Corona Diaries: चौदह दिन का घरवास


 
03.04.2020
इंसान के मनोभावों में भय सबसे आदिम प्रवृत्ति है। इसी भय ने हमें गढ़ा है। सदियों के विकासक्रम में इकलौता भय ही है, जो अब तक बना हुआ है। मन के गहरे तहखानों में, दीवारों से चिपटा। काई की तरह, हरा, ताज़ा, लेकिन आदिम। जब मनुष्य अपने विकासक्रम में छोटा हुआ करता था, उसे तमाम भय थे। जानवरों का भय प्राथमिक था। कोई भी आकर खा सकता था। सब बड़े-बड़े जंगली पशु होते थे। जो जितना बड़ा, छोटे को उतना भय। हर बड़ा अपने से छोटे को खाता था। यह जंगल का समाज था। शुरुआत में तो इसका इलाज यह निकाला गया कि जिससे ख़तरा हो उसके सामने ही न पड़ो। मचान पर पड़े रहो। पेड़ से लटके रहो। अपने घर के भीतर दुबके रहो। आखिर कोई कितना खुद को रोके लेकिन?
फिर मनुष्य ने भाषा विकसित की। हो हो, हुर्र हुर्र, गो गो जैसी आवाज़ें निकाली जाने लगीं जानलेवा पशु को भगाने के लिए। खतरा लगता, तो हम गो गो करने लग जाते। इसकी भी सीमा थी। पांच किलोमीटर दूर बैठे अपने भाई तक आवाज़ कैसे पहुंचाते? उसे सतर्क कैसे करते? फिर बजाने की कला आयी। खतरे का संकेत देने और भाइयों को सतर्क करने के लिए हमने ईंट बजायी, लकड़ी पीटी, दो पत्थरों को आपस में टकराया। तेज़ आवाज़ निकली, तो शिकार पर निकला प्रीडेटर मांद में छुप गया। फिर धीरे-धीरे उसे आवाज़ की आदत पड़ गयी। हम थाली पीटते, वह एकबारगी ठिठकता, फिर आखेट पर निकल जाता। समस्या वैसी ही रही।
एक दिन भय के मारे पत्थर से पत्थर को टकराते हुए अचानक चिंगारी निकल आयी। संयोग से वह चकमक पत्थर था। मनुष्य ने जाना कि पत्थर रगड़ने से आग निकलती है। ये सही था। अब पेड़ से नीचे उतर के, अपने घरों से बाहर आ के, अलाव जला के टाइट रहा जा सकता था। आग से जंगली पशु तो क्या, भूत तक भाग जाते हैं। रूहें भी पास आने से डरती हैं। मानव विकास की यात्रा में हम यहां तक पहुंच गए, कि जब डर लगे बत्ती सुलगा लो। भाषा, ध्वनि, प्रकाश के संयोजन ने समाज को आगे बढ़ाने का काम किया। आग में गलाकर नुकीले हथियार बनाए गए। मनुष्य अब खुद शिकार करने लगा। पशुओं को मारकर खाने लगा। समाज गुणात्मक रूप से बदल गया। आदम का राज तो स्थापित हो गया, लेकिन कुदरत जंगली जानवरों से कहीं ज्यादा बड़ी चीज़ है। उसने सूक्ष्म रूप में हमले शुरू कर दिए। डर, जो दिमाग के भीतरी तहखानों में विलुप्ति के कगार पर जा चुका था, फिर से चमक उठा।
इस आदिम डर का क्या करें? विकसित समाज के मन में एक ही सवाल कौंध रहा था। राजा नृतत्वशास्त्री था। वह मनुष्य की आदिम प्रवृत्तियों को पहचानता था। दरअसल, इंसान की आदिम प्रवृत्तियों को संकट की घड़ी में खोपड़ी के भीतर से मय भेजा बाहर खींच निकाल लाना और सामने रख देना उसकी ट्रेनिंग का अनिवार्य हिस्सा था। उसका वजूद मस्तिष्क के तहखानों में चिपटी काई और फफूंद पर टिका हुआ था। चिंतित और संकटग्रस्त समाज को देखकर उसने कहा- “पीछे लौटो, आदम की औलाद बनो”। राजाज्ञा पर सब ने पहले कहा गो गो गो। काम नहीं बना। फिर समवेत् स्वर में बरतनों, डब्बों, लोहे-लक्कड़ और थाली से आवाज़ निकाली, गरीबों ने ताली पीटी। अबकी फिर काम नहीं बना। राजा ज्ञानी था, उसने कहा- “प्रकाश हो”!
