बात बोलेगी: सब कुछ याद रखे जाने का साल


ल्यूनर कैलेंडर के मुताबिक एक दिन में 24 घंटे होते हैं और एक साल में 365 दिन। यह पूर्णांक का साल था जिसे ‘लीप इयर’ भी कहते हैं, तो इसमें एक दिन बेशी था। यानी 2020 के साल में 366 दिन थे। ये 366 दिन कई घटनाओं, बातों, मुद्दों, उपलब्धियों, नाकामियों, आशाओं-निराशाओं, संघर्षों और उत्पीड़नों के लिए याद रखा जाएगा। इस साल का अगर एक सूत्रवाक्य पकड़ना चाहें तो वो यही रहा कि ‘सब याद रखा जाएगा’। यह याद रखे जाने का जो नारा देश की नौजवान पीढ़ी ने बीते जाड़ों में लगाया था वो बीते हुए समय को आने वाले समय में दर्ज़ करने का एक उत्साहजनक दृढ़ निश्चय था। इस निश्चय की गूंज इतनी शक्तिशाली थी जिससे देश का मौजूदा निज़ाम बुरी तरह घबराता है।

इस निश्चय में दुख था, तकलीफ थी, दर्द था, निराशा भी थी और हताशा भी थी, लेकिन इसका मूल स्वर उस सृजनात्मक बेचैनी का था जिसे कवियों और साहित्यिकों की संगत में प्रसव पीड़ा के समान माना जाता है। यानी ये दर्द, ये तकलीफ़, कुछ रचने की उत्कट अभिलाषा से प्रेरित थी। अपने समय की उदासी भविष्य के लिए कुछ बेहतर रचने का माध्यम बन रही थी।

बात बोलेगी: जो सीढ़ी ऊपर जाती है, वही सीढ़ी नीचे भी आती है!

यह नारा रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या से होते हुए जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं के उत्पीड़न के रास्ते जामिया मिलिया इस्लामिया के विद्यार्थियों पर हुए सांस्थानिक साम्प्रदायिक दमन से उपजी पीड़ा व आक्रोश को समेटते हुए नागरिकता कानून की मुखालफ़त में उतरी महिलाओं, युवतियों और युवाओं के संघर्ष और दमन पर आकर मुकम्मल हुआ। तमाम दमन और उत्पीड़न के बावजूद इस नारे में भविष्य के लिए एक आश्वस्ति मिली कि भविष्य बेहतर होगा क्योंकि इस दमन को याद रखा जाएगा और उसका हिसाब लिया जाएगा और इस निज़ाम के बाद ऐसा निज़ाम नमूदार होगा जो इस दमन और उत्पीड़न को दोहराने की ज़ुर्रत नहीं करेगा।

बीतता हुआ यह साल इस ‘याद रखे जाने के बेचैन संकल्प’ के लिए भी याद रखा जाएगा, बल्कि इसलिए ही याद रखा जाएगा।

जब यह साल याद रखे जाने के निश्चय के लिए याद रखा जा रहा होगा, तब बहुत कुछ और भी है जो याद रखा जाएगा। यह ऐसी स्मृति होगी जो आने वाली कई पीढ़ियों के साथ ताउम्र चलेगी। दूसरे मामलों में शायद इस बीतते साल की स्मृतियाँ कुछ कमजोर भी पड़तीं पर महामारी के नाम से दुनिया में आए कोरोना वायरस ने इसे ‘असामान्य’ साल बना दिया।

