बात बोलेगी: स्मृतियाँ जब हिसाब मांगेंगीं…


एक ज़िंदगी कई घटनाओं का बेतरतीब संकलन होती है। हर रोज़ कुछ घटता है। उस घटने को लोग देखते हैं, महसूस करते हैं, उसके अच्छे-बुरे परिणाम भुगतते हैं। घटनाएँ बीत जाती हैं। उनकी बातें रह जाती हैं। घटना के घटने से पहले भी बातें होती हैं, उसके घटते समय भी बातें होती हैं और उन घटनाओं के बीत जाने के बाद भी बातें होती हैं।

अगली पीढ़ी को घटनाएँ नहीं, घटनाओं की बातें हस्तांतरित हो जाती हैं। हर घटना ज़हन में ही नहीं बची रहती बल्कि वह धीरे- धीरे समूहिक स्मृति के कोष में चली जाती है। लोग अपने अपने अनुभवों को सामूहिक स्मृति के हवाले कर देते हैं फिर बीत चुकी घटना को एक साथ याद करने लगते हैं। बातों में।

बीते 70-75 दिनों में जैसे घटनाओं का बड़े पैमाने पर उत्पादन इस देश की फैक्ट्री में होना शुरू हो गया है। ऐसा लगता है देश का मूल स्वभाव घड़ी की सुइयों से आगे निकल जाने की होड़ में तब्दील हुआ जाता है।

अगस्त में कश्मीर की पृष्ठभूमि में, अयोध्या, नागरिकता, जेएनयू, जामिया, शाहीनबाग, दिल्ली चुनाव, केम छो ट्रम्प, मध्य प्रदेश, दिल्ली में एकतरफा हिंसा; फिर कोरोना जिससे निपटने के लिए 60 दिन का सम्पूर्ण देशबंद, सड़कों पर प्रवासी मजदूर, तबलीगी जमात, केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा जारी लगभग 4 हज़ार अधिसूचनाएं राहत पैकेज, नौकरियां जाना; नेपाल के हौसले, चीन का बलात अतिक्रमण, ट्रम्प का मोदी को ट्विटर पर फॉलो करना, फिर अनफॉलो कर देना; ज्योति कुमारी की वीरता के किस्से, सोनू सूद की दयालुता के कसीदे; अहमदाबाद में संक्रमण के मामले बढ़ना, फिर अचानक थम सा जाना, उद्धव ठाकरे का मुख्यमंत्री बने रह पाना; ओडिशा, बंगाल में अंफन, महाराष्ट्र में निसर्ग, रेलों का रास्ता भटकना, ट्रेनों से लाशों का निकलना; दिल्ली में लगातार भूकंप, दिल्ली में अस्पतालों में बिस्तरों की कमी, दिल्ली केवल दिल्ली वालों की जैसा बेतुका फ़रमान फिर उस फ़रमान की वापसी; इस बीच फिर भव्य मंदिर का निर्माण शुरू होना और अब भाजपा का चुनावी बिगुल। इस बीच दाऊद इब्राहिम की बहुप्रतीक्षित मौत की सच्ची-झूठी खबरें…ये महज़ कुछ हैं। इनमें निजी ज़िंदगियों के तजुर्बे शामिल हैं नहीं।

पिछले 10 महीनों में घटी ये महज़ कुछ ऐसी घटनाएँ हैं जिनका हमारी सामूहिक स्मृति के निर्माण में ठोस महत्व रहने वाला है। संभव है क्रम बदलता रहे। लोग अपने-अपने महत्व की घटना पर ही बात करें। इनमें विकट बेतरतीबी हो सकती है लेकिन जब ये स्मृति कोष में जमा होती हैं तो एक क्रम भी पा जाती हैं।

इनके बीच संभव है अभी कोई स्पष्ट क्रम न भी दिखे लेकिन जब इनका ज़िक्र बातों में होगा तो इन्हें मुकम्मल तौर पर क्रमबद्ध तरीके से याद किया जाएगा।

इन्हें याद किया जाएगा जब हिसाब मांगा जाएगा। स्मृतियाँ अपने बीते समय का हिसाब मांगती हैं। जवाबदेही तय करती हैं। वह  बीत चुके समय से हिसाब मांगती हैं और उस समय की सत्ता से भी हिसाब मांगती हैं। जितनी घटनाएँ ऊपर लिखी गईं उनमें एक बात कॉमन है और वो है… सारी घटनाओं का सत्ता से संचालित होना (चंद प्राकृतिक घटनाओं को छोड़कर)।

सब कुछ सत्ता-जनित है। इनके हानि-लाभ सत्ता के हानि-लाभ हैं। इनमें छुपे शुभ-अशुभ सत्ता के शुभ-अशुभ हैं। इनका सारा अछा-बुरा, सत्ता का अच्छा–बुरा है। इसलिए स्मृतियों को गुमराह किया जाना आज सत्ता का सबसे बड़ा औज़ार बना हुआ है। इस तेज़ भागती दुनिया में इंसान की नज़र एक जगह न टिकने देने के सारे उद्यम तकनीकी के सहारे किये जा रहे हैं। वो इसलिए ही तो ताकि इंसान को भ्रम हो जाये। वो ठीक ठीक किसी घटना को उसकी तीव्रता में याद न रख पाये। घटना याद रह जाये पर उसके दर्दनाक ब्यौरे भुला दिये जाएँ।  