अब प्रजा बत्ती बनाएगी, माचिस सुलगाएगी। उससे आग का जो पुनराविष्कार होगा, उसमें अस्त्र-संपन्न लोग अपने भाले तराशेंगे, ढोल की खाल गरमाएंगे। फिर एक दिन आदम की औलाद आग, ध्वनि और भाषा की नेमतें लिए सामूहिक आखेट पर निकलेगी। इस तरह यह समाज एक बार फिर गुणात्मक रूप से परिवर्तित हो जाएगा। पिछली बार प्रकृति के स्थूल तत्वों पर विजय प्राप्त की गयी थी। अबकी सूक्ष्म से सूक्ष्मतर तत्वों को निपटा दिया जाएगा।
30.03.2020
आज हम लोग ऐसे ही चर्चा कर रहे थे कि जो लोग घर में बंद हैं, उनमें सबसे ज़्यादा दुखी कौन होगा। पहले ही जवाब पर सहमति बन गई – प्रेमी युगल। फिर रजनीगंधाफिल्म का अचानक संदर्भ आया, कि दो व्यक्तियों के बीच भौतिक दूरी होने से प्रेम क्या वाकई छीज जाता होगा? हो सकता है। नहीं भी। कोई नियम नहीं है इसका। निर्भर इस बात पर करता है कि दूरी की वजह क्या है।
इस धरती के समाज को जितना हम जानते हैं, दो व्यक्तियों के बीच कोई बीमारी या बीमारी की आशंका तो हमेशा से निकटता की ही वजह रही है। घर, परिवार, समाज, ऐसे ही अब तक टिके रहे हैं। ये समाज तो बलैया लेने वाला रहा है। बचपन से ही घर की औरतों ने हमें बुरी नज़र से बचाया है, अपने ऊपर सारी बलाएं ले ली है। यहीं हसरत जयपुरी लिखते हैं, “तुम्हें और क्या दूं मैं दिल के सिवाय, तुमको हमारी उमर लग जाय।” बाबर ने ऐसे ही तो हुमायूं की जान बचाई थी। उसके पलंग की परिक्रमा कर के अपनी उम्र बेटे को दे दी थी!
बॉलीवुड की सबसे खूबसूरत प्रेम कथाओं में किशोर कुमार और मधुबाला का रिश्ता गिना जाता है। मधुबाला को कैंसर था, किशोर जानते थे फिर भी उनसे शादी रचाई। डॉक्टर कहते रह गए उनसे, कि पत्नी से दूर रहो। वे दूर नहीं हुए। जब खुद मधुबाला ने उनसे मिन्नत की, तब जाकर माने। अपने यहां एक बाबा आमटे हुए हैं। बाबा चांदी का चम्मच मुंह में लेकर पैदा हुए थे लेकिन बारिश में भीगते एक कोढ़ी को टांगकर घर ले आए थे। बाद में उन्होंने पूरा जीवन कुष्ठ रोगियों को समर्पित कर दिया। ऐसे उदाहरणों से इस देश का इतिहास भरा पड़ा है। सोचिए, बाबा ने कुष्ठ लग जाने के डर से उस आदमी को नहीं छुआ होता तो?
मेरे दिमाग में कुछ फिल्मी दृश्य स्थायी हो चुके हैं। उनमें एक है फिल्म शोले का दृश्य, जिसमें अपनी बहू राधा के जय के साथ दोबारा विवाह के लिए ठाकुर रिश्ता लेकर राधा के पिता के यहां जाते हैं। प्रस्ताव सुनकर राधा के पिता कह उठते हैं, “ये कैसे हो सकता है ठाकुर साब? समाज और बिरादरी वाले क्या कहेंगे?” यहां सलीम जावेद ने अपनी ज़िन्दगी का सबसे अच्छा डायलॉग संजीव कुमार से कहलवाया है, “समाज और बिरादरी इंसान को अकेलेपन से बचाने के लिए बने हैं, नर्मदा जी। किसी को अकेला रखने के लिए नहीं।”
यही समझ रही है हमारे समाज की। हम यहां तक अकेले नहीं पहुंचे हैं। साथ पहुंचे हैं। ज़ाहिर है, जब संकट साझा है, तो मौत भी साझा होगी और ज़िन्दगी भी। बाजारों में दुकानों के बाहर एक-एक ग्राहक के लिए अलग अलग ग्रह की तरह बने गोले; मुल्क के फ़कीर के झोले से सवा अरब आबादी को दी गई सोशल डिस्टेंसिंग नाम की गोली; फिर शहर और गांव के बीच अचानक तेज हुआ कंट्रास्ट; कुछ विद्वानों द्वारा यह कहा जाना कि अपने यहां तो हमेशा से ही सोशल डिस्टेंसिंग रही है जाति व्यवस्था के रूप में; इन सब से मिलकर जो महीन मनोवैज्ञानिक असर समाज के अवचेतन में पैठ रहा है, पता नहीं वो आगे क्या रंग दिखाएगा। मुझे डर है।