दुनिया के ज़्यादातर देशों ने कोरोना को एक संक्रामक बीमारी मानते हुए इससे अपने नागरिकों के जीवन को बचाने, उनकी तकलीफ़ों को कम करने के जतन किए। शायद इस कारण से उन देशों के नागरिक कोरोना को याद रखते हुए उन इंतज़ामों को भी याद रखेंगे जो उनकी सरकारों ने किए, लेकिन हमारे देश में कोरोना से ज़्यादा यह साल इसके बहाने आपदा में पैदा किए अवसरों के लिए याद रखा जाएगा। इस साल को ‘’आपदा में अवसर’’ जैसी निकृष्टम मनोवृत्ति बल्कि मनोविकार के लिए भी याद रखा जाएगा। अगर ‘सब याद रखा जाएगा’ इस बीतते साल का एक जुझारू और निश्चयात्मक स्वर रहा, तो ‘आपदा में अवसर’ शवक्रीड़ा जैसा विकृत और अमानवीय अट्टहास भी रहा। एक शैतान, जो पूँजीपतियों के धन के बल पर बहुमत हासिल करते हुए लोगों की गरिमा, उनके स्वाभिमान को अपने पंजों से कुचलते हुए आगे बढ़ता गया। यह साल उसके और आगे बढ़ने की शैतानी चेष्टाओं का भी साल रहा।

इन दो विपरीत बातों के साथ-साथ यह साल आत्म-हीन हो चुके उस व्यापक समाज के लिए भी याद रखा जाएगा जिसने बेचैन निश्चय के बजाय विकृत अट्टहास को चुना। उसका पक्ष लिया। उत्पीड़ितों का मखौल बनाया और निज़ाम के स्वर में अपना कोरस मिलाया। यह साल निष्पक्षताओं के लिए नहीं, तटस्‍थताओं के लिए भी नहीं, बल्कि ताक़त के सामने आत्म-हीन हो जाने के लिए याद रखा जाएगा।

बात बोलेगी: मानवीय त्रासदी में स्थितप्रज्ञ व संवेदनहीन लोक के शास्त्रीय बीज

जब छात्र सड़कों पर, कैम्पसों में, थानों में पिट रहे थे तब यह बहुसंख्यकों के मज़हब का व्यापक समाज उन्हें आतंकवादी, अलगाववादी, टुकड़े टुकड़े गैंग, करार दे रहा था। जब मुस्लिम महिलाएं सर्द रातों में शाहीनबाग रच रही थीं तब यह बड़ा तबका उनको चरित्र प्रमाणपत्र बाँट रहा था। जब तबलीग के लोगों को कोरोना का संवाहक बना दिया गया तब यही तबका अपनी-अपनी कॉलोनियों से मुसलमानों को सब्जी भाजी बेचने से रोक रहा था, उनकी शिनाख्त की पड़ताल कर रहा था और उन्हें गलियों में घुसने पर अपराधी बना रहा था। यह महज़ कोरोना के संक्रमण का खौफ नहीं था बल्कि नफरत का वो वायरस बाहर निकल रहा था जो वर्षों से इनके मन मानस में बोया गया था और इस मौके पर जिसे सत्ता से भरपूर संरक्षण मिला हुआ था।

यह बंददिमाग बहुसंख्यक आबादी जो अपने दुख को महसूस करने की काबिलियत खो चुकी है बल्कि अपने दुख को गर्व में बदलने के लिए उत्पीड़ितों को ही प्रताडि़त करने की सत्ता-पोषित विधियां सीख चुकी है, इस साल को कैसे याद रखेगी? संभव है कि उन्हें कभी किसी रोज़ अपने किए पर पछतावा हो, संभव है कि वो इस नफरत की तिजारत को समझ पाएं, अपने हो चुके इस्तेमाल को लेकर थोड़ा लज्जित महसूस करें या संभव है कि वो और भी विकराल रूप धारण करें?