शिकारियों के कई किस्से पढ़े हैं, जिनमें शिकार को दौड़ा-दौड़ा कर थका दिया जाता है। चारों तरफ से शिकारियों द्वारा उसे दौड़ाया जाता है। उसे भ्रमित और बेतहाशा कनफ्यूज़ कर दिया जाता है। जब शिकार थक हार कर कहीं सुस्ताने बैठ जाता है तो उसे आसानी से पकड़ लिया जाता है।

यहाँ शिकार हिंदुस्तान है लेकिन थकाया उसे स्मृतियों के घालमेल से जा रहा है। क्या-क्या और कैसे-कैसे याद रखोगे? कितना याद रखोगे? नोटबंदी याद रह गयी क्या? देशबंदी भी भुला दी जाएगी। ऐसे ऐसे मंज़र तुम्हारे सामने लाएंगे कि इस मृत्युलोक की अधिकतम विभीषिका और उसके वीभत्स रूप को देखने की ललक बढ़ती जाएगी। दिल-दिमाग सैकर कर दिया जाएगा विद्रूपताओं को देखने के लिए।

दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी, पूरे बहुमत से सत्ता में बैठी पार्टी, कोरोना और अर्थव्यवस्था से निपटने में पूरी तरह असफल पार्टी ऐसे समय में अपना ध्यान चुनावी रैलियों पर लगा रही है जब मानवता कराह रही है। यह आपको अधिकतम विद्रूपता लग सकती है लेकिन पिक्चर अभी भी बाकी है। ऐसी कितनी ही अश्लील हरकतें ये पार्टी करती जाएगी और आप बीत चुकी इस अधिकतम विद्रूपता को भूल जाएंगे।

अपनी गलती को हल्के ढंग से चलते चलाते मानते हुए ये पूछना कि विपक्ष ने क्या किया? आपको अपने समय की सबसे बड़ी क्रूरता नहीं लगती? लेकिन इंतज़ार कीजिए। अभी ऐसे बहुत मंज़र आएंगे। आप कनफ्यूज़ कर दिये जाएंगे। थका दिये जाएंगे। पागल करार दे दिये जाएंगे। जब कहीं सुस्ताने बैठेंगे तो गरीब कल्याण के जाल में फांस लिए जाएंगे।

आत्मनिर्भर बताकर आपसे कुलांचें भरवा देंगे। आपको नागरिक से हितग्राही या लाभार्थी में बदल दिया जाएगा और आप अपनी बेतरतीब स्मृतियों का बोझ ढोते-ढोते कहीं किसी रेलवे ट्रैक पर ढेर हो जाएंगे या अस्पतालों की कतारों में खेत हो जाएंगे। आपके खेत या ढेर होने की स्मृतियाँ कुछ दिनों तक और लोगों के ज़हन में रह जाएंगी। आप खुद एक अभिशप्त स्मृति बना दिये जाएंगे।

खुद को किसी की स्मृति बना देने का छोटा सा सुख आपको मरणोपरांत मिल भी जाएगा पर जिसकी स्मृतियों में आप अभी थे उसे भी उसी तरह शिकार बना लिया जाएगा जैसा आपको बनाया था। अब जो स्मृतियाँ होंगी वो विराट नहीं होंगी। तकलीफ़ों की यादें तकलीफ़ें ही होती हैं।

कोई विराट, भव्य, सुंदर सपना दिखाने के लिए ये नाकाफी होंगी। इनसे बने यादों के नक्शे में एक सुबकता हिंदुस्तान होगा, सिकुड़ता लोकतंत्र होगा, ढहता हुआ भारत होगा और बीत जाता हुआ वैभव होगा। इन्हीं के सहारे फिर नये भारत का कोई सोता फूटेगा जो इससे बाज़ अलहदा होगा जो इस दौर के लोगों की स्मृतियों के खंडहरों में कहीं कैद होगा। स्मृतियाँ लौटेंगी जब उन्हें सुरक्षा का भरोसा मिलेगा। उन्हें ठग लिए जाने, बहका दिये जाने और शिकार हो जाने का डर नहीं होगा। तब वो हिसाब मांगेंगीं। लेकिन तब जवाबदेह मौजूद न होंगे।

और इस वक़्त सत्ता की जवाबदेही देने हमारी पेशी होगी। पूछेंगी तो वो हमसे भी कि जब मेरा इस कदर शिकार हो रहा था, विद्रूपताओं की सिल्लियाँ मेरे ऊपर फेंकी जा रहीं थीं, मेरा दम घुट रहा था, मैं सांसें नहीं ले पा रही थी तब तुम कहाँ थे? अमेरिका के साथी यहाँ बरी कर दिये जाएंगे क्योंकि वे तब सवाल पूछ रहे थे। स्मृतियों को तहखाने में फेंक दिये जाने से पहले उन्हें वे पूरे एहतराम व इत्मीनान से जी रहे थे। लेकिन हम?

हम कुछ नहीं कह पाएंगे…. हमारे खाते में बस एक शब्द बचेगा- अफ़सोस!


लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं

कवर तस्वीर फर्स्टपोस्ट से साभार ली गयी है, जिसका विवरण निम्न हैः The painting for 29 March 2020, part of the ‘Painting in the time of corona’ series by Dhruvi Acharya.


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5 Comments on “बात बोलेगी: स्मृतियाँ जब हिसाब मांगेंगीं…”

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