बाबा आमटे के आश्रम का स्लोगन था, “श्रम ही हमारा श्रीराम है।” उस आश्रम को समाज बनना था। नहीं बन सका। श्रम अलग हो गया, श्रीराम अलग। ये संयोग नहीं है कि आज श्रीराम वाले श्रमिकों के खिलाफ खड़े दिखते हैं। अनुपम मिश्र की आजकल बहुत याद आती है, जो लिख गए कि साद, तालाब में नहीं समाज के दिमाग में जमी हुई है। आज वे होते तो शायद यही कहते कि वायरस दरअसल इस समाज के दिमाग में घुस चुका है। कहीं और घुसता तो समाज फिर भी बच जाता। दिमाग का मरना ही आदमी के मर जाने का पहला और सबसे प्रामाणिक लक्षण है।
29.03.2020
माना आप बहुत सयाने हैं। आप जानते हैं कि मौत यहां भी है और वहां भी, इसलिए गांव लौट जाना ज़िन्दगी की गारंटी नहीं है। आप ठीक कहते हैं कि गांव न जाकर शहर में जहां एक आदमी अकेला मरता, वहीं उस आदमी के गांव चले जाने से कई की ज़िन्दगी खतरे में पड़ सकती है। सच बात है। तो क्या करे वो आदमी? गांव से दूर परदेस में पड़ा पड़ा हाथ धोता रहे? दूर दूर रहे अपनों से? मास्क लगाए? गरम पानी पीये? लौंग दबाए? क्या इससे ज़िन्दगी बच जाएगी?
वैसे, आपको खुद इस सब पर भरोसा है क्या? दिल पर हाथ रख कर कहिए वे लोग, जिन्हें एनएच-24 पर लगा रेला आंखों में दो दिन से चुभ रहा है। आप मास्क लगाए हैं, घर में कैद हैं, सैनिटाइजर मल रहे हैं, कुण्डी छूने से बच रहे हैं, गरम पानी पी रहे हैं। ये बताइए, मौत से आप ये सब कर के बच जाएंगे इसका कितना भरोसा है आपको? होगी किसी की स्टैंडर्ड गाइडलाइन है, लेकिन दुश्मन तो अदृश्य है और उपचार नदारद। कहीं आप भी तो भ्रम में नहीं हैं? आपका भ्रम थोड़ा अंतरराष्ट्रीय है, वैज्ञानिक है। हाईवे पर दौड़ रहे लोगों का भ्रम भदेस है, गंवई है। आप खुद को व्यावहारिक, समझदार, पढ़ा लिखा वैज्ञानिक चेतना वाला शहरी मानते हैं। उन्हें जाहिल। बाकी उस शाम बजाई तो दोनों ने थी – आपने ताली, उन्होंने थाली! इतना ही फर्क है? बस?
भवानी बाबू आज होते तो दोबारा लिखते: एक यही बस बड़ा बस है / इसी बस से सब विरस है! तब तक तो आप और वे, सब बारह घंटे का खेल माने बैठे थे? जब पता चला कि वो ट्रेलर था, खेल इक्कीस दिन का है, तो आपके भीतर बैठा ओरांगुटांग निकल कर बाहर आ गया? आपके नाखून, जो ताली बजाते बजाते घिस चुके थे और दांत जो निपोरने और खाने के अलावा तीसरा काम भूल चुके थे, वे अपनी और गांव में बसे अपनों की ज़िन्दगी पर खतरा भांप कर अचानक उग आए? लगे नोंचने और डराने उन्हें, जिन्हें अपने गांव में ज़िन्दगी की अंतिम किरन दिख रही है! कहीं आपको डर तो नहीं है कि जिस गांव घर को आप फिक्स डिपोजिट मानकर छोड़ आए हैं और शहर की सुविधा में धंस चुके हैं, वहां आपकी बीमा पॉलिसी में ये लाखों करोड़ों मजलूम आग न लगा दें?
आप गाली उन्हें दे रहे हैं कि वे गांव छोड़कर ही क्यों आए। ये सवाल खुद से पूछ कर देखिए। फर्क बस भ्रम के सामान का ही तो है, जो आपने शहर में रहते जुटा लिया, वे नहीं जुटा सके। बाकी मौत आपके ऊपर भी मंडरा रही है, उनके भी। फर्क बस इतना है कि वे उम्मीद में घर की ओर जा रहे हैं, जबकि आप उनकी उम्मीद को गाली देकर अपनी मौत का डर कम कर रहे हैं। सोचिए, ज़्यादा लाचार कौन है? सोचिए, ज़्यादा अमानवीय कौन है? सोचिए ज़्यादा डरा हुआ कौन है?