इस जाते हुए साल ने भी यह तो सबक दिया ही है कि अगला नंबर किसी का भी हो सकता है। इस ‘किसी’ में सब शामिल हैं। पहले वह विद्यार्थियों के लिए आए, फिर दलितों के लिए आए, मुसलमानों के लिए तो हमेशा से आते रहे, फिर महिलाओं के लिए आए जो भी नए शिकार नहीं थे, फिर नौकरी वालों के लिए आए, फिर मजदूरों के लिए आए, व्यापारियों के लिए आए, किसानों के लिए आए, पेंशनधारियों के लिए आए, युवाओं के लिए आए, विपक्षियों के लिए आए, लेखकों के लिए आए, पत्रकारों के लिए आए…।

फेहरिस्त बढ़ाते जाइए, वो सब किसी के लिए आए और अंतत: एक बात मार्टिन निमोलर की मशहूर कविता के मुताबिक रही कि जब वो किसी एक लिए आए तब दूसरा जो उस समय तक खुद को सुरक्षित मान रहा था,  उसे बचाने आगे नहीं आया और जब वो उसके लिए आए जो किसी के लिए नहीं खड़ा हुआ तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी। उसे बचाने के लिए कोई आ ही नहीं सकता था क्योंकि तब तक कोई बचा नहीं था।

यह साल इस बात के लिए भी याद रखा जाएगा एक समय तक सब एक दूसरे को पि‍टते हुए देखते रहे और कोई किसी को बचाने के लिए आगे नहीं आया।

बात बोलेगी: ‘लोया हो जाने’ का भय और चुनी हुई चुप्पियों का साम्राज्य

वर्ष का आगाज और इसकी रवानी भले ही ऐसी रही हो लेकिन इसका पटाक्षेप कुछ अलग हो रहा है। बीतते हुए साल का अंजाम सब याद रखे जाने के उस निश्चय को लाखों कंठ से नारों में बदलता हुआ दिखलायी पड़ रहा है। जाते-जाते यह साल किसान आंदोलन की सशक्त धमक देकर जा रहा है जो निज़ाम के किए गए तमाम धतकर्मों पर से ताकत और उसके गुरूर का तिलिस्म तोड़ने का सशक्त माध्यम बन रहा है। छह साल के लगभग निरंकुश हो चले इस निज़ाम का साबका अब उनसे पड़ा है जिन्होंने अपनी तमाम पहचानें छोड़ कर महज़ किसान हो जाना स्वीकार किया है।

किसान आंदोलन, लोकतन्त्र की उस खोयी ज़मीन पर पुनर्दखल करते हुए दिखलायी पड़ रहा है जिसके बारे में इसी साल में दो अतिवादी नज़रिये सामने आए। सत्ता पक्ष के एक प्रभावशाली व्यक्ति ने जिसे ‘टू मच डेमोक्रेसी’ कहा तो वहीं विपक्ष की सबसे मजबूत आवाज़ ने उसे ‘कल्पना मात्र में शेष रह गया’ बतलाया। किसान आंदोलन इन दो छोरों पर खिंची रस्सी के तनाव पर चल रहा है। यह तनाव सृजन का तनाव हो, ऐसी कामना करने वालों की तादाद में बढ़ोतरी हो रही है क्योंकि रफ्ता-रफ्ता ही सही लोगों को अब यह समझ में आने लगा है कि अब इस निज़ाम की बजायी गयी एक भी ताली उसे और निरंकुश बना देगी। शायद इसीलिए फेंस के इस और उस पार के लोग एक सरल रेखा पर आते दिखलायी दे रहे हैं।

बात बोलेगी: अब मामला उघाड़ने और मनवाने से नाथ घालने तक आ चुका है!

पढ़े-लिखों में वैज्ञानिक चेतना से लैस अंधविश्वास जैसी उलटबांसी को व्यवहार में उतारने और उसका खुला मुजाहिरा करने के लिए भी इस जाते हुए साल को याद रखा जाएगा और भेदभाव को वैज्ञानिक रूप से संस्थागत किए जाने में इस उलटबांसी ने महती भूमिका निभायी है। भेदभाव अगर इस साल के पहले तक एक सामाजिक बुराई थी तो इस साल ने उसे ‘सामाजिक दूरी’ के नाम पर वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित सतर्कता में बदला और इसे आम स्वीकृति दिलायी।

यह साल कई और बातों के लिए याद रखा जाएगा, जिसके लिए इस पूरे सप्ताह लिखे जा रहे तमाम अच्छे लेखों का संग्रहण किया जाना चाहिए।



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