया विदेशी सर्वे आएगा जिसमें हमें सबसे अधिक खुशहाल घोषित कर दिया जाएगा। उसके साथ ही दुखी होने की हमारी कला भी विलुप्त घोषित हो जाएगी। हमें सबसे अधिक खुशहाल साबित कर विदेशी मध्यम वर्ग की एक कला मिटा देना चाहते हैं। मुझे पूरा भरोसा है कि दुखी होने का सुख प्राप्त करने वाले विदेशी साजिशों को कामयाब नहीं होने देंगे। हैट्स ऑफ टू यू आर्टिफीशियल पीपल। दुखी होने का सुख बचाए रखना।