सोचिए, और उनके बारे में भी सोचिए जिनके पास जीने का कोई भरम नहीं है। जिन्होंने कभी ताली नहीं पीटी, जो मास्क और सैनिटाइजर की बचावकारी क्षमता और सीमा को समझते हैं, और जिनके पास सुदूर जन्मभूमि में कोई बीमा पॉलिसी नहीं है, कोई जमीन जायदाद नहीं है, कोई घर नहीं है। मेरी पत्नी ने आज मुझसे पूछा कि अपने पास तो लौटने के लिए कहीं कुछ नहीं है और यहां भी अपना कुछ नहीं है, अपना क्या होगा? मेरे पास इसका जवाब नहीं था। फिलहाल वो बुखार में पड़ी है। ये बुखार पैदल सड़क नापते लोगों को देख कर इतना नहीं आया है, जितना उन्हें गाली देते अपने ही जैसे तमाम उखड़े हुए लोगों को देख कर आया है। दुख भी कोई चीज है, बंधु!
मनुष्य बनिए दोस्तों। संवेदना और प्रार्थना। बस इतने की दरकार है। एक यही बस, बड़ा बस है…।
28.03.2020
बलिया के मनियर निवासी 14 प्रवासी मजदूरों के फरीदाबाद में अटके होने की शाम को सूचना मिली। इनमें दो बच्चे भी थे, चार और छह साल के। मित्रों को फोन घुमाया गया। एक पुलिस अधिकारी के माध्यम से प्रवासियों तक भोजन पहुंचवाने की अनौपचारिक गुंजाइश बन गई। फिर भी सौ नंबर पर फोन कर के ऑफिशली कॉल रजिस्टर करवाने की सलाह उन्हें दी गई। वे इसके लिए तैयार नहीं हुए। सबने समझाया, लेकिन तैयार ही नहीं हुए। बोले, पुलिस आएगी तो मारेगी। उल्टे भाई लोगों ने कैमरे में एक वीडियो रिकॉर्ड कर के भिजवा दिया, सरकार से मदद मांगते हुए कि भोजन वोजन नहीं, हमें गांव पहुंचाया जाए। बस, पुलिस न आवे।
इस घटना ने नोटबंदी के एक वाकये की याद दिला दी। नोटबंदी की घोषणा के बाद चौराहे से चाय वाला अचानक गायब हो गया था। बहुत दिन बाद मैंने ऐसे ही उसकी याद में उसका ज़िक्र करते हुए जनश्रुति के आधार पर एक पोस्ट लिखी। उसे अगले दिन नवभारत टाइम्स ने छाप दिया। शाम को मैं चौराहे पर निकला। पहले सब्ज़ी वाले ने पूछा। फिर रिक्शे वाले ने। फिर एक और रिक्शे वाले ने। फिर नाई ने पूछा। सबने एक ही सवाल अलग अलग ढंग से पूछा- “क्यों गरीब आदमी को मरवाना चाहते हो, पत्रकार साहब? आपने लिख दिया कि वो महीने भर से गायब है, अब कहीं पुलिस उसे पकड़ न ले!” एक सहज सी पोस्ट और उसके अख़बार में आ जाने के चलते मैं उस चायवाले के सारे हितैषियों की निगाह में संदिग्ध हो गया। यह मेरी समझ से बाहर था। अप्रत्याशित।
प्रवासी मजदूरों, दिहाड़ी श्रमिकों, गरीबों, मजलूमों पर लिखना एक बात है। मध्यमवर्गीय पत्रकार के दिल को संतोष मिलता है कि चलो, एक भला काम किया। आप नहीं जानते कि आपके लिखे को आपके किरदार ने लिया कैसे है। हो सकता है अख़बार में अपने नाम को देख कर, अपनी कहानी सुन कर, वह डर जाए। आपको पुलिस का आदमी मान बैठे। फिर जब आप प्रोएक्टिव भूमिका में लिखने से आगे बढ़ते हैं, तो उनसे डील करने में समस्या आती है। आपके फ्रेम और उनके फ्रेम में फर्क है। मैं इस बात को जानता हूं कि कमिश्नर को कह दिया तो मदद हो ही जाएगी, लेकिन उसको तो पुलिस के नाम से ही डर लगता है। वो आपको पुलिस का एजेंट समझ सकता है। आपके सदिच्छा, सरोकार, उसके लिए साजिश हो सकते हैं।
वर्ग केवल इकोनोमिक कैटेगरी नहीं है। उसका सांस्कृतिक आयाम भी होता है। यही आयाम स्टेट सहित दूसरी ताकतों और अन्य वर्गों के प्रति एक मनुष्य के सोच को बनाता है। इस सोच का फ़र्क दो वर्गों के परस्पर संवाद, संपर्क और संलग्नता से मालूम पड़ता है। अगर आप एक इंसान की तरफ हाथ बढ़ाते वक़्त उसके वर्ग निर्मित सांस्कृतिक मानस के प्रति सेंसिटिव और अलर्ट नहीं हैं, तो आपको उसकी एक अदद हरकत या प्रतिक्रिया ही मानवरोधी बना सकती है। गरीब, वंचित, पीड़ित का संकट यदि हमारा स्वानुभूत नहीं है तो कोई बात नहीं, सहानुभूत तो होना ही चाहिए, कम से कम! इससे कम पर केवल कविता होगी, जो फटी बिवाइयां भरने में किसी काम नहीं आती।
27.03.2020
एक राज्य के फलाने के माध्यम से दूसरे राज्य से ढेकाने का फोन आया: “भाई साहब, बड़ी मेहरबानी होगी आपकी, मुझे किसी तरह यहां से निकालो। फंसा हुआ हूं, पहुंचना ज़रूरी है। मेरे लोग परेशान हैं।” अकेले निकालना होता तो मैं सोचता। साथ में एक झंडी लगी बड़ी सी गाड़ी भी थी जो देखते ही पुलिस की निगाह में गड़ जाती। वैसे सज्जन पुरुष थे। नेता थे। दो बार के विधायकी के असफल प्रत्याशी। समस्या एक नहीं, दो राज्यों की सीमा पार करवाने की थी। उनकी समस्या घर पहुंचने की नहीं क्योंकि वे घर में ही थे। समस्या अपने क्षेत्र और लोगों के बीच पहुंचने की थी। ज़ाहिर है, इन्हें गाड़ी से ही जाना था।
एक और फोन आया किसी के माध्यम से किसी का। यहां घर पहुंचने की ऐसी अदम्य बेचैनी थी कि आदमी पैदल ही निकल चुका था अपने जैसों के साथ। तीन राज्य पार घर के लिए। ये भी सज्जन था। इसे बस घरवालों की चिंता थी। वो पहुंचता, तब जाकर राशन का इंतजाम होता उसकी दो महीने की पगार से। ऐसा ही फंसा हुआ एक तीसरा मामला अपना करीबी निकला, पारिवारिक। सरकारी नौकरी में लगे दंपत्ति दो अलग शहरों में फंस गए थे, एक ही राज्य में। लोग हज़ार किलोमीटर पैदल निकलने का साहस कर ले रहे हैं। यहां ऐसा करना तसव्वुर में भी नहीं रहा जबकि फासला सौ किलोमीटर से ज़्यादा नहीं है। वे न मिलें तो भी कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि उन्हें चूल्हे चौकी की चिंता नहीं। बस प्रेम है, जो खींच रहा था।
पहला केस सेवाभाव वाला है। एक भला नेता अपने लोगों के बीच जल्द से जल्द पहुंचना चाह रहा है। दूसरा केस आजीविका और ज़िन्दगी का है। यह भला आदमी नहीं पहुंचा तो परिवार भुखमरी का शिकार हो जाएगा। तीसरा केस अपना है, विशुद्ध मध्यमवर्गीय और भला। यहां केवल पहुंचना है, उसके पीछे कोई ठोस उद्देश्य नहीं है, सिवाय एक नाज़ुक धागे के, जिसे प्रेम कहते हैं। पहुंचने की बेसब्री और तीव्रता के मामले में तीनों अलग केस हैं। पहला घर से समाज में जाना चाहता है, लेकिन पैदल नहीं जा सकता। बाकी दो घर जाना चाहते हैं, लेकिन पैदल वही निकलता है जिसकी ज़िन्दगी दांव पर लगी है। समाज के ये तीन संस्तर भी हैं। तीन वर्ग कह लीजिए।
मुश्किल वक्त में चीजें ब्लैक एंड व्हाइट हो जाती हैं। प्राथमिकताएं साफ़। वर्गों की पहचान संकटग्रस्त समाज में ही हो पाती है। अगर मेरे पास किसी को कहीं से कहीं पहुंचवाने का सामर्थ्य होता तो सबसे पहले मैं पैदल मजदूर को उठाता। उससे फारिग होने के बाद भले नेता को। अंत में मध्यमवर्गीय दंपत्ति को। इस हिसाब से संकट के प्रसार की दिशा को समझिए। सबसे पहले गरीब मरेगा। उसके बाद गरीबों के बारे में सोचने वाले। सबसे अंत में मरेंगे वे, जिन्हें अपने कम्फर्ट से मतलब है। ये शायद न भी मरें, बचे रह जाएं।
सबसे अंतिम कड़ी की सामाजिक उदासीनता ही बाकी सभी संकटों को परिभाषित करती है – जिसे हम महान मिडिल क्लास कहते हैं। ये वर्ग अपने आप में समस्या है। दुनिया को ये कभी नहीं बचाएगा। कफ़न ओढ़ कर अपना मज़ार देखने का ये आदी हो चुका है। दुनिया बचेगी तो गरीब के जीवट से और एलीट की करुणा से। क्लास स्ट्रगल की थिअरी में इसे कैसे आर्टिकुलेट किया जाए, ये भी अपने आप में विचित्र भारतीय समस्या है।
25.03.2020
आज बहुत लोगों से फोन पर बात हुई। चौथा दिन है बंदी का, लग रहा है कि लोग हांफना शुरू कर चुके हैं। अचानक मिली छुट्टी वाला शुरुआती उत्साह छीज रहा है। चेहरे पर हवा उड़ने लगी है। कितना नेटफ्लिक्स देखें, कितना फेसबुक करें, कितना फोन पर एक ही चीज के बारे में बात करें, कितनी अफ़वाह फैलाएं वॉट्सएप से? कायदे से चार दिन एक जगह नहीं टिक पा रहे हैं लोग, चकरघिन्नी बने हुए हैं जैसे सबके पैर में चक्र हो। ये सब समाज में अस्वस्थता के लक्षण हैं। अस्वस्थ समाज लाला का जिन्न होता है, हुकुम के बगैर जी नहीं सकता।
स्वस्थ समाज, स्वस्थ आदमी, मने स्व में स्थित। स्व में जो स्थित है, उसे गति नहीं पकड़ती। गति को वह अपनी मर्ज़ी से पकड़ता है। गति में भी स्थिर रहता है। अब सारी अवस्थिति, सारी चेतना हमारी, बाहर की ओर लक्षित रही इतने साल। हमने शतरंज खेलना छोड़ दिया। हॉकी को कौन पूछे, खुद हॉकी वाले छोटे छोटे पास देने की पारंपरिक कला भूल गए। क्रिकेट पर ट्वेंटी ट्वेंटी का कब्ज़ा हो गया। घर में अंत्याक्षरी खेले कितनों को कितने बरस हुए? किताब पढ़ना भूल जाइए ट्विटर के दौर में, उतना श्रम पैसा मिलने पर भी लोग न करें। खाली बैठ कर सोचना भी एक काम है, लेकिन ऐसा कहने वाला आज पागल करार दिया जाएगा।
ये इक्कीस दिन आर्थिक और सामाजिक रूप से भले विनाशक साबित हों, लेकिन सांस्कृतिक स्तर पर इसका असर बुनियादी और दीर्घकालिक होगा। बीते पच्चीस साल में मनुष्य से कंज्यूमर बने लोगों की विकृत सांस्कृतिकता, आधुनिकता के कई अंधेरे पहलू सामने आएंगे। कुछ लोग शायद ठहर जाएं। अदृश्य गुलामियों को पहचान जाएं। रुक कर सोचें, क्या पाया, क्या खोया। बाकी ज़्यादातर मध्यवर्ग एक पक चुके नासूर की तरह फूटेगा क्योंकि संस्कृति के मोर्चे पर जिन्हें काम करना था, वे सब के सब राजनीतिक हो गए हैं। जो कुसंस्कृति के वाहक थे, वे संस्कार सिखा रहे हैं।
गाड़ी का स्टीयरिंग बहुत पहले दाहिने हाथ आ गया था, दिक्कत ये है कि चालक कच्चा है। उसने गाड़ी बैकगियर में लगा दी है और रियर व्यू मिरर फूटा हुआ है। सवारी बेसब्र है। उसे रोमांच चाहिए। इस गाड़ी का लड़ना तय है। तीन हफ्ते की नाकाबंदी में ऐक्सिडेंट होगा। सवारी के सिर से खून नहीं निकलेगा। मूर्खता, पाखंड, जड़ता का गाढ़ा मवाद निकलेगा। भेजा खुलकर बिखर जाएगा सरेराह। जिस दिन कर्फ्यू टूटेगा, स्वच्छता अभियान वाले उस सुबह मगज बंटोर के ले जाएंगे और रिप्रोग्राम कर देंगे। एक बार फिर हम गुलामियों को स्वतंत्रता के रूप में परिभाषित कर के रेत में सिर गड़ा लेंगे।
25.03.2020
मेरा दोस्त मकनपुर रोड को खारदुंगला पास कहता है। आज प्रधान जी के ऐलान के बाद पहली बार उसके कहे का अहसास हुआ। पैदल तो पैदल, गाड़ीवाले भी भाक्काटे के मूड में लहरा रहे थे। पहला नज़ारा गली में पतंजलि और श्रीश्री की ज्वाइंट दुकान। बंटोरा बंटोरी चल रही थी। सामने परचून वाले के यहां जनता का शटर लगा हुआ था, कुछ नहीं दिख रहा था। मदर डेयरी के बाहर कोई तीसेक लोगों की कतार। सब्ज़ी वाला हलवाई बन चुका था, बचे खुचे प्याज और टमाटर गुलाबजामुन हो गए थे और इंसान मक्खी। प्याज पर जब हमला हुआ तो खुद दुकान के भीतर से एक आदमी आकर छिलके में से कुछ चुनने लगा। मैंने तरेरा, तो बोला – घरे भी ले जाना है न!
आज पहली बार पता चला कि केवल त्यागीजी की चक्की का आटा लोग यहां नहीं खाते। दो लोकप्रिय विकल्प और हैं। मैं दूसरी चक्की में नंबर लगवा के निकल लिया। लौटने के बाद भी आटा मिलने में पंद्रह मिनट लगा। चीनी गायब थी। नमक गायब। चावल लहरा चुका था। तेल फिसल गया था। एक जगह नमक मांगा। बोला पैंतीस वाला है। जब सत्ताईस का आटा अड़तीस में लिया, तो नमक से कैसी नमक हरामी। तुरंत दबा लिया। एटीएम खाली हो चुका था, कैश क्रंच है। ग्रोफर वाले ने ऑर्डर डिलिवरी को मीयाद अब बढ़ा कर 6 अप्रैल कर दी है। सोचा लगे हाथ मैगी के पैकेट दबा दिए जाएं।
एक दुकान पर पूरी शेल्फ पीली नज़र आती थी। दशकों का अनुभव है, आंख से सूंघ लिया मैंने कि मैगी है। मैंने कहा – अंकल, दस पैकेट दस वाले। अंकल ने बारह वाले पांच पकड़ाए और बोले – बस! मैंने पांच और की ज़िच की। उन्होंने समझाया – बेटे, और लोग भी हैं, सब थोड़ा थोड़ा खाएं, क्या हर्ज़ है! अंकल लाहौर से आए थे आज़ादी के ज़माने में, शायद तकसीम का मंज़र उन्हें याद हो। वरना ऐसी बातें आजकल कहां सुनने को मिलती हैं। जिस बदहवासी में लोग सड़कों पर निकले थे, ऐसी बात कहने वाले का लिंच होना बदा था। क्या जाने हो ही जाए ऐसा कुछ, अभी तो पूरे इक्कीस दिन बाकी हैं।
24.03.2020
आधी रात जा चुकी। आधी बच रही है। घर में दो दिन बंद हुए भारी पड़ रहे हैं पड़ोसी को। इस वक़्त चिल्ला रहा है। बीवी को चुप करा रहा है। परसों मेरे ऊपर वाले फ्लैट में विदेश से कुछ लोग वापस लौटे और ट्रक में सामान लोड करवाने लगे। कल बचा हुआ सामान लेने आए थे, कि पुलिस बुला ली गई। खबर फैली कि लोग इटली से आए थे। असामाजिक सोसायटियों में नेतागिरी के नए ठौर RWA के सदस्यों को चिल्लाने का बहाना मिल गया। मीटिंग जमी। बगल वाली सोसायटी में कोई दुबई से आया था, वहां भी पुलिस अाई।
लोगों को अपनी पॉवर दिखाने का नया बहाना मिला है। जनता पहली बार जनता के लिए पुलिस बुलवा रही है। दिल्ली पुलिस बरसों से कह रही है, हमारे आंख कान बनो। मौका अब आया है। एक मित्र बता रहे थे कि शहर से जो गांव जा रहा है, गांव वाले उसकी रिपोर्ट थाने में दे रहे हैं। मित्र नवीन के लिए पुलिस नहीं बुलवानी पड़ी, उन्हें रास्ते में ही पुलिसवालों ने पीट दिया। एक वायरस ने यहां पुलिस स्टेट को न सिर्फ और मजबूत बना दिया है, बल्कि स्वीकार्य भी। सड़क पर कोई कुचल जाता है तो लोग मुंह फेर कर निकल लेते हैं। अब कोई खांस दे रहा है तो लोग सौ नंबर दबा दे रहे हैं।
समय बदल चुका है। यह बात झूठी है कि बाढ़ आती है तो सांप और नेवला एक पेड़ पर चढ़ जाते हैं। हर बाढ़ सांप को और ज़हरीला बनाती है, नेक्लों को और कटहा। अनुभव बताते हैं कि अकाल के दौर में मनुष्य नरभक्षी हुआ है। चिंपांज़ी पर पावलोव का प्रयोग सौ साल पहले यही सिखा गया है। जिन्हें लगता है कि नवउदारवाद की नींव कमजोर पड़ रही है, वे गलती पर हैं। यह नवउदारवाद का पोस्ट कैपिटलिस्ट यानी उत्तर पूंजीवादी संक्रमण है जहां पूंजीवाद और लोकतंत्र के बुनियादी आदर्श भी फेल हो जाने हैं। आदमी के आदमी बचने की गुंजाइश खत्म होती दिखती है गोकि आदमी की औकात एक अदद वायरस ने नाप दी है।
22.03.2020
शाम से बिलकुल तस्कर टाइप फील हो रहा है।
दो दिन पहले रजनी तुलसी का स्टॉक भरने का ख़याल आया था। आश्वासन मिला कि ज़रूरत नहीं है, सब मिलेगा, यहीं मिलेगा। मैंने चेताया कि बॉस, कर्फ्यू है, घंटा मिलेगा। जवाब मिला, जनता का कर्फ्यू है, स्वेच्छा का मामला है, दिक्कत नहीं होगी। शाम को जब स्टॉक खत्म हुआ, तो दैनिक सहजता के साथ मैं चौराहे पर निकला। सब बंद था। केवल मदर डेयरी खुली थी। लगे हाथ दूध ले लिया। दूध को चबाया नहीं जा सकता यह मैं अच्छे से जानता हूं। संकट सघन था, अजब मन था। आदमी को काम पर लगाया गया। तम्बाकू की संभावना देख भीड़ जुट गयी। इसी बीच किसी ने मुखबिरी कर दी।
इसके बाद की कहानी इतिहास है। आगे पीछे से हूटर बजाती पुलिस की जीपों और पुलिस मित्र जनता की निगहबानी के बीच एक डब्बा रजनी और दो ज़िपर तुलसी मैंने पार कर दी। इमरजेंसी के बीच गांजे का जुगाड़ करने मित्र के यहां गए कानपुर के उस नेता की याद बरबस हो आयी जो विजया भाव से लौटते वक्त बीच में धरा गये थे और आज तक आपातकाल के स्वतंत्रता सेनानी की पेंशन समाजवादी पार्टी से पाते हैं।
तस्करी के माल का रस ले लेकर तब से सोच रहा हूं, काश यह संवैधानिक इमरजेंसी होती। मोदीजी भी न! राफेल से लेकर कर्फ्यू तक, हर काम off the shelf करते हैं!
22.03.2020
कम से कम छह किस्म की चिड़ियों की आवाज़ आ रही है।
कबूतर सांस ले रहे हैं, गोया हांफ रहे हों। तोते फर्र फुर्र करते हुए टें टें मचाये हुए हैं। एक झींगुरनुमा आवाज़ है, तो एक चुकचुकहवा जैसी। एक चिड़िया सीटी बजा रही है। दूसरी ट्वीट ट्वीट कर रही है। इसी कोरस में कहीं से चियांओ चियांओ, कभी कभी टिल्ल टिल्ल टाइप ध्वनि भी पकड़ में आती है। पूरा मोहल्ला अजायबघर हुआ पड़ा है।
अकेले कुत्ते हैं जो सदियों बाद धरती पर अपने सबसे अच्छे दोस्त मनुष्य की गैर-मौजूदगी से हैरान परेशान हैं। उनसे बोला भी नहीं जा रहा। वे आसमान की ओर देख कर कूंकते हैं, फिर कंक्रीट पर लोटते हुए चारों टांगें अंतरिक्ष में फेंक देते हैं। कुछ दूर दौड़ कर पार्क के गेट तक आते हैं। ताला बंद पाकर वापस गली में पहुंच जाते हैं। दाएं बाएं बालकनियों को निहारते हैं। रेंगनियों पर केवल सूखते कपड़े नज़र आते हैं।
इंसान अपने पिंजरे में कैद है। जानवरों से दुनिया आबाद है। ये सन्नाटा नहीं, किसी अज़ाब के गिरने की आहट है।
20.03.2020
पढ़ाई के बाद जब नौकरी करने का समय था, तब किसी ने नौकरी में चैन से टिकने नहीं दिया। मजबूरी में दस साल वर्क फ्रॉम होम करना पड़ा, तब किसी ने नौकरी का ऑफर नहीं दिया। अब किसी तरह बैठने का एक ठीहा मिला है और नौकरी जैसा सुखद अहसास भीतर उतरा है, तो साले दफ्तर बंद करवा रहे हैं और घर से काम करने को कह रहे हैं। जुम्मा जुम्मा चार दिन हुआ दफ्तर जाते, ज़माना दुश्मन हो गया है।
कोरोना दूसरों के लिए वायरस होगा। मेरे लिए विशुद्ध पर्सनल मामला है।

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जनपथ का चौकीदार

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4 Comments on “Corona Diaries: चौदह दिन का घरवास”

  1. एक जगह एक साथ लगाकर बढ़िया किया आपने । अब ये दस्तावेज हो गया है।

  2. अग्रज नित्यानंद भाई ने ठीक कहा कि ये अब एक दस्तावेज हो गया।
    अभिषेक भाई की ये याददाश्तें इस दौर को बाद इस दौर के समझने को बेहद अहम हो जाएंगी।❤️❤️❤️

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